- निर्देश निधि
कुछ बातें कितनी भी पुरानी क्यों न पड़ जाएँ, उनकी यादें इंसान की अनुभूतियों में जीवंत और युवा बनी रहने में पूरी तरह सक्षम होती हैं। ऐसी बातें कहीं खोजी या तलाशी नहीं जा सकतीं। वे तो बस घट जाती हैं अचानक। कई बरस पूर्व की ऐसी ही एक घटना है मेरे दिल्ली प्रवास की। मेरा पुत्र वरुण उन दिनों आई आई टी की प्रवेश परीक्षा की तैयारी कर रहा था। हमारे अपने शहर में कोचिंग की सुविधा नहीं थी; इसलिए पारिवारिक सहमति बनी कि उसे राजधानी में रखा जाए, जहाँ कोचिंग सेंटर्स का जमावड़ा है, ताकि वह अपनी परीक्षा की तैयारी ठीक से कर सके और सफल हो सके। वह समय और था, जब इंटरमीडिएट पास करने के बाद किन्हीं प्रतियोगी परीक्षाओं के विषय में सोचा जाता था। अब तो इस गलाकाट प्रतियोगिता के युग में थमने – रुकने, किसी देरी या सुस्ताने के लिए कोई स्थान रहा ही नहीं। दसवीं कक्षा पास करते ही वरुण भी दूसरे बच्चों की तरह प्रतियोगिता की दौड़ में शामिल हो गया। हमारी इकलौती संतान होने की वजह से वह लाड़ला तो है ही, साथ ही बड़ा सीधा - सरल भी है। हालाँकि अब वह भी थोड़ा तो बदला ही है; परंतु उस समय तो वह बिलकुल ही भोला बच्चा सा ही था, जिसे दिल्ली जैसे महानगर में अकेला नहीं छोड़ा जा सकता था। उसके पिता के डॉक्टर, प्राइवेट प्रैक्टीशनर होने की वजह से वे तो जा ही नहीं सकते थे। अतः वरुण के साथ मेरा दिल्ली जाना तय हुआ। हम दोनों माँ - बेटा छोटी- सी गृहस्थी के साजो - समान से लैस होकर अपने विजय- रथ, मस्टर्ड कलर की कोरियन डैवू कंपनी की मैटिज़ कार पर सवार दिल्ली की ओर प्रस्थान कर गए। दक्षिण दिल्ली के मालवीय नगर के एफ ब्लॉक में हमने एक सरदार जी का फ्लैट किराए पर ले लिया। तीन कमरे और एक बालकनी वाला मकान हम दोनों माँ– बेटे के हिसाब से बहुत बड़ा भी था और थोड़ा महँगा भी। मकान मालिक सरदार जी उनके बच्चे और पत्नी सब बहुत भले लोग थे। सरदार जी ने हमें मकान काफी कम किराए पर दे दिया। मकान बिलकुल नया था, मकान मालिक की माली हालत कुछ ठीक नहीं लगती थी। मकान के बहुत सारे काम उन्होंने अधूरे ही छोड़ रखे थे। जैसे लकड़ी का काम या रसोईघर का काफी कुछ काम। इसी तरह छत में कुछ छेद बिना बिजली की फिटिंग के, यानी बल्ब या लैंप लगाए बिना ही छोड़ दिये गए थे। ऐसा ही एक छेद बाहर बालकनी में भी था। जिसमें बल्ब की जगह बिजली की टेप लगे तार बाहर निकले हुए थे।
