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Mar 17, 2019

डर भी जिसके आगे काँपता था


डर भी जिसके आगे काँपता था

( कैप्टन सुशील खजुरिया,कीर्ति चक्र)

 शशि पाधा

उन दिनों मैं अमेरिका में रह रही थी।देश में रहो या विदेश में, सुबह उठते ही चाय के कप के साथ समाचार पत्र पढ़ना पुरानी आदत है ,जो यहाँ साथ ही आ गई।अंतर केवल इतना है कि विदेश में हम लैप-टॉप खोलकर भारत के सभी समाचार पत्रों की सुर्खियाँ अवश्य पढ़ लेते हैं।उस दिन भी वैसा ही हुआ।जम्मू निवासी होने के कारण जम्मू-कश्मीर का दैनिक समाचार पत्र डेलीएक्ससेल्सियरखोला।मुख पृष्ठ पर जो चित्र और समाचार था ,उसे देख कर पूरे शरीर में कँपकँपी दौड़ गई।तीन दिन से हम कश्मीर घाटी में भारतीय सेना एवं आतंकवादियों के बीच हो रही मुठभेड़ का समाचार पढ़ रहे थे, और प्रभु से सैनिकों की सुरक्षा की प्रार्थना भी कर रहे थे;किन्तु होनी को कौन टाल सकता है।उस मुठभेड़ में आतंकवादियों का संहार करते हुए भारतीय सेना ने और जम्मू नगर ने एक और वीर सेनानी को खो दिया था।चित्र में उस शहीद की अंत्येष्टि के समय तिरंगे में लिपटे उसके शरीर के आसपास उसके परिजन, मित्र और हज़ारों की संख्या में न जाने कितने लोग उसे श्रद्धांजलि देने को खड़े थे।
मैंने उस अमर शहीद का नाम पढ़ा – ‘लेफ्टीनेंट सुशील खजुरिया।बहुत सोचा, नहीं जानती उसे, कभी नहीं मिली उससे, किन्तु  मन में इतनी पीड़ा हुई कि सोचने लगी,'काश मैं भी वहाँ उसे श्रद्धांजलि दे सकती, शायद उसकी माँ से मिलती, कुछ सांत्वना दे सकती। न जाने क्या-क्या सोचती रह गई।पर, सात समंदर पार की दूरी पाट नहीं पाई।केवल नम आँखों से उस नवयुवक शहीद को मौन श्रद्धांजलि दी।
 उस वर्ष तो नहीं किन्तु अगले वर्ष मेरा जम्मू जाना हुआ।मेरे मन मस्तिष्क पर सुशील खजुरिया का चित्र तो अंकित था ही;अत:मैंने वहाँ जाते ही सुशील के परिवार से मिलने का यत्न किया।एक रविवार को मैं सुशील के बड़े भाई मेजर अनिल खजुरिया के निवास स्थान पर आमंत्रित थी।वहीं पर सुशील के माता पिता भी रह रहे थे।जाने से पहले मैं स्वयं से ही जूझ रही थी।मन में कई प्रश्न थे, 'क्या पूछूँगी, कैसे मिलूँगी।पता नहीं उनकी मनोदशा कैसी होगी’,आदि -आदि।
 घर के द्वार तक पहुँचते ही मुझे किसी महिला द्वारा गायत्री मन्त्रके सस्वर पाठ के मधुर स्वर सुनाई
दिए।सुशील के पिता और भाई ने मुझे अंदर बिठाया।माँ अंदर आई और मेरे गले लगकर सुबकने लगीं।सैनिक पत्नी होने के नाते मैं भी स्वयं को सुशील की माँ जैसी ही मानती थी।हम दोनों  कुछ पल यूँ ही चुपचाप गले लगी रहीं।
धीरे से मैंने उन्हें बिठाते हुए कहा,“ मैं बहुत दूर से आपसे मिलने आई हूँ।जब से समाचार- पत्रों में मातृभूमि की रक्षा के लिए सुशील जैसे योद्धा के बलिदान की गाथा पढ़ी है, मैं आपसे मिलना चाहती थी।
मेरे दोनों हाथ थामकर अश्रुसिक्त स्वर में कहने लगीं, “ बहुत अच्छा किया आप आईं।मुझे भी सुशील के विषय में बात करके कुछ शान्ति मिलती है।लगता है ,वह यहीं है, मेरे आस-पास।
  वातावरण कुछ सहज हो गया था।मैंने पूछा, "क्या आप हर संध्या को गायत्री मन्त्र का पाठ करती हैं?"
