मासूम-से
सवाल
लॉकडाउन से अनलॉक तक का सफर
-डॉ. महेश परिमल
लॉकडाउन से अनलॉक तक का सफर
-डॉ. महेश परिमल
ये कोरोना क्या होता है? हम सब घर पर ही क्यों
हैं? हम स्कूल क्यों नहीं जा रहे हैं? मैं
अपने दोस्तों से कब मिलूँगा? कोई हमारे
घर क्यों नहीं आता? सब्जी वाले से हम उससे दूर-दूर क्यों
रहते हैं? हम खेलने के लिए पार्क क्यों नहीं जा सकते?
इस तरह के सवाल आज हर घर का मासूम अपने
अभिभावकों से पूछ रहा है। इन छोटे-छोटे सवालों के जवाब बहुत ही बड़े-बड़े हैं। इतने
बड़े कि कोई जवाब देना ही नहीं चाहता। कहा जाता है कि बच्चों की जिज्ञासाओं का कोई
पार नहीं। बच्चे बहुत-कुछ जानना चाहते हैं, पर आज उन बच्चों
को अपने मासूम सवाल के जवाब नहीं मिल रहे हैं। पालक भी परेशान हैं, आखिर क्या जवाब हो सकता है, इन मासूम सवालों का?
मासूम चंचल होते हैं। वे अपनी ही छोटी-सी दुनिया में रहते
हैं। उनकी दुनिया में हर कोई अपना ही है। खेलते समय वे कभी भी अपने-पराए का भाव
नहीं रखते। ईश्वर दी हुई अपूर्व भेंट हैं बच्चे। वे आज कुछ पूछ रहे हैं, वे जानना चाहते हैं कि
आज ऐसा सब कुछ क्यों हो रहा है, जो पहले कभी नहीं हुआ। क्यों
पूरा घर उदास है। सभी आखिर तनाव में क्यों हैं? घर का माहौल
क्यों खिंचा-खिंचा-सा है? अब न तो किसी को ऑफिस जाने की हड़बड़ी है और न ही किसी को काम पर जाने की।
सारे काम आराम से हो रहे हैं। कहीं कोई जल्दबाजी नहीं है। ऐसा तो पहले कभी नहीं
देखा गया। लॉकडाउन ने हमारे जीवन को ही इतना प्रभावित कर दिया है कि हम अपनी
जिंदगी नहीं जी पा रहे हैं।
पहले उन्हें मोबाइल से दूर रहने को कहा
जाता था। टीवी नहीं देखने पर जोर दिया जाता था। कहा जाता है कि इससे आँखें खराब होती हैं। अब
दिन में 4 से 5 घंटे की क्लास मोबाइल
पर ही लग रही है। घर से बाहर नहीं जाना है, तो टीवी देखो। तो
क्या अब आँखें खराब नहीं होंगी? हमारे
आसपास होने वाली सारी घटनाओं को समझ भी रहे हैं, ये मासूम। वे
भी कोरोना के संक्रमण को जानना सीख गए हैं। उन्हें पता है कि बिना मास्क के घर से
नहीं निकलना चाहिए। सेनेटाइजर का इस्तेमाल करना चाहिए। इसके अलावा सोशल
डिस्टेंसिंग का खयाल तो रखना ही चाहिए। इनकी सोच केवल यहीं तक सीमित नहीं रहती। वह
इससे भी दूर जाकर वहाँ ठिठक जाती है, जहाँ झुग्गी बस्ती है।
यहाँ रहने वाले तो रोज़ कमाते-खाते हैं। दो महीने से रोजगार नहीं है, तो ये कैसे करेंगे कोरोना से लड़ने की तैयारी? घर से
निकल नहीं सकते। मजदूरी नहीं करेंगे, तो खाएँगे क्या?
