कांचीपुरम मठ में विजयेन्द्र सरस्वती के साथ लेखिका |
सात समंदर पार
शशि पाधा
^खुला झरोखा आई धूप
‘बदल गया जीवन स्वरूप,
मरुथल में भी छाँव मिली
प्यासे को जल पूरित कूप’
बचपन में सुना था कि जो व्यक्ति सात समन्दर पार जाता है, उसे ऐसी विदाई दी जाती है ,मानों उसके लौट आने की कोई आशा ही न हो। जाने वाला भी भारी
मन से केवल कुछ नया देखने/पाने के उद्देश्य से ही अदृश्य की ओर प्रस्थान करता था।
किन्तु मेरी परिस्थितियाँ भिन्न थीं। मुझे विदेश में कुछ ढूँढने/ पाने के लिए
नहीं जाना था। केवल संतान का मोह मुझे अपने देश से हजारों मील दूर सात समन्दर पार
बुला रहा था।
बात वर्ष 2002
की है। पति ने सेवा निवृत्ति पाते ही निर्णय ले लिया- चलो बच्चों के पास अमेरिका
में। यहाँ अकेले क्यों रहें,वहाँ जाकर कुछ उनके काम में हाथ बटायेंगे। चूँकि मैं पहले
भी अमेरिका में वर्ष भर रह चुकी थी और यहाँ के वैभवकी चकाचौंध के साथ-साथ
प्रियजनों से दूर होने का दुःख भोग चुकी थी; अत:
मैंने अनेकों बार यहाँ आने के लिए ‘न’ ही की। मुझे संतान का मोह तो था ;किन्तु
विदेश की धरती के प्रति आकर्षण कतई नहीं था। मैं साहित्य जगत से जुड़ी थी, और जानती थी कि अमेरिका
में मुझे हिन्दी की पुस्तकों, पत्रिकाओंतथा साहित्यिक गोष्ठियों की कमी खलेगी। इसी
उधेड़बुन में निर्णय लेने से पहले हमने दक्षिण भारत की यात्रा की।यही सोचकर कि अपने
को थोड़ा समय दे सकें और इस विषय पर कुछ और विचार कर सकें।
एक कार्यक्रम में कविता पाठ करते हुए लेखिका |
कन्या कुमारी, त्रिवेंद्रम, रामेश्वरम, महाबलीपुरम और पांडेचेरी
होते हुए हम काँचीपुरम में शंकराचार्य मठ के दर्शन करने गए। वहाँ के पवित्र
वातावरण में बहुत शान्ति का अनुभव हुआ।
सुबह की पूजा-अर्चना के बाद हमने मठ के अध्यक्ष शंकराचार्य से मिलने की
इच्छा जताई। अधिकारियों ने हमें बताया कि प्रात:काल की पूजा अर्चना के बाद ही हम
उनसे मिल सकते हैं। हमारे पास समय ही समय था। हमउनसे मिले बिना जाना नहीं चाहते
थे। सौभाग्यवश वहाँ के अधिकारियों ने हमें उनके अतिथिकक्ष में आने का निमंत्रण
दिया।
बातचीत करते हुए उन्हें मैंने अपने मन की दुविधा बताई और परामर्श लेना चाहा।
मैंने उनसे कहा, “आदरणीय, मेरे पति विदेश में
हमारे पुत्रों के परिवारों के साथ अपना बाकी जीवन बिताना चाहते हैं। मेरे मन में
कई संशय हैं। क्या वहाँ के वातावरण में हम अपने आप को ढाल पाएँगे? क्या संयुक्त परिवार में
रहना संभव हो सकेगा? मेरे
लेखन को क्या वहाँ खाद –पानी मिलेगा? मेरे मन में इतने संशय हैं कि मन सदैव अशांत रहता है। कृपया
कोई समाधान बताइए।”
शंकराचार्य जी बड़े धैर्य से मेरी बात सुनते रहे। कुछ देर बाद बड़े शांत स्वर
में जो उन्होंने मुझसे कहा उससे मेरे जीवन को सही दिशा मिली। उन्होंने कहा, “माँ!