वे कहने लगीं, "मेरे पति, मेरे तीनों बेटे और अब बेटी भी भारतीय सेना में ही हैं।उन सबकी  रक्षा के लिए एक यही तो कवच है मेरे पास।यही मेरा नियम है।"
उनकी गोदी में दो साल का उनका पोता हृदान बैठा था।उसे स्नेह से देखते हुए मैने पूछा, "क्या आप सुशील को भी ऐसे ही गोद में बिठाकर पाठ करती थीं?"
मन के किसी कोने में झाँकते हुए कहने लगीं, "नियम तो वर्षों से यही रहा है, हमारे संस्कार ही ऐसे हैं।"
कुछ पल रुककर वो कहने लगीं, "सुशील मेरा सब से छोटा बेटा था।बचपन से ही उसे फौज में भर्ती होने की ललक थी।हमने कहा भी कि अब हम वृद्धावस्था में प्रवेश कर रहे हैं, तुम्हारे दोनों बड़े भाई भी घर से दूर रहते हैं।तुम कोई सिविल की नौकरी कर लो, हमारा सहारा बनो;लेकिन वो तो छुटपन से ही पहले पिता की और फिर भाई की वर्दी पहन कर भागता- दौड़ता था।उसे बस फौज में भर्ती होने की धुन सवार थी।
इसी बात को आगे बढ़ाते हुए उनके पिता सोम नाथ जी (रिटायर्ड नायब सूबेदार) बोले, "बचपन से ही ज़िद्दी था, बस अपनी बात ज़रूर मनवाता था।"- यह सुन कर अब हम सब हँसने लगे।
सुशील की ट्रेनिंग के विषय में बताते हुए वो बोले, "ट्रेनिंग के बाद जब हम उसकी पासिंगऑउट परेड में गए ,तो बड़े गर्व से मुझे कहने लगा," डैडी, मैंने की न अपनी ज़िद्द पूरी।पर डैडी, बड़ा रगड़ा लगा ।"
 उसका संकेत शायद इस कठिन ट्रेनिंग के दौरान होने वाली रगड़ा पट्टी की ओर था।इसी अवसर पर सुशील के कमांडिंग अफसर ने उनसे कहा था लोहे जैसा जिगरा है आपके बेटे का।You should be proud that you have a brave son like him. ऐसा बेटा अगर हर घर में हो तो हिन्दोस्तान का कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता |”
मेरे सामने सुबह-शाम कड़ी मेहनत करते हुए एक दुबले-पतले और चुस्त शरीर वाले नवयुवक की मूर्ति आ गई।
 और क्या-क्या शौक थे आपके बेटे के?”  मेरा अगला सवाल था।
पिता कहने लगे," बास्केट बॉल, हॉकी, फुटबॉल, बॉक्सिंग, सभी खेलों में उसकी रुचि थी,लेकिन जब घर आता था ,तो बस अपनी दादी और माँ की बहुत सेवा करता था।दादी माँ के ठाकुर द्वारे में उनके साथ बैठ जाता था।एक बार जब दादी वैष्णों देवी की कठिन चढ़ाई नहीं चढ़ पाईं तो उनको अपनी पीठ पर उठाकर दर्शन करा लाया।सेवा भाव उसमे कूट-कूट कर भरा हुआ था।जब भी छुट्टी आता ,तो अपनी क्लासफैलो लड़की की बीमार माँ का इलाज करवाता था।उस परिवार में और कोई नहीं था। अत:, उनके घर के काम काज भी कर देता था।बहुत से गरीब बच्चों की पढ़ाई का शुल्क उनके स्कूल में दे आता था।"
मन में विचार आया कि इसी सेवा भाव के कारण ही तो वो भारत माँ की रक्षा के लिए पूर्ण रूप से समर्पित था।
पास बैठी सुशील की भाभी इशिका ने बड़े लाड़ के साथ उसके व्यक्तित्व के एक और रूप को उजागर किया।कहने लगीं, "सजने का बड़ा शौक था उसे।फैशनेबल कपड़े पहनकर, मेरे सामने खड़े हो कर पूछता," भाभी बताओ मैं कैसा लग रहा हूँ।मेरी कुछ तो तारीफ़ करो।"
मैंने सामने की दीवार पर टँगी सुशील की तस्वीर की और देखा जिसमें पूरी वर्दी में सजा सँवरावोमुस्कुरा रहा था, मानो पूछ रहा हो, "मैं कैसा लग रहा हूँ ?" सचमुच बहुत सुन्दर तस्वीर थी उसकी।
 मैंने उनके पिता से अगला प्रश्न किया "आख़िरी बार आप सब कब मिले थे उससे?"
