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Mar 1, 2023

होली पर विशेषः नर-सिंह अवतार का व्यावहारिक पक्ष

 - प्रमोद भार्गव
भारत का इतिहास दुनिया का प्राचीनतम इतिहास है। उन दिनों इतिहास लेखन की परंपरा नहीं थी। अतऐव जो भी राज्यों के शासक और शूरवीर थे, उनकी गाथाएँ रूपकों और अलंकरणों में गढ़कर सुनाए जाने की लोक-परंपराएँ आरंभ हो गई थीं। इस दृष्टि से विष्णु के नरसिंह अवतार से जुड़ी दो घटनाओं, एक ‘होलिका-दहन’ और दूसरी ‘नर-सिंह’ के विलक्षण रूप का व्यावहारिक पक्ष कुछ इस तरह संभव है। वराह अवतार में विवरण है कि हिरण्याक्ष नाम का दैत्य, ब्रह्मा जब सो रहे थे तब पृथ्वी को चुरा कर समुद्र में छिप गया था। विष्णु ने वराह के रूप में अवतरित होकर पृथ्वी को मुक्ति दिलाई। इससे विष्णु की लोक में प्रसिद्धि बढ़ने के साथ उनके अनुयायी भी बढ़ गए।

 हिरण्याक्ष की मौत से उसका भाई हिरण्यकशिपु व्याकुल हो उठा। विरक्ति और अवसाद से घिर गया। इस मानसिक व्याधि से मुक्ति के लिए कैलाश मानसरोवर पर जा पहुँचा। देवताओं ने इसे उचित अवसर माना और अपनी बिखरी सांगठनिक शक्तियों को एकजुट कर दैत्य-राज्य पर अचानक हमला बोल दिया। हिरण्यकशिपु की अनुपस्थिति में देवता जीत गए। किंतु इस जीत से उन्मादित होकर देवों ने भी वही भूलें कीं जो अकसर दैत्य करते रहे थे। विजय मद में चूर देवों ने हिरण्यकशिपु की गर्भवती पत्नी कयाधु को बंदी बना लिया। देवताओं के इस कृत्य को ऋषियों ने अनैतिक व युद्व के नियमों के विपरीत माना और देवों की निंदा की। विष्णु ने भी इस कृत की भर्त्सना  की। इस निंदा से देवों को अपनी गलती का अनुभव हुआ। फलस्वरूप उन्होंने कयाधु को असुर-राज्य भेजने का निर्णय लिया। लेकिन कयाधु का अपने ही साम्राज्य में प्रत्यागमन असंभव हो गया। क्योंकि देवों से हुए इस युद्ध में हिरण्यकशिपु के अनेक निकटतम सभासद् व सेना-नायक हताहत हो चुके थे। स्वयं हिरणकशिपु अज्ञातवास पर थे। गोया, कयाधु को ऋषियों के आश्रम में ऋषि-पत्नियों के संग छोड़ दिया।

 कयाधु गर्भवती थी। नौ माह पूरे होने पर उसने पुत्र को जन्म दिया। ऋषियों ने इस सद्यजात शिशु का नाम प्रह्लाद रखा। जैसे-जैसे प्रह्लाद बड़ा हुआ वैसे-वैसे उसके बाल-मन पर देव संस्कृति और विष्णु भक्ति का प्रभाव पड़ता चला गया। कुछ वर्ष के पश्चात हिरण्यकशिपु को जब अपने दूतों से देवों के आक्रमण और कयाधु के अपहरण की जानकारी मिली तो उसका आक्रोशित होना स्वाभाविक था। वह इस सूचना के मिलते ही अपने नष्ट-भ्रष्ट कर दिए गए राज्य लौटा। उसने दौड़-धूप करके छिन्न-भिन्न हो गई सैन्य-शक्ति का फिर से पुनर्गठन किया और देव-सत्ता से लड़ने के लिए उद्यत हो गया। हालांकि हिरण्यकशिपु के राज्य में लौटने के बाद देवों ने कयाधु और प्रह्लाद को वापस भेज दिया था।

