अंतराल
-विजय जोशी
अतीत बड़ा ही तकलीफदेह है। भोगा हुआ सुख या दुख यहाँ तक कि उसके स्थल तक जुड़ जाते हैं। एक- एककर संभली हुई परतें। पता नहीं कौन सी तह कब खुल जाए और मन उन क्षणों में कैद हो जाए। तुम्हारे साथ समय को सरपट भागते देखा है। पता नहीं लोग वक़्त के थमने का अनुभव कैसे कर पाते हैं। उस दिन भी सूरज जल्दी ही डूब गया था। तुम्हें याद है? तुम उसे खलनायक कहा करतीं थीं। सिर के बल क्षितिज की खाई में गिरते सिंदूरी सूरज की ओर तकते तकते तुम न जाने कहाँ खो गईं थीं।
अब अच्छा नहीं लगता अनि! कब तक इस तरह ढलता सूरज हमें बिछुड़ने पर विवश करता रहेगा।
शी! केवल हम ही विवश नहीं। देखो दिनभर संसार को गर्मी से परेशान कर देनेवाला क्रूर सूर्य इस समय खुद भी कितना विवश दिख रहा है।
तुम तो हर जगह दर्शन ढूँढ लेते हो अनि! और हमने कितने सपने इकट्ठे कर लिये हैं। कब तुम पढ़ाई पूरी करो और हम जीवन का पाठ पढ़ने के लिए एकाकार हों। सच अनि! कभी कभी डर लगता है कि कहीं ...
छि: पगली हो तुम भी शी! आत्मीयता के धागे तोड़ने में बड़ी ताकत की ज़रूरत होती है। बस तुम अपने सपनों पर खूब विश्वास कर लो और...
नहीं अनि! तुम पर तो खूब भरोसा है हमें, पर शायद खुद पर नहीं।
तुम्हारी मुहब्बत पर मुझको यकीं है
मगर अपनी किस्मत पर हरगिज़ नहीं है
लगा सूरज के साथ साथ हम दोनों भी डूब रहे हैं। तालाब में मंदिर की परछाईं धूमिल होने लगी थी। तुम्हारी बात से कहीं अंदर तक सिहरकर उठ गया मैं अचानक।
कहाँ चले अनि!
उठो शी! देर हो रही है। तुम्हें घर तक छोड़ना है न।
पर तुम्हारे साथ रास्ते पर चलता हुआ एकाकी मैं संदेहों की रस्सी पर झूलता हुआ सोचता रहा था कि इस सपने को नक्षत्र कभी नहीं बनने दूँगा।
और तुम्हें क्या मालूम शी! कि उस दिन सारी रात कितनी उथल- पुथल में बीती थी। बचपन में एक बार माँ ने कहा था कि होनी के लक्षण पूर्व ही प्रकट होने लग जाते हैं। शी! क्या पता था पीड़ाओं में पला हमारा प्यार एक दिन मुझे यूँ बेबस छोड़ जाएगा। तुम्हारी एक बार की लिखी पंक्तियों की तीक्ष्णता मैंने कितने बाद में अनुभव की।
दूरियों के बीच पीड़ाओं में, बरसों से यह प्रणय पला है
अपरिचित ही रहे सदा तुम, तुमसे परिचय यही जुड़ा है
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उम्र की गदह पचीसी के दिन। तुम्हारे घर की ओर जाते मन की छलाँगें। कभी पीछे तो कभी आगे।
- कालबेल
- शील हैं क्या। कहिएगा अनिल आया है
- इस बीच तुम्हारा होना – अनिलजी आप
- दोनों हाथ जोड़े हुए दो मुस्कुराती आँखें
- सकुचाहट... मौन... मौन की परतों का गलना
- जी हाँ मैं, कालेज मैगज़ीन के लिए आपसे कविता चाहिए । याचना या आग्रह?