अपने पुत्र की तस्वीर की ओर स्नेह भरी दृष्टि से देखते हुए वे बोले, "तीस दिन की छुट्टी पर आया था, पाँव में चोट भी लगी हुई थी। जैसे ही उसे पता चला कि उसकी टीम को कश्मीर घाटी के कुपवाड़ा क्षेत्र के जंगलों में छिपे आतंकवादियों के ठिकानों को नष्ट करने के लिए भेजा जा रहा है, बस उत्तेजित हो गया।
 बोला, "पैर खराब है तो क्या हुआ, मेरे साथी अभियान में जा रहे हैं, मैं घर नहीं बैठ सकता।और अगले दिन ही हवाई टिकट लेकर अपनी यूनिट में चला गया।"
मन में विचार आया, 'ऐसे कर्त्तव्यनिष्ठ सैनिकों के कारण ही आज भारत की सीमाएँ सुरक्षित हैं।'
 पास ही खड़े सुशील के सहायक प्रीतमने मुझे बताया कि वो उनका सामान लेकर सड़क के रास्ते यूनिट पहुँचा; लेकिन अपने साबसे मिल नहीं पाया।वे अभियान में चले गए थे।सुशील के शहीद होने के बाद उनकी पलटन ने अभी तक प्रीतमको उसके माता-पिता के पास रहने की अनुमति दे रखी थी।
उसकी ओर और देखते हुए उनकी माँ बोलीं," इसके विषय में सुशील हमेशा कहता था, इसे अपना बेटा ही मानना।इसको बस मुझे ही समझना।इतना स्नेह था उसे अपने साथ के सैनिकों से।"

मैं समाचार पत्रों में भारतीय सेना की ‘18ग्रनेडियर पलटनके लेफ्टिनेंट सुशील और उसकी घातक टीम की आतंकवादियों के साथ कई दिन तक चलने वाली मुठभेड़ के विषय में पढ़ चुकी थी।किन्तु उनके पिता ने जो विवरण दिया, उससे कई बातें स्पष्ट हो रहीं थी।जैसे सब कुछ सामने ही घट रहा हो।
उन्होंने कहा, "वो उस क्षेत्र में जुलाई के महीने में पहले भी दो अभियानों में भाग ले कर सफलता प्राप्त कर चुका था।उस जंगल के चप्पे-चप्पे से परिचित था वो।इस बार सुशील के साथ ‘S T F (स्पेशलटास्कफ़ोर्स)के जवान भी थे।सूचना यह थी कि कुपवाड़ा जिले के 'कोपरामलियाल' क्षेत्र के सघन जंगलों में लगभग पाँच - छह आतंकवादी बहुत से अस्त्र-शस्त्रों के साथ प्राकृतिक गुफाओं में छुपे हुए थे, और वे भारतीय सेना तथा निरीह लोगों पर प्रहार करने की योजना बना चुके थे।सुशील आरम्भ से ही घातक टीम का कमांडर रह चुका था।इस बार टीम की तैयारी में इसने पुन: अपने आप को वालंटियर किया।ब्रिगेड कमांडर ने अभियान आरम्भ होने से ठीक पहले सब सैनिकों में जोश भरते हुए कहा "खज्जू, तुम पहले भी इस जंगल में दो अभियानों में सफल हो कर आए हो;किन्तु इस बार ऐसा सबक सिखाना है कि शत्रु फिर से इस जंगल में आने की हिम्मत न करें।बस उनका पूरी तरह से सफाया करना है।"
