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Mar 21, 2009

बेटी की पैदाइश आज भी दुःख का कारण?



भारतीय महिला वैज्ञानिकों की स्थिति अन्य विकसित और विकासशील देशों की महिला वैज्ञानिकों से बहुत अलग नहीं है। बल्कि महिला वैज्ञानिकों को जिन समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है लगभग वैसी ही परिस्थितियां अन्य भारतीय कामकाजी महिलाओं के साथ भी बनती हैं।

कुछ वर्ष पहले की बात करें तो भारतीय महिला वैज्ञानिकों की कमी का जि़क्र उनकी सालाना फोरम की बैठक में ही हुआ करता था। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से चीज़े बदल रही हैं, वह भी बेहतरी की दिशा में। वर्ष 2003 में भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी, नई दिल्ली ने भारत में विज्ञान के क्षेत्र में कार्य कर रही महिलाओं की स्थिति का पता लगाने के लिए एक समिति का गठन किया था। लगभग इसी समय इण्डियन एकेडमी ऑफ साइंस, बैंगलूर ने भी कुछ इसी तरह के व्यापक उद्देश्यों को लेकर विज्ञान में कार्यरत महिलाओं के संबंध में एक पैनल गठित किया था। यद्यपि भारतीय महिला भौतिक शास्त्रियों ने 1999 से ही अंतर्राष्ट्रीय नवाचारों में कंधे-से-कंधा मिलाकर अपनी हिस्सेदारी शुरू कर दी थी। इससे भी बहुत पहले सन् 1973 में ही इंडियन वीमेन सांइन्टिस्ट एसोसिएसन (आईडब्ल्यूएसए) की स्थापना मुम्बई में हो चुकी थी। जिसकी सदस्य संख्या 2000 से ज़्यादा है।

यह दु:खद है कि इतनी जल्दी शुरुआत हो चुकने और 2000 की सदस्य संख्या के बाबजूद आईडब्ल्यूएसए ने महिलाओं को विज्ञान के क्षेत्र में आगे लाने के लिए सक्षम दबाव समूह की तरह काम नहीं किया। स्कूल छोडऩे की ऊंची दर, विज्ञान के क्षेत्र में कुशल महिलाओं की कमी, रोजगार के कम अवसरों और तरक्की की न्यून संभावनाओं को राष्ट्रीय स्तर पर एक चिंताजनक विषय के रूप में 21वीं सदी में ही लिया गया।

इस क्षेत्र में एक बड़ा कदम उठाते हुए विज्ञान एवं टेक्नॉलॉजी मंत्रालय ने दिसम्बर 2005 विज्ञान में महिलाओं पर एक टास्क फोर्स गठित किया। इसका प्रमुख कार्य ऐसी सलाह देना था जो लैंगिक समानता लाने, महिलाओं की क्षमताओं के हो रहे नुकसान को बचाने और महिलाओं को विज्ञान एक कैरियर के रूप में अपनाने हेतु प्रोत्साहित करने में मददगार हो।
भारतीय महिला वैज्ञानिकों की स्थिति अन्य विकसित और विकासशील देशों की महिला वैज्ञानिकों से बहुत अलग नहीं है। बल्कि महिला वैज्ञानिकों को जिन समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है लगभग वैसी ही परिस्थितियां अन्य भारतीय कामकाजी महिलाओं के साथ भी बनती हैं।

