दृश्य 2: इस प्रकार की खबरें और वीडियो सामने आते हैं
जिसमें अफगानिस्तान में छोटी- छोटी बच्चियों को तालिबान घरों से उठाकर ले जा रहा
है।
दृश्य 3: अमरीकी विमान टेक ऑफ के लिए आगे बढ़ रहा है
और लोगों का हुजूम रनवे पर विमान के साथ साथ दौड़ रहा है। अपने देश को छोड़कर सुरक्षित
स्थान पर जाने के लिए कुछ लोग विमान के टायरों के ऊपर बनी जगह पर सवार हो जाते
हैं। विमान के ऊँचाई पर पहुँचते ही इनका संतुलन बिगड़ जाता है और आसमान से गिरकर
इनकी मौत हो जाती है। इनके शव मकानों की छत पर मिलते हैं।
दृश्य4: एक जर्मन पत्रकार की खोज में तालिबान घर-
घर की तलाशी ले रहा है, जब वो पत्रकार नहीं मिलता तो उसके एक
रिश्तेदार की हत्या कर देता है और दूसरे को घायल कर देता है।
ऐसे न जाने कितने
हृदयविदारक दृश्य पिछले कुछ दिनों दुनिया के सामने आए। क्या एक ऐसा समाज जो स्वयं
को विकसित और सभ्य कहता हो उसमें ऐसी तस्वीरें स्वीकार्य हैं? क्या ऐसी तस्वीरें महिला और बाल कल्याण से
लेकर मानवाधिकारों की सुरक्षा के लिए बने तथाकथित अंतरराष्ट्रीय संगठनों के औचित्य
पर प्रश्न नहीं लगातीं?
क्या ऐसी तस्वीरें अमरीका और
यूके समेत 30 यूरोपीय देशों के
नाटो जैसे तथाकथित वैश्विक सैन्य संगठन की शक्ति का मजाक नहीं उड़ातीं?
तालिबान सिर्फ अफगानिस्तान
की सत्ता पर ही काबिज़ नहीं होता बल्कि आधुनिक अमरीकी हथियार, गोला बारूद, हेलीकॉप्टर
और लड़ाकू विमानों से लेकर दूसरे सैन्य उपकरण भी तालिबान के कब्जे में आ जाते हैं।
अमरीकी सेनाओं के पूर्ण रूप से अफगानिस्तान छोड़ने से पहले ही यह सब हो जाता है वो भी बिना किसी संघर्ष के। ऐसा नहीं है कि सत्ता संघर्ष की ऐसी घटना पहली बार हुई हो। विश्व का इतिहास सत्ता पलट की घटनाओं से भरा पड़ा है। लेकिन मानव सभ्यता के इतने विकास के बाद भी इस प्रकार की घटनाओं का होना एक बार फिर साबित करता है कि राजनीति कितनी निर्मम और क्रूर होती है।
अफगानिस्तान का भारत का पड़ोसी देश होने से भारत पर भी निश्चित ही इन घटनाओं का प्रभाव होगा। दरअसल भारत ने भी दोनों देशों के सम्बंध बेहतर करने के उद्देश्य से अफगानिस्तान में काफी निवेश किया है। अनेक प्रोजेक्ट भारत के सहयोग से अफगानिस्तान में चल रहे थे। सड़कों के निर्माण से लेकर डैम, स्कूल, लाइब्रेरी यहाँ तक कि वहाँ की संसद बनाने में भी भारत का योगदान है। 2015 में ही भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वहाँ के संसद भवन का उद्घाटन किया था जिसके निर्माण में अनुमानतः 90 मिलियन डॉलर का खर्च आया था।भारत इस चुनौती से निपटने में सैन्य से लेकर कूटनीतिक तौर पर सक्षम है। पिछले कुछ वर्षों में वो अपनी सैन्य शक्ति और कूटनीति का प्रदर्शन सर्जिकल स्ट्राइक और आतंकवाद समेत धारा 370 हटाने जैसे अनेक अवसरों कर चुका है लेकिन असली चुनौती तो संयुक्त राष्ट्र संघ, संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद, यूनिसेफ,
जैसे वैश्विक संगठनों के सामने उत्पन्न हो गई है जो मानवता की रक्षा करने के नाम पर बनाई गई थीं। लेकिन अफगानिस्तान की घटनाओं ने इनके औचित्य पर ही प्रश्न खड़े कर दिए हैं।दरअसल राजनीति अपनी जगह है
और मानवता की रक्षा अपनी जगह। क्या यह इतना सरल है कि स्वयं को विश्व की महाशक्ति
कहने वाले अमरीका की फौजों के रहते हुए वो पूरा देश ही उस आतंकवादी संगठन के कब्जे
में चला जाता है जिस देश में वो उस आतंकवादी संगठन को खत्म करने के लिए 20 सालों से काम कर रहा हो? अगर हाँ, तो यह अमेरिका के लिए चेतावनी है और अगर
नहीं तो यह राजनीति का सबसे कुत्सित रूप है। एक तरफ़ विश्व की महाशक्तियाँ इस समय
अफगानिस्तान में अपने स्वार्थ की राजनीति और कूटनीति कर रही हैं तो दूसरी तरफ ये संगठन
जो ऐसी विकट परिस्थितियों में मानवीय मूल्यों एवं संवेदनाओं की रक्षा करने के
उद्देश्य से आस्तित्व में आईं थीं वो अफगानिस्तान के इन मौजूदा हालात में निर्थक
प्रतीत हो रही हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार/टिप्पणीकार
हैं।)
4 comments:
निःसन्देह,वैश्विक संगठन अपनी अर्थवत्ता खोते जा रहे हैं,तालिबानी बर्बरता के आगे वे सब बौने सिद्ध हुए हैं,ये भविष्य के लिए चिंता का विषय है।सम्यक विश्लेषण करते हुए सुंदर आलेख हेतु देवेंद्र प्रकाश मिश्र जी को बधाई।
Saade aabhaar
धन्यवाद, सादर आभार
वास्तव में वैश्विक संगठन अपना महत्व खोते जा रहे है। वे अपने कर्तव्य को समझते तो जो अफ़ग़ानिस्तान में हुआ , वह नहीं होता। अफ़ग़ानिस्तान की स्थिति का सटीक विश्लेषण करता आलेख। बधाई
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