- कुछ भी हो कविता तो यूँ ही बन गई :
- आँखों से उमड़ती है कविता, होठों से अनकही बात
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और अनकही बात वर्षों की तपस्या घोलकर पी गई।
अरे बैठेंगे भी या यहीं से कविता लेकर चल देंगे – एक स्मित लिये तुम्हारी आवाज और मेरे भीतर की दौड़ उस वक़्त रुकी। सकुचाता सा तुम्हारा अनुसरण करता हुआ ड्राइंग रुम में जा बैठता हूँ।
अभी आती हूँ – शायद तुम चाय के लिये कहने अंदर चली जाती हो और तुम्हारे जाने के बाद मैं थोड़ा मुक्त अनुभव करने लगता हूँ। कमरे की ओर भरपूर नज़र डालता हूँ। रेडियो के पास फ्रेम में तुम्हारी एक तस्वीर है। इस बीच तुम लौट आती हो।
अरे खामोश क्यों बैठे हैं आप?
ज़ाहिर है चिल्लाकर गा तो नहीं सकता था पर प्रश्न तो तुम्हारा अपनी जगह था – जी आपकी तस्वीर देख रहा था।
पसंद आई?
जी... बहुत – हकलाया मैं।
तुम मेरी झिझक पर खुलकर हँसती हो – अरे आप तो लड़कियों को भी मात कर देते हैं।
कुछ देर की चुप्पी के बाद चाय उदरस्थ की। सकुचाता सा फिर– जी वो कविता।
और तुम्हारी बेसाख्ता हँसी। शायद मेरी झिझक पर। हँसी थम पाए उसके पहले ही – कविता कल ले लीजिएगा। लिखकर रखूँगी हाँ।
जी... जी हाँ। ये महाकाव्य लाया था आपके लिए – और प्रश्नचिह्नों से अंकित महाकाव्य तुम्हें देकर कुछ निश्चिंत- सा अनुभव किया था मैंने। तुम्हारे यहाँ खाली गया था। लौटा तो बहुत कुछ समेट लाया था अपने साथ। रात देर तक ख्यालों में अपने मन के अनुसार सुलझता रहा, उलझता रहा। दूसरा दिन। तुमने कविता तो दी पर इस चिट के साथ :
“अनिलजी, कविता लिखकर दे रही हूँ; पर आपकी मैगजीन के लिए नहीं। बस यों ही लिख डाली। आशा है इसे आप अपने तक ही रखेंगे यानी मैंने लिखी। आपने पढ़ी। बस।”
अब तो बहुत कुछ कंठस्थ है तुम्हारा। पर उस दिन तुम्हारी रफ्तार से दो चार हुआ था। बस यहीं से शुरू हुआ हमारे सम्बन्धों का नया मोड, जिसे कवि लोग प्रेम और योगी शायद माया कहते हैं।
पर कब तक। महाकाव्य। घेरों के दायरे। दायरों के घेरे। फूलों की मुखरता।
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वह दो बरस। ढेर सारी बातें, तालाब, तुम्हारा खलनायक सूरज, देवी का मंदिर, तालाब के बीच बना टीला और उस पर पेड़। सब कुछ तो बुरी तरह चिपका हुआ है मेरे साथ।
और फिर तुम डॉक्टर बनने इलाहाबाद चली गईं और मैं कानपुर। पत्रों से जरूर क्रम बना रहा। उफ़ कितने बड़े बड़े पत्र हुआ करते थे उन दिनों। अब तो उनकी कल्पना भी नहीं कर पाता। शायद कालिदास की नायिका शकुंतला और दुष्यंत भी उतना एकरस न हो पाए होंगे, जितना उन दिनों हम थे। तुम्हारे पत्र पढ़ना जैसे बच्चे पहाड़े घोंटा करते हैं। नहीं शायद गलत कह रहा हूँ। बच्चों के पढ़ने में रुचि और स्फुरण कहाँ रह पाता है। उन्हीं दिनों एक बार तुमने लिखा था :
“समझ में नहीं आता अनि! लोग इतनी पवित्र चीज़ की अनुभूति से वंचित रह जाना
