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Jun 5, 2021

स्वास्थ्य- काली फफूँद का कहर: म्यूकरमायकोसिस

 -डॉ. भोलेश्वर दुबे, डॉ. किशोर पवार

करीब डेढ़ साल से पूरी दुनिया में वायरस जनित रोग कोविड-19 से त्राहि-त्राहि मची हुई है। कोविड-19 से जैसे-तैसे मरीज़ अपनी जान बचाकर राहत महसूस करे उसके पहले ही एक और विकट समस्या उसे घेर लेती है। यह नई समस्या पिछले कुछ महीनों से व्यापक असर दिखा रही है। यह एक अत्यंत साधारण और आम तौर पर हमारे आसपास पाई जाने वाली फफूँद (ब्रेड मोल्ड) की देन है। इन दिनों इससे होने वाले रोग म्यूकरमाइकोसिस के संदर्भ में यह ब्लैक फंगस के नाम से जानी जा रही है।

ब्लैक फंगस या काली फफूँद सामान्यत: बासी रोटियों, ब्रेड, सड़े-गले पदार्थों, चमड़े की चीज़ों, गोबर, मिट्टी और नमी वाले स्थानों पर पाई जाती है। कवक विज्ञान की दृष्टि से ये ज़ायगोमाइकोटिना समूह की सदस्य हैं जो मुख्य रूप से मृतोपजीवी हैं (यानी सड़ते-गलते पदार्थों से पोषण प्राप्त करती हैं)। अपवादस्वरूप ये दुर्बल परजीवी की तरह व्यवहार करती हैं। इनका शरीर महीन सफेद तंतुओं के जाल से बना होता है और पर्याप्त पोषण और अनुकूल पर्यावरण में ये असंख्य गहरे भूरे या काले बीजाणु का उत्पादन करती हैं। ये बीजाणु ही फफूंद के फैलाव और रोग के कारण बनते हैं।

दुर्बल माने जाने वाले ये परजीवी भी इन दिनों उग्र रूप धारण कर चुके हैं। इस रोग के कारण कई लोगों को अपनी आँखें गँवाना पड़ी हैं, लकवा हो गया और यहाँ  तक कि कई लोगों की जान भी जा चुकी है।

यह फफूँद रक्त वाहिनी में घुसपैठ करती है और नाक, आंख, फेफड़ों, मस्तिष्क और गुर्दों सहित शरीर के प्रमुख अंगों को नुकसान पहुँचाती है। पूरे विश्व में म्यूकरमाइकोसिस पैदा करने वाली प्रमुख फफूंद राइज़ोपस ओराइज़ी है। इसके अलावा अलग-अलग भौगोलिक क्षेत्रों में इसी वर्ग के म्यूकर सहित 11 वंश और 27 प्रजातियाँ मनुष्य में संक्रमण का कारण बनती हैं।

हवा में उपस्थित बीजाणु जब सांस के माध्यम से मानव शरीर में पहुँचते हैं तो ये संक्रमण की शुरुआत कर सकते हैं।  म्यूकरमाइकोसिस का संक्रमण उन व्यक्तियों में जल्दी हो जाता है जिनको डायबिटीज़ अथवा रक्त सम्बंधी कोई गंभीर रोग हो, या जिनका अंग प्रत्यारोपण हुआ हो। कॉर्टिकोस्टेरॉइड (बीटामेथेसोन, प्रेड्निसोलोन, डेक्सामेथेसोन वगैरह) उपचार ले रहे व्यक्तियों में भी इस रोग की संभावना अधिक होती है। एशियाई देशों में डायबिटीज़ इस रोग का खतरा बढ़ाने वाला सबसे प्रमुख कारण है, वहीं रक्त रोग और अंग प्रत्यारोपण युरोपीय देशों और अमेरिका में इस रोग का खतरा बढ़ाते हैं।

वर्तमान परिदृश्य में वैश्विक स्तर पर म्यूकरमाइकोसिस के प्रकरणों में वृद्धि हो रही है मगर यह वृद्धि भारत और चीन में बहुत अधिक है क्योंकि यहाँ अनियंत्रित डायबिटीज़ के मरीज़ों की संख्या ज़्यादा है। अलग-अलग अध्ययनों में पाया गया है कि भारत में इस रोग से संक्रमित 57 प्रतिशत लोग अनियंत्रित डायबिटीज़ से ग्रस्त थे वहीं वैश्विक स्तर पर यह प्रतिशत 40 के आसपास है। भारत में अधिक संक्रमण के पीछे एक कारण यह भी है कि यहाँ  की जनता नियमित स्वास्थ्य जाँच नहीं करवा पाती है और डायबिटीज़ के प्रति भी लापरवाही बरती जाती है। यह म्यूकरमाइकोसिस संक्रमण को न्योता देने जैसा है।

भारत में कई गहन चिकित्सा इकाइयों पर किए गए अध्ययन में पाया गया कि इनमें से 24 प्रतिशत में म्यूकरमाइकोसिस संक्रमण उपस्थित था। भारत में इस संक्रमण की दर बहुत अधिक है। यहाँ  प्रति वर्ष नौ लाख लोग इससे संक्रमित होते हैं जबकि शेष विश्व में दस हज़ार लोग ही प्रति वर्ष संक्रमित होते हैं।

