उदंती.com को आपका सहयोग निरंतर मिल रहा है। कृपया उदंती की रचनाओँ पर अपनी टिप्पणी पोस्ट करके हमें प्रोत्साहित करें। आपकी मौलिक रचनाओं का स्वागत है। धन्यवाद।

Aug 14, 2013

ये कैसा मध्याह्न भोजन है...

ये कैसा मध्याह्न भोजन है...
 - रत्ना वर्मा
 बेहतर जीवन जीने के लिए शिक्षा का मनुष्य के जीवन में कितना महत्त्व है , इस बात से कोई भी इंकार नहीं कर सकता।  शिक्षा के मूलभूत अधिकार को ध्यान में रखते हुए  केन्द्र सरकार ने 15 अगस्त 1995 को सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों के लिए मध्याह्न भोजन योजना का शुभारंभ किया था। आरंभ में बच्चों को हर दिन 100 ग्राम अनाज मुफ्त दिया जाता था। फिर 2004 में इस योजना में बदलाव करते हुए कक्षा 1 से 5 तक के बच्चों को  स्कूल में ही खाना पकाकर खिलाना शुरू किया गया तथा अक्टूबर 2007 में कक्षा 1 से 8 तक के बच्चों को मध्याह्न भोजन दिया जाने लगा। इस योजना का आरंभ ही इस उद्देश्य से किया गया था कि खाने के बहाने बच्चे स्कूल तो आएँगे ही और साथ में पढ़ेंगे भी।
उपर्युक्त योजना का फायदा कितना हुआ कितना नहीं हुआ इस समय हम इस मुद्दे पर न जाकर मध्याह्न भोजन योजना में बच्चों को परोसे जाने वाले भोजन की गुणवत्ता पर बात करेंगे, जिसमें की गई लापरवाही की वजह से पिछले माह बिहार के एक स्कूल के 23 बच्चों की मौत हो गई। बच्चों की मौत के बाद से केन्द्र सरकार की इस योजना पर कई गम्भीर सवाल उठ खड़े हुए हैं। हमेशा की तरह सरकार ने जाँच का आदेश जारी कर, मृतकों के परिवारों को नाममात्र का मुआवज़ा देकर या कुछ कर्मचारियों को बर्खास्त कर अपनी जिम्मेदारी तो पूरी कर ली, पर सवाल अभी भी वहीं का वहीं है। अफ़सोस तो इस बात पर है कि विभिन्न राजनीतिक पार्टियाँ सामने आ रहे चुनाव को देखते हुए ऐसे संवेदनशील मुद्दे पर भी राजनीति करने से नहीं चूक रही हैं।
छपरा के 23 बच्चों की मौत ने देशभर में चल रहे मध्याह्न भोजन की इस योजना की सारी पोल खोल कर रख दी है। स्कूलों को निम्न स्तर का अनाज सप्लाई किए जाने की शिकायतें तो जब-तब आती ही रही हैं। बच्चों को परोसे जाने वाले भोजन की पौष्टिकता पर भी सवाल उठाए जाते रहे हैं ; लेकिन किसी ने भी इसे मुद्दा बनाकर इसके विरूद्ध आवाज उठाने की ज़हमत नहीं उठाई ,न किसी  राजनीतिक पार्टी  ने और न किसी अन्य संगठन ने। दरअसल मध्याह्न भोजन योजना का लाभ लेने वाले वे बच्चे हैं ; जिनके घरों में दो जून की रोटी ब-मुश्किल जुट पाती है। माता-पिता इसीसे खुश रहते हैं उनका बच्चा एक समय का खाना स्कूल में खाकर उनके घर की आर्थिक हालत में सहायता ही कर रहा है, साथ ही थोड़ी बहुत पढ़ाई भी कर लेता है। ऐसे अभिभावक भोजन की गुणवत्ता को लेकर आवाज भला उठाएँ भी तो कैसे? लेकिन बच्चों को कीटनाशक युक्त भोजन खिलाए जाने के बाद अब गरीब माता-पिता भी अपने कलेजे के टुकड़े को स्कूल का खाना खिलाने के नाम पर डरने लगे हैं।
केन्द्र सरकार की इस योजना के बारे में वेबसाइट में जो जानकारी दी गई है ,उसके अनुसार एक बच्चे को 50 ग्राम सब्जी, 20 ग्राम दाल और 100 ग्राम चावल दिया जाता है। लेकिन यह हम सब जानते हैं कि कैसी दाल और कैसी सब्जी उन्हें परोसी जाती है। अधिकतर स्कूलों में खाना खुले प्रांगण में पकाया जाता है और बच्चे स्कूल प्रांगण में ही इधर उधर बैठ कर खाना खाते हैं।  अनाज में कीड़े- मकोड़े निकलने और सड़ा-गला अनाज खिलाए जाने की खबरें सुनने को मिलती हैं। अनाज साफ है या नहीं, तेल कौन- सा दिया जा रहा है, सब्जी को धोकर बनाया जाता है या नहीं आदि बातों की निगरानी करने वाला कोई नहीं होता। स्कूलों की स्थिति पर लगातार किए जा रहे अध्ययनों से जो बातें उभर कर आई हैं, उसके अनुसार हमारे देश के अधिकतर सरकारी स्कूलों में बच्चों के बैठने के लिए फर्नीचर, पीने का पानी और शौचालय जैसी मूलभूत जरुरत की व्यवस्था तक नहीं है ; वहाँ भला बच्चों को मुफ्त दिए जाना वाला भोजन कैसे व्यवस्थित और गुणवत्ता के आधार पर दिया जा सकता है, यह सोचने वाली बात है।