कैसे सह पाते हैं। मैं तो अपनी बात कह ही नहीं सकती। कितना स्वर्गिक, कितना अच्छा
लगता है सब कुछ। लोग न जाने क्यों स्वार्थ या ईर्ष्या के बहकावे में इसे भूल जाते हैं।”
व्हाट ए ब्युटीफूल थिंग लव इज़ एंड वी डिस्ट्रोय इट बाय वर्ड्स, जेलसी एंड डिज़ायर
(प्यार कितनी खूबसूरत चीज़ है लेकिन हम इसे शब्दों, ईर्ष्या व इच्छा द्वारा नष्ट कर देते हैं)
एक बार की बात है। यूँ ही तुमपर अपना सिक्का जमाने के लिए मैंने व किसी हद तक तुम्हें
डराने के लिए बात ही बात में राजेंद्र यादव की कुछ पंक्तियाँ लिख दीं थीं - झूठ है प्यार एक सागर है और हृदय को उदार बनाता है। क्षमा देता है। प्यार खुली बाँहों का नि:संकोच विस्तार है। नहीं, नहीं, नहीं सब रोमांटिकों और आदर्शवादियों की हवाई बकवास है। प्यार संकीर्ण, स्वार्थी और निर्दयी बना देता है। प्यार की सपनीली और मखमली नरमाहट के पीछे ईर्ष्या के नुकीले नाखून होते हैं और दूसरा उस तरफ बढ़ता है तो शेर की गुर्राहट सुनाई देती है। नहीं इधर मत आना। यह मेरा शिकार है। इसे अकेला मैं ही खाऊँगा। सड़ जाने दूँगा पर तुम्हें नहीं खाने दूँगा।
और तुमने नाराज होकर मेरी छुट्टी ही कर दी थी। कहीं मेरी तबीयत तो खराब नहीं जो ऐसी बातें लिखने लग गया हूँ या तुमसे कहीं ऊब तो नहीं गया। यह आशंका तक व्यक्त कर दी थी तुमने। पर तब भी ऐसी कोई बात नहीं थी और आज भी नहीं है। मैं तो आज भी रात को सोते समय दरवाजे में सिटकनी नहीं लगाता कि कहीं तुम आ जाओ, तो खटखटाने की ज़ेहमत न उठानी पड़े। तुम इन शब्दों की सच्चाई अनुभव कर सकोगी या नहीं, मैं नहीं जानता। पर मैं तो समर्पित था तुम्हारे प्रति। ऐसी बातों की भला गुंजाइश ही कहाँ थी तब तो। शायद आज भी नहीं है मेरी तरफ से तो पर।
अब भी रह रहकर तुम्हारे पत्रों की नरम जगहें कचोटने लगती हैं –अनि! तुम मेरी कमियाँ ही ढूँढा करते हो। क्या ही अच्छा हो तुम मेरी कमियों की इमारत खड़ी करो और मैं तुम्हारी अच्छाइयों का ताजमहल। तुम कहोगे कि तुम मुझसे जीत जाओगे। किसी इंसान में कमियाँ ही अधिक होती हैं। पर मैं कहती हूँ कि मैं तुम्हें हरा दूँगी। किसी इंसान में अच्छाइयाँ भी तो बेजोड़ हो सकती हैं।
पर ताजमहल की नींव पुख्ता नहीं थी शायद। तुम्हें क्या पता शी! कौन हारा है हमारे बीच। आज भी देवी के मंदिर को जानेवाली सुनसान सड़क से गुजरता हूँ, तो मैं अकेला नहीं होता। शायद रास्ते तक को तुम्हारे गुजरे कदमों का एहसास है।
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इलाहाबाद और कानपुर की दूरी तो कई बार तय की शी! पर समय ने हमारे बीच जो दूरी पैदा की उस पर तुम कुछ मील तक ही चलीं। मुझे क्या पता था एक दिन मैं इतना विवश हो जाऊँगा। इतना निरीह। मैंने तो स्वयं के भीतर झाँका भी है कई बार और मैं तो भीख भी माँग लेता शी! उसके सर्वथा विपरीत जो मेरा स्वभाव नहीं, पर देने वाले के पास भी कुछ हो तब न। फिर प्यार अपनी जगह हो जाता है और स्वाभिमान अपनी जगह। वैसे मैं जानता हूँ कि परिचितों के भावनात्मक संस्पर्शों के बीच इसकी उपस्थिति अनावश्यक है, पर इसकी आवश्यकता के स्थल पर भी तो भाँति नहीं पाल सकता। खैर अब तो रह रहकर तुम्हारे खलनायक सूरज की याद हो आती है।
