तुम ऐसे क्यों आई लक्ष्मी
- प्रेम जनमेजय
- प्रेम जनमेजय
पत्नी ने दरवाज़ा खोला, सामने लक्ष्मी नहीं, लक्ष्मीकांत वर्मा थे। उनका चेहरा सरकारी कर्मचारी को महंगाई-भत्ता मिलने के समाचार-सा खिला हुआ था। लक्ष्मीकांत बोले, 'भाभी जी, आज तो फटाफट मिठाई मंगवाइए, बढिय़ा चाय पिलवाइए और घर में बेसन हो तो पकौड़े भी बनवा दीजिए।'
लोग दीपावली पर लक्ष्मी पूजन करते हैं, मेरा सारे वर्ष चलता है। फिर भी लक्ष्मी मुझपर कृपा नहीं करती। मैं लक्ष्मी-वंदना करता हूं- हे भ्रष्टाचार प्रेरणी, हे कालाधनवासिनी, हे वैमनस्यउत्पादिनी, हे विश्वबैंकमयी! मुझ पर कृपा कर! बचपन में मुझे इकन्नी मिलती थी पर इच्छा चवन्नी की होती थी, परंतु तेरी चवन्नी भर कृपा कभी न हुई। यहां तक मुझमें चोरी, भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी आदि की सदेच्छा भी पैदा न हुई वरना होनहार बिरवान के होत चिकने पात को सही सिद्ध करता हुआ मैं अपनी शैशवकालीन अच्छी आदतों के बल पर किसी प्रदेश का मंत्री/किसी थाने का थानेदार/किसी क्षेत्र का आयकर अधिकारी/आदि-आदि बन देश- सेवा का पुण्य कमाता और लक्ष्मी नाम की लूट ही लूटता। युवा में मैं सावन का अंधा ही रहा। जिस लक्ष्मी के पीछे दौड़ा, उसने बहुत जल्द आटे-दाल का भाव मुझे मालूम करवा दिया। हे कृपाकारिणी मुझपर इस प्रौढ़ावस्था में ही कृपा कर। मैं मानता हूं कि मैंने मास्टर बनकर तेरी आराधना के समस्त द्वार बंद कर दिए हैं परंतु हे रिश्वकेशी तेरे प्रताप से जेलों के ताले खुल जाते हैं, एक दीन-हीन मास्टर के द्वार क्या चीज़ है। एक दरवाज़ा मेरी ही खोल दे।
तभी दरवाज़े पर किसी ने दस्तक दी। पत्नी बोली, 'सुनते हो, देखो शायद लक्ष्मी आई है।' मैं मुद्रास्फीति-सा एकदम उठकर लक्ष्मी के स्वागत को बढ़ा परंतु रुपए की अवमूल्यन-सा लुढ़क गया। क्यों कि मेरी पत्नी ने जिस लक्ष्मी के स्वागत के लिए दरवाजा खोलने का अलिखित आदेश दिया था, वह उस समय के अनुसार हमारी कामवाली हो सकती थी जिसके स्वागत की परंपरा हमारे परिवारों में कतई नहीं है।
'दरवाज़ा तुम ही खोल दो।' मेरे स्वर में आम भारतीय की हताशा थी।
पत्नी ने दरवाज़ा खोला, सामने लक्ष्मी नहीं, लक्ष्मीकांत वर्मा थे। उनका चेहरा सरकारी कर्मचारी को महंगाई-भत्ता मिलने के समाचार-सा खिला हुआ था। लक्ष्मीकांत बोले, 'भाभी जी, आज तो फटाफट मिठाई मंगवाइए, बढिय़ा चाय पिलवाइए और घर में बेसन हो तो पकौड़े भी बनवा दीजिए।'
उसकी इस मंगवाइए/बनवाइए आदि योजनाओं पर अपनी तीव्र प्रतिक्रिया देते हुए मैंने कहा, 'क्यों शर्मा, क्या तू विश्व बैंक का प्रतिनिधि है जो तेरा अभूतपूर्व स्वागत करने को हम बाध्य हों?'
