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Apr 1, 2023

कहानीः समय से पहले

 - हरेराम समीप

रेलवे प्लेटफार्म के पीछे-पीछे समानान्तर बढ़ी इंदिरा कॉलोनी सुबह के घने कोहरे की गिरफ्त में थी उस दिन। पलवल- दिल्ली लोकल अपने समय पर आ गई थी। बीड़ियों का तेज तल्ख धुआँ अपने-अपने फेफड़ों और शेष डिब्बों के नाम करके श्रमिक बाहर निकले और फैक्ट्रियों के जबड़ों में समाने भागने लगे।

गाड़ी सरकी तब देखा- गुंबदी इंदिरा कॉलोनी के बोर्ड की कोहरे की दीवार पार कर, तेज दौड़ते हुए आ रहा था। बढ़ते हुए हैंडिल और हाथ की अँगुलियों की दूरी कम करते प्लेटफार्म के सिरे तक आ पहुँचा था। यात्रियों की-‘‘छोड़ दे गाड़ी- मर जाएगा- छोड़ दे’’ की परवाह किए बिना उसने समूची शक्ति एकत्रित की, गाड़ी की गति से मेल बैठाया और घिसटते हुए चढ़ ही गया।

‘‘बाप रे, जान बित्ते भर की है और जोखिम हाथ भर का।’’ वह बैठे हुए यात्रियों की बातचीत का विषय बन गया। वैसे भी गाड़ी में बैठते ही लोग फालतू हो जाते हैं और जो बात उन्हें तुरंत मिल जाए, उसे चूसने लगते हैं। आज गुंबदी इनके दांतों और होठों के बीच था।

वह हॉफते हुए वहीं संडास के दरवाजे से टिक कर पसर गया। लोगों की नज़रें उसे चाटती रहीं, कभी उसके चिकने मासूम गालों पर जमे मैल से होकर पांव और हाथ की बिवाई तक तो कभी कड़ाके की ठण्ड से युद्ध करते उसके तीन- रंगी चोगे और गले पर बँधे तीन रंगी गमछे तक। चोगा, जो न कुर्ता था न ही कमीज़।

मैं ही क्या अधिकांश डेली- पैसंजर्स भी जानते थे उसे। आठ- नौ साल का था यह गुंबदी। झोपड़ियों की उस इंदिरा-कॉलोनी में अपनी माँ और दो छोटे भाइयों के साथ रहता था। उसने बताया था कि वह कनॉट प्लेस के किसी ढाबे का ‘छोटू’ है। साँवले चिकने चेहरे पर लटकते घुँघराले बाल और मासूम निगाहों से कहीं- न- कहीं वह सामने वाले को सम्मोहित कर लेता था और लोग उसे देखे बिना नहीं रह पाते थे। हाँ, इसमें उसकी उस विचित्र वेशभूषा का हाथ भी कम न था। उसने बताया एक दिन कि हरियाणा के पिछले चुनावों में उसकी बस्ती में नेता आए थे और खूब झंडे बांटे थे उन्होंने। एक के झंडे छोड़कर सभी के छोटे-छोटे साइज के थे,‘‘मेरे भाइयों ने भी बड़े-बड़े ही बटोरे। फिर चुनाव के बाद तीन- रंगी बैनर भी उन्होंने ही उतारने थे। इतने इकट्ठे हो गए कि माँ ने हम तीनों को दो- दो जोड़ी नए कपड़े सिल दिए।’’ और तीन- रंगी बैनर का एक गमछा भी था जो उसके गले के चारों तरफ बैल्ट की तरह उस दिन भी कसा था।

मैंने उसे सीट पर बैठने का इशारा किया तो वह पोंद की धूल झाड़ते हुए मेरे बगल में आकर बैठ गया। उसकी हाफ कम होते देख मैंने बात शुरू की-‘‘क्यों भाग रहा था चलती गाड़ी पकड़ने? अगली से आ जाता। घंटे भर की ही तो बात थी।’’

