विश्वभर में वृद्ध लोगों की बढ़ती आबादी के लिए
वित्तीय सहायता और देखभाल का विषय राजनैतिक रूप से काफी पेचीदा है। इस संदर्भ में
विभिन्न देशों ने अलग-अलग प्रयास किए हैं।
यू.के. में 2017 में और
उसके बाद 2021 में सरकार द्वारा सोशल-केयर नीति लागू की गई
थी। इसमें सामाजिक सुरक्षा हेतु धन जुटाने के मकसद से राष्ट्रीय बीमा की दरें बढ़ा
दी गई थीं। यह एक प्रकार का सामाजिक सुरक्षा टैक्स है जो सारे कमाऊ वयस्क और उनके
नियोक्ता भरते हैं।
कोविड-19 के दौरान
वृद्धाश्रमों में मरने वाले लोगों की बड़ी संख्या ने इस मॉडल पर सवाल खड़े दिए। तो
सवाल यह है कि बढ़ती बुज़ुर्ग आबादी की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए स्वास्थ्य
सेवाओं में किस तरह के पुनर्गठन की ज़रूरत है।
लगभग सभी उन्नत और बढ़ती हुई अर्थव्यवस्थाएँ इस
चुनौती का सामना कर रही हैं। जैसे 2050 तक यूके की
25 प्रतिशत जनसंख्या 65 वर्ष से अधिक
आयु की होगी जो वर्तमान में 20 प्रतिशत है। इसी तरह अमेरिका
में वर्ष 2018 में 65 वर्ष से अधिक आयु
के 5.2 करोड़ लोग थे जो 2060 तक 9.5 करोड़ हो जाएँगे। इस मामले में जापान का ‘अतिवृद्ध’ समाज अन्य देशों के
लिए विश्लेषण का आधार प्रदान करता है। 2015 से 2065 के बीच जापान की आबादी 12.7 करोड़ से घटकर 8.8 करोड़ होने की संभावना है जिसमें 2036 तक एक तिहाई
आबादी 65 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों की होगी।
हालाँकि भारत, जो
विश्व का दूसरा सबसे अधिक वाली आबादी वाला देश है, की
वर्तमान स्थिति थोड़ी बेहतर है लेकिन अनुमान है कि 2050 तक 32 करोड़ भारतीयों की उम्र 60 वर्ष से अधिक होगी।
मुंबई स्थित इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पापुलेशन
साइंसेज़ के प्रमुख कुरियाथ जेम्स बताते हैं कि भारत में बुज़ुर्गों की देखभाल मुख्य
रूप से परिवारों के अंदर ही की जाती है। वृद्धाश्रम अभी भी बहुत कम हैं। भारत में
संयुक्त परिवार आम तौर पर पास-पास ही रहते हैं जिससे घर के वृद्ध लोगों की देखभाल
करना आसान हो जाता है। लेकिन इस व्यवस्था को अब जनांकिक रुझान चुनौती दे रहे हैं।
गौरतलब है कि भारत अंतर्राष्ट्रीय प्रवासियों का
सबसे बड़ा स्रोत है। 1990 के दशक की शुरुआत से लेकर अब
तक विदेशों में काम करने वाले भारतीयों की संख्या दुगनी से अधिक होकर 2015 तक 1.56 करोड़ हो गई थी। इसके अलावा कई भारतीय काम
के सिलसिले में देश के ही दूसरे शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। 2001 की जनगणना के अनुसार 30 प्रतिशत आबादी अपने जन्म
स्थान पर नहीं रह रही थी। यह संख्या 2011 में बढ़कर 37 प्रतिशत हो गई थी। जेम्स के अनुसार इस प्रवास में आम तौर पर व्यस्क युवा
होते हैं जो अपने माता-पिता को छोड़कर दूसरे शहर चले जाते हैं। नतीजतन घर पर ही