'यही समझ ले घोंचूलाल! देख, मैं भाभी जी से बात कर रहा हूं, तू बीच में अपनी टांग क्यों अड़ा रहा है? भाभी जी, मैं आपके लिए हज़ारों रुपए मिलने की ख़बर लाया हूं और ये है कि,' लक्ष्मीकांत ने अमेरिकी स्वर में कहा।
'तुम चुप रहो जी!' पत्नी ने ससम्मान मुझे डांटा और लक्ष्मीकांत की तरफ़ मुस्कराकर देखा तथा कहा, 'आप बैठिए न भाई साहब मैं अभी आपके लिए सबकुछ बनाकर लाती हूं। आप हजारों मिलने वाली बात बताओ न।' पत्नी में ऐसा सेवाभाव मैंने कभी नहीं देखा था।
'भाभी जी, आपको याद होगा कि मैंने आपसे एक हजार रुपए लेकर एक कंपनी के शेयर भरवाए थे, उसका अलॉटमेंट लेटर आ गया है।'
'यानी हमारे हजार रुपए डूब गए। तुझे तो खुशी ही होगी हमारे रुपए डूबने की, तू हमारा सच्चा दोस्त जो है।' मैंने इस मध्य
आह भरी।
'अरे बौड़म, रुपए डूबे नहीं हैं, उस हज़ार रुपए के तीन महीने में दस हजार हो गए हैं। कंपनी का दस रुपए का शेयर आज सौ में बिक रहा है सौ में, कुछ समझे संत मलूकदास जी।'
पत्नी विवाहित जीवन के पच्चीस वसंत देखने से पूर्व या तो चहकी थी या फिर उस दिन लक्ष्मीकांत उवाच के कारण चहकी और चहकते हुए उसने पूछा, 'हमारे कितने शेयर हैं।'
'सौ शेयर।'
'सौ शेयर! और अगर हम उन्हें बेचें तो हमें दस हज़ार रुपए मिलेंगे दस हजार! अजी सुनते हो लक्ष्मी भैया की बदौलत हमें दस हजार मिलेंगे।' (सुधीजन नोट करें, धन, लक्ष्मी मैया के अतिरिक्त लक्ष्मी भैया की बदौलत भी मिल सकता है। अत: हे संतों, सदैव लक्ष्मी का स्मरण करें।) ये दस हजार हमें कब मिलेंगे लक्ष्मी मैया!'
'भाभी जहां इतना इंतज़ार किया वहां थोड़ा इंतजार और कर लो। आप देख लेना कुछ दिनों में ये दो-सौ नहीं तो डेढ़ पौने दो पर तो जाएगा ही। सिफऱ् दस-पंद्रह दिन की बात है दौड़ते घोड़े को चाबुक नहीं मारनी चाहिए। आप तो अब पार्टी की तैयारी कर लो और पंद्रह बीस हजार गिनने की भी तैयार कर लो।' लक्ष्मीकांत ने आशीर्वादात्मक मुद्रा में कहा।
'पार्टी तो आप जितनी ले लो। पंद्रह-बीस हजार! भाई साहब मुझे लगता है कि आप मेरा मन रखने के लिए ऐसा कह रहे हैं, मुझे तो विश्वास ही नहीं हो रहा है। बेसन नहीं मैं आपके लिए ब्रजवासी की पिस्ते वाली बरफी मंगवाती हूं कोला तो आपको पीकर ही जाना होगा। तुम आराम से सोफे पर क्या बैठे हो जल्दी से बाजार हो आओ हे भगवान!'
