वर्ष 1951 की जनगणना में
भारत की जनसंख्या 36.1 करोड़ थी। वर्ष 2011 में हम 1.21 अरब लोगों की शक्ति बन गए।
भारत की जनसंख्या में तथाकथित ‘जनसंख्या विस्फोट’ से कई समस्याएँ बढ़ीं - जैसे बेरोज़गारी
जो कई पंचवर्षीय योजनाओं के बाद भी हमारे साथ है, गरीबी, संसाधनों
की कमी और स्वास्थ्य सुविधाओं व उनकी उपलब्धता में कमी।
हालाँकि, कुछ राहत देने वाली खबर भी है। हाल ही में संयुक्त राष्ट्र
जनसंख्या कोश द्वारा जारी एक रिपोर्ट बताती है कि 2010-2019 के दौरान भारत की
जनसंख्या वृद्धि दर काफी धीमी पड़ी है। रिपोर्ट के अनुसार, 2001-2011 के दशक की तुलना में 2010-2019 के दशक में भारत
की जनसंख्या वृद्धि 0.4 अंक कम होने की संभावना है। 2011 की जनगणना के अनुसार
2001-2011 के बीच औसत वार्षिक वृद्धि दर 1.64 प्रतिशत थी।
रिपोर्ट आगे बताती है कि
अब अधिक भारतीय महिलाएँ जन्म नियंत्रण के लिए गर्भ निरोधक उपयोग कर रही हैं और
परिवार नियोजन के आधुनिक तरीके अपना रही हैं, जो इस बात का संकेत भी देता है कि पिछले दशक में महिलाओं की
अपने शरीर पर स्वायत्तता बढ़ी है और महिलाओं द्वारा अपने प्रजनन अधिकार हासिल करने
में वृद्धि हुई है। हालाँकि, बाल
विवाह की समस्या अब भी बनी हुई है और ऐसे विवाहों की संख्या बढ़ी है।
2011 की जनगणना के अनुसार
भारत की जनसंख्या 1.21 अरब थी और 2036 तक इसमें 31.1 करोड़ का इजाफा हो जाएगा।
अर्थात 2031 में चीन को पीछे छोड़ते हुए भारत दुनिया का सबसे अधिक आबादी वाला देश
हो जाएगा। यह पड़ाव संयुक्त राष्ट्र के पूर्व अनुमान (वर्ष 2022) की तुलना में लगभग
एक दशक देर से आएगा।
तेज़ गिरावट
संयुक्त राष्ट्र की
रिपोर्ट कहती है कि कई प्रांतों की जनसंख्या वृद्धि दर प्रतिस्थापन-स्तर तक पहुँच
गई है,
हालांकि कुछ उत्तरी प्रांत अपवाद हैं। प्रतिस्थापन-स्तर से
तात्पर्य है कि जन्म दर इतनी हो कि वह मृतकों की क्षतिपूर्ति कर दे।
जनसंख्या वृद्धि दर में
गिरावट पहले लगाए गए अनुमानों की तुलना में अधिक तेज़ी से हो रही है। जनांकिकीविदों
और अर्थशास्त्रियों का कहना है कि जनसंख्या वृद्धि अब योजनाकारों के लिए कोई गंभीर
समस्या नहीं रह गई है। हालांकि, भारत
के संदर्भ में बात इतनी सीधी नहीं है। उत्तर और दक्षिण में जनसंख्या वृद्धि दर में
असमान कमी आई है। यदि यही रुझान जारी रहा तो कुछ जगहों पर श्रमिकों की कमी हो सकती
है और इस कमी की भरपाई के लिए अन्य जगहों से प्रवासन हो सकता है।
विषमता
उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों के सरकारी आँकड़ों को
देखें तो इन राज्यों की औसत प्रजनन दर 3 से अधिक है, जो दर्शाती है कि सरकार के सामने यह अब भी एक चुनौती है।
पूरे देश की तुलना में इन राज्यों में स्थिति काफी चिंताजनक है - देश की औसत
प्रजनन दर लगभग 2.3 है जो आदर्श प्रतिस्थापन दर (2.1) के लगभग बराबर है।
संयुक्त राष्ट्र की पिछली
रिपोर्ट में महाराष्ट्र, पश्चिम
बंगाल,
केरल, तमिलनाडु, तेलंगाना, कर्नाटक
और आंध्र प्रदेश वे राज्य हैं जिनकी प्रजनन दर आदर्श प्रतिस्थापन प्रजनन दर से
बहुत कम हो चुकी है।
विकास अर्थशास्त्री ए. के.