आज मैं उसी की तरह विवश हूँ शी! और अपनी इस विवशता के सामने मैंने हथियार डाल दिए है।
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ट्रेन... । छुक, छुक और पटरियों व पहियों के युद्ध से पैदा होनेवाली खटर- पटर। वैसी ही खटर पटर मन के भीतर भी हो रही थी। तुम्हें दी हुई मेरे इलाहाबाद पहुँचने की तारीख को गुजरे दो दिन हो चुके थे। मैं इलाहाबाद पहुँचने को बहुत उत्सुक था। तुम्हारी चिट्ठियों में अभी अभी पैदा हुए भौतिक दृष्टिकोणों से अभिज्ञ हो, अवांछित की आशंका लिये हुए भी। वक़्त भी शायद टूटकर लंबा हो रहा था मेरे बिखरने के साथ। समय भी समय देखकर अपना मुखौटा बदलता रहता है। खैर जैसे तैसे पहुँचा। आशा के अनुरूप स्टेशन पर नहीं थीं तुम। अजंता पहुँचकर जल्दी जल्दी सफ़र का खोल उतारकर आदमी बना और तुम्हारे होस्टल। कारीडोर में ही। तुम किसी से बतिया रहीं थी।
दो सौ फिट दूर से ही चिल्लाईं – तो अब आ रहे हो तुम।
एक दूसरे की ओर झपटते कदम। हाँ शी! देखो मैं एक काम (असल में काम का उल्लेख आत्मश्लाघा ही लगा) में बेतरह उलझ गया था इसीलिए परसों...
तुम्हें क्या? कोई सब कुछ छोड़ छाड़कर तुम्हारे लिये दो- दो दिन तक हर ट्रेन देखी। हमें हमारी सहेलियों के सामने कितना शर्मिंदा होना पड़ा।
-कमरे में ले चलो। फिर डाँट लेना खूब।
आसपास टेक्निकल वातावरण की उपस्थिति से विचलित होकर कहा मैंने और तुम्हारे रूम में पहुँचकर - शी! इस बार माफ़ कर दो। गलती हो गई।
तुम्हें बनाने में ही ऊपरवाले की थोड़ी बहुत गलती हो जाती अनि! तो हमें ये तकलीफ़ें तो नहीं उठानी पड़तीं – दो मीटर लंबी साँस तुम्हारी। मुझे काफी राहत सी महसूस हुई और कुछ दिनों से आ रहे विचारों के लिये स्वयं को कोसा मैंने।
-कहा अजंता में ही ठहरे हो ना।
-हूँ के साथ स्वीकृति दी मैंने।
-हमारे हाथ की ही पियोगे या मेस में कहकर आऊँ – तुम्हारा मतलब चाय से था।
-तुम्हारे हाथ की ही। पूछ क्यों रही हो? हमेशा तो पिलाती हो न। और इस तरह कुछ क्षण तुम्हारा कुछ होने का अहसास क्यों छोड़ दूँ...
-क्यों केवल कुछ ही क्षण क्यों – रूम के कोने में रखे स्टोव वगैरह की ओर जाते हुए कहा तुमने।
वैसे ही कहा अन्यथा मत लो।
-अनि! तुम्हारे शब्दों में, तुम्हारे पत्रों में अब विश्वास का वजन नहीं रहा। मैं कुछ और नहीं समझ रही। पर वैसे ही कही हुई बात के पीछे भी कुछ न कुछ धरती तो हुआ ही करती है।
इस पल यकायक पुरुष -सी हो आईं थीं तुम। विषयांतर का प्रयत्न करते हुए मैंने कहा – शी! एक बुनियादी गलती हो गई।
चाय के लिए उपयोग में लाने जाने वाले बियर मग में चाय डालते हुए मेरी तरफ देखकर पूछा तुमने – क्या?