लक्ष्मीकांत तो अपना सत्कार कर के चले गए परंतु हम पति-पत्नी एक अंतहीन बहस में उलझ गए। पत्नी अंतर्राष्ट्रीय सहायता कोषरूपा हो गई और उसने बजट बनाने के दिशा- निर्देश मुझे जारी कर दिए। माता-पिता को भेजी जाने वाली राशि में कटौती करवाई, मुझसे अनेक वायदे लिए तथा चाय-पानी जैसी ज़रूरी चीजों को बेकार सिद्ध किया। पत्नी के सुप्रयत्नों से मेरा भुगतान-संतुलन बिगड़ गया और मित्रों की निगाह में दीन-हीन बन गया। भविष्य के लिए वह जो भी बजट बनाती, वह पंद्रह हजार से कम बन ही नहीं रहा था। पंद्रह अभी आए नहीं थे पर उसकी आशा में उधारी के छह-सात हजार शहीद हो चुके थे। बड़ी चादर की अपेक्षा में पैर फैल रहे थे। पत्नी रोज सुबह मुझे उठाती, हाथ में अखबार पकड़ाती और जैसे मैं कभी मां को रामायण सुनाया करता था वैसी ही श्रद्धा से पत्नी को शेयरों के भाव पढ़कर सुनाया करता। हम घंटों उस पेज को घूरते रहते। देश में कहां हत्या हो रही है, किसका घर जल रहा है और कौन जला रहा है ऐसे समाचारों में हमें कोई दिलचस्पी नहीं रह गई थी। जिस दिन शेयर का भाव बढ़ जाता उस दिन पत्नी अच्छा नाश्ता और भोजन खिलाती और जिस दिन घट जाता उस दिन घर में जैसे मातम छा जाता। बच्चे पिट जाते और पति-पत्नी के बीच महाभारत का लघु संस्करण खेला जाता। पत्नी का रक्तचाप पहले केवल मेरे कारण बढ़ता-घटता रहता था, आजकल शेयर बाजार की उसमें महत्वपूर्ण भूमिका रहती।
महीना बीत गया। शेयर डेढ़ सौ पर जाने की बजाय साठ पर आ गया यानी नौ हजार का कागजी नुकसान हमें हो गया। पत्नी ने संतोषधन नामक मंत्र का जाप किया और आदेश दिया कि प्रिय तुम शेयर-संग्राम में जाओ और इसका कुछ कर आओ। मैंने लक्ष्मीकांत से अनुरोध किया तो उसने हमारी हड़बड़ी पर लेक्चर दे डाला तथा सहज पके सो मीठा होय नामक मंत्र का जाप करने को कहा। उसने आत्मविश्वासात्मक स्वर में कहा कि कंपनी के रिजल्ट अच्छे आने वाले हैं और तब यह निश्चित ही दो सौ पर जाएगा। हम अपना परिणाम भूल कंपनी के परिणाम पर ध्यान देने लगे। लक्ष्मीकांत ने हमारे मन में लालच का दीपक पुन: जगा दिया था। मेरा पढऩा-लिखना बंद हो गया और मन विदेश-भ्रमण के लालच-सा सदैव शेयर बाज़ार के ईद-गिर्द ही मंडराता रहता।
जिस तरह से लक्ष्मी भैया ने लक्ष्मी मैया के आने का धमाका किया था वैसे ही उसके जाने का किया। कंपनी के परिणाम ठीक नहीं आए, उसे घाटा हुआ था अत: शेयर लुढ़कता-फुड़कता ग्यारह पर आ टिका। हमने भागते चोर की लंगोटी नामक मुहावरे की सार्थकता सिद्ध की तथ शुक्र मनाया की गांठ से पैसा नहीं गया। पत्नी ने सवा पांच रुपए का प्रसाद चढ़ाया और ऋ ण भुगतान में जुट गया।
अब मैं लक्ष्मी वंदना नहीं करता हूं, बस लक्ष्मी मैया से एक प्रश्न करता हूं तुमने आने का अभिनय क्यों किया लक्ष्मी! कहीं तुम भी तो चुनाव नहीं लड़ रही हो!'
संपर्क- संपादक : व्यंग्य यात्रा, 73, साक्षर अपार्टमेंट, ए-3 पश्चिम विहार, नई दिल्ली-110 063, मोबाइल नम्बर- 09811154440 Email- prem_janmejai@yahoo.com
व्यंग्यकार के बारे में ...
तभी दरवाज़े पर किसी ने दस्तक दी। पत्नी बोली, 'सुनते हो, देखो शायद लक्ष्मी आई है।' मैं मुद्रास्फीति-सा एकदम उठकर लक्ष्मी के स्वागत को बढ़ा परंतु रुपए की अवमूल्यन-सा लुढ़क गया। क्यों कि मेरी पत्नी ने जिस लक्ष्मी के स्वागत के लिए दरवाजा खोलने का अलिखित आदेश दिया था, वह उस समय के अनुसार हमारी कामवाली हो सकती थी जिसके स्वागत की परंपरा हमारे परिवारों में कतई नहीं है।
'दरवाज़ा तुम ही खोल दो।' मेरे स्वर में आम भारतीय की हताशा थी।
पत्नी ने दरवाज़ा खोला, सामने लक्ष्मी नहीं, लक्ष्मीकांत वर्मा थे। उनका चेहरा सरकारी कर्मचारी को महंगाई-भत्ता मिलने के समाचार-सा खिला हुआ था। लक्ष्मीकांत बोले, 'भाभी जी, आज तो फटाफट मिठाई मंगवाइए, बढिय़ा चाय पिलवाइए और घर में बेसन हो तो पकौड़े भी बनवा दीजिए।'
उसकी इस मंगवाइए/बनवाइए आदि योजनाओं पर अपनी तीव्र प्रतिक्रिया देते हुए मैंने कहा, 'क्यों शर्मा, क्या तू विश्व बैंक का प्रतिनिधि है जो तेरा अभूतपूर्व स्वागत करने को हम बाध्य हों?'
