मंगल ग्रह पर पानी
- सुशील यादव
बेटर-हाफ ने लगभग अंतिम चेतावनी का
ऐलान किया, खाना लगा रही हूँ, अब आते हैं, या वहीं नेट में थ्रू 'व्हाट्स-एप’ भिजवा दूँ? पता
नहीं सुबह से शाम क्या सर्च करते रहते है, जो खतम होने का
नाम नहीं लेता?
बताएँगे
भी, सुध-बुध खोकर, जी-प्राण देकर, वहाँ ऐसा क्या देखते रहते हैं...?
इतना कभी, अपनी गुमी हुई बछिया को ढूँढ़े होते
तो, आज बकायदा उसकी दूसरी पीढ़ी के दूध खाते-पीते रहते।
उसके
तरकश से, अगला तीर निकले, इससे पहले बोल पड़ता हूँ, तुम साइंस नहीं पढ़ी हो न,
क्या समझोगी...? नेट में क्या-क्या नहीं है?
नेट-वेट की चेटिंग-सर्फिंग करके देखो, पड़ौसियों
की चुगली-चारी की जुगाली भूल जाओगी !
चलो...!
चेटिंग-सर्फिंग, बाद में होते रहेगी,
खाना लगा रही हूँ, खाते-खाते बात कर लेंगे।
एक
संस्कारी भारतीय नारी ने, अपने
सुहाग-श्री के सम्मुख झिझकते हुए, खिचड़ी परस दी। मैंने
कोफ्त में कहा आज फिर खिचड़ी? किसी रोज, रात का खाना, ढँग का तो खिला दिया करो? हद करती हो इसी खाने के लिए इतनी देर से चिरौरी कर रही थी...?
खाना
ढँग का अगर माँगते हैं, तो जनाब,
ज़रा मार्केट से तरकारी, भाजी, मछली, अंडा, प्याज, पनीर और टमाटर ला के फ्रीज में डाल भी दिया करें? मुझे
पकाने की फुरसत ही फुरसत है।
देखो !
खाने-खिलाने का रंग-ढंग बदलो नहीं तो मैं, 'मंगल’ की तरफ चल दूँगा कहे देता हूँ? अपने विद्रोह का पहला बिगुल फूँक दिया।
क्या
ख़ाक, मंगल भाई के पास जाएँगे?
बड़ा
घरोबा पाले रखते थे न? ट्रासफर हो के
गये, आज तीसरा-महीना चल रहा है, मुड़कर
नहीं देखे वे लोग? सब मतलबी होते हैं, ऐसों
के क्या मुह लगना? फिर ये क्या अचानक, आपको
उन तक जाने की सूझ रही है? हाँ अब अगर जा ही रहे हैं तो,
वापिस आते समय अपना टिफिन, गिलास चम्मच लाना
मत भूलना। हमने 'मंगलीं महारानी’ को
जाते समय, खाना पैक कर के दिया था, उनको
कायदे से सामान वापस भिजवाने की नहीं बनती क्या?
अरे मै
'पांडे वाले मंगल’ की नहीं कह रहा हूँ डोबी ...! मंगल ग्रह की बोल रहा हूँ... मंगल ग्रह ...
वो... उधर... ऊपर आसमान देख रही हो? वो जो यहाँ से करोड़ो
मील दूर है। नव-ग्रहों में से एक, उसकी ...समझीं?
इधर
तुम, मेरी रोज की चिक-चिक से परेशान
रहती हो न...? रिटायरमेंट के बाद न समय पर शेव करता हूँ,
न नहाता हूँ, न खाता हूँ। दिन भर, घंटे दो घंटे बाद, तुम्हे तंग करने के नाम, चाय की फरमाइश किये रहता हूँ? ऊपर से, ये लैपटॉप को दिन-रात गले लगाए फिरता हूँ सो अलग ...अब इन सब से एकमुश्त
छुटकारा पा लोगी, क्यों ठीक रहेगा कि नहीं?
तुम्हे
मालूम है, वैज्ञानिकों ने मंगल में पानी
ढूँढ़ निकाला है। पानी का मतलब वहाँ जीवन बसने-बसाने के आसार पैदा हो गए हैं। बहुत
सारी एजेंसियाँ 'मंगल गढ़Ó में जाने
वालों की बुकिंग शुरू करने वाले हैं। अच्छी-अच्छी स्कीम चल रही है। एक के साथ एक
फ्री वाला भी है ...क्यों चलोगी? हाँ टिकट मगर एक साइड का ही
मिलेगा।
वो ऐसा
है कि उधर बस जाना ही जाना होगा वापिसी के लिए अभी कोई शटल- यान डिजाइन नहीं हुआ
है। जाने वाले उत्साही-स्वैच्छिक लोगों की कतार, अभी नहीं लगी है इसलिए रियायती दर का ऐलान हुआ है।
जिनके
बैंक खाते में फक्त बीस-लाख है, वे एप्लाई
कर सकते हैं। 'नासू-मेनेजमेंट’ पांच सौ
प्रतिशत की सब्सीडी देगी। हम इडियन मेंटीलिटी वे जानते हैं। 'सब्सीडी’ के नाम पर बिछ-बिछ जाते हैं। सेल और
डिस्काउंट के नाम पर घटिया चीजों को बटोरना जैसे अपनी आदत बन गई है। खाने-पीने के
सामान में, एक में एक फ्री का आफर मिले तो हर वो चीज खरीदने
की कोशिश करते हैं, जिसके नहीं खरीदने से सैकड़ों बीमारी से
बचा जा सकता है।
बोलो 'बुक’ करा दूँ?
