प्रकृतिः
वन सुरक्षित तो हम
भी सुरक्षित
गोवर्धन यादव
बौद्ध जातक में पेड़ों को लेकर एक कथा है। एक अरण्य में बोधिसत्व वृक्ष देवता
होकर पैदा हुए। उससे थोड़ी दूरी पर दूसरे वृक्ष देवता थे। उस वनखण्ड में सिंह और
व्याघ्र रहते थे। उनके भय से वृक्ष सुरक्षित थे, न कोई जंगल में
आता और न ही पेड़ काटता। एक दिन मूर्ख पेड़ ने समझदार पेड़ से कहा-' इन सिंहों के कारण हमारा वन मांस की
दुर्गंध से भर गया है। मैं इनको डराकर भगा दूँ?’। बोधिसत्व ने
कहा-'मित्र,
इनके कारण हम सब
सुरक्षित हैं। इनको भगा दोगे तो हमारा नामोनिशान भी मिट जाएगा’। वह नहीं माना।
उसने सिंहो को भगा दिया। अब क्या था। लोग कुल्हाड़े लेकर आते और पेड़ काट-काट कर ले जाते। इसका दुष्परिणाम यह हुआ
कि धीरे-धीरे जंगल
समाप्ति की ओर बढ़ने लगा और पर्यावरण का संकट आ खड़ा हुआ।
यह छोटी सी कथा हमें बड़ी सीख देती है। यदि वन सुरक्षित रहे तो आदमी भी
सुरक्षित रहेगा। प्रकृति ने जीव-जंतुओं,
वनस्पति,
नदी-पहाड़, वायु,
जल,
खनिज-सम्पदा आदि की रचना की है। प्रकृति के
इन विभिन्न आयामों की रचना करने के पीछे एकमात्र उद्देश्य यही रहा है-' पर्यावरण संरक्षित’रहे। प्रकृति के
द्वारा प्रदत्त विभिन्न आयामो में संतुलन बनाए रखने से पर्यावरण शुद्ध बना रह सकता
है, जो इसके विकास एवं प्रगति में सहायक सिद्ध हो सकता है। इस
संतुलन के साथ छेड़छाड़ कर उसे बिगाड़ने का दु:साहस किया जाता
है, तो अन्य घटकों को परोक्ष व अपरोक्ष रूप से हानि होती है।
मनुष्य व्यक्तिगत स्वार्थ पूर्ति के लिए, पानी के स्त्रोतों को प्रदूषित करते हैं,
हवा में जहरीली
गैस छोड़ते हैं, जमीन और मिट्टी को नष्ट करते हैं,
प्राकृतिक जंगलों
का सफाया कर करते हैं, जिससे संतुलन बिगड़ता है और पर्यावरण पर
कुप्रभाव पड़ता है।
विश्व पर्यावरण दिवस संयुक्त राष्ट्र्र द्वारा सकारात्मक पर्यावरण कार्य हेतु
दुनिया भर में मनाया जाने वाला सबसे बड़ा उत्सव है। पर्यावरण प्रदूषण की समस्या से
निपटने के लिए सन् 1972 में स्टाकहोम (स्वीडन) में विश्व भर के देशों का पहला पर्यावरण
सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसमें करीब 119 देशों ने भाग लिया और पहली बार एक ही पृथ्वी का सिद्धांत
मान्य किया। इसी सम्मेलन में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम का जन्म हुआ तथा
प्रति वर्ष 5 जून को पर्यावरण
दिवस आयोजित करके नागरिकों को प्रदूषण की समस्या से अवगत कराने का निश्चय किया
गया। इसका मुख्य उद्देश्य पर्यावरण के प्रति जागरूकता लाते हुए,
राजनैतिक चेतना
जागृत करना और आम जनता को प्रेरित करना था। उक्त गोष्ठी में तत्कालीन प्रधानमंत्री
श्रीमती इंदिरा गाँधी ने 'पर्यावरण की बिगड़ती स्थिति एवं उसका
विश्व के भविष्य पर प्रभाव’ विषय पर व्याख्यान दिया था। तभी से हम
प्रति वर्ष 5 जून को विश्व
पर्यावरण दिवस मनाते आए हैं।

19 नवम्बर 1986 से पर्यावरण संरक्षण अधिनियम लागू हुआ।
तदनुसार जल, वायु, भूमि-इन तीनों से संबंधित कारक तथा मानव,
पौधों,
सूक्ष्म जीव एवं
अन्य जीवित पदार्थ आदि पर्यावरण के अतर्गत आते है। पर्यावरण संरक्षण अधिनियम के कई
महत्त्वपूर्ण बिंदु है जैसे- पर्यावरण की