फिर इत्ती छोटी-सी झोपड़ी में कैसे पालन करेंगे, सोशल डिस्टेंसिंग का। सरकार के सारे दावे झूठे साबित हुए। कोरोना तो अब भी
पाँव पसार रहा है। जब देश में कुल 500 मरीज
थे, तो लॉकडाउन कर दिया गया। अब लाखों
हैं, तो सारे रास्ते खोले जा रहे हैं।
अब वंदे भारत मिशन चलाया जा रहा है।
बच्चा पूछता है कि जब देश के भीतर ही एक राज्य से दूसरे राज्य में लोगों को सकुशल
नहीं भेज पाए, तो अब विदेशों में फँसे लोगों को लाया जा रहा है।
देश के मजदूर देश के भीतर ही मजबूर हो गए। पहले जिन मजदूरों के हाथों की जादूगरी
से विशाल अट्टालिकाएँ बनती थीं, तो उस पर लोग गर्व करते थे।
सरकार उनके हाथों की ताकत को पहचानती थी। उन हाथों ने निर्माण का रास्ता दिखाया।
पर सरकार भूल गई कि उन्हीं मजबूत हाथों वाले मजदूरों के पाँव भी उतने ही मजबूत
हैं। हाथों से अट्टालिकाएँ बना सकते हैं, तो पाँवों से लम्बी दूरियाँ भी तय कर सकते हैं। सरकार इनके पाँवों की ताकत को नहीं पहचान पाई। मजदूर मजबूर होकर चल पड़े, पाँवों से रास्ता नापने। रास्ते खराब थे, पर मन के भीतर
थी, घर जाने की अकुलाहट। इसी अकुलाहट ने पाँवों को शक्ति दी।
वे चल पड़े अपने घरों की ओर। इस दौरान कई ने रास्ते में ही दम तोड़ दिया। कई सोते
लोगों पर मौत उनके ऊपर से गुजर गई। पर उनका चलना जारी रहा। तीखी धूप भी उनके पाँवों
को रोक नहीं पाई। हर कदम के साथ यही संकल्प था कि अब घर में भूखे मर जाएँगे,
पर दूसरी जगह काम पर नहीं जाएँगे।
बेबस मजदूरों का इस तरह से उमड़ना सरकार के सारे वादों को
झुठलाता रहा। शुरुआत में सारे प्रयास नाकाफी हुए। जब पूरे देश में इस मामले पर
हाहाकार मचा, तब सरकार जागी। यही सब कुछ सरकार ने पहले कर लिया होता, तो यह फजीहत नहीं होती।
बच्चे सब देख समझ रहे हैं। उनसे कोई कुछ
नही पूछता, वही सबसे पूछते हैं। उन्हें बच्चा समझकर चुप करा दिया जाता है। पर उनके
सवाल वहीं खड़े रहते हैं। उन्हें जवाब चाहिए। कौन देगा उनके मासूम सवालों का जवाब।
सभी खामोश हैं। कोई बोलता क्यों नहीं? लॉकडाउन खुल जाएगा,
जिंदगी पटरी पर लौटने भी लगेगी। पर लॉकडाउन से उपजे सवाल वहीं के
वहीं होंगे। अभी मॉल नहीं खुल पाए हैँ। मंदिर के दरवाजे भी बंद हैं। पर जिसे सभी
बुरी कहते हैं, वही शराब की दुकानें खुल गई हैं। सरकार को
यही चीज सबसे ज्यादा जरूरी लगी। एक आम नागरिक कहता है कि लॉकडाउन के दौरान यदि शहर
के गुरुद्वारे खोल दिए गए होते, तो कोई भूखे नहीं रहता। कोई
अपने घर जाने से वंचित नहीं रहता। इस दौरान मासूमों ने देखा कि सभी संस्थाओं ने
अपनी तरफ से समाज की पूरी सेवा की, पर जो सेवा भाव सिख
समुदाय में देखा गया, वह किसी में नहीं। इस कौम पर हम गर्व
कर सकते हैं कि ये केवल सेवा करती है, दिखावा नहीं करती। बच्चे
पूछते हैं, इन्हें कौन बताता है कि नि:स्वार्थ सेवा कैसे की
जाती है? किसके पास है इसका मासूम का जवाब?
T3-204 Sagar Lake View, Vrindavan Nagar, Ayodhya By pass, BHOPAL 462022, Mo.09977276257
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