'यही समझ ले घोंचूलाल! देख, मैं भाभी जी से बात कर रहा हूं, तू बीच में अपनी टांग क्यों अड़ा रहा है? भाभी जी, मैं आपके लिए हज़ारों रुपए मिलने की ख़बर लाया हूं और ये है कि,' लक्ष्मीकांत ने अमेरिकी स्वर में कहा।
'तुम चुप रहो जी!' पत्नी ने ससम्मान मुझे डांटा और लक्ष्मीकांत की तरफ़ मुस्कराकर देखा तथा कहा, 'आप बैठिए न भाई साहब मैं अभी आपके लिए सबकुछ बनाकर लाती हूं। आप हजारों मिलने वाली बात बताओ न।' पत्नी में ऐसा सेवाभाव मैंने कभी नहीं देखा था।
'भाभी जी, आपको याद होगा कि मैंने आपसे एक हजार रुपए लेकर एक कंपनी के शेयर भरवाए थे, उसका अलॉटमेंट लेटर आ गया है।'
'यानी हमारे हजार रुपए डूब गए। तुझे तो खुशी ही होगी हमारे रुपए डूबने की, तू हमारा सच्चा दोस्त जो है।' मैंने इस मध्य
आह भरी।
'अरे बौड़म, रुपए डूबे नहीं हैं, उस हज़ार रुपए के तीन महीने में दस हजार हो गए हैं। कंपनी का दस रुपए का शेयर आज सौ में बिक रहा है सौ में, कुछ समझे संत मलूकदास जी।'
पत्नी विवाहित जीवन के पच्चीस वसंत देखने से पूर्व या तो चहकी थी या फिर उस दिन लक्ष्मीकांत उवाच के कारण चहकी और चहकते हुए उसने पूछा, 'हमारे कितने शेयर हैं।'
'सौ शेयर।'
'सौ शेयर! और अगर हम उन्हें बेचें तो हमें दस हज़ार रुपए मिलेंगे दस हजार! अजी सुनते हो लक्ष्मी भैया की बदौलत हमें दस हजार मिलेंगे।' (सुधीजन नोट करें, धन, लक्ष्मी मैया के अतिरिक्त लक्ष्मी भैया की बदौलत भी मिल सकता है। अत: हे संतों, सदैव लक्ष्मी का स्मरण करें।) ये दस हजार हमें कब मिलेंगे लक्ष्मी मैया!'
'भाभी जहां इतना इंतज़ार किया वहां थोड़ा इंतजार और कर लो। आप देख लेना कुछ दिनों में ये दो-सौ नहीं तो डेढ़ पौने दो पर तो जाएगा ही। सिफऱ् दस-पंद्रह दिन की बात है दौड़ते घोड़े को चाबुक नहीं मारनी चाहिए। आप तो अब पार्टी की तैयारी कर लो और पंद्रह बीस हजार गिनने की भी तैयार कर लो।' लक्ष्मीकांत ने आशीर्वादात्मक मुद्रा में कहा।
'पार्टी तो आप जितनी ले लो। पंद्रह-बीस हजार! भाई साहब मुझे लगता है कि आप मेरा मन रखने के लिए ऐसा कह रहे हैं, मुझे तो विश्वास ही नहीं हो रहा है। बेसन नहीं मैं आपके लिए ब्रजवासी की पिस्ते वाली बरफी मंगवाती हूं कोला तो आपको पीकर ही जाना होगा। तुम आराम से सोफे पर क्या बैठे हो जल्दी से बाजार हो आओ हे भगवान!'
