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Aug 14, 2013

संस्मरण

ओ जाने वाले हो सके तो...
तीस हजार फुट की ऊँचाई पर हमारा जहाज़ उड़ा जा रहा है। रूई के गुच्छों जैसे सफेद बादल चारों ओर छाये हुए हैं। ऊपर फीके नीले रंग का आसमान है। इन बादलों और नीले आकाश से बनी गुलाबी क्षितिज रेखा दूर तक चली गई है।
कभी-कभी कोई बड़ा-सा बादल का टुकड़ा यों सामने आ जाता है मानो कोई मज़बूत किला हो। हवाई जहाज़ की कर्कश आवाज को अपने कानों में झेलते हुए मैं उदास मन से भगवान की इस लीला को देख रहा हूँ।
अभी कल परसों ही जिस व्यक्ति के साथ ताश खेलते हुए और अपने अगले कार्यक्रमों की रूपरेखा बनाते हुए हमने विमान में सफ़र किया था। उसी अपने अतिप्रय, आदरणीय मुकेश दा का निर्जीव, चेतनाहीन, जड़ शरीर विमान के निचले भाग में रखकर हम लौट रहे हैं। उनकी याद में भर-भर आने वाली आँखों को छिपा कर हम उनके पुत्र नितिन मुकेश को धीरज देते हुए भारत की ओर बढ़ रहे हैं।
आज 29 अगस्त 1976 है। आज से ठीक एक महीना एक दिन पहले मुकेश दा यात्री बन कर विमान में बैठे थे। आज उसी देश को लौट रहे हैं जिसमें पिछले 25 वर्षों का एक दिन, एक घण्टा, एक क्षण भी ऐसा नहीं गुज़रा था जब हवा में मुकेश दा का स्वर न गूँज रहा हो। जिसमें एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं था जिसने मुकेश दा का स्वर सुनकर गर्दन न हिला दी हो; जिसमें एक भी ऐसा दु:खी जीव नहीं था जिसने मुकेश दा की दर्द-भरी आवाज़ में अपने दुखों की छाया न देखी हो।
सर्व साधारण के लिए दु:ख शाप हो सकता है पर कलाकार के लिए वह वरदान होता है।
अनुभूति के यज्ञ में अपने जीवन की समिधा देकर अग्नि को अधिकाधिक प्रज्वलित करके उसमें जलती हुई अपनी जीवनानुभूतियों और संवेदनाओं को सुरों की माला में पिरोते-पिरोते मुकेश दा दु:खों की देन का रहस्य जान गए थे। यह दान उन्हें बहुत पहले मिल चुका था।
उस दिन 1 अगस्त 1976 था। वैंकुवर के एलिजाबेथ सभागृह में कार्यक्रम की पूरी तैयारियाँ हो चुकी थीं। मुकेश दा मटमैले रंग की पैंट, सफ़ेद कमीज़, गुलाबी टाई और नीला कोट पहन कर आए थे। समयानुकूल रंग-ढंग की पोशाकों में सजे-धजे लोगों के बीच मुकेश दा के कपड़े अजीब- से लग रहे थे। पर ईश्वर द्वारा दिए गए सुन्दर रूप और मन के प्रतिबिम्ब में वे कपड़े भी  उन पर फब रहे थे।
ढाई-तीन हज़ार श्रोताओं से सभागृह भर गया। ध्वनि परीक्षण के बाद मैं ऊपर के साउण्ड बूथ में मिक्सर चैनेल हाथ में सम्भाले हुए कार्यक्रम के प्रारम्भ होने की प्रतीक्षा कर रहा था। मुकेश दा के माइक का स्विच मेरे पास था। इतने में मुकेश दा मंच पर आए। तालियों की गडग़ड़ाहट से सारा हाल गूँज उठा। मुकेश दा ने बोलना प्रारम्भ किया तो भाइयो और बहनो कहते हुए इतनी सारी तालियाँ पिटीं कि मुझे हाल के सारे माइक बन्द कर देने पड़े।
मुकेश दा  अपना नाम पुकारे जाने पर सदैव पिछले विंग से निकल कर धीरे-धीरे मंच पर आते थे। वे जरा झुक कर चलते थे। माइक के सामने आकर उसे अपनी ऊँचाई के अनुसार ठीक कर तालियों की गडग़ड़ाहट रुकने का इंतजार करते थे। फिर एक बार राम-राम भाई-बहनों का उच्चारण करते थे। कोई भी कार्यक्रम क्यों न हो, उनका यह क्रम कभी नहीं बदला।
उस दिन मुकेश दा मंच पा आए और बोले, राम-राम भाई-बहनों, आज मुझे जो काम सौंपा गया है, वह कोई मुश्किल काम नहीं है। मुझे लता की पहचान आपसे करानी है। लता मुझसे उम्र में छोटी है और कद में भी पर उसकी कला हिमालय से भी ऊँची है। उसकी पहचान मैं आपसे क्या कराऊँ। आइए हम सब खूब ज़ोर से तालियाँ बजाकर उसका स्वागत करें। लता मंगेशकर....