वह ठिठुरते हुए आँखों में प्रश्न भरे बोल पड़ा-‘‘सवेरे वहाँ भट्टी कौन सुलगाएगा, कौन पानी भरेगा, कौन बर्तन माँजेगा? नौ बजे तो पानी चला जाता है, पता है तब दूर के पम्प से सारा दिन लाला पानी ढो आएगा, तब!’’ उसकी साँसों की सड़न से लग रहा था कि वह सीधे उठकर आया था। रह- रहकर बुदबुदाता रहा,‘‘अम्मा के पेट में बहुत दर्द रहता है। उसकी पाँवों की सूजन सेंक भी मुझे ही करनी पड़ती है। ननकू और संटी काम- चोर हो गए हैं। शहर की गलियों और कचरा-घरों में खेलते रहते हैं और ज्यादा कबाड़ा नहीं बीन पाते हैं। रुपए-आठ आने के कबाड़े से क्या बनता है? अम्मा के पेट में फिर बच्चा आ गया है। जब पूछो यही कहती है- तुम्हारा कोई बाप नहीं है, तुम्हें अपनी रोटी खुद कमानी है। कभी ठीक रहती है तो किसी मिस्त्री के साथ बेलदारी पर चली जाती है, मगर साल के ज्यादा दिन सोते- कराहते ही काटती है। इस साल की उसकी सूजन तो दिन- पर- दिन बढ़ती जा रही है, फिर वह भी न करे, तो कौन करे....?’’

मैं फिर उसकी समझ और उम्र के गणित में उलझ गया था। लगता रहा वह जीवन के सभी अनुपात पार कर समय से पहले, समय का सवाल बनकर खड़ा हो गया है। मैंने पूछा था-‘‘वह फरीदाबाद में किसी ढाबे पर क्यों नहीं लग जाता? क्यों ठिठुरते हुए दिल्ली आता है?’’ कहा था उसने,‘‘वहाँ भी किया था, बीस रुपया और एक टाइम रोटी पर, यहाँ दो टाइम और पच्चीस मिलने लगे तो आ गया।’’

‘‘पर इससे तो तेरा ही पेट भरा, फिर घर का?’’ उसने बताया था,‘‘मैं एक टेम में इतना खा लेता हूँ कि फिर जरूरत ही नहीं होती और दूसरे टाइम का इस गमछे में बाँधकर अम्मा, ननकू और संटी के लिए ले आता हूँ।’’ अपनी तरकीब पर वह स्वयं गदगद होते कहे जा रहा था-‘‘फिर दो-तीन साल की ही बात है, ननकू कहीं लग जाएगा, फिर संटी फिर सब ठीक...’’

मैं सोचता रहा उसकी आशाओं और सपनों के उस न्यून आकार को जिसमें वह कितनी शिद्दत से समर्पित हो गया है-उसके खून में न विषाद है, न विद्रोह।

न क्षोभ, न प्रतिकार। न जाने कितनी पीढ़ियों से अशक्त और जर्जर होती आ रही जीवन- श्रृंखला की कड़ी है यह। आखिर कौन इनकी शक्तिक्षय का कारण है? कैसे टूटेगा यह शक्ति- क्षय का क्रम?

शिवाजी ब्रिज प्लेटफार्म पर गाड़ी पूरी तरह रुक भी न पाई कि वह लंगड़ाते हुए, बगल से कनाट प्लेस की ओर बढ़ गया।

गुबंदी से मिले तीन दिन हो गए थे। वह सुबह की शटल पर न होता तो मेरी बेचैनी बढ़ जाती- न जाने क्या हुआ हो उसे- मेरी नज़रों उसे तलाशती रहतीं। वह उसी दिन देर रात की वापसी शटल में मिला। मैं उसकी दोनों हथेलियों में तेल से चिकटे कपड़े लिपटे देख चिंतित स्वर में बोला,‘‘ये क्या हुआ गुबंदी?’’ उसने बताया,‘‘लाला बर्तन धोने का सस्ता सोडा खरीद लाया था, बर्तन धोते ही हाथ जल गए। दो दिन तो उसने ग्राहकों के गिलास भी न उठाने दिए। कहता रहा, ग्राहकी खराब होती है, कहीं और काम देख- आज लगाया था, देर हो गई लौटने में।’’ मैंने तपाक से राय दे डाली,‘‘तो उससे दवा के पैसे मांग- उसी के कारण तो तेरे हाथ जले हैं न, लड़ उससे-देख़, दवा करा ले इसकी वर्ना मुसीबत में फँस जाएगा।’’