और तुम्हारी आँखों में देख मैं एक क्षण सब भूल गया था – सच शी! तुम्हारी आँखें बहुत सुंदर हैं। अरे हाँ बुनियादी गलती तो यह हुई कि बजाय डॉक्टर के तुम्हें वकील बनना था।
कुछ देर पहले जो तुम उम्र से दस फीट आगे का फासला तय कर गईं थीं पुन: पूर्व स्थिति में लौटकर बोलीं – हटो अनि! तुम हमारी तो सब बातें हवा में उड़ा देते हो और खुद गलतियाँ करके भी सर पर चढ़ने की आदत बरकरार रखे हुए हो–लो।
अच्छा शी! चाय लेते हुए मैंने कहा – इसके पहले की तुम यहाँ हमारी नुमाइश शुरू करो अपने राम खिसकाना चाहते हैं। यह बताओ अभी चल रही हो या सुबह। कब पहुँच रही हो अजंता। लंबा चौड़ा दिनभर का प्रोग्राम बनाकर आना।
अभी रात तो गोल नहीं हो सकते। तुम्हारे साथ चलते हैं। बाहर आज खलनायक की पिटाई करनी है। रात को हमें जल्दी छोड़ जाना, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। खलनायक की तो पता नहीं हमारी कविताओं की अच्छी ख़ासी पिटाई करवा दी तुमने। नुमाइश जो हुई हमारी। फिर नौ साढ़े नौ तक ही तुम्हारा होस्टल छोड़ पाया था। दूसरे दिन तुम जल्दी आ गईं थीं। हम कितनी देर तक बेमतलब सिविल लाइंस में घूमते रहे। वही सब बातें। अजीब -सी अवस्था होती है यह भी। हम जानते हैं कि हम सब वही बार बार दुहरा रहे हैं, फिर भी कितना अच्छा लगता है। हर बार नये अर्थों सा।
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ऐसी अनेक घटनाओं से मन के पृष्ठ रँगे पड़े हैं और आज तक उनमें बुरी तरह उलझा हुआ हूँ मैं। ऐसे मामलों में किसी को साझीदार बनाना भी तो स्वीकार नहीं मुझे। आहिस्ता से संभलकर उतरियेगा। काँपती लंबी शिथिलता और उस पर पड़ते तुम्हारे कदम।
और तहें खुलतीं हैं। इम्तिहान के दिनों में पढ़ाई की बातों में खोये बदहवास से हम। स्कूल से लौटते समय कुछ कदम का फासला रखकर चलते हम। शाम को घूमने की आदत न होते हुए भी केवल इसीलिये परिचित रास्तों पर गुजरते हम। प्रेक्टिकल की क्लासों में रीडिंग बार- बार लेकर देर तक साथ रहने की कोशिश करते हम। इतने शाश्वत को किस तरह इतनी आसानी से नकार दिया तुमने।
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और उस दिन की संध्या शायद तुम्हारे सान्निध्य की अंतिम शाम प्रयत्न करने पर भी विस्मृत नहीं हो पाती शी! मेरे भीतर तो तब भी ऐसी कोई बात नहीं थी। न अब है। तुम्हारी यूनिवर्सिटी के पास का वह बड़ा -सा पार्क। एक कोने में थककर बैठे हम। बातों हो बातों में तुम्हारे द्वारा मेरे कुछ दिनों पूर्व भेजे गए एक पत्र का उल्लेख – अनि! याद है अभी कुछ दिन पहले तुमने एक पत्र में अंग्रेजी का एक उद्धरण लिखा था :
लव इज़ लाइक अ सिगारेट - विच बिगिन्स विद फायर एंड एन्ड्स इन एशेज़
( प्यार तो एक सिगरेट सा है – जो आग से शुरू होकर राख में समाप्त होता है )
- हूँ, लिखा तो था
- कहीं तुम मुझसे ऊब तो नहीं गए अनि!
