देवारी के गउरा परब
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संजीव तिवारी
छत्तीसगढ़
में भारत के अन्या प्रदेशो की भाँति दीपावली का त्योहार बड़े उत्साह एवं धूम धाम
से मनाया जाता है। अलग अलग प्रदेशों में त्योहारों को मनाने की अपनी अलग-अलग लोक
परम्परा है। छत्तीसगढ़ में भी इस त्योहार को मनाने की अपनी एक विशिष्ठ परम्परा है
जो इस प्रदेश के कृषि आधारित जीवन को प्रदर्शित करता है। श्रम के प्रतिफल स्वरूप
प्राप्त धन-धान्य रूपी लक्ष्मी के घर में आने का उत्साह, लोक मानस को स्वाभाविक रूप से
उत्सव मनाने के लिए विवश करता है। यही भाव लोक आराधना का दीपोत्सव बनता है जो
छत्तीसगढ़ में राउत नाच एवं गौरा उत्सव के
रूप में सामने आता है। यह धान्य देवी के घर में आने का समय होता है अत: गाँव वाले
अपने घरों को लीपते- पोतते हैं और रात्रि में एकाधिक दीप जलाते हैं। धनतेरस यानी सुरहुत्ती के दिन से दीपावली यानी
देवारी तक घरों, गौठानों, खलिहानों में
दीप आलोक फैलाते हैं।
छत्तीसगढ़
में राउत नाच के गुडदुम और दोहों के स्वर दशहरा के बाद से ही सुनाई देनें लगते हैं
जो यादवों का प्रमुख लोक नृत्य है। इन्हीं
स्वहर लहरियों के साथ ही रात में महिलाओं के सामूहिक स्वर में गौरा गीतों
की गूँज भी बिखरती है। कार्तिक मास में
छत्तीसगढ़ के प्रत्येक गाँव में गउरा पूजा की परम्परा है, मान्यता है कि आरंभिक
अवस्था में यह गोंडों के द्वारा मनाया
जाता था, कुछ लोग इसे सारथी जाति के लोगों के द्वारा आरंभ
किया हुआ मानते हैं। वर्तमान स्वरूप में गउरा पूजा की इस परम्परा को सामूहिक रूप
से प्रत्येक जाति और धर्म के लोग मना रहे हैं। यद्यपि गउरा पूजा के मूल विधि
विधानों का दायित्व, अब भी अधिकाशंत: गाँवों में गोंड या सारथी
लोग ही निभाते हैं। भारत के अन्यध क्षेत्रों में राजस्थान के मीणा समुदाय के लोगों
के द्वारा लगभग इसी प्रकार से गउरा उत्सव मनाये जाने की परम्परा है।
छत्तीसगढ़
में गउरा पूजा का आरंभ दशहरे के दिन से आरंभ होता है। इस दिन गाँव के बीच में बने
चबूतरे जिसे सामान्य गउरा चौंरा कहते हैं, एक
छोटा गड्ढा खोदकर मुर्गी का अण्डा, तांबें का सिक्का व सात
प्रकार के फूल को सात महिलाएँ मूसल से कुचलती हैं। इस परम्परा को 'फूल कुचरना´ कहा जाता है और इसी
के साथ 'गउरा पूजा´ आरंभ हो जाता है। चबूतरे पर फूल कुचले गए
गड्ढे को बेर की कँटीली डंगाल से ढककर उस पर एक पत्थर रख दिया जाता है ताकि इस स्थान को कोई अपवित्र ना करे।
इस
दिन से दीपावली तक प्रत्येक संध्या उक्त स्थान पर महिलाओं के द्वारा गौरा गीत गाए
जाते हैं। दीपावली के दिन,
गाँव के किसी पवित्र स्थान से मिट्टी खोदकर लाई जाती है और बढ़ई के
द्वारा बनाएँ गए लकड़ी पर गाँव के किसी व्यक्ति के घर में शिव व पार्वती की
प्रतिमा बनाई जाती है। शिव का वाहन बैल और पार्वती का वाहन कछुआ बनाया जाता है।
दोनों का शृंगार चमकीले कागजों और धान की बालियों से की जाती है। प्रतिमा- निर्माण के बाद दोनों का विवाह पारम्परिक रूप से आरम्भ करने के पूर्व
गाँव के बइगा, प्रतिष्ठित जन आदि को बुलाने के लिए बाजे-गाजे
के साथ लोग उनके घरों में जाते हैं-
गउरा
पूजा के इस लोक परम्पंरा में जो 'गउरा गीत गाए जाते
हैं उन्हें महिलाएँ ही गाती हैं। गीत में संगत गाँव के सहज
उपलब्ध वाद्य मोहरी, सींग बाजा, दफड़ा,
झांझ, मजीरा और मांदर आदि होते हैं। गउरा
गीतों में मुख्यतया शिव पार्वती के शृंगार वर्णन, देवी
देवताओं का आह्वान, पूजा और विवाह से संबंधित व्यक्तियों से
सहयोग की प्रार्थना, महादेव की बारात का वर्णन आदि आता है। यह गीत, नृत्य
प्रधान लोक गीत नहीं है ;किन्तु इन गीतों में वाद्य के साथ जो आध्यात्मिक प्रभाव उत्पन्न
होता है,उससे नृत्यन स्वाभाविक रूप से प्रकट हो जाता है। कहते हैं कि नृत्य उत्साह
के क्षणों को व्यक्त करने का भाव है, तो इस लोक गीत में गौरा-गौरी के विवाह का
उत्साह समय-समय पर नृत्य में बदलता है।
मिट्टी
से मूर्ति का निर्माण होता रहता है, गीत वाद्य के साथ गाए जा रहे हैं और अचानक
मूर्ति के आकार लेते ही लोक को ज्ञात होता है कि यह तो हमारे ईश्वर शिव हैं,
इनका अवतार हो गया। बढ़ई के द्वारा लकड़ी को खराद कर बनाये गए साँचे
के सहयोग से बाम्बीक की मिट्टी से शिव
प्रकट होते हैं और लोक कंठ से स्वर फूटता है।
धिमिक-धिमिक
बाजा बाजे, कहंवा के बाजा बाजे
राजा हो मोर इसर देव, लेवत हे अवतारे
कहंवा
के बाजा आए कहंवा के इसर मोर जती
जनामना कहंवा लिए अवतार
कै तोला कून्दे
कुन्दकरवा,
के सच्चाय ढारे हे सोनार
भिंभोरा माटी मोर बहिनी जनामना,
बढ़ई
घर लेहेंव अवतार ........