तब वह मुस्कराते हुए पूछने लगा‘‘किसके लिए लड़ूँ बाबू, पेट के लिए या हाथों के लिए?’’ और तब मेरी सहानुभूति का जैसे उसने पर्दा फाड़कर सच मेरे ही सामने खड़ा कर दिया था। उसने जब कपड़ा हटाकर दिखाया तो मैं काँप गया। उसकी हथेलियों से जैसे किसी ने खुरचकर मांस निकाल दिया हो- मांस के ऊपर जगह-जगह पानी की बूँदें रिस रही थीं- पुनः कपड़ा लपेट उसने हथेलियों को घुटनों के बीच दबा लिया। लग रहा था, वह दर्द को कहीं भीतर अपनी ताकत से दबा रहा है। उसकी बुदबुदाहट भरे स्वर बेहद गर्म होकर कानों में पड़ रहे थे-‘‘बाबूजी, जब तक ताकत है, रोटी तो लानी है। अम्मा और भाई इस रोटी की पोटली का इंतजार करते हैं। हाँ, आजकल लाला बड़ी आनाकानी करने लगा है। आप कह रहे थे न उस दिन, कहीं फरीदाबाद में आप ही लगवा दीजिए न मुझे!’’

हमदर्दी के जिस स्वप्निल आकाश में उड़ता हुआ मैं अब तक अपने को बड़ा लग रहा था, उसके इस एक प्रश्न से ही निरीह और पंगु होकर जमीन पर घिसटने लगा। मैं जानता था, यह मेरे वश की बात नहीं फिर भी एक सांत्वना दे ही गया-‘‘हाँ- हाँ क्यों नहीं, पहले अपने हाथ तो ठीक कर ले, लगवा दूँगा कहीं- न- कहीं...’’

दर्द के मारे वह पोटली नहीं उठा पा रहा था। मैंने कहा,‘‘चल मैं पहुँचा देता हूँ।’’ एक हाथ में अपना ब्रीफकेस और दूसरे में पोटली लिए उसके पीछे-पीछे उसकी झुग्गी तक पहुँचा। उसने ननकू को आवाज लगाई और मुझे वहीं बाहर पोटली रख देने को कहा। दो जोड़ी चमकीली आँखों ने झाँककर आवाज़ दी-‘‘अम्मा, भाई आ गया।’’

‘‘कौन आया है साथ में?’’ उसकी अम्मा की कराहती आवाज़ भीतर से बाहर आई।’’

‘‘एक बाबू हैं, रोटी रखने आए हैं!’’ गुबंदी ने पोटली ननकू को थमाते हुए कहा।

‘‘ठीक है।’’ टूटी- सी अम्मा की आवाज़ ठण्डी पड़ी।

मैंने जिज्ञासावश भीतर झाँककर देखा। मोटे- मोटे नंगे पड़े  पाँव और सूजा हुआ चेहरा। मुझे देखते ही लालटेन की टिमटिमाती लौ भभक पड़ी जैसे, उसकी आँखों में हिकारत जल रही थी। मैं संवेदना जाहिर करने के ध्येय से जैसे ही मुस्कराया कि वह चीख उठी,‘‘देख गुबंदी देख, ये मुझे कैसे देख रहा है- कह दे इससे चला जाए, मैं खाली नहीं हूँ, मैं बीमार हूँ।’’ और वह करवट ले गई। मैं सकपका गया। मुझे अहसास हुआ, सचमुच इतनी रात गए मुझे यहाँ नहीं आना था- इसका कोई और भी अर्थ होता है। गुबंदी तभी बोला था,‘‘नहीं, अम्मा ये वैसे नहीं, बड़े अच्छे आदमी हैं, मैं जानता हूँ इन्हें।’’