लक्ष्मीकांत तो अपना सत्कार कर के चले गए परंतु हम पति-पत्नी एक अंतहीन बहस में उलझ गए। पत्नी अंतर्राष्ट्रीय सहायता कोषरूपा हो गई और उसने बजट बनाने के दिशा- निर्देश मुझे जारी कर दिए। माता-पिता को भेजी जाने वाली राशि में कटौती करवाई, मुझसे अनेक वायदे लिए तथा चाय-पानी जैसी ज़रूरी चीजों को बेकार सिद्ध किया। पत्नी के सुप्रयत्नों से मेरा भुगतान-संतुलन बिगड़ गया और मित्रों की निगाह में दीन-हीन बन गया। भविष्य के लिए वह जो भी बजट बनाती, वह पंद्रह हजार से कम बन ही नहीं रहा था। पंद्रह अभी आए नहीं थे पर उसकी आशा में उधारी के छह-सात हजार शहीद हो चुके थे। बड़ी चादर की अपेक्षा में पैर फैल रहे थे। पत्नी रोज सुबह मुझे उठाती, हाथ में अखबार पकड़ाती और जैसे मैं कभी मां को रामायण सुनाया करता था वैसी ही श्रद्धा से पत्नी को शेयरों के भाव पढ़कर सुनाया करता। हम घंटों उस पेज को घूरते रहते। देश में कहां हत्या हो रही है, किसका घर जल रहा है और कौन जला रहा है ऐसे समाचारों में हमें कोई दिलचस्पी नहीं रह गई थी। जिस दिन शेयर का भाव बढ़ जाता उस दिन पत्नी अच्छा नाश्ता और भोजन खिलाती और जिस दिन घट जाता उस दिन घर में जैसे मातम छा जाता। बच्चे पिट जाते और पति-पत्नी के बीच महाभारत का लघु संस्करण खेला जाता। पत्नी का रक्तचाप पहले केवल मेरे कारण बढ़ता-घटता रहता था, आजकल शेयर बाजार की उसमें महत्वपूर्ण भूमिका रहती।
महीना बीत गया। शेयर डेढ़ सौ पर जाने की बजाय साठ पर आ गया यानी नौ हजार का कागजी नुकसान हमें हो गया। पत्नी ने संतोषधन नामक मंत्र का जाप किया और आदेश दिया कि प्रिय तुम शेयर-संग्राम में जाओ और इसका कुछ कर आओ। मैंने लक्ष्मीकांत से अनुरोध किया तो उसने हमारी हड़बड़ी पर लेक्चर दे डाला तथा सहज पके सो मीठा होय नामक मंत्र का जाप करने को कहा। उसने आत्मविश्वासात्मक स्वर में कहा कि कंपनी के रिजल्ट अच्छे आने वाले हैं और तब यह निश्चित ही दो सौ पर जाएगा। हम अपना परिणाम भूल कंपनी के परिणाम पर ध्यान देने लगे। लक्ष्मीकांत ने हमारे मन में लालच का दीपक पुन: जगा दिया था। मेरा पढऩा-लिखना बंद हो गया और मन विदेश-भ्रमण के लालच-सा सदैव शेयर बाज़ार के ईद-गिर्द ही मंडराता रहता।
जिस तरह से लक्ष्मी भैया ने लक्ष्मी मैया के आने का धमाका किया था वैसे ही उसके जाने का किया। कंपनी के परिणाम ठीक नहीं आए, उसे घाटा हुआ था अत: शेयर लुढ़कता-फुड़कता ग्यारह पर आ टिका। हमने भागते चोर की लंगोटी नामक मुहावरे की सार्थकता सिद्ध की तथ शुक्र मनाया की गांठ से पैसा नहीं गया। पत्नी ने सवा पांच रुपए का प्रसाद चढ़ाया और ऋ ण भुगतान में जुट गया।
अब मैं लक्ष्मी वंदना नहीं करता हूं, बस लक्ष्मी मैया से एक प्रश्न करता हूं तुमने आने का अभिनय क्यों किया लक्ष्मी! कहीं तुम भी तो चुनाव नहीं लड़ रही हो!'
संपर्क- संपादक : व्यंग्य यात्रा, 73, साक्षर अपार्टमेंट, ए-3 पश्चिम विहार, नई दिल्ली-110 063, मोबाइल नम्बर- 09811154440 Email- prem_janmejai@yahoo.com
व्यंग्यकार के बारे में ...
