चिकित्सा सुविधा पर उठते सवाल...
- डॉ. रत्ना वर्मा
पिछले दिनों कई फिल्मी सितारे कैंसर
जैसी जानलेवा बीमारी से ग्रसित रहे। सोनाली बेन्द्रे के बाद इरफान खान एक बेहद
असाधारण बीमारी न्यूरोएंडोक्राइन नामक कैंसर का इलाज कराने विदेश गए थे। ऋषि कपूर भी
हाल ही में कई माह तक अपना इलाज बाहर करवा कर भारत लौटे हैं। यह बहुत शुभ संकेत है
कि वे एक गंभीर बीमारी को मात देकर आज स्वस्थ हैं।
कोई भी अपना इलाज कहाँ और किस डॉक्टर
से कराए ,यह उनका
व्यक्तिगत निर्णय है,
पर यह प्रश्न प्रत्येक
भारतीय के दिल में उठता है कि बड़े सितारे और हमारे देश के नेता बड़ी बीमारी होने पर
ज्यादातर विदेश जाकर ही इलाज क्यों कराते हैं? क्या उन्हें अपने देश की चिकित्सा
पद्धति पर भरोसा नहीं है? कोई लंदन जाता है, तो कोई
न्यूयार्क। वे सब ठीक होकर लौटे भी हैं। ऐसे में
भारत की चिकित्सा -व्यवस्था पर सवाल तो उठ खड़े होते
ही हैं। जाहिर है कोई भी अपनी जिंदगी को दाँव पर नहीं लगाना चाहता। उनके पास बाहर
जाकर वहाँ के इलाज का खर्च वहन करने की ताकत है, तो भला कोई
अपनी जिंदगी से खिलवाड़ क्यों करेगा। जान है ,तो जहान है।
इस संदर्भ में अभिनेत्री नरगिस दत्त
की याद आ रही है। उन्हें भी कैंसर की बीमारी ने हमसे दूर कर दिया था। वे भी इलाज
के लिए न्यूयार्क गईं थीं। यद्यपि वहाँ पर भी उनकी बीमारी पर काबू नहीं पाया जा
सका था। उनके अभिनेता और राजनेता पति सुनील
दत्त जिन्होंने नरगिस के दर्द को बहुत करीब से जाना और देखा था, वे जानते थे कि कैंसर से जूझने वाले हजारो लाखों
भारतीय कैंसर की बेहद महँगी दवाई के कारण बिना इलाज और देखभाल के दर्द से तड़पते
हुए अपनी जान दे देते हैं, इसीलिए नरगिस के जाने के
बाद उन्होंने उनकी याद में नरगिस दत्त मेमोरियल कैंसर फाउंडेशन का निर्माण कराकर
देश को यह संदेश दिया कि हमारे देश में भी अगर सही इलाज हो ,तो इस
प्रकार की गंभीर बीमारी पर काबू पाया जा सकता है।
ऐसा नहीं कि आज हमारे देश में
सर्वसुविधायुक्त हॉस्पिटल नहीं है। सरकारी और गैरसराकारी हजारों नई टेक्नॉलाजी से
लैस अस्पताल बड़े महानगरों में मिल जाएँगे,जहाँ गंभीर से गंभीर बीमारियों का
इलाज होता है , हमारे यहाँ भी उच्च शिक्षा प्राप्त विशेषज्ञ डॉक्टरों की कमी नहीं
है। इन सबके बाद भी जब गंभीर बीमारियों के इलाज़ के लिए लोग विदेश की ओर जाते हैं ,तो एक प्रश्न चिह्न तो लग ही जाता है। कि आखिर हमारे देश में हम बेहतर
चिकित्सा क्यों नहीं दे पाते?
लेकिन यह भी सत्य है कि विदेश जाकर
इलाज़ वही करवा पाते हैं, जिनके पास वहाँ का खर्च उठा पाने की
काबिलियत होती है । अत्याधुनिक मशीनें जैसे एमआरआई, सिटी स्कैन आज किसी भी बीमारी के लिए इलाज की प्रथम
सीढ़ी मानी जाती है पर इन मशीनों से इलाज का खर्चा बहुत ज्यादा होता है। जिस प्रकारआजकल
डॉक्टर बनना व्यवसाय बन गया है ,उसी तरह ये मशीनें भी पैसा कमाने की मशीन बन
गई हैं, जो एक मध्यमवर्ग परिवार के लिए बहुत मुश्किल है।
अफसोस की बात है यह भी है कि अस्पतालों को लेकर एक अजीब सी मानसिकता आम लोगों में
देखने मिलती है । उन्हें लगता है कि सरकारी अस्पताल में इलाज सही नहीं होता, उन्हें लगता है भीड़ में डॉक्टर उनकी ओर पर्याप्त
ध्यान नहीं दे पाता। यही वजह है कि फीस न चुका पाने की औकात न होते हुए भी ,वह निजी
अस्पताल की ओर आकर्षित होता है और वहाँ वह कई गुना ज्यादा पैसा देने में भी नहीं
झिझकता। घर, जमीन, जेवर सबकुछ बेचकर भी वह महँगे से महँगा इलाज कराता है।
यह भी सत्य है कि सरकारी अस्पताल के
डॉक्टरों की अपनी एक सीमा होती है। मरीज़ ज्यादा होते हैं और डॉक्टर कम। सरकार जो
सुविधाएँ उपलब्ध कराती है, उसी दायरे में रहकर उन्हें इलाज करना होता
है। दरअसल हमारे देश में भी स्वास्थ्य सुविधाओं को बेहतर किए जाने की आवश्यकता है,
ताकि इलाज के अभाव में किसी को जान न गँवानी पड़े। जिस दिन भारत में
निजी और सरकारी अस्पतालों के बीच का अंतर मिटेगा
और प्रत्येक जगह एक ही प्रकार की सुविधा और इलाज उपलब्ध होगी,उस दिन लोग भारत की स्वास्थ्य
सुविधाओं पर प्रश्नचिह्न लगाना छोड़ देंगे।
फिलहाल तो चिकित्सा के क्षेत्र में बिना
कुछ उम्मीद के देश भर में काम करने वाली उन स्वयंसेवी संस्थाओं पर हमें गर्व होता
है, जो बिना
किसी लाभ- हानि मरीजों की सहायता करते हैं । कई बड़े शहरों में अनेक ऐसी संस्थाएँ काम करती
हैं ,जो कैंसर जैसी जानलेवा बीमारियों का इलाज कराने अपना
गाँव, घर सब छोड़कर शहर में
महीनों पड़े रहते हैं। ये संस्थाएँ ऐसे लोगों को रहने के लिए जगह उपलब्ध कराती है।
कम कीमत में या मुफ़्त में भी भोजन देती है, और किस अस्पताल में किस डॉक्टर के पास जाएँ, इसके लिए
सहायता उपलब्ध कराती हैं। लेकिन यह सेवा घड़े में एक बूँद के बराबर भी नहीं है, क्योंकि बीमारों की संख्या इतनी ज्यादा हैं कि जितना
करो उतना कम ही पड़ता है। अत: जरूरत ऐसे लोगों को और अधिक संख्या में आगे आने की
है।
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