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Jul 1, 2022

समाजः अमेरिका में बंदूक संस्कृति के दुष्परिणाम

- प्रमोद भार्गव

यह सच्चाई कल्पना से परे लगती है कि विद्या के मंदिर में पढ़ाई जा रही किताबें हिंसा की रक्त रंजित इबारत लिखेंगी ? लेकिन हैरत में डालने वाली बात है कि इन हृदयविदारक घटनाओं का एक लंबे समय से सिलसिला हकीकत बना हुआ है। देश के महानगर और शैक्षिक गुणवत्ता की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण माने जाने वाले देश अमेरिका के रॉब एलीमेंट्री प्राथमिक विद्यालय में एक 18 वर्षीय छात्र साल्वाडोर रैमोस ने अँधाधुँध गोलीबारी करके 19 छात्रों समेत 21 लोगों की हत्या कर दी। इनमें उसकी दादी भी शामिल है। घर पर दादी की हत्या के बाद ही उसने स्कूल में पहुँचकर यह तांडव रचा था। इस घटना के बाद अमेरिका ने चार दिन के राष्ट्रीय शोक की घोषणा तो कर दी, लेकिन हथियार बेचने वाली बंदूक लॉबी पर अंकुश लगाए जाने के कोई ठोस उपाय अमेरिका जैसा ‘शक्तिशाली देश नहीं कर पा रहा है। हालांकि अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने राष्ट्र के नाम दिए संबोधन में कहा है कि ‘स्कूल में बच्चों ने अपने मित्रों को ऐसे मरते देखा, जैसे वे किसी युद्ध के मैदान में हों। एक बच्चे को खोना ऐसा है, जैसे की आपकी आत्मा का एक हिस्सा चीर दिया गया हो। बावजूद इसके क्या हमें नहीं सोचना चाहिए कि आखिर हम बंदूक संस्कृति के विरुद्ध कब खड़े होंगे? और कुछ ऐसा करेंगे, जो हमें करना चाहिए।’ साफ है, बाइडेन का इशारा संसद की तरफ था, जिससे वह संविधान में संशोधन कर ऐसा कानून बनाए, जिससे बंदूक रखने पर अंकुश लगे।

अमेरिका में कोरोना कालखंड में भी ऐसी ही घटना देखने में आई थीं, जब दसवीं कक्षा के एक 14 वर्षीय नाबालिग छात्र ने  तीन छात्रों की शाला परिसर में गोली मारकर हत्या कर दी थी। हत्यारे आरोपी छात्र ने अपने पिता की सेटमी स्वचालित बंदूक से करीब 20 गोलियाँ दागी थीं। अचरज में डालने वाली बात है कि कोरोना के भयावह संकटकाल में भी अमेरिका में बंदूकों की माँग सात गुना बढ़ गई थी। इनमें से 62 प्रतिशत बंदूकें गैर श्वेतों के पास हैं। इस बीच महिलाओं में भी बंदूकें खरीदने की दिलचस्पी बढ़ी है। महिलाएँ पिंक पिस्टल खरीद रही हैं। बंदूकों की इस बढ़ी बिक्री का ही परिणाम है कि 2021 में ही फायरिंग की 650 घटनाएँ घट चुकी हैं और दस छात्रों की मौत इस एक साल में हो चुकी थी। इस साल इसी प्रकृति की अमेरिका में 200 से ज्यादा घटनाएँ घट चुकी हैं। साफ है, आधुनिक और उच्च शिक्षित माने जाने वाले इस देश में हिंसा की इबारत लिखने का खुला कारोबार चल रहा है। जाहिर है, यहाँ के शिक्षा संस्थानों में किताबों से संस्कार ग्रहण करने वाली शिक्षा शायद हिंसा की इबारत कैसे लिखी जाए, यह पाठ पढ़ा रही है ?