शिव
की मूर्ति के निर्माण के बाद उसका शृंगार किया जा रहा है, मूर्ति के साथ साथ एक मंडप का
भी निर्माण किया जा रहा है जिसमें हंस, कबूतर आदि पक्षी सज
रहे हैं ऊपर में हनुमान झूल रहा है। मिट्टी आकार ले रही है और लोक स्वर में अपने ठाकुर देव को निरंतर जोहार रही है-
जोहार-जोहार मोर ठाकुर देवता
ठाकुर
देवता के मढ़ी लता छवावै
ढूलेवा परेवा हंसा
तरी झूले हंसा परेवा
उपर
झूले हनुमान
हंसा
ला देबो हम मूंगा मोती
परेवा
ला चना के दार
जोहार-जोहार
मोर ठाकुर देवता ........
मिट्टी
के मूर्ति को सजाने के बाद विवाह आरंभ हो गया है कुछ वैवाहिक कार्यक्रम सम्पन्न हो
गए है। रात भी आधी हो गई है, गाँव वालों के साथ ही गउरा गउरी ऊँघ रहे हैं। लोकगीत सभी
को चैतन्य करने के लिए स्फुटित होता है -
एक
पतरी रैनी झैनी
राय
रतन दुरगा देबी
तोर
सीतल छाँव माय
जागो गउरी जागो गउरा
जागो
सहर के लोग
झाँई
झूँई फूले झरे सेजरी बिछाए
सुनव-सुनव
मोर ढोलिया बजनिया
सुनव-सुनव
मोर गाँव के गौंटिया
सुनव-सुनव
सहर के लोग
जागो
गउरी जागो गउरा.........
बारात
आ गई, शिव के औघढ़ रूप और विचित्र
बरातियों को देखकर पार्वती की माता मैना रोने लगी। गीत गाती महिलाएँ प्रश्नोत्तर
शैली में गउरा गीत गाते हुए मैना और शिव
के बीच हो रही बातों को पदों में ढालती हैं -
हो
महादेव दुलरू बन अइस,
धियरी गउरा हासिन वो
मैंना
रानी रोए लागिस,
कइसे
पायेंव माथ के चंदा,
गंगा
कइसे पायेंव हो
तन
में साँप लगायेव कइसे,
काबर भभूत रमायेंव हो
गउरा
बर हम जोगी बन गेन,
अंग
भभूत रमायेन वो
नांदी
बइला चढ़के बन बन,
अड़बड़ अलख जगाएन वो
आँवर
होगे भाँवर होगे,
खाएन
बरा सोंहारी वो
गउरा
महादेव इसर हमारे,
हमर
बाप महतारी वो .......
इसी
तरह के बीसियों पारंपरिक गउरा गीतों के साथ गउरा गउरी का विवाह सूर्योदय तक संपन्न
होता है। उसके उपरांत जूलूस के रूप में गौरा-गौरी को महिलाएँ सिर में उठा कर नदी
या तालाब की ओर विसर्जन के लिए निकलती हैं। इस जूलूस में गौरा गीत दैवीय उत्तेजना को
बढ़ाता है और साथ चलने वाले भावातिरेक में नाचने लगते हैं जिसे गउरा चढ़ना कहते
हैं। महिलाएँ अपने बालों को खुला करके झूमने लगती हैं, पुरुष भी नृत्य करने लगते हैं।
इन्हें शांत करने के लिए साथ चल रहा बइगा
इन्हें वनस्पत्तियों की बेल से बने सोंटे से मारता है। जुलूस आगे बढ़ता है और गाँव
के लोग इसके साथ हो लेते हैं। नदी या तालाब में गउरा-गउरी का विर्सजन होता है और
गाँव के लोग अपने गाँव में खुशहाली के लिए प्रार्थना करते हुए अपने अपने घर की ओर प्रस्थान
करते हैं। प्रतीकात्मक रूप से शिव आराधना के उद्देश्य से, सम्पूर्ण
दीपावली की रात उत्साह और उमंग में, जागते लोग शिवपद प्राप्त होने की संतुष्टि के साथ अगले
त्योहार के इंतजार में जुट जाते हैं।
आवत
देवारी लहुर लउहा,
जावत
देवारी बड़ दूर,
जा
जा देवारी अपन घर,
फागुन
उड़ावै धूर।
संपर्क:
सूर्योदय नगर, खण्डेलवाल कालोनी, दुर्ग (छ.ग.) मो. 09926615707
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