मैं एक पल भी वहाँ न ठहर सका, लौटते हुए जब सुनाई दिया-‘‘अरे कलमुँहे, यहाँ सभी अच्छे बनकर आते हैं और चिकनी चुपड़ी बातें बनाकर फौज छोड़कर जाते हैं तेरे पालने वास्ते। समझा, ला रोटी ला, भूख लगी है।’’ तो लगा जैसे शब्दों का गर्म- गर्म सीसा कानों में घुसकर पूरे मस्तिष्क में फैल गया हो। बेतहाशा घर की ओर भागा। पत्नी और बच्चों में मिल बैठकर भी गुंबदी के घर से उड़ी शब्दों की किरमिच पूरे बदन को काटती रही। मैं वहाँ क्यों गया? कोई लफड़ा हो जाता तो! यहाँ अपनी ही जिंदगी सुलट जाए तो बहुत है, फिर गुबंदी की सोचूँ....

और धीरे- धीरे गुबंदी से बनता आया एकात्म रिश्ता संध्या की धूप की तरह सिमटने लगा।; लेकिन अभी हफ्ता भी नहीं हुआ था कि कल शाम फरीदाबाद पहुँचते ही गाड़ी में फुसफुसाहट और बातचीत का सैलाब फैलते- फैलते मेरे कानों तक पहुँचा कि आगे के डिब्बे में गुबंदी की लाश पड़ी है तो मैं एक बारगी चौंक गया। भागकर उसे देखा, गुबंदी की रोटियाँ चारों तरफ फैल गई थीं और वह तीन- रंगी गमछे में ढका निश्चल शांत पड़ा था। पुलिस ने डिब्बे को घेर लिया था और पूछ रहे थे-‘‘कोई जानता है इसे?’’ यद्यपि उसकी वेशभूषा के कारण अधिकतर उसे जानते थे; लेकिन सभी ने उसे पहचानने से इंकार कर दिया। एक बार मेरे मन में भी आया न जाने किस मुसीबत में ये पुलिस वाले फँसा दें, परंतु अपरिचय का मेरा स्वांग गुबंदी के पिछले निश्चल व्यवहार ने चलने नहीं दिया। मैंने पुलिस को बताया कि वह पास की झुग्गी में रहता है और वह उसे जानता है। तभी खबर पा उसकी अम्मा आती दिखाई दी। मैंने आगे बढ़कर कहा-‘‘आपका गुबंदी... शायद हाथ की सेप्टिक से...’’

उसने घूरकर मुझे देखा, रुकी, पहले रोटी पूछी और वापस जाने लगी-‘‘मर गया?’’ अजीब प्रश्न भरी निगाह से देखते हुए पलटकर बोली ‘‘अब रोटी नहीं लाएगा न!’’ जैसे कह रही हो फिर ये मेरा कोई नहीं...कोई नहीं...’’

वह तेज कदमों से प्लेटफार्म से उतरने लगी। ननकू और संटी उससे लिपटकर रोने लगे, तो वह वहीं पसरकर माथा पीटते कहने लगी-‘‘क्या होगा मेरा कलमुँहे! क्या होगा तुम्हारा...’’ जमा दर्शक मंत्रमुग्ध उसकी दहाड़ती आवाज सुन रहे थे- तभी मैंने ननकू की सख्त और संयत आवाज़ सुनी,‘‘तू रो मत अम्मा- रो मत, कल से मैं ढाबे पर जाऊँगा।’’

1 comment:

Anonymous said...

झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले ग़रीबों के जीवन का सजीव चित्रण करती बहुत सुंदर मर्मस्पर्शी कहानी। हार्दिक बधाई। सुदर्शन रत्नाकर