अमेरिका ‘गन कल्चर’ से उबर नहीं पा रहा है। सार्वजनिक स्थानों, विद्यालयों, संगीत समारोहों आदि में आए दिन बंदूक की आवाज सुनाई दे जाती है। नतीजतन युनाइटेड स्टेट का यह गन कल्चर उसके लिए आत्मघाती दस्ता साबित हो रहा है;  इसलिए अमेरिका में रोजाना 53 लोगों की गोली मारकर हत्या होती है। अमेरिका में होने वाली हत्याओं में से 79 प्रतिशत लोग बंदूक से मारे जाते हैं। अमेरिका की कुल आबादी लगभग 33 करोड़ है, जबकि यहाँ व्यक्तिगत हथियारों की संख्या 39 करोड़ हैं। अमेरिका में हर सौ नागरिकों पर 120.5 हथियार हैं। अमेरिका में बंदूक रखने का कानूनी अधिकार संविधान में दिया हुआ है। ‘द गन कन्ट्रोल एक्ट’1968 के मुताबिक, रायफल या कोई भी छोटा हथियार खरीदने के लिए व्यक्ति की उम्र कम से कम 18 साल होनी चाहिए। 21 वर्ष या उससे अधिक उम्र है तो व्यक्ति हैंडगन या बड़े हथियार भी खरीद सकते हैं। इसके लिए भारत की तरह किसी लाइसेंस की जरूरत नहीं है। इसी का परिणाम है कि जब कोरोना से अमेरिका जूझ रहा था, तब 2019 से लेकर अप्रैल 2021 के बीच 70 लाख से ज्यादा नागरिकों ने बंदूकें खरीदी हैं। यहाँ घटने वाली इस प्रकृति की घटनाओं को सामाजिक विसंगतियों का भी नतीजा माना जाता है। अमेरिकी समाज में नस्लभेद तो पहले से ही मौजूद है, अब बढ़ती धन-संपदा ने ऊँच-नीच और अमीरी-गरीबी की खाई को भी खतरनाक ढंग से चौड़ा कर दिया है। टेक्सास के प्राथमिक विद्यालय का हमलावर यह छात्र भी अत्यंत गरीब परिवार से था। इसके सहपाठियों ने बताया है कि उसके सस्ते कपड़ों के कारण अन्य छात्र उसकी खिल्ली उड़ाया करते थे। गरीबी को इंगित करने वाला यह मजाक 21 लोगों की जान पर भारी पड़ गया।

दरअसल अमेरिका ही नहीं, दुनिया के उच्च शिक्षित और सभ्य समाजों में परिवार या कुटुंब की अवधारणा समाप्त होती चली जा रही है। परिवार निरंतर विखंडित हो रहे हैं। यहाँ पति और पत्नी दोनों को अपने विवाहेतर संबंधों की मर्यादा का कोई ख्याल नहीं है। नतीजतन तलाक की संख्या बढ़ रही है। ऐसे में उपेक्षित और हीन भावना से ग्रस्त युवा आक्रोश, असहिष्णुता एवं हिंसक प्रवृत्ति की गिरफ्त में आकर मानसिक रूप से विक्षिप्त हो रहा है। इन मानसिक बीमारियों को बढ़ाने में बेरोजगारी भी बड़ा कारण बन रही है। अवसाद की स्थिति में जब युवकों को आसानी से बंदूक हाथ लग जाती है, तो वे अपने भीतरी आक्रोश को हिंसा की इबारत लिखकर तात्कालिक उपाय कर लेते हैं;  किंतु उनका और उनके परिजनों का दीर्घकालिक जीवन कानूनी दुविधाओं के चलते लगभग नष्ट हो जाता है। गन कल्चर नाम से कुख्यात इस प्रवृत्ति पर अंकुश के लिए अमेरिका में पचास साल से चर्चाएँ तो हो रही हैं,

लेकिन संविधान में बदलाव दूर की कौड़ी बना हुआ है। अमेरिकी नागरिक को बंदूक रखने पर गर्व की अनुभूति होती है और वह इस अधिकार को बने रहना चाहता है। बंदूक लॉबी विज्ञापनों के जरिए इस माहौल को गर्वयुक्त बनाए रखने की पृष्ठभूमि रचती रहती है।     