अध्ययन में यह भी पाया गया है कि इस संक्रमण में लौह तत्व की अधिकता और डीफेरोक्सामाइन उपचार की भी बड़ी भूमिका है। पहले डायबिटीज़ जन्य कीटोएसिडोसिस, डाएलिसिस और गुर्दे खराब होने की दशा में लौह तत्व की अधिकता को नियंत्रित करने के लिए डीफेरोक्सामाइन का काफी उपयोग किया जाता था। डीफेरोक्सामाइन के द्वारा अलग किया गया लौह तत्व राइज़ोपस द्वारा पकड़ लिया जाता है, जिससे इस फफूंद की अच्छी वृद्धि होने लगती है। ऐसे रोगियों की मृत्यु दर 80 प्रतिशत तक होती है।

म्यूकरमाइकोसिस के मामले संदूषित उपचार उपकरणों और चिपकने वाली (एडहेसिव) पट्टियों के कारण भी बढ़ते हैं। अमेरिका के अस्पतालों में उपयोग किए जाने वाले कपड़े और बिस्तर संदूषित पाए गए और उनमें राइज़ोपस की प्रजातियाँ मिलीं।

कुछ मामलों में म्यूकरमाइकोसिस से होने वाली मौत का आँकड़ा बहुत अधिक है: शारीरिक रूप से कमज़ोर, गंभीर बीमारी से अभी-अभी ठीक हुए, सर्जरी करवा चुके, कैंसर, एड्स से पीड़ित और रोग प्रतिरोधक क्षमता की दिक्कतों से जूझ रहे रोगी।

आज के हालात में म्यूकरमाइकोसिस के भारत में लगातार बढ़ते मामलों के पीछे रोगियों की कमजोर पड़ चुकी प्रतिरोधक क्षमता और गंभीर रोग से ग्रस्त होना तो एक कारण है ही किंतु विगत कुछ माह से कोविड-19 के प्रकरणों में अप्रत्याशित वृद्धि के कारण पूरे चिकित्सा तंत्र में जो अफरा-तफरी मच गई, उसके चलते अस्पतालों द्वारा स्वच्छता की अनदेखी संक्रमण को विस्फोटक स्थिति में पहुँचाने का एक प्रमुख कारण माना जा सकता है। ऑक्सीजन प्रदाय उपकरणों, बिस्तरों आदि की समुचित सफाई ना होना भी इस संक्रमण को बढ़ाने में सहायक रहा।

एक कारण यह भी बताया जा रहा है कि आनन-फानन औद्योगिक ऑक्सीजन का उपयोग अस्पतालों में किए जाने की वजह से भी फफूँद संक्रमण में वृद्धि हुई है। आक्सीजन की भारी डिमांड देखते हुए उद्योगों में प्रयोग होने वाले ऑक्सीजन, नाइट्रोजन, आर्गन व नाइट्रोजन गैसों के सिलेंडरों में गैस भरकर अस्पतालों में पहुँचाना पड़ा। लेकिन इन्हें अस्पतालों में भेजने से पहले पूरी तरह कीटाणु रहित नहीं किया जा सका। डाक्टरों का कहना है कि ऑक्सीजन आपूर्ति की पाइपलाइन व ह्यूमिडीफायर में फंगस जमा होने व कंटेनर में साधारण पानी का उपयोग करने से भी बीमारी बढ़ी। वैसे अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान ने स्पष्ट किया है कि ऑक्सीजन उपचार और फफूँद संक्रमण के बीच निश्चित सम्बंध नहीं देखा गया है। संस्थान का मत है कि इसके पीछे डायबिटीज़ और स्टेरॉइड चिकित्सा की भूमिका हो सकती है।

फूँद जन्य रोग हवा में इनके बीजाणुओं की उपस्थिति या संदूषित चिकित्सा सामग्री के माध्यम से फैलते हैं। अत: अब प्राथमिकता के आधार पर सभी अस्पतालों और वहाँ  की सामग्री की स्वच्छता सुनिश्चित की जानी चाहिए ताकि बिना महंगे इलाज के लोगों को इस संक्रमण से बचाया जा सके।

उपचार से बचाव बेहतर

कुछ सावधानियाँ हैं जो इस कवक के जानलेवा संक्रमण से बचा सकती हैं:

अस्पताल के उपकरणों के अलावा ब्लैक फंगस सूक्ष्म बीजाणुओं द्वारा मुंह और नाक के रास्ते प्रवेश करती है। अत: बचाव का एक तरीका घर पर भी मास्क का उपयोग करना है। मास्क गीला ना हो और कपड़े का हो तो बेहतर।

विशेषकर डायबिटीज़ मरीज़ों के लिए मास्क बहुत उपयोगी हो सकता है।

घर पर या ऑफिस में जब सफाई की जाती है तब ट्रिपल लेयर मास्क लगा ही लेना चाहिए क्योंकि इस दौरान उड़ने वाली धूल के कणों में विभिन्न प्रकार की फफूंद के बीजाणु पाए जाने की संभावना ज़्यादा होती है।

कवक के संक्रमण का एक और स्रोत कूलर के पैड भी हैं क्योंकि वहाँ लगातार नमी फफूँद की वृद्धि के लिए अनुकूल पर्यावरण उपलब्ध कराती है। 

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