- क्यों ऐसा क्यों सोचने लगीं तुम
- बताएँ। कई कारण हैं। पहला तो यही कि एकरसता बढ़ते बढ़ते ऊब में परिवर्तित हो जाती है
- और दूसरा
- दूसरा। दूसरा शायद यह कि तुमने मेरे साथ जुड़ा हुआ श्रीकांत का नाम भी सुना हो। दोस्त तो हैं ही यहाँ तुम्हारे ।
- शी! स्वयं अनियंत्रित- सा बोला था मैं – कम से कम मुझे इतना छोटा तो मत समझो। सुना भी है, सत्य भी है ,तो भी वह मेरे लिए किसी अर्थ का नहीं शी! मैंने अनुभूतियाँ सहेजी हैं अपने पक्ष की सीमा में ही और हमेशा उसीके अनुरूप रहा हूँ। तुम जानती हो मैंने कभी ऐसा कोई अधिकार नहीं जताया। यह तुम्हारी अपनी इच्छा है तुम मेरे साथ चलो या न चलो।
- नहीं अनि! उत्तेजित मत होओ। मैं अनुभव करती हूँ कि हमारे बीच अब वह सब कुछ नहीं रहा। न वह उल्लास, न ही उतना औत्सुक्य।
- हमारे बीच क्यों कहती हो शी! अनुभव तो तुम्हारा है न। शायद इसका उत्तर भी तुम्हारा दिया पहला ही कारण है – एकरसता।
- ठीक है। केवल मैं ही ऐसा अनुभव करती हूँ बस। तुम्हारा स्वाभिमान जो टपकने लगा है बीच में आजकल।
- नहीं ऐसा नहीं शी! उम्र के जिस दौर में हम समीप आए थे ,वह पागलपन भरा होता है। क्या कहूँ उस समय कहीं भी स्थायीत्व नहीं होता। मन भागा करता है। दरअसल अब ही तो, फिर बुरा मानोगी, हाँ तो अब हम उस स्थिति में पहुँचे हैं जब कुछ निर्णय कर सकें। अपने सपनों को दिशा दे सकें।
- पर वही सब तो जीवन है अनि! जिस समय तुम स्थायीत्व और गांभीर्य न होने की बात कह रहे हो वही तो हमारे लिए वरदान था।
- हाँ शी! था पर अब है क्या? वह स्थायी रहे तब न। बहुत सारी दुनिया देखने के बाद जीवन के कौतूहल और उत्सुकता वाले पहलू या संभ्रम को हम खो न दें तब।
- अच्छा अनि! कभी मैं तुम्हें लिख दूँ कि अब मैं तुम्हें नहीं चाहती। जो कुछ बीता वह मेरी भूल थी। अब से हमारे तुम्हारे सब संबंध खत्म।
- तो…। तो शी! मैं वह सब नहीं करुँगा जो फिल्मों में दिखाया जाता है। मैंने तुम्हें बाध्य तो नहीं किया कभी। दूसरे यह ऐसी चीज़ भी तो नहीं ,जिसे जबरदस्ती पाया जा सके। हाँ, एक खालीपन जरूर रहेगा मुझमें न जाने कब तक। पर विश्वास रखो मैं इसके लिए तुमको दोष नहीं दूँगा। कोसूँगा भी नहीं। निस्संदेह यह मेरी आकांक्षाओं की हार होगी और मैं जानता हूँ कि हारने के बाद भी लड़ने वाले बेवकूफ होते हैं। मैं जब भी ऐसा आभास पाऊँगा शी! तुम्हारे बीच कभी नहीं आऊँगा। मुझे जितने क्षण मिले हैं , तुमसे वह निधि ही मेरे लिये पर्याप्त है।
- बुरा तो नहीं लगा अनि! मैं जानती हूँ तुम्हें कचोटने वाली बात कह चुकी मैं। पर मैंने प्यार को एक सिद्धान्त के रूप में कभी नहीं लिया और न ही इस बात की हामी हूँ कि सिद्धांतों के बल पर ज़िंदगी गुजरी जा सकती है।
