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Apr 27, 2009

हमने अपनी धरती को कचरे का डब्बा बना दिया

हमने अपनी धरती को 
कचरे का डब्बा बना दिया
- कुमुदिनी खिचरिया

मुझे बहुत गुस्सा आता अपने उन देशवासियों पर जो अपने शहर, मोहल्ले, अस्पताल, सरकारी दफ्तर, स्कूल कालेज, पिकनिक स्पाट, सड़क, नदी, पहाड़ जो हमारे देश की शान है, हमारा सम्मान है, को कचरे का डब्बा समझते हैं।
हम सब अपने भारतवासी होने में बहुत गर्व करते हैं और करना भी चाहिए। देश पर जब मुसीबत आती है तब उस मुश्किल घड़ी में हम सब एक होकर लडऩे- मरने के लिए तैयार हो जाते हैं। यह हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि ऐसे समय में प्रत्येक भारतवासी के दिल में देश प्रेम का जज्बा जाग उठता है। यह बहुत अच्छी बात है कि हम अपनी धरती अपनी मां के लिए हमेशा मर मिटने के लिए तैयार रहते हैं, परंतु दूसरी ओर हम यह भी देखते हैं किय यह एकता, यह प्यार सिर्फ लड़ाई, दंगे और प्राकृतिक विपदा के समय ही दिखाई देता है।
मुझे बहुत गुस्सा आता अपने उन देशवासियों पर जो अपने शहर, मोहल्ले, अस्पताल, सरकारी दफ्तर, स्कूल कालेज, पिकनिक स्पाट, सड़क, नदी, पहाड़ जो हमारे देश की शान हैं, हमारा सम्मान है, को कचरे का डब्बा समझते हैं।
अब आप सोचेंगे कि मैं अचानक देश प्रेम की बात करते-करते कचरे जैसे मुद्दे पर कैसे उतर आई। पर सच तो ये है कि मेरा देश प्रेम इसी विषय को लेकर है। क्योंकि जिस देश में हम रहते हैं वह आज कचरे का डब्बा ही तो बनते जा रहा हैं। आप बाजार में जा रहे हैं, बस में, ट्रेन में सफर कर रहे हैं, पर्यटन स्थल में घूम रहे हैं, आपने देखा ही होगा कि आपके चारो तरफ तंबाकू, गुटका, पानी के पाऊच, और न जाने किस-किस तरह के प्लास्टिक रैपर पड़े हुए नजर आते हैं। सबसे अधिक दुख की बात तो यह है कि यह सारा कचरा और कोई नहीं हम और आप ही फेंकते हैं।
मैं पूछना चाहती हूं क्या आप घर पर भी ऐसा ही करते हैं? मुझे गुस्सा आता है ऐसी गृहणियों पर जो घर को तो शीशे सा साफ रखती हैं, बच्चे यदि घर पर कचरा करे तो उन्हें डाटती हैं, लेकिन वही गृहणी जब घर से बाहर घूमने निकलती है, पिकनिक पर जाती हैं तो पूरा कचरा जहां खाया वहीं छोड़कर चली आती हैं। इतना ही नहीं अपने बच्चों को भी ऐसा करने से नहीं रोकती। क्या यही है हमारे देश की पढ़ी- लिखी गृहणी?
मुझे अपने व्यवसाय के सिलसिले में बहुत से सरकारी दफ्तरों में जाता पड़ता है वहां का हाल देखकर तो गुस्सा नहीं बल्कि शर्म आती है अपने आप पर अपने देश के लोगों पर जो इस तरह गंदे वातावरण में आराम से आठ घंटे बैठकर काम करते हैं। हमारे शहर का तहसील आफिस जहां करोड़ों का राजस्व आता है, वहां आप चारों तरफ कचरा ही कचरा देखेंगे। वहां पंहुचते ही नाक में रूमाल रखकर सांस लेना पड़ता है, दीवारों से एक फीट दूर खड़े रहना पड़ता है क्योंकि वे पान के पीक से रंगे होते हैं, इस तरह का नजारा लगभग सभी शहरों में प्रत्येक सरकारी दफ्तरों में दिखाई देता है। यह सब देखकर हम एक दूसरे को सिर्फ कोसते रह जाते हैं न खुद सुधरते न ऐसा करने वालों को सुधारने के लिए कुछ करते।
इन सबसे मुसीबत मोल लेने के बजाय देश का एक वर्ग विशेष, जो काम प्राइवेट सेक्टर में किए जा सकते हैं वहां जाना पसंद करते हैं जैसे बैंक, अस्पताल। इसके लिए वे ज्यादा पैसे खर्च करने को भी तैयार रहते हैं। लेकिन यह तो समस्या का समाधान नहीं है। देश प्रेम का जज्बा हमें अपने देश को साफ सुथरा, प्रदूषण से मुक्त, सांस लेने लायक बना कर रखने में भी दिखाना होगा, तभी हम सच्चे देश भक्त कहलाने के हकदार बनेंगे।
मेरे अंदर गुस्सा तो बहुत भरा हुआ है फिर भी मैं नाउम्मीद नहीं हूं और मुझे विश्वास है कि हमारे देशवासी सफाई का महत्व भी जल्द ही समझेंगे और अपने घर के बाहर को भी घर की तरह साफ सुथरा रखने के बारे में सोचेंगे .....तब मैं एक और आर्टिकल लिखूंगी कि मुझे गर्व है ...

1 comment:

दीपक said...

आपने एक सही बात कही है अक्सर रेल्वे स्टेश्न मे बहुत लोगो कबाड इधर-उधर फ़ेकते मै भी देखता हुँ !! कभी मै भी फ़ेंका करता था !!मगर अब नही फ़ेकता इसलिये दुसरो से भी सुधार की उम्मीद की जा सकती है !!