- रामेश्वर
काम्बोज 'हिमांशु’
जिलेसिंह शहर से वापस आया तो आँगन में पैर रखते ही उसे
अजीब-सा सन्नाटा पसरा हुआ लगा।
दादी ने ऐनक नाक पर ठीक से रखते हुई उदासी -भरी आवाज़
में कहा-'जिल्ले!
तेरा तो इभी से सिर बँध ग्या रे। छोरी हुई है!
जिलेसिंह के माथे पर एक लकीर खिंच गई।
'भाई
लड़का होता तो ज़्यादा नेग मिलता। मेरा भी नेग मारा गया'- बहन
फूलमती ने मुँह बनाया-'पहला जापा था। सोचा था- खूब मिलेगा।'
जिले सिंह का चेहरा तन गया। माथे पर दूसरी लकीर भी उभर
आई।
माँ कुछ नहीं बोली। उसकी चुप्पी और अधिक बोल रही थी।
जैसे कह रही हो-जूतियाँ घिस जाएँगी ढंग का लड़का ढूँढऩे में। पता नहीं किस निकम्मे
के पैरों में पगड़ी रखनी पड़ जाए।
तमतमाया जिलेसिंह मनदीप के कमरे में घुसा। बाहर की आवाजें
वहाँ पहले ही पहुँच चुकी थीं। नवजात कन्या की आँखें मुँदी हुई थीं। पति को सामने
देखकर मनदीप ने डबडबाई आँखें पोंछते हुए आना अपना मुँह अपराध भाव से दूसरी ओर घुमा
लिया।
जिलेसिंह तीर की तरह लौटा और लम्बे-लम्बे डग भरता हुआ
चौपाल वाली गली की ओर मुड़ गया।
'सुबह
का गया अभी शहर से आया था। तुम दोनों को
क्या ज़रूरत थी इस तरह बोलने की? माँ भुनभनाई। घर में और भी गहरी चुप्पी छा
गई।
कुछ ही देर में जिलेसिंह लौट आया। उसके
पीछे-पीछे सन्तु ढोलिया गले में ढोल लटकाए आँगन के बीचों-बीच आ खड़ा हुआ।
' बजाओ
!' जिलेसिंह
की भारी भरकम आवाज़ गूँजी।
तिड़क-तिड़-तिड़-तिड़ धुम्म, तिड़क
धुम्म्म! ढोल बजा।
मुहल्ले वाले एक साथ चौंक पड़े। जिलेसिंह ने अल्मारी से
अपनी तुर्रेदार पगड़ी निकाली; जिसे वह वह शादी-ब्याह या बैसाखी जैसे मौके
पर ही बाँधता था। ढोल की गिड़गिड़ी पर उसने पूरे जोश से नाचते हुए आँगन के तीन-चार
चक्कर काटे। जेब से सौ का नोट निकाला और मनदीप के कमरे में जाकर नवजात के ऊपर
वार-फेर की और उसकी अधमुँदी आँखों को हलके-से छुआ। पति के चेहरे पर नजर पड़ते ही
मनदीप की आँखों के सामने जैसे उजाले का सैलाब उमड़ पड़ा हो। उसने छलकते आँसुओं को
इस बार नहीं पोंछा।
बाहर आकर जिलेसिंह ने वह नोट सन्तु ढ़ोलिया को थमा दिया।
सन्तु और जोर से ढ़ोल बजाने लगा- तिड़-तिड़-तिड़
तिड़क-धुम्म, तिड़क-धुम्म्म!
तिड़क-धुम्म्म! तिड़क धुम्म्म!
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4 comments:
achchi ,sakaratmak laghu katha.
वाह वाह वाह ………काश ये जज़्बा आज हर दिल मे पैदा हो जाये ………सशक्त लघुकथा।
सकारात्मक लघुकथा। बदलाव की आहट देती हुई।
बहुत बढ़िया लघुकथा है । जिस दिन हमारे समाज में सब लोग ऐसा ही सोचने लगेंगे, उस दिन कोई बेटी बोझ नहीं मानी जाएगी।
एक सार्थक रचना के लिए हार्दिक बधाई ।
प्रेम गुप्ता `मानी'
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