- विजयानंद विजय
झक्क सफेद कपड़ों में नेता जी गाड़ी से उतरे और
पूरी हनक से गाँव की ओर चल पड़े। आगे-आगे नेता जी, पीछे
से उनकी जयकार करते उनके भक्त और समर्थक। कच्चे-धूल भरे रास्ते पर पड़ती कदमों की
थाप से उड़ती धूल नेता जी के सफेद कपड़ों को धूमिल कर रही थी। कंधे पर कुदाल लिए
कीचड़-मिट्टी से बुरी तरह सना एक वृद्ध किसान उनके पास आया और उनसे पूछा -
आपलोग कौउन हैं भाई ?
- अरे ! हमको नहीं पहचाना ?
- नाहीं।
- अरे, मैं नेताजी हूँ।
- कौउन नेताजी ?
- तुम्हारे क्षेत्र का नेता। तुम्हारा विधायक।
- हाँ। तो..?
- मैं तुम लोगों से मिलने आया हूँ। तुम्हारी
समस्याएँ सुनने और उन्हें दूर करने आया हूँ।
- अच्छा ! पाँच बरिस बाद हमरी याद आई है तुमको
? आँएँ...!
- वो क्या है कि.....!
- चुनाव आय गए तब आए हो... ?
- नहीं, नहीं। ऐसा नहीं
है चचा।
- अइसने है बचवा। अइसने है।
- मैं तुम लोगों की गरीबी,परेशानी दूर करके तुम लोगों के जीवन में खुशियाँ भरने आया हूँ।
- हमको मुरूख समझे हो का बबुआ ? अरे, तुम का भरोगे ? तुम तो
खुदे भरे-पूरे हो।
- क्या मतलब ?
- अपना शरीर देखे हो ? बहुत
विकास कर लिये हो तुम ?
- वो तो... खाया-पिया हुआ, स्वस्थ शरीर है, इसलिए..।
- वही तो ? खाया-पिया
हुआ शरीर। पहिले तो तुम हमरी ही तरह दुबले-पतले थे। इसी धूल-मिट्टी में खेलते थे।
साइकिल से चलते थे और, आज ई गाड़ी, ई
ठाट-बाट...?
- वो तो पार्टी वालों ने....।
- अच्छा ! पार्टी वाला दिया है ? गरीबे का पैसा लूटके न तुम अपना पेट भरा है ? मगर हम
तो हड्डी का ढाँचा ही रह गये बबुआ, देखो।
- तुम्हारी यह ढाँचे वाली हालत पहले की
सरकारों की बदौलत हुई है। हमने तुम्हें ज़िंदा तो रखा है ?
- बस, ज़िंदा इसलिए रक्खे
हो कि हम तुमको वोट दे सकें। और किसी काम का हमें समझे भी हो का तुमलोग ?
- हाँ, तो अगर ज़िंदा
रहना है, तो हमको वोट दो। बस, यही तो
कहने आए थे हम। चलो भाई चलो। राम..राम।
- हाँ, तुम नेता हो।
हमरे नेता। फटी बनियान पहिनकर जीने वाले इ गरीब-मजदूर-किसान सब का नेता, जो दिन में चार बार कपड़ा बदलता है, मँहगी गाड़ी में
चलता है और काजू-बादाम खाता है। इ कइसा परजातंत्र है भाई ?
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