पंजाबी कहानी
पंजाबी कहानी का जन्म सन् 1930 के आसपास का माना जाता है ,जबकि पंजाबी उपन्यास ने अपनी उपस्थिति 19वीं सदी के अन्त से ही दर्ज करा दी थी। नानक सिंह(1897-1971) उपन्यासकार पहले माने जाते हैं, कहानीकार बाद में। उन्होंने 38 उपन्यासों, 9 कहानी संग्रह, 4 कविता संग्रह, 4 नाटकों की रचना की। इनके अतिरिक्त एक लेख संग्रह और एक आत्मकथा प्रकाशित हुई है। इन्होंने अनेक पुस्तकों का पंजाबी में अनुवाद कार्य भी किया। नानक सिंह की पहली कहानी ‘रखड़ी’ शीर्षक से सन् 1927 में छपी थी। सन् 1934 में उनका पहला कहानी संग्रह ‘हंझुआं दे हार’ छपा था। बेशक नानक सिंह को आधुनिक पंजाबी उपन्यास के अग्रणी निर्माताओं में गिना जाता है ; लेकिन जब पंजाबी कहानी की बात चलती है, तो कहानी के क्षेत्र में उनके योगदान को नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता। ‘ताश की आदत’ मानव चरित्र के दोहरेपन को उजागर करती नानक सिंह की एक बहुत ही रोचक और दमदार कहानी है।
-नानक
सिंह
(अनुवाद: सुभाष नीरव)
(अनुवाद: सुभाष नीरव)
“रहीमे... !”
शेख अब्दुल हमीद सब-इंस्पेक्टर ने घर में
प्रवेश करते ही हाँक लगाई- “बशीरे को मेरे
कमरे में भेज ज़रा।” और तेज कदमों से अपने निजी कमरे में पहुँच, उसने कोट और पेटी उतारी और मेज के आगे जा बैठा। मेज पर बहुत सारा सामान
बिखरा पड़ा था। एक कोने में कानूनी और गैर-कानूनी मोटी-पतली किताबों और काग़ज़ों से
ठुँसी हुई फाइलों का ढेर पड़ा था। बीच में कलमदान और उसके निकट ही आज की आई हुई डाक
पड़ी थी, जिसमें छह लिफाफे, दो-तीन
पोस्टकार्ड और एक-दो अखबार भी थे। पिनकुशन,
ब्लॉटिंग पेपर, पेपरवेट, टैग के साथ-साथ और बहुत-सा छोटा-मोटा सामान इधर-उधर पड़ा था।
बैठते ही शेख ने दूर की ऐनक उतारकर मेज के
सामने, जहाँ कुछ जगह खाली थी, टिका दी
और नज़दीक की ऐनक लगाकर डाक देखने लगा।
उसने अभी दो लिफाफे ही खोले थे कि करीब पाँचेक
साल का एक बालक अन्दर आता दिखाई दिया।
बालक दीखने में बड़ा चुस्त, चालाक और शरारती-सा था, पर पिता के कमरे में घुसते
ही उसका स्वभाव एकाएक बदल गया। चंचल और फुर्तीली आँखें झुक गईं। शरीर में जैसे जान
ही न रही हो।
“बैठ जा, सामने कुर्सी
पर..” एक लम्बी चिट्ठी पढ़ते हुए शेर की तरह गरजकर शेख ने
हुक्म दिया।
लड़का डरते-डरते
सामने बैठ गया।
“मेरी ओर देख...”-
चिट्ठी पर से अपना ध्यान हटा कर शेख कड़का, “सुना है, तूने आज ताश खेली थी ?”
“नहीं अब्बा जी।” लड़के ने सहमते हुए कहा।
“डर मत।” शेख ने अपनी आदत के उलट कहा,
“सच -सच बता दे, मैं
तुझे कुछ नहीं कहूँगा। मैंने खुद तुझे देखा था, अब्दुला के
लड़के के साथ। उनके आँगन में तू खेल रहा था। बता, खेल रहा था
कि नहीं ?”
