एक दिन पहले भिखारी ने दूसरे भिखारी से पूछा –
तुम भिखारी कैसे बने?
दूसरे ने जवाब दिया - मैं तो जन्मजात भिखारी हूँ।
मेरे दादा, परदादा यहीं भीख माँगते थे। एक तरह से मैं
खानदानी भिखारी हूँ। तुम अपनी कहो, इस धंधे में कैसे आये?
पहले भिखारी ने ठंडी सांस भरते हुए कहा – बहुत
लंबी और अजीब कहानी है मेरी।
दूसरे ने उत्साह से कहा – अरे सुनाओ ना, कुछ तो समय अच्छा गुजरेगा। वैसे ही इतनी मंदी चल रही है कि टाइम पास करना
मुश्किल हो रहा है।
पहले ने कहना शुरू किया – दरअसल मैं बहुत अमीर उद्योगपति था। मेरे कई कारखाने थे। हुआ ये कि मेरे शहर में धूल भरी आँधियाँ बहुत चलती थीं। इससे लोगों की आँखों में धूल बहुत पड़ती थी और मुझे ऐसा लगने लगा कि इन आँधियों के चक्कर में लोग कहीं अँधे न होने लगें। मैंने सोचा कि जब ज्यादा लोग अँधे होंगे तो वे बेकार भी होंगे। जब बेकार होंगे तो घर बैठे टाइम पास करने के लिए उन्हें कुछ न कुछ करने की इच्छा होगी। मेरे शहर के लोग संगीत प्रेमी थे तो मुझे लगा कि वे अँधे होने के बाद वायलिन बजाना पसंद करेंगे। एक खास किस्म का वायलिन होता है जिसे बनाने के लिए बिल्ली की आंतों का इस्तेमाल किया जाता है।
अब भी मैंने
सोचा कि अगर आँधियाँ इसी तरह चलती रहीं तो ज्यादा लोग अँधे होंगे। ज्यादा लोग अँधे
होंगे तो ज्यादा वायलिन बनाने पड़ेंगे। ज्यादा वायलिन मतलब ज्यादा बिल्लियों की
हत्या और जब ज्यादा बिल्लियाँ मारी जायेंगी तो तय है शहर में चूहे बढ़ेंगे। जब
चूहे बढ़ेंगे तो तय है नागरिकों को अपना सामान सुरक्षित रखने के लिए ज्यादा
डिब्बों की ज़रूरत पड़़ेगी। बस, मैंने आव देखा न ताव,
अपनी सारी पूंजी अलग अलग आकार के डिब्बे बनाने में लगा दी। बस,
यहीं मैं मार खा गया और अब तुम्हारे सामने बैठा हूँ। न ज्यादा
आँधियाँ चलीं, न ज्यादा लोग अँधे हुए, न
ज्यादा वायलिन बने, न ज्यादा बिल्लियाँ मारी गईंऔर
न चूहे ही बढ़े और मेरे बनाये सारे डिब्बे ....।
डिस्क्लेमर: ये जापानी कथा है और इसका उस देश की
सरकारों के फैसलों से कुछ लेना देना नहीं है जो कई बार इतनी दूर की कौड़ी खोज कर
बनाए जाते हैं कि पता नहीं चलता कि हँसें या रोएँ। ये भी कि आखिर में भिखारी
बनना किसके नसीब में है। ●
मो. नं. 9930991424,
kathaakar@gmail.com
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