लघुकथा केवल शब्दों
का ताना-बाना नहीं
कृष्णा वर्मा
पुस्तक- लघुकथा का वर्तमान
परिदृश्य (लघुकथा समालोचना)
प्रकाशक-अयन प्रकाशन, 1/20 महरौली नई दिल्ली -110020,मूल्य: 280रुपये,पृष्ठ :136,वर्ष :2018
वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामेश्वर काम्बोज ;हिमांशु’ जी की हाल ही में प्रकाशित हुई पुस्तक पढ़ने का
सुअवसर प्राप्त हुआ। ’लघुकथा का वर्तमान परिदृश्य ’ (लघुकथा समालोचना)
हम सब भली-भाँति परिचित हैं किस निष्ठा और लगन से काम्बोज जी ने लघुकथाओं को
शिख़र तक पहुँचाने का अथक प्रयास किया है। आज समय की कमी और आपा-धापी के दौर में उपन्यास
और कहानियाँ पढ़ना तो लगभग पीछे छूट सा गया है। ऐसे में लघुकथाओं ने पाठकों को कम
समय में अधिक प्रसंगों से जोड़ने का काम किया है।
इस पुस्तक में लेखक ने स्पष्ट किया है कि लघुकथा लिखने के लिए केवल शब्दों का
ताना-बाना बुनना ही पर्याप्त नहीं होता। आवश्यक है उसका शीर्षक, पात्र, भाषा और शिल्प। शीर्षक
कथा के सूक्ष्म अर्थ को पकड़ने वाला होना नितांत अवश्यक होता है ,क्योंकि वही पाठक में
पढ़ने की ललक जगाता है। पात्र की भाषा ,उसकी मन:स्थिति, उसके माहौल और उसकी परिस्थिति के अनुरूप बदलनी चाहिए। शिल्प
में वाक्यों का क्रम यदि सही न हो तो कथा सही रूप से प्रभावित करने में असमर्थ
रहेगी। वाक्यों का सही क्रम ही कथा को मर्मस्पर्शी बनाता है। काम्बोज जी ने बहुत-
सी वेब-पत्रिकाओं जैसे लघुकथाडॉट कॉम, साहित्यकुंज, उदन्तीडॉट कॉम, अमर उजाला डॉट कॉम तथा हिन्दी गौरव डॉट कॉम आदि का उल्लेख
किया है ,जो
लघुकथा के प्रसार में महत्त्वपूर्ण योगदान दे रही है। लेखकों के ज्ञानवर्धन के लिए
बहुचर्चित लघुकथाकारों की लघुकथा लेखन की प्रविधि को बड़े सुंदर और सूक्ष्म ढंग से
समझाया है।
इस धुरी को साधने के लिए साध्य क्या हो इन बातों का भरपूर ब्योरा लेखक ने इस
पुस्तक में दिया है। यह एक ऐसी महत्वपूर्ण पुस्तक है जो एक आम पाठक के साथ-साथ
लघुकथालेखको, समीक्षकों, आलोचकों तथा शोधार्थियों के लिए भी बहुत उपयोगी है। साहित्य
जगत में ऐसा ऐतिहासिक कार्य करने तथा इस संग्रहणीय पुस्तक के लिए भाई काम्बोज जी को हार्दिक बधाई देती हूँ और यह
मंगल कामना करती हूँ कि इनकी समृद्ध लेखनी से इसी तरह निरन्तर श्रेष्ठ कृतियों का
सृजन होता रहे।
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को उकेरती कविताएँ
काव्य संग्रह- तुम सर्दी की धूप, प्रकाशक-अयन प्रकाशन, 1/20 महरौली, नई दिल्ली- 110020,मूल्य:280रुपये, पृष्ठ:140, वर्ष:2018
काव्य संग्रह ‘तुम सर्दी की धूप’ शीर्षक को सार्थक करता ख़ूबसूरत कवर
पेज देखते ही पढ़ने की उत्सुकता जगी। पुस्तक को खोलते ही न केवल कविताएँ ,बल्कि काव्य की विभिन्न
विधाओं का भंडार पाया।
इस संग्रह में भाई काम्बोज जी की हृदय-स्पर्शी 28 कविताओं के साथ 314 दोहे, 74 मुक्तक, क्षणिकाएँ, फूल पाँखुरी, हाइकु, ताँका, माहिया और रजत-कण