- शी! मैंने ही कब कहा है ये सब। हमेशा उचित और अनुचित से परे क्षणों के इच्छित उपभोग का ही तो समर्थन किया है। तुम्हें ही तो कई बार कहा है मैंने कि हमारी आँख पर औचित्य का नहीं अनुभूतियों का चश्मा होना चाहिए।
कह रहा था मैं। शायद उस स्थिति में तुम्हारे सामने कमजोर नहीं दिखना चाहता था। बहुत कोशिशों के बाद हृदय के संदेश को आँखों में आकर पिघलने से रोका था। पर लग रहा था जैसे मेरा अपना कुछ मुझसे कटकर अलग हो रहा है। ऐसे क्षणों में सहानुभूति सहेजना या सहानुभूति के नाम पर कुछ पाना भी तो स्वीकार नहीं मुझे। और घास के तिनकों से खेलते हुए हम बहुत देर तक चुपचाप बैठे रहे थे। वातावरण काफ़ी बोझिल हो गया था। सूरज भी आज अपनी भूमिका निभाते हुए काफ़ी खुश दिख रहा था। बीच में एक दो औपचारिकता भरी बातें तुम्हारी। तुम्हें छोड़ा था होस्टल उस रोज और लौट आया था मैं दूसरे दिन।
आज तुम डॉक्टर हो गई हो। बदलते वक़्त के साथ मन की दुनिया में भी काफ़ी परिवर्तन हो चुका है। इस बीच न जाने कितने अंतराल चुक गये हैं। अब तो तुम्हारे उस पत्र की प्रतीक्षा कर रहा हूँ जिसमें तुम्हारे ताजमहल न बना पाने की बात होगी और दावा होगा उस चीज़ के छीनने का जो अब मेरे पास है ही नहीं।
सम्पर्क: 8/ सेक्टर-2, शांति निकेतन (चेतक सेतु के पास), भोपाल-462023, मो. 09826042641, E-mail- v.joshi415@gmail.com
23 comments:
यदि यह कहानी पचास वर्ष पहले पढ़ता तो शायद समझने में आसानी होती। उम्र के साथ समझ लगता है कमज़ोर हो गई है।☺
बहुत ही संवेदनशील कहानी और मनोभावों का सचित्र वर्णन, कहानी मे जीवंतता है।
बधाई आपको आदरणीय जोशी जी।
जीवन जीना , और साकारात्मक तरीके से जीना एक कला है। जीवंतता तो कहानी में निहित है ही , एक मीठा सा अतीत का दर्द भी बेहद खूबसूरती के साथ उभरता है ।
हार्दिक धन्यवाद
मुस्कुराहट तबस्सुम हँसी कहकहे
सबके सब खो गए हम बड़े हो गए
आपने तो सदैव से मेरा भला सोचा है। मनोबल बढ़ाया है। सो सादर साभार : आपका आभार
सादर साभार : आपका आभार
अतीत के अंतराल मैं निहित शून्य को भरने की कोशिश की गई होती तो कथावस्तु का मोड बेहद सुखद हो सकता था। नारी पात्र की सोच एकदम स्पष्ट परिलक्षित होती है लेकिन पुरुष पात्र की झिझक समझ में नहीं आती, फिर भी पात्रों के मनोभावों का जीवंत चित्रण किया गया है।
बहुत सुंदर... दिल को छूने वाली संवेदनशील कहानी ... मन की अंतर्व्यथा और भावनाओं के अन्तर्द्वन्द की खूबसूरत प्रस्तुति है
उत्कर्ष लेखन
सादर अभिन्दन।
