पारंपरिक विश्वास और आज का विज्ञान
-डॉ. डी.
बालसुब्रमण्यन
कुछ दिनों पहले राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा अभियान के केंद्रीय
प्रभारी मंत्री ने भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (ICMR)
से सम्पर्क करके यह सुझाव दिया था कि परिषद कोरोनावायरस के संक्रमण (कोविड-19)
के इलाज में गंगाजल के उपयोग पर शोध करे। इस पर भारतीय
चिकित्सा अनुसंधान परिषद ने स्पष्ट किया कि इस सम्बंध में उपलब्ध डैटा इतना पुख्ता
नहीं है कि इसके नैदानिक परीक्षण शुरू किए जा सकें और इस प्रस्ताव को विनम्रतापूर्वक
अस्वीकार कर दिया - क्या बात है!
लाखों लोग गंगा नदी
को दुनिया की सबसे पवित्र और पूजनीय नदी मानते हैं। समुद्र तल से 3.9 कि.मी. या 13,000 फीट की ऊँचाई पर स्थित, हिमालय के गंगोत्री ग्लेशियर के गोमुख से निकलने के बाद,
रास्ते में कई धाराओं का जल अपने में समाहित करते हुए,
हरिद्वार के पास देवप्रयाग में आकर यह गंगा नदी कहलाती है।
गंगा उत्तर भारत के मैदानी इलाकों - उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल से होते हुए 2525 किलोमीटर की दूरी तय कर बंगाल की खाड़ी में मिल जाती हैं।
गंगा के किनारे बसे लोग (ज़्यादातर हिंदू, लेकिन कुछ अन्य भी) इसे पूजते हैं,
इसमें स्नान करते हैं, और पूजा और अन्य धार्मिक कार्यों के लिए इसका जल अपने घरों
में रखते हैं (गंगाजल विदेशों में बेचा भी जाता है,जैसे कैलिफोर्निया की भारतीय दुकानों में मैंने खुद देखा है)।
गंगा मैया के प्रति लोगों की श्रद्धा और भक्ति ऐसी ही है।
पवित्र और अपवित्र
यह दुर्भाग्य है कि
सदियों से हरिद्वार क्षेत्र में ही मानव अवशिष्ट निपटान और व्यवसायिक कारणों से
गंगा का जल प्रदूषित होता जा रहा है। एप्लाइड वॉटर साइंस पत्रिका में आर. भूटानिया
और उनके साथियों ने 2016 में जल गुणवत्ता सूचकांक के संदर्भ में हरिद्वार में गंगा
नदी के पारिस्थितिकी तंत्र का आकलन शीर्षक से एक शोध पत्र प्रकाशित किया था,
जिसे पढ़कर निराशा ही होती है। गंगा के प्रदूषण पर सबसे ताज़ा
अध्ययन न्यूयॉर्क टाइम्स के 23 दिसंबर 2019 के अंक में प्रकाशित हुआ था। इस आलेख में आईआईटी दिल्ली के
शोधकर्ताओं द्वारा गंगा के संदूषण और इसमें हानिकारक बैक्टीरिया,
जो वर्तमान में उपयोग की जाने वाली एंटीबयोटिक दवाइयों के
प्रतिरोधी की उपस्थिति के बारे में प्रस्तुत रिपोर्ट का सार प्रस्तुत
किया गया है। दूसरे शब्दों में, जहाँ से गंगा बहना शुरू होती है ठेठ वहीं से इसका जल (गंगाजल) मानव और पशु स्वास्थ्य के लिए
हानिकारक है। जैसे-जैसे यह आगे बहती है कारखानों से निकलने वाला औद्योगिक कचरा
इसमें डाल दिया जाता है, जिससे इसके पानी की गुणवत्ता और सुरक्षा और भी कम हो जाती