प्रेम जनमेजय व्यंग्यकर्म के क्षेत्र में एक बेहद सक्रिय हस्ती हैं। व्यंग्य और व्यंग्यकारों के प्रति जो विकट जुड़ाव प्रेम जी में दिखलाई देता है वह अन्यत्र दुर्लभ है। व्यंग्य लेखन, व्यंग्य की पत्रिकाओं और संकलनों के सम्पादन तथा व्यंग्य के आयोजनों में वे न केवल स्वयं निरंतर जुटे होते हैं बल्कि लोगों को अधिकाधिक जोडऩे का भाव भी उनमें प्रबल है। वे साहित्य की परम्परागत उठा- पटक से दूर रहते हुए हरदम रचनात्मकता के साथ खड़े होते हैं । ऐसे समय में भी जब कोई लेखकीय संकट का दौर गुजर रहा हो। इसे प्रमाणित भी उन्होंने किया है। पिछले कुछ समय से प्रेम जनमेजय 'व्यंग्य यात्रा' नामक एक त्रैमासिक पत्रिका का सम्पादन कर रहे हैं। यह देश की एकमात्र व्यंग्य पत्रिका है जो सार्थक लेखन और आलोचना के प्रति गंभीर है। प्रेम जनमेजय उन बिरले व्यंग्यकारों में से हैं जो व्यंग्य की विधा के अतिरिक्त अन्य विधाओं में लिखते हैं। उन्होंने नाटक लिखे हैं और बाल साहित्य पर भी उनकी पुस्तिकाएं प्रकाशित हुई हैं। वे आयोजनों के सिलसिले में देश-विदेश की खूब यात्रा करने वाले एक घुमक्कड़ लेखक भी हैं, पर जहां भी वे जाते हैं व्यंग्य उनके साथ होता है। अपनी इसी सक्रियता के लिए उनके सम्मानित और पुरस्कृत होने का समाचार अक्सर सुर्खियों पर होता है।
यहां प्रस्तुत व्यंग्य रचना 'तुम ऐसे क्यों आई लक्ष्मी..' में उनकी वही तरल और आत्मीय भाषा है जैसी उनके रोजमर्रा के जीवन में है। वे ज्यादातर विषय भी आम जन जीवन से उठाते हैं और उसी बोलचाल में रचना की बुनावट करते हैं जो आम जन की भाषा होती है। यहां शेयर मार्के ट में शेयर लेने के चक्कर में पड़े उस मध्यम वर्गीय समाज की लोलुपता का चित्रण है जिसके लिए परसाई जी कह गए हैं कि 'यह मध्यम वर्गीय समाज एक विकट किसम का जीव है जिसमें उच्च वर्ग का अहंकार होता है और निम्न वर्ग की दयनीयता।'
यहां प्रस्तुत व्यंग्य रचना 'तुम ऐसे क्यों आई लक्ष्मी..' में उनकी वही तरल और आत्मीय भाषा है जैसी उनके रोजमर्रा के जीवन में है। वे ज्यादातर विषय भी आम जन जीवन से उठाते हैं और उसी बोलचाल में रचना की बुनावट करते हैं जो आम जन की भाषा होती है। यहां शेयर मार्के ट में शेयर लेने के चक्कर में पड़े उस मध्यम वर्गीय समाज की लोलुपता का चित्रण है जिसके लिए परसाई जी कह गए हैं कि 'यह मध्यम वर्गीय समाज एक विकट किसम का जीव है जिसमें उच्च वर्ग का अहंकार होता है और निम्न वर्ग की दयनीयता।'
- विनोद साव
3 comments:
लक्ष्मी लक्ष्मीकांत
शेयर और नेकांत
शेयर के भले ही गिर गए
पर इस व्यंग्य से उदंती के पाठक बढ़ गए
मन आनंद समाया
इसलिए नहीं कि शेयर के रेट गिर गए
बल्कि इसलिए कि व्यंग्य इतना धारदार रहा
कि एक एक पंक्ति पर
शब्दों के रोम रोम खिल गए।
शब्दों से इतना असीम प्रेम
कमाल है प्रेम जनमेजय जी का।
लक्ष्मी अनंत ,लक्ष्मी कथा अनंता ... प्रेम जी ,..बहुत बढ़िया व्यंग्य ..और इसे भेजने वाले .अविनाश वाचस्पति जी का शुक्रिया ....उनकी बदौलत हम इसे पढ़ सके ..
... behad rochak vyangya !!!!!!
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