भारत जैसे पितृसत्तात्मक समाजों में महिलाओं की भूमिका पुरुष के सहयोगी या अधीनस्थ की रही है। परिवार में उसका मुख्य काम अन्य लोगों की देखभाल करना और सेवा करना है, न कि पैसे कमाना। हर परिवार बालिका के आगमन पर खुशी नहीं मनाता जैसा कि वर्ष 2001 की जनगणना से प्राप्त लिंग अनुपात के आंकड़े बताते हैं। आंकड़ों के अनुसार शहरी भारत में 0- 6 वर्ष के बीच 1000 बालकों पर सिर्फ 906 बालिकाएं हैं।
अलबत्ता, शहरी मध्यम वर्गीय परिवार अपनी लड़कियों को शिक्षा दिलाने, उन्हें स्नातक और स्नातकोत्तर डिग्रियां दिलाने के प्रति उत्साहित हैं। वर्ष 2001-02 में भारतीय विश्वविद्यालयों में विज्ञान क्षेत्र में हुए कुल नामांकन का 39.4 प्रतिशत हिस्सा लड़कियों का था। लेकिन विज्ञान में उच्च शिक्षा प्राप्त करने से सामाजिक सोच नहीं बदलता। विज्ञान में एक उच्च शिक्षित मां अपने बच्चे की शिक्षा के समय उसकी अच्छी मददगार ज़रूर साबित हो सकती है लेकिन उसे इतनी स्वतंत्रता नहीं है कि अपनी उन्हीं क्षमताओं का उपयोग बाहर एक नौकरी में कर सके। ऐसे परिवारों में भी, जहां महिलाएं काम कर रही हैं और अपनी आय से परिवार की बेहतर जीवन शैली में भरपूर योगदान दे रही हैं, वहां भी उनकी आय को सिर्फ द्वितीयक आय के रूप में ही देखा जाता है। शहरी मध्यम वर्गीय भारत का आकार लगातार बढ़ता जा रहा है और ये उन्हीं परिवारों का समूह है जो विज्ञान और टेक्नॉलॉजी को सबसे ज़्यादा महिला कर्मी उपलब्ध करा रहा है।

यदि सभी शिक्षित मध्यम वर्गीय कामकाजी महिलाओं की समस्याएं एक ही सामाजिक मानसिकता की उपज हैं तो ऐसे में महिला वैज्ञानिकों को अलग से विशेष तरजीह देने की ज़रूरत बनती है क्या? मुझे लगता है कि उनके विशेष कामकाज के चलते शायद यह ज़रूरत बनती है। विज्ञान एवं टेक्नॉलॉजी के क्षेत्र में अनुसंधानकर्ता का काम एक ऐसा काम है जिसमें खोज के विषय के बारे में लगातार पढ़ते रहना पढ़ता है, चिंतन करना पड़ता है, लगातार अपने ज्ञान को उन्नत करते हुए उसे सूत्रबद्ध करना पड़ता है। इस क्षेत्र में सम्मानजनक उत्पादकता हासिल करने के लिए अत्यधिक मानसिक दबाव होता है और समय की ज़रूरत पड़ती है।

यदि विज्ञान से जुड़ी महिलाओं से 8 घण्टे के सामान्य कार्यालयीन समय की ही उम्मीद की जाए क्योंकि उसके ऊपर घर परिवार और बच्चों की जिम्मेदारियां भी हैं तो वह अपने कार्यक्षेत्र में अन्य लोगों से मिलने-जुलने व अन्य काम करने का समय नहीं निकाल पाएगी और बहुत हद तक संभावना है कि वह अपने पुरुष सहकर्मियों के बराबर सफल नहीं हो सकेगी।

यदि नौकरी मिलने के बाद भी महिला वैज्ञानिक स्वयं को और अपने नियोक्ता को कार्य संतुष्टि नहीं दे पाती तो इसमें नुकसान किसका है? वास्तव में यह सिर्फ संस्था और कर्मचारी का नहीं बल्कि समाज का भी नुकसान है क्योंकि ये महिलाएं काफी खर्च करके तैयार किए गए कार्यकर्ता दल की सदस्य हैं। सामान्यतया उनका प्रशिक्षण या तो शासकीय या शासकीय सहायता प्राप्त संस्थाओं में हुआ होता है। विज्ञान और टेक्नॉलॉजी में स्नातकोत्तर उपाधि हो या डॉक्टरेट, इसे करने वाले व्यक्ति द्वारा और प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में सरकार द्वारा काफी धन खर्च किया जाता है। और अब यदि यह महिलाकर्मी अनुत्पादक साबित हो या उसका पूरा और सही उपयोग न हो, तो यह राष्ट्रीय सम्पदा की भारी क्षति है।
क्या किया जाए?
हाल ही में यह बात देखने में आई कि विज्ञान स्नातक कोर्सेज़ में दाखिला लेने वाले लड़के और लड़कियों के अनुपात में शहरी मध्यम वर्गीय परिवारों में ज्यादा अंतर नहीं है। इनमें बहुत अधिक और दुखद अंतर सामाजिक रूप से पिछड़े लोगों में देखा जाता है जहां लड़कियों का स्कूलों में प्रवेश ही बहुत कम संख्या में हो पाता है। आगे बढऩे पर यह संख्या तो और भी निम्न स्तर तक पहुंच जाती है। इसी तरह का एक बड़ा महिला श्रम शक्ति का नुकसान डॉक्टरेट व उसके बाद देखा जा सकता है।