है। हाल
ही में पुण्य नगरी वाराणसी की एक रिपोर्ट कहती है कि वर्तमान लॉकडाउन के दौरान
गंगा नदी के जल की गुणवत्ता में 40-50 प्रतिशत सुधार हुआ है (इंडिया टुडे,
6 अप्रैल 2020)।
हमने यह लौकिक
अनाचार होने कैसे दिया? निश्चित रूप से, गंगा जल का उपयोग करने वाले अधिकतर लोग श्रद्धालु हैं;
यहाँ तक कि कई उद्योगों के प्रमुख या मालिक भी गंगा को
पवित्र मानते होंगे। और तो और, समय-समय पर इसके जल का पूजा में उपयोग करते होंगे। लेकिन
फिर भी वे इसे प्रदूषित करते हैं। (यहाँ यह ज़रूरी नहीं कि ‘लौकिक’ शब्द इन लोगों के विश्वास को नकारता है; बल्कि यह लोगों के सांसारिक सरोकार दर्शाता
है, और
यह ‘अच्छाई बनाम बुराई’ या ‘देवता बनाम शैतान’ का मामला नहीं है)। दरअसल, ‘इससे मुझे क्या फायदा होगा’ वाला रवैया लोकाचार की दृष्टि से (और शायद नैतिक रूप से भी)
गलत है। इस दोहरेपन के चलते लगता नहीं कि गंगा मैया का भविष्य स्वच्छ और सुरक्षित
है।
वापस विज्ञान पर
आते हैं। जैसा कि उल्लेख है गंगा में अत्यधिक विषैले रोगाणु (और हानिकारक रासायनिक अपशिष्ट) मौजूद हैं,
लेकिन आश्चर्य की बात है कि इसमें रहने वाली मछलियों की 140 प्रजातियाँ, उभयचरों की 90 प्रजातियाँ, सरीसृप, पक्षी, और गंगा नदी की प्रसिद्ध डॉल्फिन और घड़ियाल (मछली खाने वाले
मगरमच्छ) इस प्रदूषित पानी का सामना कर पाते हैं, खासकर अब, जब यह कोविड-19 वायरस से भी संदूषित है। क्या उनके पास विशेष प्रतिरक्षा
है,
और क्या वे ऐसे रोगजनकों से लड़ने के लिए इनके खिलाफ एंटीबॉडी
बनाते हैं? यह
एक ऐसा मुद्दा है,
जिसका ध्यानपूर्वक अध्ययन किया जाना चाहिए और इसे मानव की रक्षा के लिए अपनाया
जाना चाहिए।
ऐसे ही कुछ दिलचस्प अवलोकन लामा, ऊँट और शार्क जैसे जानवरों की प्रतिरक्षा के अध्ययनों में
सामने आए हैं। साइंस पत्रिका के 1 मई 2020 के अंक में मिच लेसली बताते हैं कि जीव विज्ञानियों ने
लामा के रक्त और आणविक सुपरग्लू की मदद से वायरस से लड़ने का एक नया तरीका खोजा है।
यह देखा गया है कि लामा, ऊँट और शार्क की प्रतिरक्षा कोशिकाएँ लघु एंटीबॉडी छोड़ती
हैं, जो सामान्य एंटीबॉडी से लगभग आधी साइज़ की होती
हैं। मुख्य बात यह है कि ये जानवर लघु एंटीबॉडी बनाते हैं , जिन्हें
प्रयोगशाला में आसानी से संश्लेषित किया जा सकता है और वायरस के खिलाफ हथियार के
रूप में उपयोग किया जा सकता है। इस बारे में विस्तार से बताता एक शोधपत्र हाल ही
में सेल पत्रिका में प्रकाशित हुआ है। डॉल्फिन के संदर्भ में सी. सेंटलेग और उनके
साथियों का पेपर अधिक प्रासंगिक है। यह अध्ययन भूमध्यसागर और अटलांटिक सागर के
केनेरी द्वीप के डॉल्फिन्स पर किया गया है। भूमध्य सागर अत्यधिक प्रदूषित है जबकि