शिव कुमार बताते हैं कि विषम आँकड़ों वाले राज्यों में भी प्रजनन दर में कमी आ रही
है,
हालाँकि इसके कम होने की रफ्तार उतनी अधिक नहीं है। इसका
कारण है कि इन राज्यों में महिलाओं को पर्याप्त प्रजनन अधिकार और अपने शरीर पर
स्वायत्तता हासिल नहीं हुई है। महिलाओं पर संभवत: समाज, माता-पिता, ससुराल
और जीवन साथी की ओर से बच्चे पैदा करने का दबाव भी पड़ता है।
रिपोर्ट यह भी बताती है कि
भारत की दो-तिहाई से अधिक आबादी कामकाजी आयु वर्ग (15-64 वर्ष) की है। एक चौथाई से
अधिक आबादी 0-14 आयु वर्ग की है और लगभग 6 प्रतिशत आबादी 65 से अधिक उम्र के लोगों
की है। अर्थशास्त्रियों का मत है कि यदि भारत इस जनांकिक वितरण का लाभ उठाना चाहता
है तो उसे अभी से ही शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में बहुत कुछ करना होगा।
जनसंख्या अनुमान रिपोर्ट
राष्ट्रीय जनसंख्या आयोग
द्वारा प्रकाशित जनसंख्या अनुमान रिपोर्ट बताती है कि
- वर्ष 2011-2036 के दौरान
भारत की जनसंख्या 2011 की जनसंख्या से 25 प्रतिशत बढ़ने की उम्मीद है, यानी 36.1 करोड़ की वृद्धि के साथ यह लगभग 1.6 अरब होने की
संभावना है
- भारत की जनसंख्या वृद्धि
दर 2011-2021 के दशक में सबसे कम (12.5 प्रतिशत प्रति दशक) रहने की उम्मीद है। रिपोर्ट
के अनुसार 2021-2031 के दशक में भी यह गिरावट जारी रहेगी और जनसंख्या वृद्धि दर
8.4 प्रतिशत प्रति दशक रह जाएगी।
- इन अनुमानों के हिसाब से
भारत दुनिया के सबसे अधिक आबादी वाले देश चीन से आगे निकल जाएगा। यदि इन अनुमानों
की मानें तो यह स्थिति संयुक्त राष्ट्र के अनुमानित वर्ष 2022 के लगभग एक दशक बाद
बनेगी।
शहरी आबादी में वृद्धि
जनसंख्या अनुमान रिपोर्ट
में भारत की शहरी आबादी में वृद्धि का दावा भी किया गया है। जबकि वास्तविकता कुछ
और ही है,
और यह इससे स्पष्ट होती है कि हम शहरी आबादी किसे कहते हैं।
जिस तरह दुनिया भर की सरकारें गरीबी में कमी दिखाने के लिए गरीबी कम करने के उपाय
अपनाने की बजाय परिभाषाओं में हेरफेर का सहारा लेती रही हैं, यहां भी ऐसा ही कुछ मामला लगता है।
रिपोर्ट का अनुमान है कि
लगभग 70 प्रतिशत जनसंख्या वृद्धि ग्रामीण क्षेत्रों में होगी। 2036 में भारत की
शहरी आबादी 37.7 करोड़ से बढ़कर 59.4 करोड़ हो जाएगी। यानी 2011 में जो शहरी आबादी 31
प्रतिशत थी, 2036 में वह बढ़कर 39
प्रतिशत हो जाएगी। ग्रामीण से शहरी आबादी में बदलाव सबसे नाटकीय ढंग से केरल में
दिखेगा। वर्ष 2036 तक यहां 92 प्रतिशत आबादी शहरों में रह रही होगी। जबकि 2011-2015
में यह सिर्फ 52 प्रतिशत थी।
तकनीकी समूह के सदस्य और
वर्तमान में नई दिल्ली में विकासशील देशों के लिए अनुसंधान और सूचना प्रणाली से
जुड़े अमिताभ कुंडु के अनुसार केरल में यह बदलाव वास्तव में अनुमान लगाने के लिए
उपयोग किए गए तरीकों के कारण दिखेगा।
2001 से 2011 के बीच केरल
में हुए ग्रामीण क्षेत्रों के शहरी क्षेत्र में पुन:वर्गीकरण के चलते केरल में
