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हरिहर वैष्णव
एक बार की बात है। बन्दर महाशय भटक कर एक शहर में जा पहुँचे।
वह था होली का दिन। जिस रात होली जलायी गयी, वे वहीं पर थे। अगले दिन जब वे वापस होने
लगे तो देखा कि लोग रंग-गुलाल ले कर होली मना रहे हैं। उन्हें यह सब देख कर बड़ा
मजा आया। जंगल लौट कर उन्होंने यह बात अन्य जानवरों को भी बतायी और अगले साल होली
मनाने का प्रस्ताव रखा। बन्दर महाशय का प्रस्ताव सभी को अच्छा लगा। फिर बात
आयी-गयी हो गयी।
होते-होते अगले साल होली-त्योहार का समय आ गया। तब बन्दर महाशय ने फिर अपना
प्रस्ताव याद दिलाया। इस पर जंगल के जानवरों ने भी जंगल में होली मनाने की सोची।
सभी को अलग-अलग जिम्मेदारी सौंप दी गयी।
सभी अपनी-अपनी जिम्मेदारी पूरी करने में जुट गये। रंग-गुलाल और पिचकारी का
प्रबन्ध हो गया। हाथी दादा भी लकड़ी लेने चले गये। कुछ देर बाद हाथी दादा थोड़ी-सी
गिरी-पड़ी-सूखी लकडिय़ाँ अपनी सूँढ़ में पकड़ कर ले आये। बन्दर महाशय यह देख कर
बोले, 'क्या हाथी दादा, आप भी? अरे,
भाई! इतनी कम लकड़ियों से होली कैसे जलेगी?’
यह सुन कर हाथी दादा बोले, 'बन्दर भाई! हम ढेर सारी लकड़ियों का
सत्यानाश नहीं करेंगे।‘
तभी होशियार लोमड़ी बोली, 'यह तो आपने बहुत पते की बात कही है,
हाथी दादा। जंगल खत्म हो गये तो सर्वनाश निश्चित है।‘
यह सुन कर बन्दर महाशय बोले, 'तब तो हमें पानी की भी बचत करनी चाहिये।
मैंने शहर में देखा कि लोग ढेर सारे पानी में रंग घोल कर एक-दूसरे पर डालते और
पानी की बर्बादी करते हैं।‘
और इस तरह सभी की सहमति से थोड़ी-सी लकड़ी की होली जलायी गयी और पानी की
बर्बादी किये बिना सूखे रंग-गुलाल से मजे ले-ले कर होली मनायी गयी।
सम्पर्क: सरगीपाल पारा कोण्डागाँव- 494226, बस्तर छत्तीसगढ़, मो. 7697174308, Email-
hariharvaishnav@gmail.com
2 comments:
सुन्दर शिक्षात्मक कहानी बच्चों को पानी और जंगल का महत्व समझाती । बहुत अच्छी लगी
बहुत प्यारी शिक्षाप्रद कहानी है |हार्दिक बधाई |
सविता अग्रवाल 'सवि'
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