केनरी द्वीप का पानी शुद्ध है।
मुझे लगता है कि हम इन अध्ययनों से सीख सकते हैं। गंगा नदी की डॉल्फिन और
घड़ियालों पर शोध करके उनकी लघु-एंटीबॉडी की पहचान कर सकते हैं,
उन्हें लैब में संश्लेषित कर सकते हैं,
और इन्हें कोविड-19 और ऐसे अन्य वायरसों से मनुष्य की सुरक्षा के लिए अपना
सकते हैं। हैदराबाद स्थित डिपार्टमेंट ऑफ बायोटेक्नॉलॉजी प्रयोगशाला,
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एनिमल बायोटेक्नोलॉजी में यह शोध किया
सकता है।
उपर्युक्त मंत्री के विपरीत आयुष मंत्रालय के
प्रभारी मंत्री का अनुरोध है कि अश्वगंधा, मुलेठी, गिलोय और पॉलीहर्बल औषधि (जिसे आयुष 64 कहते हैं) की कोविड-19 के खिलाफ रोग-निरोधन की प्रभाविता जाँचने के लिए एक
नियंत्रित रैंडम अध्ययन करवाया जाए। यह अध्ययन किया जाना चाहिए; क्योंकि पर्याप्त प्रमाण हैं कि पारंपरिक
जड़ी-बूटियों और पादप रसायनों में चिकित्सकीय गुण होते हैं,
और दवा कंपनियाँ उनके सक्रिय रसायनों को खोजकर,
संश्लेषित करके उपयोग करती हैं। बहुविद एम. एस. वलियाथन
पिछले दो दशकों से आयुर्वेद चिकित्सकों, जैव रसायनविदों,कोशिका जीव विज्ञानियों, आनुवंशिकीविदों और नैनोप्रौद्योगिकीविदों के साथ मिलकर
आधुनिक वैज्ञानिक तरीकों का उपयोग करके पारंपरिक औषधियों के प्रभावों को परखने का
काम कर रहे हैं। (जैसे आप उनका 1 मार्च 2016 के प्रोसीडिंग्स ऑफ दी इंडियन नेशनल साइंस एकेडमी में
प्रकाशित पदक व्याख्यान ‘आयुर्वेदिक जीव विज्ञान : पहला दशक’ पढ़ सकते हैं। इसमें वे आधुनिक विज्ञान की मदद से आयुर्वेद
पर किए गए प्रयोगों, और उनके प्रमाणित परिणामों के बारे में बताते हैं।) 2012 में प्लॉस वन पत्रिका में वी. द्विवेदी का ऐसा ही एक पेपर
ड्रॉसोफिला मेलानोगास्टर मॉडल पर पारंपरिक आयुर्वेदिक औषधियों के प्रभावों का
चिकित्सीय अनुप्रयोगों से सम्बंध प्रकाशित हुआ था। तो इस तरह से परंपरा और आज के विज्ञान
का संगम संभव, वे
साथ आ सकते हैं।
आयुष शायद कोविड-19
से लड़ सकता है, गंगाजल तो केवल इसे धारण कर सकता है।
महामारी
का अंत कैसे होगा

वास्तव में वायरस निरंतर उत्परिवर्तित होते रहते हैं। किसी भी महामारी को शुरू
करने वाले वायरस में इतनी नवीनता होती है कि मानव प्रतिरक्षा प्रणाली उन्हें जल्दी
पहचान नहीं पाती। ऐसे में बहुत ही कम समय में बड़ी संख्या में लोग बीमार हो जाते
हैं। भीड़भाड़ और दवा की अनुपलब्धता जैसे कारणों के चलते इस संख्या में काफी तेज़ी से
वृद्धि होती है। अधिकतर मामलों में तो प्रतिरक्षा प्रणाली द्वारा विकसित एंटीबॉडीज़
लम्बे समय तक बनी रहती हैं,
प्रतिरक्षा प्रदान करती हैं और व्यक्ति से व्यक्ति में
संक्रमण को रोक देती हैं। इस तरह के