लड़का मुँह से कुछ न बोला। लेकिन ‘हाँ’ में
उसने सिर हिला दिया।
“शाबाश !” शेख नरमी से
बोला, “मैं तुझसे बड़ा खुश हूँ कि आखिर तूने सच -सच बता दिया। असल में बशीर, मैंने खुद नहीं देखा था,
सुना था। यह तो तुझसे इकबाल करवाने का तरीका था। बहुत सारे मुलज़िमों
को हम इसी तरह बकवा लेते हैं। खै़र, मैं तुझे आज कुछ ज़रूरी
बातें समझाना चाहता हूँ। ज़रा ध्यान से सुन।”
‘ध्यान से सुन’ कहने के बाद उसने बशीर की ओर
देखा। वह पिता की ऐनक उठाकर उसकी कमानियाँ ऊपर-नीचे कर रहा था।
ऐनक लड़के के हाथ से लेकर और साथ ही फाइल में
से वारंट का मजबून मन ही मन पढ़ते हुए शेख ने कहा, “तुझे
मालूम होना चाहिए कि एक गुनाह बहुत सारे गुनाहों का जन्म देता है। इसकी जिन्दा
मिसाल यह है कि ताश खेलने के गुनाह को छिपाने के लिए तुझे झूठ भी बोलना पड़ा। यानी
एक की जगह तूने दो गुनाह किए।”
वारंट को पुनः फाइल में नत्थी करते हुए शेख
ने बालक की ओर देखा। बशीर पिनकुशन में से पिनें निकालकर टेबल-क्लॉथ में चुभा रहा
था।
“मेरी ओर ध्यान दे।” उसके हाथों में से पिनों
को छीनकर शेख एक अख़बार खोलकर देखते हुए बोला, “ताश भी एक
क़िस्म का जुआ होता है, जुआ ! यहीं से बढ़ते-बढ़ते जुए की आदत
पड़ जाती है आदमी को, सुना तूने ? और यह
आदत न केवल अपने तक ही महदूद रहती है बल्कि एक आदमी से दूसरे को, दूसरे से तीसरे को पड़ जाती है। ऐसे जैसे खरबूजा खरबूजे को देखकर रंग पकड़ता
है।”
कलमदान में से उँगली पर स्याही लगाकर बशीर एक
कोरे काग़ज़ पर आड़ी-तिरछी रेखाएँ खींच रहा था। खरबूजे का नाम सुनते ही उसने उंगली को
मेज की निचली बाही से पोंछकर पिता की ओर इस तरह देखा, मानो
वह सचमुच में कोई खरबूजा हाथ में लिये बैठा हो।
“बशीर !” उसके आगे से
कलमदान उठाकर एक ओर रखते हुए शेख चीखकर बोला, “मेरी बात
ध्यान से सुन !”
अभी वह इतना ही कह पाया था कि तभी टेलीफोन की
घंटी बज उठी। शेख ने उठकर रिसीवर उठाया, “हैलो ! कहाँ से बोल
रहे हो ? बाबू पुरुषोत्तम दास ?... आदाब
अर्ज़ ! सुनाओ, क्या हुक्म है ?... लॉटरी
की टिकटें ?... वह मैं आज शाम पूरी करके भेज दूँगा... कितने
रुपये हैं पाँच टिकटों के ?... पचास ?... खै़र, पर कभी निकाली भी हैं आज तक... किस्मत न जाने
कब जागेगी... और तुम किस मर्ज़ की दवा हो... अच्छा आदाब !“
रिसीवर रखकर वह पुनः अपनी कुर्सी पर आ बैठा
और बोला, “देख ! शरारतें न कर। पेपर वेट नीचे गिर कर टूट
जाएगा। इसे रख दे और ध्यान से मेरी बात सुन !”