दिन भर स्कूल और कोचिंग की पढ़ाई से थक- हारकर शाम को जब वरुण थोड़ा अवकाश लेता, तो हम दोनों माँ- बेटा उस बालकनी में शांति से बैठकर आते- जाते आधुनिक दिल्लीवासियों को निहारते। जिसमें शामिल होता कोई चुटिया वाला लड़का, कोई निक्कर वाली लड़की, अत्याधुनिक बुजुर्ग या कोई प्रेमी जोड़े वग़ैरह भी। अँधेरा होते– होते हमारा ध्यान बरबस ही उस बिना बल्ब वाले छेद पर चला जाता। लगता कि काश इस गोधूलि में हम यहाँ बल्ब जलाकर बैठ सकते; पर बल्ब न लगा होने के कारण हम यूँ ही अँधेरे में बैठे रहते। कई माह तक तो वह छेद खाली ही रहा यह तो सर्वविदित है कि राजधानी जैसी भीड़– भाड़ वाली जगह पर आवास की सुविधा कितनी दुर्लभ है, सो वह छेद भी अधिक दिनों तक खाली नहीं रह सका। साथ ही नहीं रह सकी बालकनी की शांति भी। एक चुस्त- फुर्तीली चिड़िया ने अपने चिड़े के साथ वहाँ अपना आवास बनाना तय किया। गृहस्थी का सामान जुटाया जाने लगा। नीड़ का निर्माण कार्य आरंभ किया गया। दोनों एक – एक तिनका अपनी चोंच में खोंसकर लाने लगे। तिनका – तिनका गृहस्थी जुड़ने लगी। पर यह क्या ? चिड़ा तिनके लाता, तो चिड़िया उसे एक तिनका भी घोंसले में ना रखने देती। चिड़े की चोंच से छीनकर स्वयं उसे बड़े करीने से नीड़ में खोंसती। जब देखो तब चिड़िया चिड़े से झगड़ती रहती, झगड़ती क्या उसे झिड़कती, डाँटती - फटकारती रहती। हमारी दृष्टि में बेचारा वह चिड़ा हमेशा चुपचाप रहता। कहीं जाना होता तो आगे वह खुद होती, चिड़ा निरीह पीछे उड़ता। खाना - पीना होता तो भी चिड़िया का अधिकार पहले और अधिक ही होता। मसलन चिड़े को स्वेच्छा से कुछ भी करने की स्वतन्त्रता नहीं थी। अब उन नन्हे-नन्हे नए पड़ोसियों के प्यारे सान्निध्य के कारण हमें बालकनी में बल्ब की कमी खलनी बंद हो गई थी। अब दिल्ली के आधुनिक समाज के दर्शनों से भी अधिक दिलचस्पी हम अपने उन्हीं नए और नन्हें परवाज़ पड़ोसियों में लेने लगे थे। लगभग रोज़ ही चिड़िया की दबंगई देखकर हमारा कौतूहल कुछ अधिक ही बढ़ गया था। पुरुष प्रधान समाज में रहने वाले हम दोनों उस वाचाल चिड़िया के चिड़े के प्रति क्रूर व्यवहार की बड़ी निंदा करते और चिड़े को दया का पात्र मानते।
जुलाई का महीना था। उस साँझ, दिन भर बरसात के बाद आकाश खुल गया था, छोटे – छोटे सफ़ेद रुई के फाहे से बादल कहीं - कहीं अभी भी बिखरे पड़े थे। हमने बालकनी में खुलने वाला अपना दरवाजा खोल दिया, दरवाजा खुलते ही ठंडी – ठंडी हवा हमारे कमरे में आई और आए चिर्र- चिर्र करते हमारे परवाज़ पड़ोसी। उन दोनों का अंदर आना बड़ा सुखद लगा। उनकी आवभगत के नाम पर हम बस इतना ही कर पाए कि जस के तस बैठकर उन्हें निहारते रह गए। हमारे तीन कमरों वाले घर में चिड़िया की अगवानी में दोनों गृहस्थ एक के बाद एक कमरे में बार– बार आए और गए, दो- एक मिनटों तक दोनों ने पूरे घर का जायज़ा लिया। सारे घर में सैर– सपाटा करके जब दोनों सैलानी वापस लौटे, तो थोड़ा- सा कन्फ़्यूजन हो गया। दरवाज़ा खुला था और ठीक उसके साथ एक खिड़की बनी थी जो उस दरवाजे के बराबर की ही थी और वह पूरी खिड़की काँच से परमानेंटली