परिवर्तनों में कई साल लग जाते हैं, तब तक वायरस तबाही मचाता रहता है। पूर्व की महामारियों के
कुछ उदाहरण देखते हैं।
रोग के साथ जीवन
आधुनिक इतिहास का एक उदाहरण 1918-1919 का एच1एन1 इन्फ्लुएंज़ा प्रकोप है। उस
समय डॉक्टरों और प्रशासकों के पास आज के समान साधन उपलब्ध नहीं थे और स्कूल बंद
करने जैसे नियंत्रण उपायों की प्रभावशीलता इस बात पर निर्भर करती थी कि उन्हें
कितनी जल्दी लागू किया जाता है। लगभग 2 वर्ष और महामारी की 3 लहरों ने 50 करोड़
लोगों को संक्रमित किया था और लगभग 5 से 10 करोड़ लोग मारे गए थे। यह तब समाप्त हुआ
था जब संक्रमण से उबर गए लोगों में प्राकृतिक रूप से प्रतिरक्षा पैदा हो गई।
इसके बाद भी एच1एन1 स्ट्रेन कुछ हल्के स्तर पर 40 वर्षों तक मौसमी वायरस के
रूप में मौजूद रहा। और 1957 में एच2एन2 स्ट्रेन की एक महामारी ने 1918 के अधिकांश
स्ट्रेन को खत्म कर दिया। एक वायरस ने दूसरे को बाहर कर दिया। वैज्ञानिक नहीं
जानते कि ऐसा कैसे हुआ। प्रकृति कर सकती है, हम नहीं।
कंटेनमेंट
2003 की सार्स महामारी का कारण कोरोनावायरस SARS-CoV था। यह वर्तमान महामारी के वायरस (SARS-CoV-2) से काफी निकटता से सम्बन्धित था। उस समय की आक्रामक रणनीतियों,
जैसे रोगियों को आइसोलेट करने,
उनसे संपर्क में आए लोगों को क्वारेंटाइन करने और सामाजिक
नियंत्रण से इस रोग को हांगकांग और टोरंटो के कुछ इलाकों तक सीमित कर दिया गया था।
गौरतलब है कि यह कंटेनमेंट इसलिए सफल रहा था; क्योंकि इस वायरस के लक्षण काफी जल्दी नज़र आते थे और यह वायरस
केवल अधिक बीमार व्यक्ति से ही किसी अन्य व्यक्ति को संक्रमित कर सकता था। अधिकतर मरीज़ लक्षण प्रकट होने के एक सप्ताह बाद ही संक्रामक होते थे। यानी यदि
लक्षण प्रकट होने के बाद उस व्यक्ति को अलग-थलग कर दिया जाता तो संक्रमण आगे नहीं
फैलता था। कंटेनमेंट का तरीका इतना कामयाब रहा कि इसके मात्र 8098 मामले सामने आए
और सिर्फ 774 लोगों की ही मौत हुई। 2004 से लेकर आज तक इसका कोई और मामला सामने
नहीं आया है।
विशेषज्ञों के अनुसार 2009 में स्वाइन फ्लू का वायरस 1918 के एच1एन1 वायरस के
समान ही था। हम काफी भाग्यशाली रहे कि इसकी संक्रामक और रोगकारी क्षमता बहुत कम थी
और छह माह के अंदर ही इसका टीका विकसित कर लिया गया था। गौरतलब है कि खसरा या चेचक
के टीके के विपरीत, फ्लू के टीके कुछ वर्षों तक ही सुरक्षा प्रदान करते हैं।
इन्फ्लुएंज़ा वायरस जल्दी-जल्दी उत्परिवर्तित होते रहते हैं,
और इसलिए इनके टीकों को भी हर साल अद्यतन करने और नियमित
रूप से लगाने की ज़रूरत होती है।
वैसे महामारी के दौरान अल्पकालिक टीके भी काफी महत्त्वपूर्ण होते हैं। वर्ष 2009 के वायरस के खिलाफ विकसित टीके ने अगले जाड़ों में इसके पुन: प्रकोप
