- कविता मालवीय
रोज़
दिमाग
चक्रव्यूह
के तोड़ समझाता है
और
यह अभिमन्यु- सा दिल
उसमें
से निकल नहीं पाता है
दुरभिसंधि
पत्थरों
को ढो-ढो के भी
कमर
में एक बल न पड़ा
सम्बन्धों
के ढोने से
दिल
पर पड़ी सिलवटों को
रोज़
ढोते हैं हम
बद्दुआ
भगवान
करे किसी अमीर का
ग्लानिबोध
उसे खूब सताए
इस
बहाने
किसी
गरीब का एक वक्त का
काम
बन जाए
दुआ
बुरे
कर्मों की सज़ा
तुम्हें
जल्द मिल जाए
खुदा
करे तुम्हें इश्क हो जाए
सदाचार
सद्
है उनका आचार
बाहर
से हैं एक
अन्दर
से हैं चार
लेखक
अपने बारे में- जन्म तिथि -1/9/1966
प्रकाशन-पुस्तक
और पुरस्कार को पसंद नहीं मेरे आचार,
पत्रिकाएँ-
कादम्बिनी, समाज
कल्याण, National Seminar on general dis balance (यूनिवर्सिटी ऑफ इलाहाबाद) की पत्रिका इत्यादि। सम्पर्क:vv, wim van aalstraat Paramaribo, Suriname (south America)
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