गुणवत्ता के संरक्षण हेतु आवश्यक कदम उठाना, पर्यावरण प्रदूषण के निवारण,
नियंत्रण और
उपशमन हेतु राष्ट्रव्यापी कार्यक्रम की योजना बनना और उसे क्रियान्वित करना,
पर्यावरण की
गुणवत्ता के मानक निर्धारित करना, पर्यावरण सुरक्षा से संबंधित अधिनियमों
के अंतर्गत राज्य सरकारों, अधिकारियों और सम्बन्धितों के काम में
समन्वय स्थापित करना, क्षेत्रों का परिसिमन करना,
जहाँ किसी भी
उद्योग की स्थापना अथवा औद्योगिक गतिविधियाँ संचालित न की जा सके आदि-आदि... उक्त अधिनियम का उल्लंघन करने पर कठोर दंड का प्रावधान
करना।
1972 की तुलना में 2018 का परिदृश्य काफ़ी बदला-बदला सा है। आज
विश्व संगठन पर्यावरण प्रदूषण को अपनी मुख्य चिंता मानने लगा है। इसमें संयुक्त
राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम, खाद्य एवं कृषि संगठन और विश्व मौसम
विज्ञान संगठन आदि प्रमुख हैं। अन्य देशों की तरह ही भारत भी,
इस बात को लेकर
चिंतित है कि धरती अधिक गरम होती जा रही है। ओजोन की परत पतली पड़ती जा रही है।
अम्लीय वर्षा और समुद्री प्रदूषण भयावह रूप धारण करता जा रहा है तथा जैविक संपदा
संकट के कगार पर जा पहुँची है। अत: हमारा
उत्तरदायित्व है कि पर्यावरण में संतुलन को बनाए रखने के लिए उसे भगीरथ प्रयास
करना चाहिए
21 दिसंबर 2012 को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने एक और
निर्णय लेते हुए प्रतिवर्ष 21 मार्च को
अंतराष्ट्रीय वन दिवस मनाए जाने की घोषणा की थी। इस घोषणा के चार मुख्य उदेश्य थे (1) जंगल और टिकाऊ शहर (2) जंगल और रोजगार (3) जंगल और जलवायु परिवर्तन और (4) जंगल और ऊर्जा।
प्रकृति का दोहन करें, शोषण नहीं
मानव का प्रकृति से गहरा संबंध है। इस संबंध में प्रकृति पर विजय प्राप्त करने
का दृष्टिकोण पश्चिम के लोगों का है, जबकि भारतीय दृष्टिकोण में प्रकृति
हमारे लिए पूजनीय रही है, भारतीय मूल्य प्रकृति के पोषण और दोहन
करने की है, ना कि शोषण करने की,
अत: इसे नैतिक कृत्य मानकर हमें चलना चाहिए।
हमें व्यक्तिगत स्वार्थ से ऊपर उठकर, मानव मात्र पर पर्यावरण असंतुलन में
पड़ने वाले दुष्प्रभावों को खत्म करते हुए मानव और प्रकृति के सह-अस्तित्व की अभिवृद्धि करने की महती
आवश्यकता है, जो नैतिक आधार पर खरी उतर सके। यही बात विश्व के हर मानव को समझाने में भी
अपना अहम रोल अदा करना चाहिए।
प्रकृति अनैतिक कृत्यों को कभी माफ़ नहीं करती

पोषण को दृढ़ इच्छाशक्ति बनाएँ
जहाँ दोहन होता है, वहाँ पोषण करने की इच्छा-शक्ति भी होनी चाहिए। लेकिन सबसे
महत्त्वपूर्ण बात यह है कि मनुष्य प्रकृति-प्रदत्त संसाधनों
के कुछ भाग का नुकसान, समाज के लिए अत्यंत आवश्यक कार्यों के
लिए करता है तो मानव इस अनैतिकता के अपराध बोध से मुक्त हो जाता है। उसने प्रकृति
का जो नुकसान किया है, वह समझदारी से दोहन किया है और वह भी
सामुदायिक हित में किया है, अत: अनैतिक नहीं है। यदि कोई व्यक्ति केवल आर्थिक आधार या
तकनीकी मूल्यांकन के आधार पर निर्णय लेता है, तो वह गलत भी निकल सकता है। इसी प्रकार
कई ऐसे कदम भी उठाए जा सकते हैं, जो सबसे उपयुक्त न भी हों,
ऐसे कृत्य प्रकृति
को नुकसान पहुँचाते है, अत: प्रकृति के दोहन से पूर्व सावधानी बरतनी चाहिए।