तालियों की तेज़ आवाज़ के बीच दीदी मंच पर पहुँचीं। मुकेश दा ने उसे पास खींच लिया। सिर पर हाथ रख कर उसे आशीर्वाद दिया और घूमकर वापस अन्दर चले गए। मंच  से कोई भय नहीं, कोई संकोच नहीं, बनावट तो बिल्कुल भी नहीं, सब कुछ बिल्कुल स्वाभाविक और शान्त। दीदी के पाँच गाने पूरे होने पर मुकेश दा फिर मंच पर आए। एक बार फिर माइक ऊपर-नीचे किया और हारमोनियम सम्भाला। ज़रा-सा खंखार कर, फुसफुसा कर शायद राम-राम कहा  होगा। कहना शुरू किया, मैं भी कितना ढीठ आदमी हूँ। इतना बड़ा कलाकार अभी-अभी यहाँ आकर गया है और उसके बाद मैं यहाँ गाने के लिए आ खड़ा हुआ हूँ। भाइयो और बहनो, कुछ ग़लती हो जाए तो माफ़ करना।
मुकेश दा के शब्दों को सुनकर मेरा  जी भर आया। एक कलाकार दूसरे का कितना सम्मान करता है, इसका यह एक उदाहरण है। मुकेश दा के निश्छल और बढ़िया स्वाभाव से हम सब मन्त्र-मुग्ध हो गये थे कि माइक पर सुन उठा- जाने कहाँ गये वे दिन...
गीत की इस पहली पंक्ति पर ही बहुत देर तक तालियाँ बजती रहीं और फिर सुरों में से शब्द और शब्दों में से सुरों की धारा बह निकली। लग रहा था कि मुकेश दा गा नहीं रहे हैं, वे श्रोताओं से बातें कर रहे हैं। सारा हॉल शान्त था। गाना पूरा हुआ पर तालियाँ नहीं बजीं। मुकेश दा ने सीधा हाथ उठाया यह उनकी आदत थीं। और अचानक तालियों की गडग़ड़ाहट बज उठी। तालियों के उसी शोर में मुकेश दा ने अगला गाना शुरू कर दिया- डम-डम डिगा-डिगा... और इस बार तालियों के साथ श्रोताओं के पैरों ने ताल देना शुरू कर दिया था।
यह गाना पूरा हुआ तो मुकेश दा अपनी डायरी के पन्ने उलटने लगे। एक मिनट, दो मिनट, पर मुकेश दा को कोई गाना भाया ही नहीं। लोगों में फुसफुसाहट होने लगी। अन्त में मुकेश दा ने डायरी का पीछा छोड़ दिया और मन से ही गाना शुरू कर दिया। दिल जलता है तो जलने दे... यह मुकेश दा का तीस वर्ष पुराना गाना था। मैं सोचने लगा कि क्या इतना पुराना गाना लोगों को पसन्द आएगा। मन-ही-मन मैं मुकेश दा पर नाराज़ होने लगा। ऐसे महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम के लिए उन्होंने पहले से गानों का चुनाव क्यों नहीं कर लिया था।
मैंने बूथ से ही बैक स्टेट के लिए फोन मिलाया और मुकेश दा  के पुत्र नितिन को बुला कर कहा- अगले कार्यक्रम के लिए गाना चुन कर तैयार रखो। नितिन ने जवाब दिया- यह नहीं हो सकता। यह पापा की आदत है। गाना खत्म होते ही हॉल में वंस मोर की आवाजें आने लगीं। मेरा अन्दाज गलत साबित हुआ था। मैंने झट से नितिन को दुबारा फोन मिलाया और कहा- मैंने जो कुछ कहा था। मुकेश दा को पता न चले। तभी दीदी मंच पर पहुँच गई और युगल गीतों की शुरूआत हो गई। सावन का महीना... कभी-कभी मेरे दिल में... दिल तड़प-तड़प के... आदि एक के बाद एक गानों का तांता लगा रहा। फिर आखिरी दोगाने का प्रारम्भ हुआ- आ जा रे, अब मेरा दिल पुकारा...
इस गाने का पहला स्वर उठाते ही मैं 1950 में जहा पहुँचा। दिल्ली के लाल किले के मैदान में एक लाख लोग मौजूद थे, ठण्ड का मौसम था। तरुण, सुन्दर मुकेश दा बाल सँवारे हुए स्वेटर पर सूट डाले, मफलर बाँधे बाँए हाथ से हारमोनियम  बजाने लगे थे। मैं घबरा गया और कुछ भी गलत-सलत गाने लगा था। मुकेश दा मुझे सान्त्वना देते जाते और मेरा साथ देने लग जाते। मुझे उनका यह सुन्दर रूप याद आने लगा जिसे 26 वर्षो के कटु अनुभवों के बाद भी उन्होंने कायम रखा था पर उनकी आवाज़ में एक नया जादू चढ़ गया था।
मिलाकी से हम वाशिंगटन की ओर चले। हम सबों के हाथ सामान से भरे थे। हवाई अड्डा दूर और दूर होता जा रहा था। मैं थक गया था और रुक- रुक कर चल रहा था। तभी किसी ने पीछे से मेरे हाथ से बैग ले लिया। मैंने दचककर पीछे देखा तो मुकेश दा। मैंने उन्हें बहुत समझाया पर उन्होंने एक न सुनी। विमान में हम पास-पास बैठे। वे बोले- अब खाना निकालों हम दोनों शाकाहारी थे। मैंने उन्हें चिवड़ा और लड्डू दिए और वे खाने लगे। तभी मैंने कहा- मुकेश दा, कल के कार्यक्रम में आपकी तबियत  अच्छी नहीं थी। लगता है, आपको ज़ुकाम हो गया है।
उन्होंने सिर हिलाया, बोले - मैं दवा ले रहा हूँ पर सर्दी कम होती ही नहीं, इसलिए आवाज़ में ज़रा-सी खराश आ गई। फिर विषय बदलकर उन्होंने मुझसे- ताश निकालने को कहा। करीब-करीब एक घण्टे तक हम दोनों ताश खेलते रहे। खेल के बीच में उन्होंने मुझसे कहा-गाते समय जब मेरी आवाज ऊँची उठती है तब तू फेडर को नीचे कर दिया कर ;  क्योंकि सर्दी के कारण ऊपर के स्वरों को संभालना ज़रा कठिन पड़ता है। फिर रमी के प्वाइंट लिखने के लिए उन्होंने जेब से पेन निकाला। उसे मेरे सामने रखते हुए बोले- बाल, यह क्रॉस पेन है; जब से मैंने क्रॉस पेल से लिखना शुरू किया है, दूसरा कोई पेन भाता ही नहीं है। तुम भी क्रॉस पेन खरीद लो। और वाशिंगटन में उन्होंने क्रॉस पेन खरीदवा ही दिया।
उसी शाम भारतीय राजदूत के यहाँ हमारी पार्टी थी। देश-विदेश के लोग आए हुए थे। मुकेश दा अपनी रोज की पोशाक में इधर-उधर घूम रहे थे। तभी किसी ने सुझाया कि गाना होना चाहिए। उस जगह तबला, हारमोनियम कुछ भी नहीं था। पर सबों के आग्रह पर मुकेश दा खड़े हो गए और ज़रा-सा स्वर सम्भाल कर गाने लगे- आँसू भरी ये जीवन की राहे...वाद्यों की संगत न होने के कारण उनकी आवाज़ के बारीक-बारीक रेशे भी स्पष्ट सुनाई दे रहे थे। सहगल से काफ़ी मिलती हुई उनकी वह सरल आवाज भावनाओं से ऐसी भरी हुई थी कि मैं उसे कभी भुला न पाऊँगा। रात को मैंने टोका-आपको पार्टी के लिए बुलाया गया था, गाने के लिए नहीं। किसी ने कहा और आप गाने लगे। वे हँसकर बोले यहाँ कौन बार-बार आता है। अब पता नहीं यहाँ फिर कभी आ पाऊँगा या नहीं। मुकेश दा, आपका कहना सच ही था। वाशिंगटन से लोग आपके अन्तिम दर्शनों के लिए न्यूयार्क आए थे और उस पार्टी की याद कर करके आँसू बहा रहे थे। बोस्टन में मुकेश दा की आवाज़ बहुत ख़राब हो गई थी। एक गाना पूरा होते ही मैंने ऊपर से फोन किया और दीदी से कहा- मुकेश दा को मत गाने देना, उनकी आवाज़ बहुत ख़राब हो रही है, दीदी बोलीं- फिर इतना बड़ा कार्यक्रम पूरा कैसे होगा? मैंने सुझाया- नितिन को गाने के लिए कहो। दीदी मान गई। मंच पर आई और श्रोताओं से बोलीं- आज मैं आपके सामने एक नया मुकेश पेश कर रही हूँ। यह नया मुकेश मेरे साथ आपका मन-पसन्द गाना- कभी-कभी मेरे दिल में... गाएगा।