 विद्यालयों में छात्र- हिंसा से जुड़ी ऐसी घटनाएँ पहले अमेरिका जैसे विकसित देशों में ही देखने में आती थीं, लेकिन अब भारत जैसे विकासशील देशों में भी क्रूरता का यह सिलसिला चल निकला है। हालाँकि भारत का समाज अमेरिकी समाज की तरह आधुनिक नहीं है कि जहाँ पिस्तौल अथवा चाकू जैसे हथियार रखने की छूट छात्रों को हो। अमेरिका में तो ऐसी विकृत संस्कृति पनप चुकी है, जहाँ अकेलेपन के शिकार एवं माँ-बाप के लाड-प्यार से उपेक्षित बच्चें घर, मोहल्ले और संस्थाओं में जब-तब पिस्तौल चला दिया करते हैं। आज अभिभावकों की अतिरिक्त व्यस्तता और एकांगिकता जहाँ बच्चों के मनोवेगों की पड़ताल करने के लिए दोषी है, वहीं विद्यालय नैतिक और संवेदनशील मूल्य बच्चों में रोपने में सर्वथा चूक रहे हैं। छात्रों पर विज्ञान, गणित और वाणिज्य विषयों की शिक्षा का बेवजह दबाव भी बर्बर मानसिकता विकसित करने के लिए दोषी हैं। आज साहित्य, समाजशास्त्र व मनोविज्ञान की पढ़ाई पाठ्यक्रमों में कम से कमतर होती जा रही है,

जबकि साहित्य और समाजशास्त्र ऐेसे विषय हैं जो समाज से जुड़े सभी विषयों और पहलुओं का वास्तविक यथार्थ प्रकट कर बाल-मनों में संवेदनशीलता का स्वाभाविक सृजन करने के साथ सामाजिक विसंगतियों से परिचत कराते हैं। इससे हृदय की जटिलता टूटती है और सामाजिक विसंगतियों को दूर करने के कोमल भाव भी बालमनों में अंकुरित होते हैं। महान और अपने-अपने क्षेत्रों में सफल व्यक्तियों की जीवन-गाथाएँ (जीवनियाँ) भी व्यक्ति में संघर्ष के लिए जीवटता प्रदान करती हैं। लेकिन दुर्भाग्य से हमारे यहाँ ऐसा कोई पाठ्यक्रम पाठशालाओं में नहीं है, जिसमें कामयाब व्यक्ति की जीवनी पढ़ाई जाती हो ? जीवन-गाथाओं में जटिल परिस्थितियों से जूझने एवं उलझनों से मुक्त होने के सरल, कारगर और मनोवैज्ञानिक उपाय भी होते हैं।

वैसे मनोवैज्ञानिकों की मानें तो आमतौर से बच्चे आक्रामकता और हिंसा से दूर रहने की कोशिश करते हैं। लेकिन घरों में छोटे पर्दे और मुट्ठी में बंद मोबाइल पर परोसी जा रही हिंसा और सनसनी फैलाने वाले कार्यक्रम इतने असरदार साबित हो रहे हैं कि हिंसा का उत्तेजक वातावरण घर-आँगन में विकृत रूप लेने लगा है, जो बालमनों में संवेदनहीनता का बीजारोपण कर रहा है। मासूम और बौने से लगने वाले कार्टून चरित्र भी पर्दे पर बंदूक थामे दिखाई देते हैं, जो बच्चों में आक्रोश पैदा करने का काम करते हैं। कुछ समय पहले दो किशोर मित्रों ने अपने तीसरे मित्र की हत्या केवल इसलिए कर दी थी कि वह उन्हें वीडियो गेम खेलने के लिए तीन सौ रुपये नहीं दे रहा था। लिहाजा छोटे पर्दे पर लगातार दिखाई जा रही हिंसक वारदातों के महिमामंडन पर अंकुश लगाया जाना जरूरी है। यदि बच्चों के खिलौनों का समाजशास्त्र एवं मनोवैज्ञानिक ढंग से अध्ययन एवं विश्लेषण किया जाए तो हम पाएँगे की हथियार और हिंसा का बचपन में अनाधिकृत प्रवेश हो चुका है।

सम्पर्कः शब्दार्थ 49,श्रीराम कॉलोनी, शिवपुरी म.प्र., मो. 09425488224

1 comment:

Sonneteer Anima Das said...

अतिशय सदैव अंत का कारण बनता है.... आधुनिकता के नाम पर एवं प्रभावशाली होने का गौरव प्राप्त करने हेतु अत्यंत स्वेच्छाचार होने के नाम पर यह दुष्परिणाम तो देखना ही है..... सार्थक आलेख 🙏🌹