भावी पीढ़ी के लिए समृद्धशाली पर्यावरण छोड़ें
उद्योगपति अपने व्यक्तिगत आर्थिक लाभ कमाने हेतु,
प्रदूषण फ़ैला कर
जन साधारण के साथ खिलवाड़ करते हैं- यह कार्य केवल
कानूनी अपराध ही नहीं, बल्कि नैतिक पतन भी है। ऐसे कृत्यों से
व्यक्तिगत हित और समाज के हित एक-दूसरे से टकराते
है। इन सबका नुकसान प्रकृति को भुगतना पड़ता है। प्रकृति की हानि परिक्षत: मानव की हानि है... उसके जीवन से खिलवाड़ है। जानवरों का शिकार जो प्रतिबन्धित
है या वनस्पति को हानि पहुँचाने का कार्य, वनों की कटाई,
जंगलों को नष्ट
करना, विभिन्न जानवरों को मारकर उनकी खाल ऊँचें दामों में चोरी-छिपे निर्यात करने की घटनाएँ,
आये दिन उजागर
होती हैं, ऐसे कृत्य करने वाले लोग, अपने आपको पुण्य-पाप की दुनिया से ऊपर मानते हैं। इस
प्रकार के कृत्य केवल प्रकृति के साथ छेड़-छाड़ ही नहीं,
बल्कि पूरे समाज
के लिए छेड़-छाड़ है,
क्योंकि ऐसे
लोगों ने, प्रकृति के साथ समाज के मूल्यों व नियमों का उल्लंघन किया
है। अत: ऐसे कार्य
निश्चित ही अनैतिक एवं असामाजिक हैं। हमने जो पूर्व की पीढ़ी से प्राप्त किया है,
उससे अधिक समृद्धशाली
पर्यावरण, भविष्य में आने वाली पीढ़ियों के लिए छोड़ देना चाहते हैं,
जिसमें अधिक सम्पदा
और विकास की प्रबल संभावनाएँ बनी रह सके।
मनुष्य केवल वर्तमान के बारे में ही नहीं सोचता, बल्कि भविष्य के
बारे में भी सोचता है। अत: वह चाहेगा कि
भविष्य में और अधिक सामाजिक विकास हो सके। वर्तमान के कार्यों से ही भविष्य की
उन्नति तय होती है।
हम चाहेंगे कि भविष्य उज्ज्वल हो तो, प्रकृति पर विजय प्राप्त करने की बात,
उसी स्तर तक
सोचें, जिस स्तर पर अपने आपको प्रकृति एवं पर्यावरण का सेवक भी
माने। अत: इस दृष्टिकोण को विस्तृत
आधार प्रदान करने एवं सारे विश्व को एक परिवार आदि जैसे विचारों को हृदयंगम करवाने
हेतु, सार्वजनिक एवं सार्वभौम शिक्षा व्यवस्था की अत्यन्त
अवश्यकता है। जो प्रकृति के उपयोग और रक्षा संबंधी, सभी प्रकार की
समस्याओं को दृष्टि में रखते हुए तैयार की जानी चाहिए।
वर्तमान पीढ़ी, भावी पीढ़ी के लिए समस्याएँ पैदा न करें

प्रकृति मानव मात्र की हितकारी है
प्रकृति का सही ढंग से दोहन व उपयोग करने हेतु, नये दृष्टिकोण के
विकास की आवश्यकता है और इसके लिए व्यक्ति, समाज एवं राष्ट्र के हित से ऊपर उठकर,
मानव मात्र के
हित में सोचने का दृढ़ निश्चय करना होगा तभी पर्यावरण शुद्ध बना रह सकेगा। इस कार्य
हेतु, आज की अनैतिक क्रिया को तत्काल समाप्त करना होगा। प्राकृतिक
सम्पदा और मानव-दक्षता का
दुरुपयोग करके, विलासिता की वस्तुओं को उत्पादित न करते
हुए, बीमारी, भुखमरी, अकाल,
बाढ़,
और गरीबी जैसी
स्थिति से निपटने के लिए, उनका समुचित सदुपयोग किया जाना चाहिए।
यदि मनुष्य इस संसार का केन्द्र-बिंदु है,
तो इसका अर्थ यह
है कि वह सब वस्तुओं से ऊपर है। सारी प्रकृति उसके अधीन है और वह दूसरे जीवों से गुणात्मक
रूप से श्रेष्ठ है, तो वह धरती का भी एक केन्द्र है और बाकी
सब इसके चारों ओर है।
भौतिक शक्तियों के साथ-साथ नैतिक गुणका
भी विकास करें

सर्म्पक: 103, कावेरी नगर,
छिन्दवाड़ा (म.प्र.) 480001,
मो. 09424356400
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