वृद्ध लोगों की देखभाल और कठिन हो जाती है।
2020 में लॉन्गीट्यूडिनल एजिंग स्टडी इन
इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार 60 वर्ष से अधिक आयु के 26 प्रतिशत लोग या तो अकेले या सिर्फ अपने जीवनसाथी (पति-पत्नी) के साथ रहते
हैं। फिलहाल भारत में पारिवारिक जीवन अभी भी अपेक्षाकृत रूप से आम बात है जिसमें 60 से अधिक उम्र के 41 प्रतिशत लोग अपने जीवनसाथी और
वयस्क बच्चों दोनों के साथ रहते हैं जबकि 28 प्रतिशत लोग
अपने वयस्क बच्चों के साथ रहते हैं और उनका कोई जीवनसाथी नहीं है।
यदि प्रवासन में उपरोक्त वृद्धि जारी रही तो
जल्दी ही देश की बुज़ुर्ग आबादी के पास कोई परिवार नहीं होगा और उनको देखभाल के लिए
वृद्धाश्रम की आवश्यकता होगी। ऐसे में खर्चा बढ़ेगा और इन खर्चों को पूरा करने के
लिए अधिक महिलाओं को काम की तलाश करना होगी।
भारत के वृद्ध लोग अपने संयुक्त परिवारों के साथ
रहना अधिक पसंद करते हैं। ऐसे परिवारों में रहने वाले ज़्यादा बुज़ुर्ग (80 प्रतिशत) अपने रहने की व्यवस्था से संतुष्ट हैं बनिस्बत अकेले रहने वाले
बुज़ुर्गों (53 प्रतिशत) के। नर्सिंग-होम जैसी संस्थाओं में
संतुष्टि के संदर्भ में कोई डैटा तो नहीं है; लेकिन परिवार
द्वारा देखभाल को बहुत अधिक महत्त्व दिया जाता है; क्योंकि यह समाज की अपेक्षा भी
है। फिर भी देश के अंदर और विदेशों की ओर प्रवास की प्रवृत्ति और कोविड-19 के दीर्घकालिक प्रभाव को देखते हुए विशेषज्ञ मानते हैं कि व्यवस्था में
बदलाव की दरकार है।
महामारी के दौरान कई देशों के केयर-होम्स वायरस
संक्रमण के भंडार रहे हैं। भारत के संदर्भ में पर्याप्त आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं।
लंदन आधारित इंटरनेशनल लॉन्ग टर्म केयर पालिसी नेटवर्क ने हाल ही में एक समीक्षा
में बताया है कि परिवार के वृद्ध जन के कोविड-19 संक्रमित
होने पर परिवार को अतिरिक्त तनाव झेलना पड़ा था। इस महामारी ने एक ऐसी व्यवस्था की
सीमाओं को उजागर किया है जो वृद्ध लोगों की देखभाल के लिए मुख्यत: परिवारों पर
निर्भर है।
घर पर देखभाल के लिए देश के आधे कामगारों
(महिलाओं) की उपेक्षा करना अर्थव्यवस्था पर एक गंभीर बोझ है।
इसी कारण जापान ने अपने वृद्ध लोगों की देखभाल
करने के तरीके में बदलाव किए हैं। भारत की तुलना में जापान में आंतरिक प्रवास की
दर कम है - वहाँ केवल 20 प्रतिशत लोग उस प्रांत में
नहीं रहते हैं जहाँ वे पैदा हुए थे। लेकिन वहाँ भी औपचारिक अर्थव्यवस्था में
महिलाओं की कम उपस्थिति एक बड़ा मुद्दा है। वर्ष 2000 में,
25 से 54 वर्ष की आयु के बीच की 67 प्रतिशत महिलाएँ अधिकारिक तौर पर नौकरियों में थी जो अमेरिका से 10 प्रतिशत कम था। वैसे भी जापान सामान्य रूप से घटते कार्यबल का सामना कर
रहा है।
इस सहस्राब्दी की शुरुआत में जापान ने