जीव विज्ञान की कुछ प्रतिष्ठित संस्थाओं से प्राप्त आंकड़ों से जो तस्वीर बनती है उसके अनुसार पीएचडी के लिए होने वाले कुल नामांकन में से 50 प्रतिशत महिलाएं हैं। इन संस्थाओं में फैकल्टी के रूप में लगभग 25 प्रतिशत महिलाएं कार्यरत हैं। प्राकृतिक विज्ञान की अन्य शाखाओं में भी लगभग यही आंकड़े होंगे। विज्ञान के क्षेत्र में ऊंची से ऊंची डिग्रियां लेने में आगे रहने के बावजूद केवल कुछ महिलाएं ही क्षमता के अनुरूप व्यावसायिक अवसर प्राप्त कर पाती हैं। स्थिति तब और बदतर हो जाती है जब इतना सब कुछ करने के बाबजूद बच्चों के लालन-पालन की सारी जि़म्मेदारी सिर्फ उन्हीं के सिर थोप दी जाती है। इस प्रकार भारतीय विज्ञान संगठन के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती विज्ञान में उच्च शिक्षित महिलाओं की उपलब्धता की नहीं है, बल्कि यह है कि उन्हें चुनकर काम में शामिल करें और नौकरी में बरकरार रखें।

यदि कोई शादीशुदा युगल इस क्षेत्र में नौकरी कर रहा है या नौकरी की तलाश कर रहा है तो हमारे पास कुछ ऐसी नीतियां होनी चाहिए कि उन्हें एक ही संस्थान या शहर में काम उपलब्ध कराया जा सके। किसी व्यक्ति के संभावित नियोक्ता यह कदम उठा सकते हैं कि उसकी पत्नी/पति को भी वहीं रोजग़ार मिल जाए ताकि कार्य बल में महिलाओं का प्रवेश बढ़ाया जा सके। परिसर में ही रहने की व्यवस्था यकीनन उनके जीवन स्तर को सुधार सकती है। परिसर में ही घर देते समय संस्थाएं महिलाओं को वरीयता दें। यदि अच्छे साफ-सुथरे बाल गृह और डे-केयर होम्स जैसी सुविधाएं घर या कार्य स्थल के नज़दीक उपलब्ध कराई जा सकें तो यह एक और मददगार कदम होगा। बच्चे जब तक कुछ बड़े न हो जाएं तब तक उन्हें शिशु पालन भत्ता उपलब्ध कराना एक अन्य सुविधा हो सकती है। महिलाओं के लिए स्वस्थ और अनुकूल वातावरण उन्हें काम के लिए प्रोत्साहित कर सकता है। इसके लिए संस्था में समय-समय पर जेंडर संवेदनशीलता कार्यक्रम आयोजित किए जा सकते हैं। यौन उत्पीडऩ एक बहुत ही संवेदनशील समस्या है किन्तु अभी तक इस पर ध्यान नहीं दिया गया है। इसके लिए त्वरित और संवेदनशील कदम उठाना ज़रूरी हैं। किसी भी संस्था में काम का महिला- अनुकूल वातावरण और समुचित सुरक्षा उपलब्ध कराना संस्था प्रमुख की जि़म्मेदारी होनी चाहिए।