संगृहीत हैं ,जिसमें विविध काव्य विधाओं का रसास्वादन एक साथ मिलता है।
इन कविताओं में विविधता, संप्रेषणीयता, भावों की गहन अनुभूति, शब्द चयन का सौंदर्य, प्रखर संवेदना बड़े
प्रभावशाली रूप में नज़र आती है।
सहज, सरल
शब्दों में जिए,भोगे पलों की कोमल अनुभूतियों को उकेरते शब्द काल्पनिक नहीं
लगते। कथ्य के अनुसार भाषा, प्रतीक–बिम्ब और शिल्प के अद्भुत प्रयोग ने सौन्दर्य भाव के
साथ रचनाओं को प्राणवंत बनाया हैं। जीवन में घटित होने वाले लगभग सभी बिंदुओं को
कवि ने छुआ है।
प्रेम ईश्वर का दिया अनूठा उपहार है ,जो उम्र की सीमाओं से
परे आत्मिक अनुभूति का विषय है। ’मैं और मेरी प्रियात्मना’ में कवि की प्रार्थना
में आत्मीया के सुखों की ऐसी चाहना आज के समय में कोई पावन मन ही कर सकता है।
मेरी परम आत्मीया का न हो / कभी दुखों से सामना
इसके सब दुख देना मुझे / पुष्पित पथ पर / इसे आगे बढ़ाना।
’लिख दूँ मैं बीज मंत्र’ ’आत्मा की प्यास तुम हो’ जैसी मन को छूती रचनाओं
में किसी के दुख की रेखाओं को बदलने की तो किसी के ताप को हरने की कवि मन ने दुआएँ
माँगी हैं।
जब परिवार टूटता है तब मन टूटता है। रिश्ते नाते सब जगह केवल स्वार्थ ही
व्याप्त है। जीवन के निर्मम सच को उकेरती ’कि घर न टूटे’, रचना में तपते जीवन की
व्यथा है।
यदि स्वप्न नहीं होगा तो महत्वाकांक्षा भी नहीं होगी। और इसके बिना मनुष्य
किसी भी गम्भीर लक्ष्य तक पहुँचने में असमर्थ रहेगा। ’अपने और सपने’ रचना में
सपनों के टूटने का दर्द स्पष्ट झलकता है।
अपने और सपने / बहुत चोट देते हैं
भ्रष्ट व्यवस्था आम आदमी का कैसे शोषण कर रही है क्या आम आदमी की यही नियति है
कि वह अस्तित्व के लिए निरंतर संघर्ष करते- करते मिट्टी में मिल जाये। अपनी रचना
‘आम आदमी’ में कवि का कहना है--
आम आदमी / जिसे हर किसी ने आम समझ कर चूसा है।
भीतर में उथल-पुथल मचाती भावनाओं, संवेदनाओं को कम से कम शब्दों में अभिव्यक्त करना, कोई कुशल कलाकार ही कर
सकता है। सरल प्रवाहपूर्ण भाषा में गंभीर कथ्य को संप्रेषणीयता के साथ प्रस्तुत
करने में दक्ष काम्बोज जी के दोहे, मुक्तक, क्षणिकाएँ, माहिया हों या हाइकु मन मस्तिष्क पर गहरी छाप छोड़ते हैं।
दोहा- रूप आज, कल है नहीं, आती जाती छाँव।
हमको पूरा चाहिए, तेरे मन का गाँव॥ (३९)
मुक्तक- तुम अकेले ही चले थे, फिर अकेले ही चलो,
बियाबाँ के दीप जैसे, तुम अकेले ही चलो,
जो बिछुड़ गए बाट में, कहीं न तुमको मिलेंगे
आँसुओं को पोंछ डालो, मत हिमालय बन गलो। (२३)
क्षणिकाएँ
-सूली पर लटकी / पल-पल मरती आशा / तुमने कहा- रिश्ता।
फूलपाँखुरी
मन-मंदिर में तुम्हीं रौशन ज्यों
दिया।
पाकर के तुम्हें जग में सब पा लिया॥
हाइकु
सूनी घाटी / पुकार सुन भीगी / मन की माटी।
टूटा जो पेड़ / छोड़ गए थे पाखी / लता लिपटी।
आपके काव्य माणिकों से हिन्दी जगत निरंतर दीप्तिमान रहे। हार्दिक बधाई एवं
बहुत-बहुत शुभकामनाएँ।
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