स्पेशल-वगैरा
तो कुछ भी नहीं, उलटे वहाँ कष्ट ही कष्ट है।
जैन मारवाड़ी लोगों को संलेखना-संथारा करते देख के मेरे मन में विचार आया, कि जीवन को समाप्त करने का 'मंगल-अभियान’ भी एक तरीका हो सकता है। वहाँ अभी फिलहाल पानी है बस। वहाँ की ग्रेविटी
यहाँ से कम है, हम अस्सी किलो के जो यहाँ हैं उधर
अस्सी-ग्राम के हो रहेंगे।
इतना
वजन उधर जाते ही कम हो जाएगा ..अरे वाह? तब तो अच्छा है ...अपने 'मोटे-फूफा’ को भी साथ ले जाना। वे सब प्रयोजन कर डाले, वजन कम
होने का नाम ही नहीं लेता उनका। अब उनके बारे में, यूँ कहें
कि, बाहर निकले पेट देख के, आठ नौ
महीने की गर्भवती का चेहरा घूम जाता है तो बड़ी बात नहीं होगी।
अच्छा
ये तो बताओ, उधर आप रहोगे कहाँ...भला
खाओगे क्या? इधर नाश्ते में दस मिनट देर हो जाती है तो आप
आसमा सर पे उठा लेते हो...बोलो गलत कह रही हूँ?
इसी एक
प्रश्न ने मुझे खुद भी 'खासा’ परेशान कर रखा है।
मैंने
कहा, नाशपिटों ने एक रिसर्च विंग इस काम
पर लगा दिया है। वे लोग तरह तरह की, होम्योपैथी गोली,
माफिक गोलियाँ तैयार करने में लगे हैं। अलग-अलग स्वाद वाली गोलियाँ
किसी में बिरयानी, कहीं इडियन रोटी, इतालियन
पिज्जा, चाइनीज नूडल्स और तो और देशी फाफडा, जलेबी, गुलाब जामुन, इडली,
बड़ा, साम्भर, ये सब। वे
उधर जाने वाले आदमी और उनके देश की आवश्यकतानुसार सबमे बाँट दिए जायेंगे। नाशपिटे
मार्कटिंग में बड़े तेज रहते हैं।
रहने
के लिए वहाँ एक केपसूल होगा, जो बाहर
की तेज हवा, ठंड,धूल की आँधी से बचाव
करता रहेगा। नाशपिटे के लोग नीचे से स्क्रीन में बताते रहेंगे, कब क्या करना है। उधर ये लैपटॉप, मोबाइल सब बेकार हो
जाएँगे। किसी का कोई काम और रोल नहीं रहेगा।
वहाँ
पेट्रोल नहीं है, वरना पुरानी
लूना ले जाता, खैर आसपास चक्कर मारने के लिए सायकिल तो रखवा
लेंगे।
वहाँ
की फसल कैसी होगी, ये गौर करने की
बात होगी।हम अपने देश की लौकी सेमी, मिर्ची आदि के बीज ले
जाने की अनुमति ले लेंगे। अमेरिका वाले आनाकानी किये तो भी देशी स्टाइल में,
चोरी छिपे ले जाने की कोशिश कर देखेंगे।
एक बात
तो तय है कि इधर के निखट्टू को भी उधर नोबल पुरस्कार से नवाजा जा सकता है बशर्ते
किसी के प्रयास से सेम के बीज से, पहली बेल,
मंगल की जमीन में सनसनाते हुए उग जाए?
पत्नी
का चेहरा रुआसा सा हो गया। आँखे पोछते सुबकते हुए बोली क्या जरूरत है उधर जाने की, संथारा के चक्कर में क्यों पड़ते हो जी? रुखी सूखी जो अपनी जमीन में मिल रही है उसी में संतोष करो ना जी ...उसके
हर वाक्य के अंत में 'जी’ लगते हुए
काफी अरसे बाद सुना तो, शादी के शुरुआती दिन याद आ गए।
फिर
थाली को हाथ से वापस खीचते हुए बोली, ये खिचड़ी हटाओ मै आप के लिए शुद्ध-घी का आलू पराटा, बस दस मिनट में तैयार करती हूँ। शुद्ध-देशी-घी का स्वाद मुझे अपने अभियान
से कोसो दूर करके रख देगा, मेरी कमजोर नब्ज टटोलने में वो
माहिर सी हो गई है। घी की भीनी भीनी खुशबू हवा में तैरने लगी।
मैं
अपने लैपटॉप में, फिर से बिजी हो
गया।
सम्पर्क- न्यू आदर्श नगर दुर्ग
(छत्तीसगढ़)
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