क्योंकि सुशील के पिता स्वयं एक सेवानिवृत्त सैनिक हैं, वो उस मुठभेड़ का ऐसा विवरण दे रहे थेजैसे यह सब उनकी आँखों देखी हो।
कहने लगे, "पूरा सफ़ाया ही किया था सुशील और उसकी टीम ने।यह घमासान मुठभेड़ पाँच दिन तक लगातार चलती रही। इसमें उनकी टीम ने पाँच तंकवादियों को मार गिराया;लेकिन एक आतंकवादी किसी प्राकृतिक गुफा में छिपकर बैठा रहा।वहाँ घना जंगल था और केवल अनुमान से ही आगे बढ़ा जा सकता था।जैसे ही सुशील अपनी टीम के साथ जंगली नाले से होते हुए शत्रु के छिपने के ठिकाने तक पहुँचे, छिपे हुए आतंकवादी ने इन पर घातक प्रहार किया, जिसमें इनकी टीम के दो जवान शहीद हुए थे।अपने शहीद साथियों के मृत शरीर को सुशील अपने कैम्प तक ले आए थे।लक्ष्य की पूर्ति पूरी तरह से अभी तक नहीं हो पाई थी।एक या दो आतंकवादी अभी तक कहीं छिपा हुए थे।सुशील और उनके साथी रवि कुमार एक बार फिर छिपे हुए आतंकवादी की टोह लेते हुए उनके छिपने के स्थान तक पहुँचे। आतंकवादी उस प्राकृतिक गुफा के द्वार से आसानी से इन्हें देख सकता था। उसने इन दोनों पर लगा तार गोलियाँ दागीं। इनके साथी हवलदार रवि कुमार को गोली लगी और वे घायल हो गए। सुशील किसी भी तरह उन्हें अपने कैम्प तक पहुँचाना चाहते थे।उस समय उन्हें अपनी रक्षा की कोई चिंता नहीं थी।बस उन्हीं पलों में उस आतंकवादी ने सुशील पर गोलियाँ चलाई।एक गोली उनकी कनपटी पर लगी। वो अपने शहीद साथी को अपने कैम्प तक लाने में सफल तो हो गए थे, किन्तु गोली के आघात से उसी स्थान पर वीरगति को प्राप्त हो गए।  उस रात भारत माँ ने और हमने अपने बेटे को सदा-सदा के लिए खो दिया
 
वीरता, निडरता, अदम्य साहस और कर्त्तव्य के प्रति दृढ़ निश्चय जैसे अप्रतिम गुणों के धनी उस वीर सेनानी की गौरवशाली गाथा ने हम सब को रोमांचित कर दिया था।मेरे सामने महाभारत के अभिमन्यु का चित्र आ गया ।कैसे होंगे वो ओज और संकल्प के क्षण जब अपनी जान की चिंता से परे,अपने साथी की जान बचाने की चिंता हो।
उनकी माँ निर्मला देवी अब बहुत गंभीर हो गईं थीं।उनके चेहरे पर अगाध पीड़ा के भाव अंकित हो गए थे।एक दीर्घ निश्वास लेकर बोलीं," बस 22 सितम्बर को गया था, 27 को ख़त्म।" मैं कुछ देर उनका हाथ थामकर चुपचाप बैठी रही।एक बेटे के खोने के दुःख को वो कैसे झेल रही हैं, मैं उस समय देख रही थी।
पिता शांत और गर्वपूर्ण मुद्रा में बैठे थे।मैंने उन्हीं से पूछा,"आपकी उनसे बातचीत तो हुई होगी, आख़िरी बार कब बात हुई?"