लॉन्ग-टर्म केयर इंश्योरेंस (एलटीसीआई) योजना की शुरुआत की थी जिसका उद्देश्य
देखभाल को परिवार-आधारित व्यवस्था से दूर करके बीमा पर आधारित करना है। एलटीसीआई
के तहत,
65 वर्ष से अधिक उम्र के सभी लोग, जिन्हें किसी भी कारण देखभाल की
आवश्यकता है, उन्हें सहायता प्रदान की जाती है। इसके लिए कोई
विशेष विकलांगता की शर्त नहीं है। इसकी पात्रता एक सर्वेक्षण द्वारा निर्धारित की
जाती है। इसके बाद चिकित्सक के इनपुट के आधार पर लॉन्ग-टर्म केयर अप्रूवल बोर्ड
द्वारा निर्णय लिया जाता है। इसके बाद दावेदार को उसकी व्यक्तिगत आवश्यकताओं के
अनुसार देखभाल प्रदान की जाती है जो नर्सिंग-होम में निवास से लेकर उनके दैनिक
कार्यों में मदद के लिए सेवाएँ प्रदान करने तक हो सकती हैं।
एलटीसीआई के वित्तपोषण का 50 प्रतिशत हिस्सा कर से प्राप्त राजस्व से और बाकी का हिस्सा 40 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों पर अनिवार्य बीमा प्रीमियम आरोपित करके किया
जाता है। यह आयु सीमा इसलिए निर्धारित की गई है क्योंकि 40
वर्ष की आयु तक पहुँचने पर व्यक्ति के बुज़ुर्ग रिश्तेदारों को देखभाल की आवश्यकता
होगी, ऐसे में वह व्यक्ति इस व्यवस्था का लाभ देख पाएगा।
हितग्राही को कुल खर्च के 10 प्रतिशत का भुगतान भी करना होता
है।
कुल मिलाकर सबक यह है कि इतनी व्यापक योजना का
आकार समय के साथ बढ़ता ही जाएगा। एलटीसीआई के लिए उच्च स्तर का उत्साह पैदा करना
आसान नहीं था। लोगों की मानसिकता में बदलाव लाना पड़ा क्योंकि घर पर वृद्ध
रिश्तेदारों की देखभाल न करना एक शर्म की बात माना जाता था। हालाँकि, जापान ने जो समस्याएँ एलटीसीआई की मदद से दूर करने की कोशिश की थी उनमें
से कई समस्याएँ अभी भी मौजूद हैं।
एक रोचक तथ्य यह है कि जहाँ 2000 से 2018 के बीच जापान की कामकाजी उम्र की आबादी में
1.1 करोड़ से अधिक लोगों की कमी आई है वहीं कार्यबल में 6 लाख की वृद्धि हुई है। इस वृद्धि का श्रेय महिलाओं की बढ़ती भागीदारी को
दिया जाता है क्योंकि एलटीसीआई ने पारिवारिक देखभाल की चिंताओं को कम किया जिससे
महिलाओं को काम करने के अवसर मिले।
हालाँकि, अभी भी जापान
में बढ़ती उम्र की समस्या बनी हुई है और इसी कारण उसका श्रम-बाज़ार का संकट खत्म भी
नहीं हुआ है। अधिक महिलाओं को रोज़गार देने के बाद भी देश के स्वास्थ्य, श्रम और कल्याण मंत्रालय का अनुमान है कि 2040 तक
कार्यबल घटकर 5.3 करोड़ रह जाएगा जो 2017 से 20 प्रतिशत कम होगा। साथ ही वृद्ध लोगों की
संख्या बढ़ने के साथ एलटीसीआई के लिए पात्र लोगों की संख्या बढ़ने की उम्मीद है।
ऐसे में भविष्य में योजना को वित्तपोषित करना एक बड़ी चुनौती होगी। (स्रोत
फीचर्स) ●
1 comment:
पूरे विश्व की समस्या। बहुत सुंदर विश्लेषण। सुदर्शन रत्नाकर
Post a Comment