उदंती.com को आपका सहयोग निरंतर मिल रहा है। कृपया उदंती की रचनाओँ पर अपनी टिप्पणी पोस्ट करके हमें प्रोत्साहित करें। आपकी मौलिक रचनाओं का स्वागत है। धन्यवाद।

Oct 22, 2009

कानून के दरवाजे पर

कानून के दरवाजे पर
- फ्रांज काफ्का

'मेरे मना करने के बावजूद तुम भीतर जाने को इतने उतावले हो तो फिर कोशिश करके क्यों नहीं देखते, पर याद रखना मैं बहुत सख्त हूं, जबकि मैं दूसरे रखवालों से बहुत छोटा हूं।
कानून के द्वार पर रखवाला खड़ा है। उस देश का एक आम आदमी उसके पास आकर कानून के समक्ष पेश होने की इजाज़त मांगता है। मगर वह उसे भीतर प्रवेश की इजाज़त नहीं देता।
आदमी सोच में पड़ जाता है। फिर पूछता है- 'क्या कुछ समय बाद मेरी बात सुनी जाएगी?
'देखा जाएगा' ... कानून का रखवाला कहता है- 'पर इस समय तो कतई नहीं!'
कानून का दरवाज़ा सदैव की भांति आज भी खुला हुआ है। आदमी भीतर झांकता है।
उसे ऐसा करते देख रखवाला हंसने लगता है और कहता है- 'मेरे मना करने के बावजूद तुम भीतर जाने को इतने उतावले हो तो फिर कोशिश करके क्यों नहीं देखते, पर याद रखना मैं बहुत सख्त हूं, जबकि मैं दूसरे रखवालों से बहुत छोटा हूं। यहां एक कमरे से दूसरे कमरे तक जाने के बीच हर दरवाजे पर एक रखवाला खड़ा है और हर रखवाला दूसरे से ज़्यादा शक्तिशाली है। कुछ के सामने जाने की हिम्मत तो मुझ में भी नहीं है।'
आदमी ने कभी सोचा भी नहीं था कि कानून तक पहुंचने में इतनी कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा। वह तो यही समझता था कि कानून तक हर आदमी की पहुंच हर समय होनी चाहिए। फर कोटवाले रखवाले की नुकीली नाक, बिखरी-लम्बी काली दाढ़ी को नज़दीक से देखने के बाद वह अनुमति मिलने तक बाहर ही प्रतीक्षा करने का निश्चय करता है। रखवाला उसे दरवाज़े की एक तरफ स्टूल पर बैठने देता है। वह वहां कई दिनों तक बैठा रहता है। यहां तक कि वर्षों बीत जाते हैं। इस बीच वह भीतर जाने के लिए रखवाले के आगे कई बार गिड़गिड़ाता है। रखवाला बीच-बीच में अनमने अंदाज में उससे उसके घर एवं दूसरी बहुत-सी बातों के बारे में पूछने लगता है, पर हर बार उसकी बातचीत इसी निर्णय के साथ ख़त्म हो जाती है कि अभी उसे प्रवेश नहीं दिया जा सकता।
आदमी ने सफऱ के लिए जो भी सामान इकट्ठा किया था और दूसरा जो कुछ भी उसके पास था, वह सब वह रखवाले को ख़ुश करने में खर्च कर देता है। रखवाला उससे सब-कुछ इस तरह से स्वीकार करता जाता है मानो उस पर अहसान कर रहा हो।
वर्षों तक आशा भरी नजऱों से रखवाले की ओर ताकते हुए वह दूसरे रखवालों के बारे में भूल जाता है! कानून तक पहुंचने के रास्ते में एकमात्र वही रखवाला उसे रुकावट नजर आता है। वह आदमी जवानी के दिनों में ऊंची आवाज़ में और फिर बूढ़ा होने पर हल्की बुदबुदाहट में अपने भाग्य को कोसता रहता है। वह बच्चे जैसा हो जाता है। वर्षों से रखवाले की ओर टकटकी लगाए रहने के कारण वह उसके फर के कॉलर में छिपे पिस्सुओं के बारे में जान जाता है। वह पिस्सुओं की भी ख़ुशामद करता है ताकि वे रखवाले का दिमाग उसके पक्ष में कर दें। अंतत: उसकी आंखें जवाब देने लगती हैं। वह यह समझ नहीं पाता कि क्या दुनिया सचमुच पहले से ज़्यादा अंधेरी हो गई है या फिर उसकी आंखें उसे धोखा दे रही हैं। पर अभी भी वह चारों ओर के अंधकार के बीच कानून के दरवाजे से फूटते प्रकाश के दायरे को महसूस कर पाता है।
वह नज़दीक आती मृत्यु को महसूस करने लगता है। मरने से पहले वह एक सवाल रखवाले से पूछना चाहता है जो वर्षों की प्रतीक्षा के बाद उसे तंग कर रहा था। वह हाथ के इशारे से रखवाले को पास बुलाता है क्योंकि बैठे-बैठे उसका शरीर इस कदर अकड़ गया है कि वह चाहकर भी उठ नहीं पाता। रखवाले को उसकी ओर झुकना पड़ता है क्योंकि कद में काफ़ी अंतर आने के कारण वह काफ़ी ठिगना दिखाई दे रहा था।
'अब तुम क्या जानना चाहते हो' ... रखवाला पूछता है...'तुम्हारी चाहत का कोई अंत भी है?'
'कानून तो हरेक के लिए है' ... आदमी कहता है... 'पर मेरी समझ में ये बात नहीं आ रही कि इतने वर्षो में मेरे अलावा किसी दूसरे ने यहां प्रवेश हेतु दस्तक क्यों नहीं दी?'
रखवाले को यह समझते देर नहीं लगती कि वह आदमी अंतिम घडिय़ां गिन रहा है। वह उसके बहरे होते कान में चिल्लाकर कहता है-- 'किसी दूसरे के लिए यहां प्रवेश का कोई मतलब नहीं था क्योंकि कानून तक पहुंचने का यह द्वार सिर्फ तुम्हारे लिए ही खोला गया था और अब मैं इसे बंद करने जा रहा हूं।'

No comments: