उदंती.com को आपका सहयोग निरंतर मिल रहा है। कृपया उदंती की रचनाओँ पर अपनी टिप्पणी पोस्ट करके हमें प्रोत्साहित करें। आपकी मौलिक रचनाओं का स्वागत है। धन्यवाद।

May 2, 2025

प्रकृतिः म्यांमार का भूकंप शहरी विकास के लिए एक चेतावनी है

  - प्रमोद भार्गव

म्यांमार में आए 7.7 तीव्रता के ताकतवर भूकंप ने 1700 से भी ज्यादा लोगों की जान ले ली और 2500 से भी ज्यादा लोग घायल हैं। भूकंप के प्रभाव में आकर जिस तरह से बहुमंजिला इमारतें ढहीं, सड़कें, पुल और बाँध टूटे, बिजली और इंटरनेट सेवाएँ ठप हो गईं, यह प्रकृति की एक ऐसी नजीर है, जो बढ़ते शहरीकरण के लिए चेतावनी है। थाईलैंड की राजधानी बैंकॉक में आए कुछ पलों के झटकों ने ही दुनिया के इस सुंदर शहर को थर्रा दिया। इसी बीच अमेरिका की भू- गर्भीय सर्वेक्षण एजेंसी ने आशंका जताई है कि मरने वालों की संख्या 10 हजार से भी अधिक पहुँच सकती है। इस भूकंप के झटके भारत के पूर्वोत्तर राज्यों और पश्चिम बंगाल में भी अनुभव किए गए। चीन, वियतनाम, ताइवान, लाओस और श्रीलंका में भी भूकंप की तरंगें अनुभव की गई। याद रहे भारत के भुज में 24 साल पहले आया भूकंप भी 7.7 तीव्रता का था, जिसमें 20 हजार लोगों की मौतें हुई थीं और डेढ़ लाख लोग घायल हुए थे। तीन लाख से ज्यादा घरों को नुकसान हुआ था। म्यांमार का भूकंप काफी उथला था। इस भूकंप का केंद्र भूमि के 10 किमी नीचे था। भूकंप के केंद्र वाला म्यांमार का क्षेत्र संवेदनशील क्षेत्र के रूप में पूर्व से ही चिन्हित है। बावजूद यहाँ आवास और उद्योगों के लिए आलीशान अट्टालिकाएँ खड़ी की जा रही हैं। भारतीय और यूरेशियन प्लेटों के टकराने का परिणाम इस भूकंप को माना जा रहा है।   

 दिल्ली राजधानी क्षेत्र में 17 फरवरी 2025 की सुबह 5.36 बजे रिक्टर स्केल पर चार तीव्रता वाले भूकंप के झटके और धमाकों जैसी आवाज सुनी गईं थी। राष्ट्रीय भूकंप विज्ञान केंद्र के अनुसार भूकंप का केंद्र दिल्ली के धौला कुआँ के झील पार्क क्षेत्र में 5 किमी की गहराई में था। इस कारण इसकी तीव्रता भूगर्भ में ही कमजोर पड़ गई और सतह पर नहीं आने पाई। बिहार में भी भूकंप के झटके अनुभव किए गए। इसका केंद्र धरती की सतह से 10 किमी नीचे था। इसलिए असर केवल अनुभव हुआ। बावजूद भविष्य में भूकंप का यह संकेत दिल्ली के लिए विनाश की चेतावनी है। क्योंकि दिल्ली, हरिद्वार और महेंद्रगढ़ देहरादून के ऐसे पठारनुमा टीले पर बसा हुआ है, जहाँ से भूकंप की भ्रंश रेखा गुजरती है। अतएव यहाँ हमेशा भूकंप का खतरा बना रहता है।

 यह संकट इसलिए भी है; क्योंकि यमुना नदी के मैदानी क्षेत्र में भूमि की परत नरम है। हालांकि इस भूकंप को विवर्तनिक परत (टेक्टोनिक्स प्लेट) में किसी बदलाव के कारण आना नहीं माना गया था। इसके आने का कारण स्थानीय भू-गर्भीय विविधता को माना जा रहा है। याद रहे हिमालय के उत्तरी तलहटी में स्थित चीन के तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र शिगात्से के निकट तिंगरी काउंटी में 7 जनवरी 2025 को 7.1 तीव्रता का भूकंप आया था। इसमें 126 लोग मारे गए थे। पड़ोसी देश नेपाल और भारत में भी इसके झटके महसूस किए गए थे। भूकंप का केंद्र तिंगरी काउंटी में था, जो हिमालय की चोटी माउंट एवरेस्ट क्षेत्र का उत्तरी द्वार माना जाता है। अमेरिकी भूगर्भ सर्वेक्षण ने इस भूकंप की तीव्रता 7.1 आँकी थी। भूकंप से तिब्बत में किसी बाँध या जालाशय को हानि नहीं पहुँची थी, गौरतलब है कि भूकंप ने भारतीय सीमा के निकट तिब्बत में ब्रह्मपुत्र नदी पर दुनिया का सबसे बड़ा बांध बनाने की योजना ने भारत और बांग्लादेश को चिंता में डाल दिया है ; क्योंकि यह पूरा क्षेत्र भारत और यूरेशियन टेक्टोनिक प्लेटों में टकराव के कारण चीन के दक्षिण-पश्चिम हिस्से नेपाल और उत्तर-भारत में अकसर भूकंप आते रहते हैं।

भूकंप की चेतावनी संबंधी प्रणालियाँ अनेक देशों में  संचालित हैं; लेकिन वह भू-गर्भ में हो रही दानवी हलचलों की सटीक जानकारी समय पूर्व देने में लगभग असमर्थ हैं। क्योंकि प्राकृतिक आपदाओं की जानकारी देने वाले अमेरिका, जापान, भारत, नेपाल, चीन और अन्य देशों में भूकंप आते ही रहते हैं। इसलिए यहाँ लाख टके का सवाल उठता है कि चाँद और मंगल जैसे ग्रहों पर मानव बस्तियाँ बसाने का सपना और पाताल की गहराइयों को नाप लेने का दावा करने वाले वैज्ञानिक आखिर पृथ्वी के नीचे उत्पात मचा रही हलचलों की जानकारी प्राप्त करने में क्यों असफल हैं ; जबकि वैज्ञानिक इस दिशा में लंबे समय से कार्यरत हैं। अमेरिका एवं भारत समेत अनेक देश मौसम व भू-गर्भीय हलचल की जानकारी देने वाले उपग्रह अंतरिक्ष में स्थापित कर चुके हैं।

 दरअसल दुनिया के नामचीन विशेषज्ञों व पर्यावरणविदों की मानें तो सभी भूकंप प्राकृतिक नहीं होते, बल्कि उन्हें विकराल बनाने में मानवीय हस्तक्षेप शामिल है। इसीलिए इस भूकंप को स्थानीय भू-गर्भीय विविधता का कारण माना गया है। दरअसल प्राकृतिक संसाधनों के अकूत दोहन और फिर शहरीकरण और औद्योगिकी करण के लिए शैतानी निर्माण से छोटे स्तर के भूकंपों की पृष्ठभूमि तैयार हो रही है। भविष्य में इन्हीं भूकंपों की व्यापकता और विकरालता बढ़ जाती है। यही कारण है कि भूकंपों की आवृत्ति बढ़ रही है। पहले 13 सालों में एक बार भूकंप आने की आशंका बनी रहती थी; लेकिन अब यह घटकर 4 साल हो गई है। यही नहीं आए भूकंपों का वैज्ञानिक आकलन करने से यह भी पता चला है कि भूकंपीय विस्फोट में जो ऊर्जा निकलती है, उसकी मात्रा भी पहले की तुलना में ज्यादा शक्तिशाली हुई है। 25 अप्रैल 2015 को नेपाल में जो भूकंप आया था, उनसे 20 थर्मोन्यूक्लियर हाइड्रोजन बमों के बराबर ऊर्जा निकली थी। यहाँ हुआ प्रत्येक विस्फोट हिरोशिमा- नागासाकी में गिराए गए परमाणु बमों से भी कई गुना ज्यादा ताकतवर था। जापान और फिर क्वोटो में आए सिलसिलेवार भूकंपों से पता चला है कि धरती के गर्भ में अँगड़ाई ले रही भूकंपीय हलचलें महानगरीय आधुनिक विकास और आबादी के लिए अधिक खतरनाक साबित हो रही हैं। ये हलचलें भारत, पाकिस्तान, चीन और बांग्लादेश की धरती के नीचे भी अँगड़ाई ले रही हैं। इसलिए इन देशों के महानगर भूकंप के मुहाने पर खड़े हैं।

 भूकंप आना कोई नई बात नहीं है। पूरी दुनिया इस अभिशाप को झेलने के लिए जब-तब विवश होती रही है। बावजूद हैरानी इस बात पर है कि विज्ञान की आश्चर्यजनक तरक्की के बाद भी वैज्ञानिक आज तक ऐसी तकनीक ईजाद करने में असफल रहे हैं, जिससे भूकंप की जानकारी आने से पहले मिल जाए। भूकंप के लिए जरूरी ऊर्जा के एकत्र होने की प्रक्रिया को धरती की विभिन्न परतों के आपस में टकराने के सिद्धांत से आसानी से समझा जा सकता है। ऐसी वैज्ञानिक मान्यता है कि करीब साढ़े पांच करोड़ साल पहले भारत और आस्ट्रेलिया को जोड़े रखने वाली भूगर्भीय परतें एक-दूसरे से अलग हो गईं और वे यूरेशिया परत से जा टकराईं। इस टक्कर के फलस्वरूप हिमालय पर्वतमाला अस्तित्व में आई और धरती की विभिन्न परतों के बीच वर्तमान में मौजूद दरारें बनीं। हिमालय पर्वत उस स्थल पर अब तक अटल खड़ा है, जहाँ पृथ्वी की दो अलग-अलग परतें परस्पर टकराकर एक-दूसरे के भीतर घुस गई थीं। परतों के टकराव की इस प्रक्रिया की वजह से हिमालय और उसके प्रायद्वीपीय क्षेत्र में भूकंप आते रहते हैं। इसी प्रायद्वीप में ज्यादातर एशियाई देश बसे हुए हैं।

    वैज्ञानिकों का मानना है कि रासायनिक क्रियाओं के कारण भी भूकंप आते हैं। भूकंपों की उत्पत्ति धरती की सतह से 30 से 100 किमी भीतर होती है। इससे यह वैज्ञानिक धारणा भी बदल रही है कि भूकंप की विनाशकारी तरंगें जमीन से कम से कम 30 किमी नीचे से चलती हैं। ये तरंगे जितनी कम गहराई से उठेगी, उतनी तबाही भी ज्यादा होगी और भूकंप का प्रभाव भी कहीं अधिक बड़े क्षेत्र में दिखाई देगा। लगता है अब कम गहराई के भूकंपों का दौर चल पड़ा है। मैक्सिको में सितंबर 2017 में आया भूकंप धरती की सतह से महज 40 किमी नीचे से उठा था। इसलिए इसने भयंकर तबाही का तांडव रचा था। तिब्बत में आए भूकंप की गहराई तो मात्र 10 किमी आँकी गई है। 

      दरअसल सतह के नीचे धरती की परत ठंडी होने व कम दबाव के कारण कमजोर पड़ जाती है। ऐसी स्थिति में जब चट्टानें दरकती हैं तो भूकंप आता है। कुछ भूकंप धरती की सतह से 100 से 650 किमी के नीचे से भी आते हैं; लेकिन तीव्रता धरती की सतह पर आते-आते कम हो जाती है, इसलिए बड़े रूप में त्रासदी नहीं झेलनी पड़ती। दरअसल इतनी गहराई में धरती इतनी गर्म होती है कि एक तरह से वह द्रव रूप में बदल जाती है। इसलिए इसके झटकों का असर धरती पर कम ही दिखाई देता है। बावजूद इन भूकंपों से ऊर्जा बड़ी मात्रा में निकलती है। धरती की इतनी गहराई से प्रगट हुआ सबसे बड़ा भूकंप 1994 में बोलिविया में रिकॉर्ड किया गया है। पृथ्वी की सतह से 600 किमी भीतर दर्ज इस भूकंप की तीव्रता रिक्टर पैमाने पर 8.3 मापी गई थी। इसीलिए यह मान्यता बनी है कि इतनी गहराई से चले भूकंप धरती पर तबाही मचाने में कामयाब नहीं हो सकते हैं, क्योंकि चट्टानें तरल द्रव्य के रूप में बदल जाती हैं।

     प्राकृतिक आपदाएँ अब व्यापक व विनाशकारी साबित हो रही हैं; क्योंकि धरती के बढ़ते तापमान के कारण वायुमंडल भी परिवर्तित हो रहा है। अमेरिका व ब्रिटेन समेत यूरोपीय देशों में दो शताब्दियों के भीतर बेतहाशा अमीरी बढ़ी है। औद्योगिकी करण और शहरीकरण इसी अमीरी की उपज है। यह कथित विकास वादी अवधारणा कुछ और नहीं, प्राकृतिक संपदा का अंधा- धुंध दोहन कर, पृथ्वी को खोखला करने के ऐसे उपाय हैं, जो ब्रह्मांड में फैले अवयवों में असंतुलन बढ़ा रहे हैं। इस विकास के लिए पानी, गैस, खनिज, इस्पात, ईंधन और लकड़ी जरूरी हैं। नतीजतन जो कार्बन गैस बेहद न्यूनतम मात्रा में बनती थीं, वे अब अधिकतम मात्रा में बनने लगी हैं। न्यूनतम मात्रा में बनी गैसों का शोषण और समायोजन भी प्राकृतिक रूप से हो जाता था, किंतु अब वनों का विनाश कर दिए जाने के कारण ऐसा नहीं हो पा रहा है, जिसकी वजह से वायुमंडल में इकतरफा दबाव बढ़ रहा है। इस कारण धरती पर पड़ने वाली सूरज की गर्मी प्रत्यावर्तित होने की बजाय, धरती में ही समाने लगी है। गोया, धरती का तापमान बढ़ने लगा, जो जलवायु परिवर्तन का कारण तो बना ही, प्राकृतिक आपदाओं का कारण भी बन रहा है। ऐसे में सीमेंट, लोहा और कंक्रीट के भवन जब गिरते हैं, तो मानव त्रासदी ज्यादा होती है। जैसे कि हमें अमेरिका के लॉस एंजिल्स शहर में लगी आग में देखने में आ रहा है।  ■

No comments: