
अमेरिका में कोरोना कालखंड में भी ऐसी ही घटना
देखने में आई थीं, जब दसवीं कक्षा के एक 14 वर्षीय नाबालिग छात्र ने तीन
छात्रों की शाला परिसर में गोली मारकर हत्या कर दी थी। हत्यारे आरोपी छात्र ने
अपने पिता की सेटमी स्वचालित बंदूक से करीब 20 गोलियाँ दागी
थीं। अचरज में डालने वाली बात है कि कोरोना के भयावह संकटकाल में भी अमेरिका में
बंदूकों की माँग सात गुना बढ़ गई थी। इनमें से 62 प्रतिशत
बंदूकें गैर श्वेतों के पास हैं। इस बीच महिलाओं में भी बंदूकें खरीदने की
दिलचस्पी बढ़ी है। महिलाएँ पिंक पिस्टल खरीद रही हैं। बंदूकों की इस बढ़ी बिक्री का
ही परिणाम है कि 2021 में ही फायरिंग की 650 घटनाएँ घट चुकी हैं और दस छात्रों की मौत इस एक साल में हो चुकी थी। इस
साल इसी प्रकृति की अमेरिका में 200 से ज्यादा घटनाएँ घट
चुकी हैं। साफ है, आधुनिक और उच्च शिक्षित माने जाने वाले इस
देश में हिंसा की इबारत लिखने का खुला कारोबार चल रहा है। जाहिर है, यहाँ के शिक्षा संस्थानों में किताबों से संस्कार ग्रहण करने वाली शिक्षा
शायद हिंसा की इबारत कैसे लिखी जाए, यह पाठ पढ़ा रही है ?
अमेरिका ‘गन कल्चर’ से उबर नहीं पा रहा है।
सार्वजनिक स्थानों, विद्यालयों, संगीत समारोहों आदि में आए दिन बंदूक की आवाज सुनाई दे जाती है। नतीजतन
युनाइटेड स्टेट का यह गन कल्चर उसके लिए आत्मघाती दस्ता साबित हो रहा है; इसलिए अमेरिका में रोजाना 53 लोगों की गोली मारकर हत्या होती है। अमेरिका में होने वाली हत्याओं में
से 79 प्रतिशत लोग बंदूक से मारे जाते हैं। अमेरिका की कुल
आबादी लगभग 33 करोड़ है, जबकि यहाँ
व्यक्तिगत हथियारों की संख्या 39 करोड़ हैं। अमेरिका में हर
सौ नागरिकों पर 120.5 हथियार हैं। अमेरिका में बंदूक रखने का
कानूनी अधिकार संविधान में दिया हुआ है। ‘द गन कन्ट्रोल एक्ट’1968 के मुताबिक, रायफल या कोई भी छोटा हथियार खरीदने के
लिए व्यक्ति की उम्र कम से कम 18 साल होनी चाहिए। 21 वर्ष या उससे अधिक उम्र है तो व्यक्ति हैंडगन या बड़े हथियार भी खरीद सकते
हैं। इसके लिए भारत की तरह किसी लाइसेंस की जरूरत नहीं है। इसी का परिणाम है कि जब
कोरोना से अमेरिका जूझ रहा था, तब 2019
से लेकर अप्रैल 2021 के बीच 70 लाख से
ज्यादा नागरिकों ने बंदूकें खरीदी हैं। यहाँ घटने वाली इस प्रकृति की घटनाओं को
सामाजिक विसंगतियों का भी नतीजा माना जाता है। अमेरिकी समाज में नस्लभेद तो पहले
से ही मौजूद है, अब बढ़ती धन-संपदा ने ऊँच-नीच और अमीरी-गरीबी
की खाई को भी खतरनाक ढंग से चौड़ा कर दिया है। टेक्सास के प्राथमिक विद्यालय का
हमलावर यह छात्र भी अत्यंत गरीब परिवार से था। इसके सहपाठियों ने बताया है कि उसके
सस्ते कपड़ों के कारण अन्य छात्र उसकी खिल्ली उड़ाया करते थे। गरीबी को इंगित करने
वाला यह मजाक 21 लोगों की जान पर भारी पड़ गया।