 सैन्य-शक्ति का पुर्नगठन होते ही हिरण्यकशिपु ने देवलोक पर आक्रमण कर दिया। मद और भोग में डूबे देव पराजित हुए और इंद्रलोक पर हिरण्यकशिपु का अधिकार हो गया। हिरण्यकशिपु ने इंद्र के महल में रहकर समस्त देव शक्तियों को अपने नियंत्रण में ले लिया। तब देवों ने हिरण्यकशिपु को संधि के बहाने इंद्रलोक से विस्थापन का उपाय सोचा। गोया, ब्रह्मा के सभापतित्व में ब्रह्म-सभा हुई। सभा में दोनों पक्षों ने समझौते की दृष्टि से अपनी-अपनी शर्तें रखीं। देवों ने हिरण्यकशिपु की शक्ति, श्रेष्ठता और इंद्रलोक पर विजयश्री को स्वीकारा। साथ ही वचन दिया की भविष्य में कोई देव और न ही उनकी मित्र जातियाँ, दैत्य साम्राज्य पर आक्रमण नहीं करेंगे। देवो के मित्र मानव, गरुड़ और समुदाय के लोग हिरण्यकशिपु के राज्य और राज्य-भवनों पर दिन हो या रात, अस्त्र या शस्त्र से हमला नहीं बोलेंगे। हाथी या घोड़े पर सवार होकर भी राज्य और राजप्रासादों पर आक्रमण नहीं करेंगे। आकाशगमन करते हुए भी हमला नहीं करेंगे। देवों द्वारा ब्रह्मा के समक्ष इन वचनों के पालन की सौगंध लेने पर हिरण्यकशिपु ने देवलोक का परित्याग कर दिया।

इस वचनबद्धता के उपरांत देवों की तरफ से निश्चिंत हुआ हिरण्यकशिपु अपने राज-काज और परिवार पर ध्यान केंद्रित करने लगा। किंतु प्रह्लाद की विष्णु-भक्ति और देव-संस्कृति के प्रति उसकी आसक्ति से हिरण्यकशिपु अचंभित रह गए। अपने ही घर में अपने ही संतति से मिल रही चुनौती ने दैत्यराज को मानसिक रूप से परेशान कर दिया। हिरण्यकशिपु समझ गया कि ऋषियों के आश्रम में पलने के दौर में प्रह्लाद के अपरिक्व अवचेतन में विष्णु के स्थापित मूल्यों की यह प्रतिच्छाया नियोजित ढंग से प्रक्षेपित की गई है। प्रह्लाद के मन-मस्तिष्क से इस छाया को मिटाने के कई प्रयत्न किए। उसे धमकाया। राज्योचित सुविधाओं से पृथक् कर देने की चेतावनी दी। परंतु प्रह्लाद की मनस्थिति कभी नहीं बदलने वाली नियति बनी रही। तत्पश्चात प्रह्लाद को मौत की नींद सुला देने का निर्णय लिया। इस हेतु उसके शयन-कक्ष में सर्प छोड़े गए। उसे पर्वत-चोटियों से फेंका गया। लेकिन प्रह्लाद था कि मरा नहीं। इतने उपायों के बाद भी जब प्रह्लाद नहीं मरा तो जन-मानस में यह भाव जागने लगा कि प्रह्लाद की अदृश्य रूप में  श्रीहरि विष्णु रक्षा कर रहे हैं और वह उनकी अनुकंपा से मृत्युञ्जयी हो गया है। मृत्यु के इन प्रयासों ने प्रह्लाद के मन में विपरीत असर डाला। परिणामस्वरूप वह देव-संस्कृति का मुखर प्रवक्ता बन गया।

