- डॉ.
सुरंगमा यादव
आ लौट चलें बचपन की ओर
माँ की गोदी में छिप
जाएँ
खींचे कोई डोर
हर आहट पर ‘पापा-पापा’ कहते
भागें द्वार की ओर
मिट्टी के रंगीन खिलौने
मिल जाएँ, तो झूमें-नाचें
कॉपी फाड़ें नाव बनाएँ
पानी में जब लगे तैरने
खूब मचाएँ शोर
भीग-भीगकर बारिश में
नाचें जैसे मोर
गिल्ली-डंडा, खो-खो और कबड्डी
छुपम-छुपाई, इक्कल-दुक्कल,
कोड़ा जमाल शाही
खेल-खेलकर करते खूब
धुनाई
वह भी क्या था दौर!
कच्ची अमिया और अमरूद
पेड़ों पर चढ़ तोड़ें खूब
पकड़े जाने के डर से फिर
भागें कितनी जोर
आ लौट चलें बचपन की ओर!
9 comments:
बचपन की याद दिलाती सुंदर कविता। बधाई
इस कविता को पढ़कर मन अतीत में खो जाता है। वे बीते हुए दिन बहुत याद आते हैं। वे अभाव वाले दिन कितने गहरे जुड़ाव से भरे होते थे। आज की समृद्धि उन दिनों की धूल के बराबर भी नहीं।- रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
बचपन की बेहतरीन यादें
सुंदर। सहज सरल शब्दों में की गई अभिव्यक्ति अनायास ही बचपन की ओर ले जाती है।
सहमत सर 🙏
इस रचना को पढ़ते हुये आँखें भर आईं.... मैं तो आज भी वही हूँ... उस अतीत में... वहीं शांति शून्यता भी.... 🙏
बचपन भावों से अमीर होता है। सुंदर कविता
यह कविता हम सबके बचपन को साझा करती है. बचपन को याद करना यानि सकारात्मक ऊर्जा से भर जाना.सहज भाव और सहृदयता से भरपूर कविता की कलम चलाने वाली रत्ना जी आपको बधाई...
बचपन की याद दिलाती बढ़िया कविता।
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