तुम कहाँ जा रही हो, तुम्हारा कर्म और धर्म तुम्हें वहाँ ले जा रहा है। तुम अपनी
भाषा, संस्कृति और जीवन
मूल्यों को अपने गठरी में बाँधकर ले जाओ और भावी
पीढ़ी को उनसे अवगत / परिचित कराओ । तुम मातृशक्ति हो, तुम पर बहुत बड़ी
जिम्मेवारी है। तुम भारतीय संस्कृति की दूत बनकर उसके प्रचार–प्रसार के लिए जा रही
हो। अब यही तुम्हारे जीवन का उद्देश्य है और यही कर्तव्य। निश्चिन्त होकर जाओ, ईश्वर सदा तुम्हारे साथ
रहेगा।”
बहुत सरल भाषा में कहे गए उनके शब्दों को सुनते ही संशय के बादल मानों छँट
गये। अब अमेरिका जाने के लिए मन और लालायित हो गया।
ठाकुर द्वारे में करवाचौथ की पूजा |
लोहरी उत्सव पर दोस्तों के साथ |
यहाँ आते ही सौभाग्य से हम नार्थकेरोलाइना के राली –डरहम शहर में आ गए। इस
क्षेत्र में रहने वाले भारतीय लोग भारतीय कला, संस्कृति और साहित्य के विकास और प्रचार में दिन रात कुछ न
कुछ आयोजन करते रहते हैं ।मुझे स्वयं नार्थ केरोलाइना के चैपल हिल विश्वविद्यालय
में हिन्दी भाषा के अध्यापन का सुअवसर प्राप्त हुआ। विभिन्न कवि-गोष्ठियों में भाग
लेने से यहाँ के साहित्यकारों से मित्रता हुई और लेखन को एक नई दिशा मिली।
इन सब से बढ़कर जो मेरे लिए बहुत आनन्द, गर्व और संतोष की
बात हुई,वह यह कि हमारे यहाँ परिवार में संग रहने से मेरे पोते और पोतियाँ हिन्दी
भाषा में बात करते हैं, घर में पूरी भारतीय विधि से पूजा- अर्चना के साथ त्योहार
मनाए जाते हैं, भारतीय भोजन बनता है। मुझे समय-समय पर बहुत से आयोजनों
में भारतीय संस्कृति के विभिन्न विषयों पर अपने विचार बाँटने का अवसर मिलता है।
अत: भारत से सैंकड़ों मील दूर सात समंदर पार भी हम अपने घर में तथा सभी भारतीय
मित्रों के साथ मिल कर अमेरिका में पैदा हुई नई पीढ़ी के जीवन में भारतीय संस्कृति,भाषा और जीवन मूल्यों को वही
विशेष स्थान देने में सफल हुए हैं ,जो आज भारत में रहते हुए परिवार कर रहे हैं।
अंतर केवल इतना है कि यहाँ के पश्चिमी वातावरण में इन सब के लिए परिश्रम अधिक करना
पड़ता है।
अब रही लेखन की बात तो आज अंतरजाल ने विश्व को एक सूत्र में बाँध दिया है।
अंतरजाल पर ही हम इतना साहित्य पढ़ लेते हैं कि लगता नहीं कि हम साहित्य जगत से दूर
हैं। स्वयं मैं अपनी रचनाओं को अंतर्जाल की विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशनार्थ
भेजती रहती हूँ जिससे मेरे लेखन को विकास और विस्तार मिलता है।
अब सोचती हूँ शंकराचार्य जी ने ठीक ही तो कहा था, “माँ! तुम कहाँ जा रही हो, तुम्हारा भाग्य और
कर्तव्य तुम्हें वहाँ ले जा रहा है।”
shashipadha@gmail.com
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