को काफी कमज़ोर कर दिया था। टीके की बदौलत ही 2009 का वायरस ज़्यादा तेज़ी से 1918 के
वायरस की नियति को प्राप्त हो गया। जल्दी ही इसे मौसमी फ्लू के रूप में जाना जाने
लगा, जिसके विरुद्ध अधिकतर लोग संरक्षित हैं - या तो फ्लू के
टीके से या पिछले संक्रमण से उत्पन्न एंटीबॉडी द्वारा।
वर्तमान महामारी
वर्तमान महामारी की समाप्ति को लेकर फिलहाल तो अटकलें ही हैं लेकिन अनुमान है
कि इस बार पूर्व की महामारियों में उपयोग किए गए सभी तरीकों की भूमिका होगी -
मोहलत प्राप्त करने के लिए सामाजिक-नियंत्रण, लक्षणों से राहत पाने के लिए नई एंटीवायरल दवाइयाँ और टीका।
सामाजिक दूरी जैसे नियंत्रण के उपाय कब तक जारी रखने होंगे यह तो लोगों पर
निर्भर करता है कि वे कितनी सख्ती से इसका पालन करते हैं और सरकारों पर निर्भर
करता है कि वे कितनी मुस्तैदी से प्रतिक्रिया देती हैं। कोबे का कहना है कि इस
महामारी का नाटक 50 प्रतिशत तो सामाजिक व राजनैतिक है। शेष आधा विज्ञान का है।
इस महामारी के चलते पहली बार कई शोधकर्ता एक साथ मिलकर,
कई मोर्चों पर इसका उपचार विकसित करने पर काम कर रहे हैं।
यदि जल्दी ही कोई एंटीवायरल दवा विकसित हो जाती है, तो गंभीर रूप से बीमार होने वाले लोगों या मृत्यु की संख्याओं
को कम किया जा सकेगा।
स्वस्थ हो चुके
रोगियों में SARS-CoV-2
को निष्क्रिय करने वाली एंटीबॉडीज़ की जाँच तकनीक से भी काफी फायदा मिल सकता है। इससे महामारी खत्म तो नहीं होगी; लेकिन गंभीर रूप से बीमार रोगियों के उपचार में एंटीबॉडी युक्त रक्त का
उपयोग किया जा सकता है। ऐसी जाँच के बाद वे लोग काम पर लौट
सकेंगे, जो इस वायरस को झेलकर प्रतिरक्षा विकसित कर पाए
हैं।
संक्रमण को रोकने
के लिए टीके की आवश्यकता होगी,जिसमें अभी भी लगभग एक साल का समय लग सकता है। एक
बात स्पष्ट है कि टीका बनाना संभव है। फ्लू के वायरस की अपेक्षा SARS-CoV-2 का टीका बनाना आसान होगा; क्योंकि यह कोरोना वायरस
है और इनके पास मानुष्य की कोशिकाओं के साथ संपर्क करके अंदर घुसने के रास्ते बहुत
कम होते हैं। वैसे यह खसरे के टीके की तरह दीर्घकालिक प्रतिरक्षा प्रदान तो नहीं
करेगा; लेकिन फिलहाल तो कोई भी टीका
मददगार होगा।
जब तक दुनिया के हर स्वस्थ व्यक्ति को टीका नहीं लग जाता,
कोविड-19 स्थानीय महामारी बना रहेगा। यह निरंतर प्रसारित
होता रहेगा और मौसमी तौर पर लोगों को बीमार भी करता रहेगा,
कभी-कभार गंभीर रूप से। अधिक समय तक बना रहा, तो यह बच्चों को छुटपन में ही संक्रमित
करने लगेगा। बचपन में बहुत गंभीर लक्षण प्रकट नहीं होते और ऐसा देखा जाता है कि
बचपन में संक्रमित बच्चे वयस्क अवस्था में फिर से संक्रमित होने पर उतने गंभीर