कस्बों की संख्या 159 से बढ़कर 520 हो गई। इस तरह वर्ष 2001 में केरल का 26 प्रतिशत
शहरी क्षेत्र, 2011 में बढ़कर 48
प्रतिशत हो गया। यानी केरल में 2001-2011 के बीच शहरी आबादी में वृद्धि दर में
बदलाव नए तरह से वर्गीकरण के कारण दिखा, ना कि ज़बरदस्त विकास के कारण। इन्हीं नई परिभाषाओं का उपयोग
वर्ष 2036 के लिए जनसंख्या वृद्धि का अनुमान लगाने में किया गया है, जो इस रिपोर्ट के निष्कर्षों पर सवाल उठाता है। रिपोर्ट
मानकर चलती है कि भारत के सभी राज्य जनसंख्या गणना के लिए वर्तमान परिभाषा और
वर्गीकरण का उपयोग करेंगे। लेकिन ऐसा करेंगे या नहीं यह कहना मुश्किल है क्योंकि
यह पक्के तौर पर नहीं बताया जा सकता कि भविष्य में पुन:वर्गीकरण या पुन:परिभाषित
किया जाएगा या नहीं। यदि पुन:वर्गीकरण या पुन:परिभाषित किया गया तो जनसंख्या के
आंकड़े और इसे मापने के हमारे तरीके बदल जाएँगे।
प्रवासन की भूमिका
भारत के जनसांख्यिकीय
परिवर्तन में प्रवासन की भी भूमिका है। अनुमान लगाने में उपयोग किए गए कोहोर्ट
कंपोनेंट मॉडल में प्रजनन दर, मृत्यु
दर और प्रवासन दर को शामिल किया गया है। जबकि ‘अंतर्राष्ट्रीय प्रवासन’ को नगण्य
मानते हुए शामिल नहीं किया गया है। अनुमान के लिए 2001-2011 के दशक का अंतर्राज्यीय
प्रवासन डैटा लिया गया है और माना गया है कि अनुमानित वर्ष के लिए राज्यों के बीच
प्रवासन दर अपरिवर्तित रहेगी।
इस अवधि में, उत्तर प्रदेश और बिहार से लोगों का प्रवासन सर्वाधिक हुआ, जबकि महाराष्ट्र, गुजरात, हरियाणा
और दिल्ली में प्रवास करके लोग आए।
जनसंख्या वृद्धि में अंतर
यदि उत्तर प्रदेश एक
स्वतंत्र देश होता तो यह विश्व का आठवां सबसे अधिक आबादी वाला देश होता। 2011 में
उत्तर प्रदेश की जनसंख्या 19.9 करोड़ थी जो वर्ष 2036 में बढ़कर 25.8 करोड़ से भी
अधिक हो जाएगी - यानी आबादी में लगभग 30 प्रतिशत की वृद्धि होगी।
बिहार की जनसंख्या को भी
नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। बिहार जनसंख्या वृद्धि दर के मामले में उत्तर प्रदेश
को भी पछाड़ सकता है। 2011 में बिहार की जनसंख्या 10.4 करोड़ थी, और अनुमान है कि लगभग 42 प्रतिशत की बढ़ोतरी के बाद वर्ष
2036 में यह 14.8 करोड़ हो जाएगी। इससे भी अधिक चिंताजनक बात यह है कि 2011-2036 के
बीच भारत की जनसंख्या वृद्धि में 54 प्रतिशत योगदान पांच राज्यों - उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल और मध्य प्रदेश का होगा। वहीं दूसरी ओर, पांच दक्षिणी राज्य - केरल, कर्नाटक, आंध्र
प्रदेश,
तेलंगाना और तमिलनाडु का कुल जनसंख्या वृद्धि में योगदान
केवल नौ प्रतिशत होगा। उपरोक्त सभी दक्षिणी राज्यों की कुल जनसंख्या वृद्धि 2.9 करोड़
होगी जो सिर्फ उत्तर प्रदेश की जनसंख्या वृद्धि की आधी है।
घटती प्रजनन दर
उत्तर प्रदेश और बिहार
सर्वाधिक कुल प्रजनन दर वाले राज्य हैं। कुल प्रजनन दर यानी प्रत्येक महिला से