लोग अनमने से फुसफुस करने लगे थे। तभी नितिन मंच पर पहुँचा। देखने में बिल्कुल पिता जैसा। उसने दीदी के पाँव छुए और गाना शुरू किया- कभी-कभी मेरे दिल में... नितिन की आवाज़ में कच्चापन था पर सुरों की फेक, शब्दोच्चारण बिल्कुल पिता जैसे थे। गाना ख़त्म होते ही वंस मोर की आवाज़ें उठने लगीं। लोग नितिन को छोडऩे को तैयार ही नहीं थे। विंग में बैठे मुकेश दा का चेहरा आनन्द से चमक उठा। फिर वे मंच पर आए और हारमोनियम रख दिया। बाप-बेटे ने मिल कर- जाने कहाँ गए वो दिन... गाया। उसके बाद के सारे गाने नितिन ने ही गाए। मुकेश दा ने हारमोनियम पर साथ दिया।
अगले दिन वे मुझसे बोले- अब मेरे सिर पर से एक और बोझ उतर गया। नितिन की चिन्ता मुझे नहीं रहीं। अब मैं मरने के लिए तैयार हूँ। मैंने कहा- अपना गाना गाए बिना आपको मरने नहीं दूँगा। पन्द्रह वर्ष पूर्व आपने मेरे गाने की रिहर्सल तो की थी पर गाया नहीं था। गाना मुझे ही पड़ा था वह मराठी गाना था - त्या फुलांच्या गंध कोषी... वे हंस कर बोले - मेरे लिए कोई नया गाना तैयार कराओ, मैं ज़रूर गाऊँगा।
अगले दिन हम टोरण्टो से डेट्रायट जाने के लिए रेलगाड़ी पर सवार हुए। हमारा एनाउंसर हमें छोडऩे आया था। मुकेश दा ने उससे पूछा- क्यों मियाँ साहब, आप नहीं आ रहे हमारे साथ? उसने जवाब दिया- हम तो आपको ऐसा छोड़ेंगे कि फिर कभी नहीं मिलेंगे। मियाँ का दिल भर आया। बोला- नहीं-नहीं, ऐसी अशुभ बात मुँह से मत निकालिए।
मुकेश दा हँसे। राम-राम कहते हुए गाड़ी में चढ़कर मेरे पास आ बैठे। ताश निकाल कर हम रमी खेलने लगे। वे तीन डॉलर हार गए। मुझे पैसे  देते हुए बोले- आज रात को फिर खेलेंगे। मैं तुमसे ये तीनों डॉलर वापस जीत लूँगा। और सचमुच ही डेट्रायट अमरीका में उन्होंने मुझे अपने कमरे में बुला लिया और मैं, अरुण रवि उनके साथ रात साढ़े ग्यारह बजे तक रमी खेलते रहे। इस बार मुकेश दा छह डॉलर हार गए। हमने उनकी खूब मज़ाक उड़ाई। मुझसे बोले- आज कुल मिला कर मैं नौ डॉलर हार गया हूँ, मगर कल रात को तुमसे सब वसूल कर लूँगा।
पर कल की रात उनकी आयु में नहीं लिखी थी। मुझे कल्पना भी नहीं थी कि कल की रात मुझे मुकेश दा के निर्जीव शरीर के पास बैठ कर काटनी पड़ेगी। वह दिन  27.08.1976 ही अशुभ था। एक मित्र को जल्दी भारत लौटना था, इसलिए उसके टिकट की भाग दौड़ में ही दोपहर के तीन बज गए। टिकट नहीं मिला सो अलग। साढ़े चार बजे हम होटल लौटे। मैं, दीदी और अनिल मोहिले सैण्डविच मँगा ली गई थी। तभी मुकेश दा का फोन आया कि हारमोलियम ऊपर भिजवा दो उनका कमरा बीसवीं मंजि़ल पर था और हमारा सोलहवीं पर मैंने हारमोनियम भेज दिया। कार्यक्रम की चर्चा पूरी करने के बाद मैंने अनिल मोहिले से कहा- चाय पीने