दरअसल अमेरिका ही नहीं, दुनिया के उच्च शिक्षित और सभ्य समाजों में परिवार या कुटुंब की अवधारणा समाप्त होती चली जा रही है। परिवार निरंतर विखंडित हो रहे हैं। यहाँ पति और पत्नी दोनों को अपने विवाहेतर संबंधों की मर्यादा का कोई ख्याल नहीं है। नतीजतन तलाक की संख्या बढ़ रही है। ऐसे में उपेक्षित और हीन भावना से ग्रस्त युवा आक्रोश, असहिष्णुता एवं हिंसक प्रवृत्ति की गिरफ्त में आकर मानसिक रूप से विक्षिप्त हो रहा है। इन मानसिक बीमारियों को बढ़ाने में बेरोजगारी भी बड़ा कारण बन रही है। अवसाद की स्थिति में जब युवकों को आसानी से बंदूक हाथ लग जाती है, तो वे अपने भीतरी आक्रोश को हिंसा की इबारत लिखकर तात्कालिक उपाय कर लेते हैं; किंतु उनका और उनके परिजनों का दीर्घकालिक जीवन कानूनी दुविधाओं के चलते लगभग नष्ट हो जाता है। गन कल्चर नाम से कुख्यात इस प्रवृत्ति पर अंकुश के लिए अमेरिका में पचास साल से चर्चाएँ तो हो रही हैं,
विद्यालयों में छात्र- हिंसा से जुड़ी ऐसी घटनाएँ
पहले अमेरिका जैसे विकसित देशों में ही देखने में आती थीं, लेकिन अब भारत जैसे विकासशील देशों में भी क्रूरता का यह सिलसिला चल निकला
है। हालाँकि भारत का समाज अमेरिकी समाज की तरह आधुनिक नहीं है कि जहाँ पिस्तौल
अथवा चाकू जैसे हथियार रखने की छूट छात्रों को हो। अमेरिका में तो ऐसी विकृत
संस्कृति पनप चुकी है, जहाँ अकेलेपन के शिकार एवं माँ-बाप के
लाड-प्यार से उपेक्षित बच्चें घर, मोहल्ले और संस्थाओं में
जब-तब पिस्तौल चला दिया करते हैं। आज अभिभावकों की अतिरिक्त व्यस्तता और एकांगिकता
जहाँ बच्चों के मनोवेगों की पड़ताल करने के लिए दोषी है, वहीं
विद्यालय नैतिक और संवेदनशील मूल्य बच्चों में रोपने में सर्वथा चूक रहे हैं। छात्रों
पर विज्ञान, गणित और वाणिज्य विषयों की शिक्षा का बेवजह दबाव
भी बर्बर मानसिकता विकसित करने के लिए दोषी हैं। आज साहित्य, समाजशास्त्र व मनोविज्ञान की पढ़ाई पाठ्यक्रमों में कम से कमतर होती जा रही
है,
वैसे मनोवैज्ञानिकों की मानें तो आमतौर से बच्चे
आक्रामकता और हिंसा से दूर रहने की कोशिश करते हैं। लेकिन घरों में छोटे पर्दे और
मुट्ठी में बंद मोबाइल पर परोसी जा रही हिंसा और सनसनी फैलाने वाले कार्यक्रम इतने
असरदार साबित हो रहे हैं कि हिंसा का उत्तेजक वातावरण घर-आँगन में विकृत रूप लेने
लगा है,
जो बालमनों में संवेदनहीनता का बीजारोपण कर रहा है। मासूम और बौने
से लगने वाले कार्टून चरित्र भी पर्दे पर बंदूक थामे दिखाई देते हैं, जो बच्चों में आक्रोश पैदा करने का काम करते हैं। कुछ समय पहले दो किशोर
मित्रों ने अपने तीसरे मित्र की हत्या केवल इसलिए कर दी थी कि वह उन्हें वीडियो
गेम खेलने के लिए तीन सौ रुपये नहीं दे रहा था। लिहाजा छोटे पर्दे पर लगातार दिखाई
जा रही हिंसक वारदातों के महिमामंडन पर अंकुश लगाया जाना जरूरी है। यदि बच्चों के
खिलौनों का समाजशास्त्र एवं मनोवैज्ञानिक ढंग से अध्ययन एवं विश्लेषण किया जाए तो
हम पाएँगे की हथियार और हिंसा का बचपन में अनाधिकृत प्रवेश हो चुका है।
सम्पर्कः शब्दार्थ 49,श्रीराम कॉलोनी, शिवपुरी म.प्र., मो. 09425488224
1 comment:
अतिशय सदैव अंत का कारण बनता है.... आधुनिकता के नाम पर एवं प्रभावशाली होने का गौरव प्राप्त करने हेतु अत्यंत स्वेच्छाचार होने के नाम पर यह दुष्परिणाम तो देखना ही है..... सार्थक आलेख 🙏🌹
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