पैदा हुए बच्चों की औसत संख्या। 2011 में उत्तर प्रदेश और बिहार की कुल प्रजनन दर
क्रमश: 3.5 और 3.7 थी। ये भारत की कुल प्रजनन दर 2.5 से काफी अधिक थीं। जबकि
कर्नाटक,
आंध्र प्रदेश, पंजाब, हिमाचल
प्रदेश जैसे राज्यों की कुल प्रजनन दर 2 से कम थी। यदि वर्तमान रफ्तार से कुल
प्रजनन दर कम होती रही तो अनुमान है कि 2011-2036 के दशक में भारत की कुल प्रजनन
दर 1.73 हो जाएगी। और, 2035 तक
बिहार ऐसा एकमात्र राज्य होगा जिसकी कुल प्रजनन दर 2 से अधिक (2.38) होगी।
वर्ष 2011 में मध्यमान आयु
24.9 वर्ष थी। प्रजनन दर में गिरावट के कारण वर्ष 2036 तक यह बढ़कर 35.5 वर्ष हो
जाएगी। भारत में, जन्म के
समय जीवन प्रत्याशा लड़कों के लिए 66 और लड़कियों के लिए 69 वर्ष थी, जो बढ़कर क्रमश: 71 और 74 वर्ष होने की उम्मीद है। इस मामले
में भी केरल के शीर्ष पर होने की उम्मीद है। यह जन्म के समय लड़कियों की 80 से अधिक
और लड़कों की 74 वर्ष से अधिक जीवन प्रत्याशा वाला एकमात्र भारतीय राज्य होगा। 2011
की तुलना में 2036 में स्त्री-पुरुष अनुपात में भी सुधार होने की संभावना है। 2036
तक यह वर्तमान प्रति 1000 पुरुष पर 943 महिलाओं से बढ़कर 952 हो जाएगा। 2036 तक
कर्नाटक,
आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में महिलाओं की संख्या पुरुषों की
तुलना में अधिक होने की संभावना है।
श्रम शक्ति पर प्रभाव
दोनों रिपोर्ट देखकर यह
स्पष्ट होता है कि जैसे-जैसे देश की औसत आयु बढ़ेगी, वैसे-वैसे देश चलाने वाले लोगों की ज़रूरतें भी बढ़ेंगी।
चूंकि अधिकांश श्रमिक आबादी 30-40 वर्ष की आयु वर्ग की होगी इसलिए संघर्षण दर
(एट्रीशन रेट) में गिरावट देखी जा सकती है; यह उम्र आम तौर पर ऐसी उम्र होती है जब लोगों पर पारिवारिक
दायित्व होते हैं और इसलिए वे जिस नौकरी में हैं उसी में बने रहना चाहते हैं और
जीवन में स्थिरता चाहते हैं। उनकी स्वास्थ्य सम्बंधी ज़रूरतों में भी देश में बदलाव
दिखने की संभावना है।
जनसंख्या में असमान वृद्धि
के कारण श्रमिकों की अधिकता वाले राज्यों से श्रमिकों का प्रवासन श्रमिकों की कमी
वाले राज्यों की ओर होने की संभावना है। यदि राज्य अभी से स्वास्थ्य देखभाल और
शिक्षा पर अपना खर्च बढ़ा दें तो राज्यों के पास नवजात बच्चों के लिए एक सुदृढ़
सरकारी बुनियादी ढाँचा होगा, जो
भविष्य में इन्हें कुशल कामगार बना सकता है और राज्य अपने मानव संसाधन का अधिक से
अधिक लाभ उठा सकते हैं। अकुशल श्रमिक की तुलना में एक कुशल श्रमिक का अर्थव्यवस्था
में बहुत अधिक योगदान होता है।
स्वास्थ्य सुविधाओं पर
प्रभाव
अगर अनुमानों की मानें तो
देश में वरिष्ठ नागरिकों की संख्या में वृद्धि भी देश की स्वास्थ्य सम्बंधी
प्राथमिकताओं को प्रभावित कर सकती है और उसे बदल भी सकती है। जब किसी देश में
प्रजनन दर में कमी के साथ-साथ जीवन प्रत्याशा बढ़ती है, तो जनसांख्यिकीय औसत आयु बढ़ती है। यानी देश की स्वास्थ्य