     अनार्य संस्कृति का उपासक हिरण्यकशिपु यह कैसे बरदाश्त करता कि उसका अपना खून ही देश की मान्यताओं और मूल्यों पर कुठाराघात करे? गोया, हिरण्यकशिपु की सहनशाीलता जबाव दे गई। अंत में उसने अपनी बहन होलिका पर प्रह्लाद को मृत्यु के हवाले कर देने का कठिन दायित्व सौंप दिया। होलिका आग से खेलने में सिद्धहस्त थी। अर्थात वह ऐसे तकनीकी उपाय जानती थी, जिनका प्रयोग कर आग, गर्म तेल व पानी का उस पर कोई असर नहीं होता था। अग्नि-रोधी वस्त्रों के निर्माण और उन्हें पहनकर आग की लपटों से खेलने और खौलते तेल अथवा पानी में उतर जाने में भी वह दक्ष थी। हालांकि होलिका ने बालक प्रह्लाद के साथ इस तरह का धत-कर्म करने में आना-कानी की, लेकिन जब शासक हिरणकशिपु ने ऐसा ही करने का आदेश दिया तो होलिका मजबूर हो गई। आखिरकार प्रह्लाद उसका भतीजा था। गोया, उसका हृदय हा-हाकार कर उठा। उसका मातृत्व जाग उठा। फलस्वरूप उसने जो अग्नि-रोधक रसायन थे, उनका लेप स्वयं के शरीर पर करने की बजाय प्रह्लाद के शरीर पर कर दिया। जिस चूनरी को ओढ़कर उसे खौलते तेल में प्रह्लाद को लेकर उतरना था, उसे प्रह्लाद के अंग-वस्त्र बनाकर पहना दिया और स्वयं वैसी ही साधारण चूनरी ओढ़ ली। नतीजतन जब वह तेल के खोलते कड़ाहे में प्रह्लाद को गोदी में लेकर उतरी तो स्वयं तो जल मरी, किंतु प्रह्लाद बच गया। बुआ थी, अपने भतीजे को अपने ही हाथों कैसे मार देती ? युग-परिवर्तन से पहले जो संक्रमणकाल आता है, उस कालखंड में सर्वस्व न्योछावर की बानगियाँ आम हो जाती हैं।  होलिका का यह आत्मघाती बालिदानी स्वरूप हमारी लोक-परंपरा में आज भी बदस्तूर है। हम होली के अवसर पर होलिका के दहन होने के उपरांत उसकी भस्म को भभूत के रूप में सेवन करते हैं।

प्रह्लाद के आश्चर्यजनक ढंग से बच जाने के संदेश से जहाँ हिरण्यकशिपु का क्रोध चरम पर पहुँच गया, वहीं जनता ने इसे विष्णु-भक्ति का चमत्कार माना। फलस्वरूप अनेक जन-समुदाय प्रह्लाद के पक्ष में आकर खड़े हो गए। इसी दौरान जन-समूहों को सूचना मिली कि क्रोध की ज्वाला के वशीभूत हुआ हिरण्यकशिपु प्रह्लाद को मारने के लिए महल में प्रयत्नशील है। इस संदेश के मिलते ही जन-समूह सभी मर्यादाओं और बाधाओं का उल्लंघन करते हुए महल में प्रवेश कर गए। हिरण्यकशिपु प्रह्लाद की इस लोकप्रियता और उससे उपजे जन-विद्रोह से लगभग अनभिज्ञ था। अलबत्ता हिरण्यकशिपु तलवार से जब प्रह्लाद की गर्दन धड़ से अलग करने के लिए आगे बढ़ा, वैसे की आक्रोशित और अराजक हुए नरों (मनुष्यों) के समूह ने हिंसा की तरह निर्दयी होकर हिरण्यकशिपु पर चारों ओर से हमला बोल दिया। इस प्रकार इस नर+ सिंह अर्थात् नरसिंह ने हिरण्यकशिपु को मौत के घाट उतार दिया।

सम्पर्कः शब्दार्थ 49, श्रीराम कॉलोनी, शिवपुरी म.प्र., मो. 09425488224, 09981061100

1 comment:

शिवजी श्रीवास्तव said...

बहुत सुंदर,होलिका दहन की तार्किक व्याख्या करता आलेख।बधाई प्रमोद भार्गव जी।