“हाँ, मैं क्या कह रहा
था ? एक फाइल का फीता खोलते हुए शेख ने कहा, “ताश की बुराइयाँ बता रहा था। ताश से जुआ, जुए से
चोरी, और चोरी के बाद पता नहीं क्या-क्या ?” बशीर की ओर देखते हुए कहा, “फिर जेल यानी कैद की
सजा।”
फाइल में से बाहर निकले हुए एक पीले काग़ज़ में
बशीर पंच की सहायता से छेद कर रहा था।
“नालायक पाज़ी !” शेख
उसके हाथों से पंच खींचते हुए बोला, “छोड़ इन बेकार के कामों
को और मेरी बात ध्यान से सुन ! तुझे पता है, कितने चोरों का
हमें हर रोज़ चालान करना पड़ता है ?... और ये सारे ताश खेल-खेल
करही चोरी करना सीखते हैं। अगर यह कानून का डंडा इनके सिर पर न हो तो न जाने क्या
क़यामत ला दें।” इसके साथ ही शेख ने मेज के एक कोने में पड़ी किताब ‘ताज़ीरात हिन्द’
की ओर इशारा किया। लेकिन बशीर का ध्यान एक दूसरी ही किताब की ओर था। उसके ऊपर
गत्ते पर से जिल्द का कपड़ा थोड़ा-सा उतरा हुआ था जिसे खींचते-खींचते बशीर ने आधा
नंगा कर दिया था।
“बेवकूफ़, गधा!’’ किताब उसके पास से उठा कर दूर रखते हुए शेख बोला, “तुम्हें
जिल्दें उधेड़ने के लिए बुलाया था ? ध्यान से सुन !” और कुछ
सम्मनों पर दस्तख़त करते हुए उसने फिर लड़ी को जोड़ा, “हम पुलिस
अफ़सरों को सरकार जो इतनी तनख्वाहें और पेंशनें देती है, तुझे
पता है, क्यूँ देती है ? सिर्फ़ इसलिए
कि हम मुल्क़ में से जु़र्म का खातमा करें। पर अगर हमारे ही बच्चे ताश-जुआ खेलने लग
जाएँ ,तो दुनिया क्या कहेगी ? और हम
अपना नमक किस तरह हलाल...“
बात अभी पूरी भी न हुई थी कि पिछले दरवाजे से
उनका एक ऊँचा-लम्बा नौकर भीतर आया। यह सिपाही था। शेख हमेशा ऐसे ही दो-तीन वफ़ादार
सिपाही घर में रखा करता था। इनमें से एक पशुओं को चारा-पानी देने और भैंसों को
दुहने के लिए, दूसरा- रसोई के काम मे मदद करने के लिए और
तीसरा जो अन्दर था- यह असामियों से रकमें खरी करने के लिए रखा हुआ था। उसने झुककर
सलाम करते हुए कहा, “वो आए बैठे हैं जी।”
“कौन ?“
“वही बुघी बदमाश के आदमी... जिन्होंने दशहरे
के मेले में जुआखाना लगाने के लिए अर्जी दी थी।”
“फिर तू खुद ही बात कर लेता।”
“मैंने तो उन्हें कह दिया था कि शेख जी ढाई
सौ से कम में नहीं मानते, पर...”
“फिर वो क्या कहते हैं ?“
“वो कहते हैं, हम एक
बार खुद शेख जी की क़दमबोसी करना चाहते हैं। अगर तकलीफ़ न हो तो कुछ देर के लिए चले
चलें। बहुत देर से इंतज़ार कर रहे हैं।”
“अच्छा चलो।” कह कर शेख जब उठने लगा तो उसने
बशीर की ओर देखा। वह ऊँघ रहा था। यदि वह तुरन्त उसे डाँटकर जगा न देता ,तो
उसका माथा मेज से जा टकराता।
“जा, आराम कर जा कर।”
शेख कोट और बेल्ट सँभालते हुए बोला, “बाकी
नसीहतें तुझे शाम को दूँगा। दुबारा ताश न खेलना।”
और वह बाहर निकल गया। बालक ने खड़े होकर एक-दो
लम्बी उबासियाँ लेते हए शरीर का ऐंठा, आँखों को मला और फिर
उछलता-कूदता बाहर निकल गया।
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