सम्बंधी प्राथमिकताएँ तेज़ी से बदलेंगी। वरिष्ठ नागरिकों की संख्या बढ़ने के चलते
बुज़ुर्गों के लिए सार्वजनिक व्यय बढ़ाने की ज़रूरत पड़ भी सकती है और नहीं भी। यह इस
बात पर निर्भर होगा कि देश की सार्वजनिक पूंजी और सामाजिक कल्याण, और समाज के लिए इनकी उपलब्धता और पहुँच की स्थिति क्या है।
आज़ादी के समय से ही भारत
में असमान आय, स्वास्थ्य देखभाल की
उपलब्धता और पहुँच की कमी जैसी समस्याएँ बनी हुई हैं, भविष्य में भी ये चुनौतियां बढ़ेंगी। इन चुनौतियों का सामना
करने के लिए सरकार यदि अभी से ही स्वास्थ्य देखभाल पर व्यय और निवेश में वृद्धि
नहीं करती तो आने वाले दशकों में स्वास्थ्य सेवा पर सार्वजनिक खर्च सरकार के लिए
बोझ बन सकता है। और भविष्य में हमें अधिक प्रवासन झेलना पड़ेगा, सेवानिवृत्ति की आयु में बहुत अधिक वृद्धि होगी और
बुज़ुर्गों की देखभाल में लगने वाले सार्वजनिक खर्च जुटाने के उपाय खोजने पड़ेंगे।
जनसंख्या नियंत्रण नीतियाँ
पिछले कुछ समय में
जनसंख्या नियंत्रण जैसी बातें भी सामने आई हैं। इसमें असम और उत्तर प्रदेश सबसे
आगे हैं। उत्तर प्रदेश राज्य विधि आयोग ने दो बच्चों की नीति को बढ़ावा देने वाले
प्रस्तावित जनसंख्या नियंत्रण विधेयक का एक मसौदा जारी किया है। इसका उल्लंघन करने
का मतलब होगा कि उल्लंघनकर्ता स्थानीय चुनाव लड़ने, सरकारी नौकरियों में आवेदन करने या किसी भी तरह की सरकारी सब्सिडी
प्राप्त करने से वंचित कर दिया जाएगा। असम में यह कानून पहले से ही लागू है और
उत्तर प्रदेश यह कानून लागू करने वाला दूसरा राज्य होगा।
ये प्रावधान ‘उत्तर प्रदेश
जनसंख्या (नियंत्रण, स्थिरीकरण
और कल्याण) विधेयक, 2021’
नामक मसौदे का हिस्सा हैं। विधेयक का उद्देश्य न केवल लोगों को दो से अधिक बच्चे पैदा
करने के लिए दंडित करना है, बल्कि
निरोध (कंडोम) और गर्भ निरोधकों के मुफ्त वितरण के माध्यम से परिवार नियोजन के
बारे में जागरूकता बढ़ाना और गैर-सरकारी संगठनों की मदद से छोटे परिवार के महत्व और
लाभ समझाना भी है।
सरकार सभी माध्यमिक
विद्यालयों में जनसंख्या नियंत्रण सम्बंधी विषय अनिवार्य रूप से शामिल करना चाहती
है। दो बच्चों का नियम लागू कर सरकार जनसंख्या नियंत्रण के प्रयासों को फिर गति
देना चाहती है और इसे नियंत्रित और स्थिर करना चाहती है।
दो बच्चों के नियम को
मानने वाले वाले लोक सेवकों को प्रोत्साहित भी किया जाएगा। मसौदा विधेयक के अनुसार
दो बच्चे के मानदंड को मानने वाले लोक सेवकों को पूरी सेवा में दो अतिरिक्त वेतन
वृद्धि मिलेगी, पूर्ण वेतन और भत्तों
के साथ 12 महीनों का मातृत्व या पितृत्व अवकाश दिया जाएगा, और राष्ट्रीय पेंशन योजना के तहत नियोक्ता अंशदान निधि में
तीन प्रतिशत की वृद्धि की जाएगी।
कागज़ों में तो यह अधिनियम
ठीक ही नज़र आता है, लेकिन
वास्तव में इसमें कई समस्याँ हैं। विशेषज्ञों का दावा है कि ये जबरन की नीतियां लाने
से जन्म दर कम करने पर वांछित प्रभाव नहीं पड़ेगा।
चीन ने हाल ही में अपनी दो