बंद थी। खिड़की का काँच पूरी तरह साफ था उन दोनों सैलानियों को लगा कि दरवाजे की अपेक्षा वे उस खुली जगह से आसानी से निकल पाएँगे। निर्धारित रूप से अगवानी तो चिड़िया की ही होती; परंतु इस बार तो चतुर सुजान खुद ही धोखा खा गई थी और धड़ से उस पारदर्शी काँच से जा टकराई; परंतु क्षण भर भी व्यर्थ गँवाए बगैर लौट गई और तेज़ी से उड़कर फुर्र से दरवाजे के रास्ते बाहर निकल गई। बाहर जाते ही अपने स्वभाव के अनुसार चिड़– चिड़ करना शुरू कर दिया। कुछ अपनी खिसियाहट भी उतार रही होगी, धोखा खा जाने से पनपी। चिड़ा बेचारा हमारे घर में ही फँसा रह गया। वो बार– बार आकर उसी काँच से टकराता रहा। एक तो वो बेचारा पहले ही बहुत घबराया हुआ था, ऊपर से चिड़िया की डाँट- फटकार की वजह से अपना होश खो बैठा। वह बाहर निकलने के कई असफल प्रयास कर चुका था। चिड़िया को लगा कि अब यह ग़ुस्से से नहीं समझेगा, इसे समझाना होगा। चिड़िया उसे रास्ता दिखाने के लिए दरवाजे के रास्ते अंदर आने और बाहर जाने लगी। कई बार में जाकर चिड़े को चिड़िया का अनुकरण करने की बात समझ में आ पाई और किसी तरह वो बाहर निकला। उस शाम तो चिड़िया तब तक चिल्लाई जब तक थक नहीं गई। चिड़ा निरीह बना उस छत के छेद वाले नीड़ में चुपचाप सिकुड़ा हुआ एक कोने में बैठा रहा। उसके भयभीत कंठ से एक चिर्र भी तो ना निकल सकी।
मैं और वरुण यह पूरा दृश्य चुपचाप बैठकर देखते रहे। वो अपनी पढ़ाई और मैं अपनी रसोई छोड़कर। जिस चिड़िया के कसहले और निरंकुश व्यवहार की हम दोनों अक्सर निंदा करते थे, उसके प्रति आज हमारा दृष्टिकोण कुछ बदल गया था। ठीक वह हो गया था, जिसे अंग्रेज़ी में कहते हैं, पैराडिम शिफ्ट। अब हम उसे दृढ़ निश्चयी और अपने साथी के प्रति वफ़ादार के रूप में देखने लगे थे। अन्यथा उस मूर्ख चिड़े के साथ वो स्मार्ट फ्लायर कैसे रह सकती थी। वरुण ने फिर भी कहा कि वह उसे प्यार से भी तो सिखा सकती थी। पर कौन जाने गृहस्थी के शुरूआती दिनों में उसने कितने प्रयास किए होंगे प्यार से सिखाने के। उसे सिखाते – सिखाते ही तो कहीं वो अपना व्यवहार चिड़चिड़ा नहीं कर बैठी थी, और इतना भी कम था क्या कि वो उसके साथ रही।
उसी वर्ष वरुण का चयन आई आई टी में हो गया। अब तो वह अपनी कंपनी चला रहा है; पर जब भी कभी हम लॉन में बैठकर चिड़ियों का आवागमन देखते हैं, तो वो राजधानी वाली स्मार्ट फ्लायर स्वतः ही हमारे सामने आ खड़ी होती है। उसकी स्मार्टनेस की चर्चा के साथ ही हम ये कहना कभी नहीं भूलते कि चाहे वो इंसान हो, पशु-पक्षी हो या कोई अन्य, आदेश तो उसी का चलता है, जो दूसरे से बुद्धिमान होता है, कुशल होता है।
1 comment:
बहुत सुंदर संस्मरण ।सुदर्शन रत्नाकर
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