विकल्प ज़रूरी

कुछ महिलाएं पोस्ट-डॉक्टरल प्रशिक्षण के बाद विज्ञान से अपना नाता तोड़ लेती हैं क्योंकि एक अंतराल के बाद उन्हें फिर से काम नहीं मिल पाता। इस प्रकार से प्रशिक्षित महिला शक्ति की हानि को कम से कम किया जाना चाहिए। देश के विभिन्न हिस्सों में अलग- अलग तरह के रिफ्रेशर कोर्स चलाए जा सकते हैं, इस तरह से स्थानीय रोजग़ार की ज़रूरतों को भी पूरा किया जा सकता है। कुछ ऐसे नए क्षेत्रों का सृजन किया जा सकता है जहां विज्ञान में मिली शिक्षा का अधिक लाभ मिल सके। जैसे - विधि और पेटेन्ट नियम की जानकारी, विज्ञान पत्रकारिता आदि। कई ऐसे काम हैं जो पार्ट-टाइम आधार पर दो कर्मचारियों द्वारा आसानी से किए जा सकते हैं। ऐसे कार्यों के लिए दो महिलाओं का चयन कर उन्हें यह जिम्मेदारी सौंपी जा सकती है। यह एक सकारात्मक कदम होगा। कुछ काम ऐसे भी होते हैं जिनके कार्य समय में शिथिलता दी जा सकती है या उन्हें घर से भी करने की छूट दी जा सकती है। ऐसे कामों में महिलाओं को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।

पितृत्व अवकाश जो प्रत्येक बच्चे के जन्म के बाद पिता को उपलब्ध कराया जाता है, भारत में बहुत ही कम लोग इसका लाभ उठाते हैं। इसमें कुछ सुधार करते हुए इन छुट्टियों को चाइल्ड केयर के नाम से बढ़ाकर कुछ वर्षों का किया जा सकता है ताकि इसका वास्तव में सदुपयोग हो सके और महिलाओं को भी रोजग़ार में अपनी पुरानी स्थिति को बरकरार रखने में मदद मिल सके। इस बात का हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि कामकाजी महिलाओं को काम में बहुत से विकल्पों की ज़रूरत होती है। ऐसे में योजना बनाने और उन्हें लागू करने वालों की यह जि़म्मेदारी बनती है कि उन्हें विविध विकल्प उपलब्ध कराएं।

फायदा किसे होगा

महिलाओं को विज्ञान के क्षेत्र में बनाए रखने और उन्हें वापस लाने के लिए अपनाए जाने वाले ऐसे उपायों और तरीकों की घोषणाएं बहुत ही महत्वपूर्ण साबित हो सकती हैं। ऐसा होने पर ही उन सरकारी एवं शासकीय वित्त-पोषित संस्थाओं का वास्तविक मतलब भी निकल सकेगा।

पिछले एक दशक पर नजऱ डालें तो विज्ञान और टेक्नॉलॉजी के क्षेत्र में हो रहे ज़्यादातर विकास निजी संसाधनों से हो रहे हैं। इनमें सूचना प्रौद्योगिकी, दवा कंपनियों, क्लीनिकल शोध संस्थाओं और बायोटेक संस्थानों और रोजग़ार के अवसरों का सृजन हो रहा है। ये इसी प्रकार आगे भी प्रगति करते रहेंगे क्योंकि वर्तमान वैश्विक मंदी ज़्यादा दिनों नहीं टिकने वाली। ऐसे परिवेश में प्रशिक्षित महिलाओं को कुछ अतिरिक्त सुविधाएं देकर कार्य में बरकरार रखना निजी संस्थाओं के लिए भी लाभप्रद होगा।

ऐसे उपायों की सिर्फ घोषणा कर देना ही काफी नहीं है बल्कि एक ऐसे निगरानी तंत्र की ज़रूरत भी होगी जो दक्षता संवर्धन के लिए उपलब्ध कराई जा रही सेवाओं को लागू करने के आंकड़े इक_े कर प्रत्येक पांच वर्षों में इनका परीक्षण और प्रभाव का अध्ययन करे, आवश्यक होने पर इनमें बदलाव की सिफारिश करें। महिला शक्ति के बिखराव को रोककर उसका संचय कर विज्ञान के क्षेत्र में काम कर रही प्रशिक्षित महिलाओं के अनुपात को बढ़ाना सिर्फ महिलाओं के हित में ही नहीं बल्कि पूरे समाज के हित में है। इससे न सिर्फ हमारी अर्थव्यवस्था को फायदा होगा बल्कि सामाजिक विकास भी आएगा। जितनी अधिक महिलाएं आर्थिक स्तर पर स्वतंत्र, स्वायत्त और आत्मनिर्भर होंगी, समाज में उतनी बेहतर लिंग समानता स्थापित हो पाएगी। (स्रोत फीचर्स)

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