बच्चों की नीति में संशोधन किया है। और पॉपुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडिया ने एक बयान
जारी कर कहा है कि भारत को चीन की इस जबरन की नीति की विफलता से सबक लेना चाहिए।
धर्म प्रजनन स्तर में बहुत कम बदलाव लाएगा। वास्तविक बदलाव तो ‘शिक्षा, रोज़गार के अवसर और गर्भ निरोधकों की उपलब्धता और उन तक
पहुँच’ से निर्धारित होगा।
जनसंख्या नियंत्रण नीति की
कुछ अंतर्निहित समस्याएँ भी हैं। यह तो सब जानते हैं कि भारत में लड़का पैदा करने
पर ज़ोर रहता है। लड़के की उम्मीद में कभी-कभी कई लड़कियाँ होती जाती हैं। लोग इस तथ्य
को पूरी तरह नज़अंदाज़ कर देते हैं कि प्रत्येक अतिरिक्त बच्चा घर का खर्चा बढ़ाता
है। दो बच्चों की नीति से लिंग चयन और अवैध गर्भपात में वृद्धि हो सकती है, जिससे महिला-पुरुष अनुपात और कम हो सकता है।
विधेयक में बलात्कार या
अनाचार से, या शादी के बिना, या किशोरावस्था में हुए गर्भधारण से पैदा हुए बच्चों के लिए
कोई जगह नहीं है। कई बार या तो बलात्कार के कारण, या किसी एक या दोनों पक्षों की लापरवाही के कारण, या नादानी में गर्भ ठहर जाता है। इस नियम के अनुसार दो से
अधिक बच्चों वाली महिला सरकारी नौकरी से या स्थानीय चुनाव लड़ने के अवसर से वंचित
कर दी जाएगी, जो कि अनुचित है
क्योंकि काफी संभावना है कि उसके साथ बलात्कार हुआ हो और इस कारण तीसरा बच्चा हुआ
हो।
इस तरह के विधेयक के साथ
एक वैचारिक समस्या भी है। क्या सरकार उसे सत्ता में लाने वाली अपनी जनता पर यह
नियंत्रण रखना चाहती है कि वे कितने बच्चे पैदा कर सकते हैं? स्वतंत्रता के बाद से भारत में, एक परिवार में बच्चों की औसत संख्या में लगातार कमी आई है।
इसमें कमी लाने के लिए हमें किसी जनसंख्या नियंत्रण कानून की आवश्यकता नहीं है। विकास, परिवार नियोजन की जागरूकता और एक प्रेरक जनसंख्या नियंत्रण
नीति ने अब तक काम किया है, न कि
तानाशाही नीति ने। रिपोर्ट दर्शाती है कि भारत में 2011 से 2021 के दौरान प्रजनन
दर में कमी आई है, और यह
कमी तब आई है जब हमारे पास सिर्फ प्रेरक जनसंख्या नियंत्रण नीतियाँ थीं। हमें अपने
आप से यह सवाल करने की ज़रूरत है कि उत्तर प्रदेश राज्य विधि आयोग द्वारा प्रस्तावित
सख्त सत्तावादी नीति की क्या वास्तव में हमें आवश्यकता है? भले ही हमें गुमराह करने का प्रयास हमारी धार्मिक पहचान के
आधार पर किया गया हो - जैसे ‘बिल का उद्देश्य विभिन्न समुदायों की आबादी के बीच
संतुलन स्थापित करना है’ - हमें इस तरह के कानून की उपयोगिता पर ध्यान देना चाहिए
और देखना चाहिए कि क्या वास्तव में यह जनसंख्या को नियंत्रित करने में मदद करेगा, न कि हमारी धार्मिक पहचान को हमारे तर्कसंगत निर्णय पर हावी
होने देना चाहिए।
निष्कर्ष
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जनसंख्या के विषय में महत्वपूर्ण जानकारी देता उपयोगी आलेख।
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