के बाद म्यूजीशियन्स को तैयार कर ही रहा था कि ऊपर आओ। उसकी आवाज़ सुनते ही मैं भागा। अपने कमरे में मुकेश दा लुंगी और बनियान पहने हुए पलंग के पीछे हाथ टिकाए बैठे थे। मैंने नितिन से पूछा- क्या हुआ? उसने बताया- पापा ने कुछ देर गाया। फिर उन्होंने चाय मँगाई। पीकर वे बाथरूम गए। बाथरूम से आने के बाद उन्हे गर्मी लगने लगी और पसीना अपने लगा। इसलिए मैंने आपको बुला लिया। मुझे कुछ डर लग रहा है।
मैं सोचने लगा- पसीना आ जाने भर से ही यह लड़का डर गया है, कमाल है। फिर मैंने मुकेश दा से कहा- आप लेट जाइए। वे एकदम बोल पड़े- अरे तुम अभी तक गए नहीं? लेटने से मुझे तकलीफ़ होती है, तुम स्टेज पर जाओ। मैं इंजेक्शन लेकर पीछे-पीछे आता हूँ। लता को कुछ मत बताना, वह घबरा जाएगी।
अच्छा कह कर मैने उनकी पीठ पर हाथ रख दिया और झटके से हटा लिया। मेरा हाथ पसीने से भीग गया था। इतना पसीना मानों नहा कर उठे हों। तभी डॉक्टर आ गया। ऑक्सीजन की व्यवस्था की गई। मैंने मुकेश से पूछा- आपको दर्द हो रहा है? उन्होंने सिर हिला कर न कहा। फिर उन्हें व्हील चेयर पर बिठा कर नीचे लाया गया। ऑक्सीजन लगी हुई थी, फिर भी लिफ्ट में उन्हें ज्य़ादा तकलीफ़ होने लगी। व्हील चेयर को ही एम्बुलेंस पर चढ़ा दिया गया। यह सब बीस मिनट में हो गया।
एम्बुलेंस में उन्होंने केवल एक वाक्य बोला- यह पट्टा खोल दो वह । व्हील चेयर का पट्टा था। फिर वे कुछ नहीं बोले। हज़ारों गाने गाने वाले मुकेश दा के आखिरी शब्द थे- यह पट्टा खोल दो। व्हील चेयर का पट्टा या जीवन का बंधन? मुकेश दा को बाँधे हुए चमड़े का पट्टा या चैतन्य को बाँधे हुए जड़त्व का पट्टा?
एमरजेन्सी वार्ड में पहुँचने से पूर्व उन्होंने केवल एक बार आँखें खोलीं, हँसे और बेटे की तरफ़ हाथ उठाया। डॉक्टर ने वार्ड का दरवाज़ा बन्द कर लिया। आधे घण्टे बाद दरवाज़ा खुला। डॉक्टर बाहर आया और उसने मेरे कन्धे पर हाथ रख दिया। उसके स्पर्श ने मुझसे सब कुछ कह दिया था।
विशाल सभागृह खचाखच भरा हुआ है। मंच सजा हुआ है। सभी वादक कलाकार साज मिलाकर तैयार बैठे हुए हैं। इन्तज़ार है कि कब मैं आऊँ, माइक टेस्ट करूँ और कार्यक्रम शुरू हो। मैं मंच पर गया। सदैव की भाँति रंगभूमि को नमस्कार किया। माइक हाथ में लिया और बोला- भाइयो और बहनो, कार्यक्रम प्रारम्भ होने में देरी हो रही है पर उसके लिए आज मैं किसी से कुछ नहीं माँगूँगा। केवल उसके बारम्बार एक ही माँग है- ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना...

(गायक मुकेश के आख़िरी पल मृत्यु: 28 अगस्त 1976, प्रात: 3.20 -भारतीय समयानुसार) के चश्मदीद गवाह हृदयनाथ मंगेशकर द्वारा मराठी में लिखित उक्त संस्मरण का भारती मंगेशकर द्वारा किया गया हिन्दी अनुवाद तत्कालीन प्रसिद्ध पत्रिका धर्मयुग में प्रकाशित हुआ था। क्षमा याचना के साथ, कुछ तथ्यात्मक ग़लतियों का निराकरण करते हुए, उस लेख को यहाँ पुन: प्रस्तुत किया गया है- सम्पादक) (लिस्नर्स बुलेटिन से)

1 comment:

Unknown said...

ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना🙏🙏🙏