हार्दिक धन्यवाद मा. अजीत संघवीजी, मुंबई जैसे महानगर में रहकर आप संवेदनाओं को सुरक्षित रख सके, यह बहुत बड़ी बात है मेरी नज़र में. आपके गृह नगर नाथद्वारा के संस्कार संजोना सचमुच कठिन ही रहा होगा. यही स्नेह बना रहे सादर
बहुत सुंदर... दिल को छूने वाली संवेदनशील कहानी ... मन की अंतर्व्यथा और भावनाओं के अन्तर्द्वन्द की खूबसूरत प्रस्तुति है
उत्कर्ष लेखन
सादर अभिन्दन।
मधुलिका शर्मा
जीवन के बहुआयामी रंगो का ह्रदयस्पर्शी चित्रण। आदरणीय जोशी जी को साधुवाद। सादर,
वी.बी.सिंह
लखनऊ
सादर साभार आपका अंतर्मन से आभार
आपाधापी के इस दौर में भी लखनऊ की विरासत और तहज़ीब को कैसे सुरक्षित रखा है यह कोई आपसे सीखे. आपने सालों से मेरे हर लेख को बड़े मनोयोग से पढ़ मनोबल बढ़ाया है मेरा. सो हार्दिक हार्दिक धन्यवाद एवं आभार
🙏🙏🙏
बहुत ही मनोवैज्ञानिक ढंग से लिखी गई कहानी हार्दिक अभिनंदन
आप तो स्वयं बहुत विद्वान हैं. अत: आपकी बात बहुत मायने रखती है. सो सादर साभार आपका अंतर्मन से आभार.
अत्यंत मार्मिक व हृदय को छू लेने वाली कहानी। इस भौतिकतावादी व आपाधापी वाले युग में इन कोमल भावनाओं को सहेजना व उन्हें इस कुशलता से व्यक्त करना सचमुच प्रशंसनीय है।
विश्वास भाई, इतनी लंबी कहानी पढ़ना सचमुच साहस का काम है। जो आपने न केवल किया बल्कि विचार भी उकेरे। सो हार्दिक आभार
अन्तर्मन को छू लेने वाली संवेदना से पूरित,स्त्री मनोविज्ञान के सूक्ष्म भावों को उकेरती कहानी बहुत सारगर्भित एवं रोचक है।स्त्री मनोविज्ञान में कहीं-कहीं जैनेन्द्र जी की याद दिलाती है तो प्रणय पावनता में चन्द्रधर शर्मा गुलेरी जी की "उसने कहा था"।एक सम्वेदनशील कवि ,तेजस्वी वक्ता, दर्शन और प्रबन्धन पर कुशल लेखक की कलम से लिखी कहानी पढ़कर मन विभोर है।हार्दिक साधुवाद।
Speechless..
आदरणीय,
सालों बाद किसी सुधि सज्जन की बात ने अंतस को इतनी गहराई से छुआ। गुलेरीजी की कहानी 50 वर्ष बाद भी अंतर्मन में जीवंत तथा जाग्रत है। उस कहानी ने आज के दौर के सर्वथा विपरित तत्कालीन युवा वर्ग को निर्मल प्रेम का अद्भुत सन्देश दिया था। वही निस्वार्थ संवेदनशीलता आज फिर झलकी है आपके सोच में। बहुत जज़्बाती उद्गारों के साथ प्रवाहित होने का सौभाग्य मिला आज। सो सादर साभार अंतर्मन से आपका आभार : विजय जोशी 🙏🏽
- जीवन क्या भावों की नगरी
- विश्वासों की छोटी गगरी
- थाह नहीं है इसकी प्रियतम
- जितनी खोजो उतनी गहरी
(उसी दौर में लिखा था) 🌷
पुनश्च : यदि आप अपने नाम का उल्लेख भी करते तो आनंद दोगुना हो जाता. सो कृपया अब साझा करने की अनुकंपा कीजिये
प्रिय विजेंद्र, हार्दिक धन्यवाद. सस्नेह
अंतरमन को भावविभोर कर देने वाली कहानी
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