अब उनकी आँखें भी नम थीं। बड़े ही भीगे-भीगे स्वर में उन्होंने कहा," 25 सितम्बर की सुबह उसका फोन आया था।बोला, “मैं जा रहा हूँ।
 "मैं जानता था कि सुशील एक बहुत ही कठिन अभियान के लिए जा रहा था। पिता होने के नाते मैंने उससे केवल यही कहा," अपना ध्यान रखेयाँ  बेटे, पता नईं ओ किन्ने न, साढ़े मकाए दे मुक़क्ने न या नेंई ।" इस बार वो अपन मातृ भाषा डोगरीमें बोल रहे थे। ( बेटे, अपना ध्यान रखना, पता नहीं वो कितने हैं, पता नहीं वो सारे के सारे खत्म होंगे कि नहीं)
बस सुशील ने बड़े ओज भरे शब्दों में यही कहा, “डैडी, कुसा ने तेमुकाने न, उन मेरी बारी ए।" ( डैडी, किसी ने तो खत्म करना है उन्हें, अब मेरी बारी है)।
 यही अंतिम बातचीत थी पिता और पुत्र के बीच। दो दिन तक पिता फोन मिलाते रहे।किन्तु युद्धरत पुत्र फोन कैसे उठाता? नवरात्रि का पहला दिन था।परिवार को पता था कि सुशील उस घमासान मुठभेड़ में युद्धरत है;अत:, उस समय केवल ईश्वर से प्रार्थना ही एक मात्र संबल था उनके पास।माँ,पिता और भाभी ने वैष्णों देवी की मूर्ति के सामने सुशील की रक्षा के लिए अखंड ज्योत जलाई।प्रार्थना के क्षणों में ही उनके पास एक फोन तो आया पर अत्यंत दुखद समाचार लेकर।
 "शेर की तरह था मेरा बेटा। निडर इतना कि डर भी उसके सामने काँपता था।" इन गर्वपूर्ण शब्दों के साथ एक बहादुर सैनिक पुत्र को उसके धैर्यवान सैनिक पिता ने याद किया था।
कुछ देर तक उस कमरे में अभेद्य मौन छाया रहा।हम सब उस क्षण को अपने- अपने तरीके से जी रहे थे,जब उनको यह दुःखद समाचार मिला होगा।मैंने अब निर्मला जी की तरफ देखते हुए पूछा, “आपसे क्या कहकर गया था, कब लौटेगा?"
कहने लगीं," छुट्टी आया था एक महीने की। अपने विवाह की तैयारियों में ही लगा रहा।मेरे लिए नई साड़ी और सैंडल लाया था। साड़ी तो उसने मुझे अपनी शादी में पहनने के लिए दी थी और देते हुए हँसते हुए कहने लगा, “यही पहननी है आपने बारात में, आप सबसे अलग दिखनी चाहिए, सुशील की माँ और झट से दोनों पैरों को जोड़कर खट्ट की आवाज़ करते हुए मुझे सैलूट किया था।"
 अब वो फिर भावुक हो गईं थी।रुँधी आवाज़ में बोलीं," मैंने पहनी तो थी वो साड़ी पर अवसर कोई और था। जब सुशील को उसकी वीरता के लिए राष्ट्रपति द्वारा कीर्ति चक्रप्रदान किया गया, तो राष्ट्रपति भवन में वही साड़ी पहनकर गई थी।"
 सुशील के बड़े भाई मेजर अनिल अब तक चुपचाप हमारी बातें सुन रहे थे।वो उस समय भारत की पूर्वोत्तर सीमाओं पर तैनात थे।और सुशील के बड़े भाई सुनील भी सेना की किसी और पलटन में सेवारत थे।अनिल ही सुशील के पार्थिव शरीर को वायुयान से अपने घर जम्मू लाये थे।
मैंने उनसे पूछा, "आप और आपके बड़े भाई तो भारतीय सेना में हैं।क्या आपके परिवार के और भी युवक अभी भी सेना में भर्ती होने को इच्छुक हैं?"
उन्होंने बड़े संयत स्वर में उत्तर दिया," मैम हमारी बहन दीपिका 'बायोटैकनोलजी में एम एस सी कर रही थी।बस सुशील के बलिदान के बाद जाने उसे क्या सूझी, सारी पढ़ाई छोड़-छाड़कर उसने भी एयर फोर्स ज्वाइन कर ली है।वो इस समय हैदराबाद में है।अगर आप कुछ दिन बाद आतीं तो वो भी छुट्टी लेकर आ रही है।आप उससे भी मिल लेती।"
मैंने समाचार पत्रों में दीपिका की तस्वीर देखी थी, जिसमें वो अंत्येष्टि के समय अपने भाई की टोपी अपने हृदय से लगाए शोकरत खड़ी थी। मुझे इस चित्र ने बहुत विचलित किया था।अब मुझे यह सुनकर खुशी हुई कि यह सैनिक परिवार अपने एक बेटे को खो देने के बाद भी देश की रक्षा के लिए कितना समर्पित है।
मेजर अनिल ने मुझे यह भी बताया कि सुशील की यूनिट हर साल कारगिल दिवस समारोह  पर इनके परिवार को आमंत्रित करती है और इनसे सदैव सम्पर्क बनाए रखती है।
 समय बहुत हो गया था किन्तु ऐसा लग रहा था की बहुत कुछ पूछना बाकी है।मैंने पूछा," क्या राज्य सरकार ने भी उनकी स्मृति में कुछ विशेष किया?"
बड़े ही निराशा भरे स्वरों में सुशील के पिता ने बताया," उसकी अंत्येष्टि पूरे सैनिक सम्मान के साथ जम्मू के साम्बा क्षेत्रमें हुई थी, जिसमें दूरदर्शन और समाचार पत्रों से जुड़े बहुत से लोग आए थे;किन्तु, दुःख की बात यह है कि राज्य सरकार की ओर से चीफ मिनिस्टर का एक फोन तक नहीं आया। तब जाकर मन कई बार पूछता है,किसलिए, किसके लिए?"
यही प्रश्न तो मैं देश के नेताओं से अनवरत पूछती रहती हूँ।कब और कौन देगा इन प्रश्नों का उत्तर?
मुझे इस बात का गर्व है कि शहीद सैनिकों की स्मृति में उनकी यूनिट और उनके परिवार के सदस्य उनके बलिदान की ज्योति को  जलते रहने के लिए सदैव प्रयत्नरत रहते हैं।
 मैंने अनिल से पूछा "आपने उनकी स्मृति में क्या कोई ऐसा स्थल, स्कूल या कुछ और बनवाया है, जिसे देख कर भावी पीढ़ी कुछ प्रेरणा पा सके?"
 अनिल ने मुझे बताया, "मैम, साम्बा के पास हमारे गाँव में मेरे चाचा की कुछ पैतृक ज़मीन थी।सुशील के चाचा ने और हमारे पूरे परिवार ने उस ज़मीन पर एक सुन्दर- सा बाग लगाया है।हमने और गाँव के अन्य लोगों ने उस वीरभूमि पर सैकड़ों पेड़ रोपे हैं।गाँव के स्कूल के बच्चे वहाँ जाकर खेलते भी हैं और श्रमदान भी करते हैं।"
उनकी माँ ने ममता- भरी वाणी में कहा," मुझे वहाँ  के हर पेड़ में 'वो' ही दिखाई देता है। मुझे बहुत अच्छा लगता है वहाँ समय बिताना।"
उनकी गोद में उनका पोता नन्हा हृदान खेल रहा था। उसकी ओर स्नेह -भरी दृष्टि से देखती हुई वो बोलीं, “मेरे पास अब  यह है, पूरा परिवार है, पर न तो मैं सुखी हूँ ना दुखी।"
 मैं जानती हूँ इस वीतराग की अवस्था को।सैनिक पत्नी हूँ ना।ऐसी कितनी ही सैनिक पत्नियों, माताओं और बहनों के दुःख को उनके साथ मिलकर जिया और भोगा है मैंने।
उठने लगी तो निर्मला जी ने मेरे दोनों हाथ पकड़ कर बड़े स्नेह के साथ कहा," चलो हमारे गाँव, वहाँ आपको सुशील का बाग़ दिखाऊँगी।"
मुझे इस आग्रह और निमंत्रण में धैर्य, अपनत्व और सांत्वना के जो स्वर सुनाई दिए, वे जीवन भर मेरे साथ रहेंगे। 

सम्पर्कः 174/3, त्रिकुटा नगर, जम्मू, सम्प्रति- वर्जिनिया यू. एस. E-mail- shashipadha@gmail.com

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