बीमार नहीं होते। अधिकतर लोग टीकाकरण और प्राकृतिक
प्रतिरक्षा के मिले-जुले प्रभाव से सुरक्षित रहेंगे। लेकिन अन्य वायरसों की तरह SARS-CoV-2 भी लंबे समय तक हमारे बीच रहेगा।
वैसे तो कोई नहीं
जानता कि कोविड-19 महामारी के अगले अंकों में क्या होने वाला है; लेकिन अधिकतर
विशेषज्ञ सहमत हैं कि यह महामारी लगभग दो साल जारी रहेगी। युनिवर्सिटी ऑफ मिनेसोटा
के शोधकर्ताओं द्वारा जारी की गई एक रिपोर्ट में वर्ष 1700 से लेकर अब तक की 8
फ्लू महामारियों की जानकारी के साथ कोविड-19 महामारी का डैटा भी शामिल किया गया
है।
इस रिपोर्ट के
अनुसार SARS-CoV-2 (नया कोरोनावायरस) इन्फ्लुएंज़ा के वायरस की एक किस्म तो
नहीं है; लेकिन इसमें और फ्लू महामारी के वायरसों के बीच
कुछ समानताएँ हैं। दोनों ही श्वसन मार्ग के वायरस हैं, जिनकी लोगों में कोई पूर्व प्रतिरक्षा उपस्थित नहीं है। दोनों ही
लक्षण-रहित लोगों से अन्य लोगों में फैल सकते हैं; लेकिन
अंतर यह है कि कोविड-19 वायरस अन्य फ्लू वायरस की तुलना में अधिक आसानी से फैलता
नज़र आ रहा है और SARS-CoV-2 संक्रमणों का एक ज़्यादा बड़ा हिस्सा लक्षण-रहित लोगों से
फैलाव के कारण हो रहा है।
इसके आसानी से
फैलने की क्षमता को देखते हुए लगभग 60 प्रतिशत से 70 प्रतिशत आबादी को प्रतिरक्षा
विकसित करना होगा, तभी हम हर्ड इम्यूनिटी यानी झुंड प्रतिरक्षा से लाभांवित हो
पाएँगे। हालाँकि इसमें
अभी काफी समय लगेगा; क्योंकि अभी कुल आबादी की तुलना में बहुत कम लोग
इससे संक्रमित हुए हैं।
रिपोर्ट में
कोविड-19 के भविष्य को लेकर तीन संभावित परिदृश्य प्रस्तुत किए गए हैं।
परिदृश्य 1: इस
परिदृश्य में, वर्तमान
कोविड-19 तूफान के बाद कुछ छोटे-छोटे सैलाबों की शृंखलाएँ आएँगी। ये दो साल की
अवधि तक निरंतर आती रहेंगी और धीरे-धीरे 2021 तक खत्म हो जाएँगी।
परिदृश्य 2: एक
संभावना यह है कि 2020 के वसंत में प्रारंभिक लहर के बाद सर्दियों के मौसम में एक
बड़ा सैलाब उभरे, जैसा
कि 1918 की फ्लू महामारी में हुआ था। हो सकता है इसके बाद एक-दो छोटी लहरें 2021
में भी सामने आएँ।
परिदृश्य 3:
कोविड-19 की शुरुआती वसंती लहर के बाद इसके संक्रमण की रफ्तार कम हो जाए और आगे
कोई विशेष पैटर्न नज़र न आए।
रिपोर्ट के अनुसार नई लहरों का सामना करने के लिए
समय-समय पर अलग-अलग क्षेत्रो में आवश्यकतानुसार नियंत्रण के उपाय करने होंगे और
छूट देनी होगी, ताकि
स्वास्थ्य सेवाओं पर अत्यधिक बोझ न पड़े। फिलहाल जो भी परिदृश्य उभरकर आता हो, हमें कम से कम 18 से 24 महीनों तक कोविड-19 की सक्रियता के लिए तैयार रहना
चाहिए।(स्रोत फीचर्स)
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