 भ्रष्टाचार ने हर जगह अपनी जड़ें जमा ली हैं तो भला मध्याह्न भोजन योजना इससे कैसे अछूता रहती, यहाँ भी करोड़ों के वारे-न्यारे हो जाते हैं।  सरकार ने इस योजना की निगरानी की जिम्मेदारी पंचायतों को अवश्य सौंप दी है ; पर देखा यही गया है कि राशन वितरण  का ठेका भी उन्हीं लोगों के हाथों में हैं , जिनकी पहुँच राजनीतिक स्तर पर है। ऐसे माहौल में इस योजना के उद्देश्य कि  स्कूलों में बच्चों की उपस्थिति बढ़ेगी, कुपोषण के शिकार बच्चों को गुणवत्ता युक्त भोजन मिलेगा, एक साथ बैठकर भोजन करने से भाईचारा बढ़ेगा और जात- पाँत की भावना दूर होगी... आदि आदि न जाने कहाँ विलुप्त हो गये हैं।
सरकारी आँकड़ों के अनुसार 2007 में मध्याह्न भोजन के लिए बजट में 7324 करोड़ रुपए का प्रावधान रखा गया था लेकिन 2013-14 में इसे बढ़ाकर 13215 करोड़ रुपए कर दिया गया है। करोड़ों की ऐसी योजना में कहाँ चूक हो रही है कि हम बच्चों को जहरीला खाना परोस रहे हैं? दरअसल जिस योजना को पूरा करने की जिम्मेदारी बच्चों को पढ़ाने के लिए नियुक्त शिक्षकों के मत्थे ही मढ़ दी जाए वहाँ शिक्षक बच्चों को खाना खिलाएँ या फिर पढ़ाएँ। इस मामले में तमिलनाडु में सफलतापूर्वक चल रहे मध्याह्न भोजन योजना का उदाहरण सामने रखा जाता है कि जब वहाँ के स्कूलों में बगैर किसी गड़बड़ी के निगरानी समीति बनाकर बच्चों को पौष्टिक भोजन खिलाया जा सकता है तो अन्य प्रदेशों में ऐसा क्यों नहीं हो सकता? जाहिर है कि व्यवस्था में ही खामियाँ है और सबसे बड़ी बात ,शासन -तंत्र के पास दृढ़ इच्छा शक्ति का अभाव है।
कोई भी सरकारी योजना देश की बेहतरी के लिए बनती है लेकिन सिर्फ योजना बना देना ही सरकार का काम नहीं है, उसे सही तरीके से लागू करना भी उनकी जिम्मेदारी बनती है। सरकार को, देश में चलने वाली कुछ कल्याणकारी योजनाओं को राजनीतिक फायदे से ऊपर उठ कर देखना होगा। मासूमों की जिंदगी के साथ खिलवाड़ करके वे सत्ता पर आसीन नहीं हो सकते। यदि बच्चों के खाने में लापरवाही हुई है तो इसके लिए पूरे शासन तंत्र को जिम्मेदार माना जाना चाहिए।
छपरा जैसी दुर्घटना फिर न हो इसके लिए दोषियों को सजा हो यह बहुत जरूरी है ,पर साथ ही यह भी जरूरी है कि इस योजना के उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए स्कूलों को अलग से सुविधाएँ प्रदान की जाएँ। एक ऐसी निगरानी समीति बने जिसमें महिला स्वसहायता समूहों तथा स्वयंसेवी संगठनों के साथ-साथ अभिभावकों को भी शामिल किया जा सकता है, जो बच्चों को परोसे जाने वाले भोजन की गुणवत्ता एवं साफ- सफाई पर नजर रखें। यदि सरकार चाहती है कि आर्थिक कमजोरी की वजह से बच्चे स्कूल न छोड़ें और स्कूलों में उनकी उपस्थिति बढ़ती रहे तो उन्हें अब यह विश्वास दिलाना होगा कि बच्चों के भोजन के साथ अब किसी तरह की लापरवाही नहीं की जाएगी और लापरवाही करने वाले पर कड़ी कार्यवाही भी होगी।  
(एक तरफ हम अगस्त माह में 15 तारीख को भारत की आजादी का जश्न मनाने की तैयारी कर रहे हैं पर यह गहरे दुख की बात है कि पुंछ क्षेत्र में भारत के सीमारक्षक वीर, पाकिस्तानी सेना के गोलियों का शिकार हो जाते हैं। जब कठोर कार्यवाही की जाएगी ,तभी पाकिस्तान इस तरह की हिमाक़त  करने से बाज़ आएगा । बयानबाजी से हम पाकिस्तान को नहीं समझा सकते। इसका सिर्फ़ एक ही उपाय है -कड़ा प्रतिकार । दूसरी बात-सुरक्षा जैसे इस नाज़ुक मुद्दे पर राजनैतिक छींटाकशी और वैचारिक विषमता चिन्ता का विषय है। हद तो तब हो जाती है, जब किसी राज्य का मन्त्री भी इन मुद्दों पर बचकाना बयान देने पर उतर आए। ऐसे अवसर पर वाणी-संयम बहुत ज़रूरी है । सीमा पर  शहीद होने वाले  उन वीर जवानों  को  हमारी अश्रुपूरित श्रद्धांजलि। )

1 comment:

Unknown said...

रत्ना जी, ब्रष्टाचार ने मासूम बच्चो को भी नहीं छोड़ा। आपने सही कहा तमिलनाडु में जब मध्यान्ह भोजन का कार्य सफलता पूर्वक चल सकता है, तो अन्य प्रदेशो में क्यू नहीं? इसी तरह पाकिस्तान के प्रति भी कडा प्रतिकार आवश्यक है। बहुत बढ़िया, बधाई.