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Feb 21, 2013

खेती

दरकती नींव पर विकास की इमारत

- अमित वर्मा
हे ग्राम देवता! नमस्कार!
सोने चाँदी से नहीं किंतु,
तुमने मिट्टी से दिया प्यार।
हे ग्राम देवता! नमस्कार!
1948 में डॉ. रामकुमार वर्मा जी द्वारा रचित ये श्रद्धासुमन उन किसानों को अर्पित है जो सम्पूर्ण राष्ट्र की रोटी का इंतजाम करते है। डॉ. रामकुमार वर्मा जी के बेहद भावुक कर देने वाले ये शब्द गावों में अँधेरी जिन्दगी जी रहे किसानों का दिल जीत लिया करते थे, फिर पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने नारा दिया- 'जय जवान जय किसानतब शायद किसी ये ख्वाब में भी नहीं सोचा था कि एक दिन भारत में फौज के जवान और गाँव के किसान दोनों ही अपनी धार गंवा बैठेंगें। पर किसानों की विडम्बना देखिये कि निरंतर परिवर्तित इस दौर में चंद पैसों के लालच में भारत के सनातनी और ऋषि कृषि परम्परा को बाजारू कृषि बना दिया गया। विकासशील देशों के साथ भारत के किसानों की दुर्दशा की कहानी उन दिनों शुरू हुई जब भारत ने 1995 में विश्व व्यापार संगठन के तहत कृषि समझौते पर अपने हस्ताक्षर किए। आज मैं कुछ ऐसे अनुभव किसानों के समक्ष प्रस्तुत करना चाहता हूँ जो वाकई विचारणीय है।
मैं अमित वर्मा लखीमपुर खीरी उत्तर प्रदेश के सकेथू (नीमगाँव) नामक गाँव के एक किसान परिवार से सम्बन्ध रखता हूँ मेरा परिवार लगभग 8 दशकों से कृषि से जुड़ा हुआ है अगर कृषि उपलब्धियों की बात कि जाये तो मेरे बाबा जी की कृषि अभिरुचि को देखते हुए पूर्व राष्ट्रपति स्व.राजेन्द्र प्रसाद जी द्वारा भारत दर्शन हेतु वर्ष 1956 में जिले से भेजा गया तदुपरान्त उनमें कृषि के प्रति नई ऊर्जा का संचार हुआ और गेहूँ उत्पादन में उन्हें वर्ष 1958- 59 में उत्तर प्रदेश में द्वितीय स्थान प्राप्त करने का गौरव भी प्राप्त हुआ।
वर्ष 1981 में विधि की पढ़ाई के उपरान्त मेरे पिता ने भी कृषि में रुचि दिखाई और वकालत छोड़ कृषि को समर्पित हो गए, जिसके फलस्वरूप वर्ष 2005 में बागवानी के क्षेत्र में जनपद में प्रथम स्थान प्राप्त होने पर मा.कृषि मंत्री (उप्र) डा. अशोक बाजपेयी द्वारा पुरस्कृत किया गया एवम 2007 में कृषि विविधीकरण में उत्कृष्ट योगदान हेतु बायोवेद रिसर्च सोसायटी, 103/42 एम एल एन रोड, इलाहाबाद द्वारा आयोजित 9वें भारतीय कृषि वैज्ञानिक एवं किसान कांग्रेस सम्मलेन (29- 30 जनवरी, 2007) में सर्वश्रेष्ठ किसान पुरस्कार से भी नवाज़ा गया, दिल्ली दूरदर्शन ने उनके द्वारा गन्ने में किये जा रहे नए प्रयोगों पर एक 'किरणÓ नामक डाक्यूमेन्टरी भी बनाई।
मैं जो की एक सॉफ्टवेर इंजीनियर हूँ... अपने जहन में ये अहसास पाले बैठा था कि कभी अपनी कृषि योग्य जमीन नहीं बेचूँूंगा और हर सम्भव प्रयास करके उस परम्परा को कायम रखूँगा जिसे मेरे पूज्य बाबा जी और पिता जी ने बखूबी निभाया। पर सि$र्फ दो साल में ही मेरा परम्परागत कृषि से मोह भंग हो गया। मुझे जो कुछ दिखा वह वास्तविकता से बिलकुल उलट था। गन्ना लखीमपुर खीरी की प्रमुख फसलों में से एक है, वैसे तो यहाँ खेतों में फल सब्जियाँ भी दिखती है पर 80 प्रतिशत किसान गन्ना उगते है यहाँ लगभग तीन लाख हेक्टेयर भूमि पर करीब डेढ़ करोड़ टन गन्ने की उपज होती है, सुनने में बहुत बड़ी मात्रा लगती है लेकिन किसान के हालात आज भी दो वक्त की रोटी से बेहतर नहीं।
आइये आपको इस गन्ने के सच से ही रू-ब-रू करवा दूँ- आमतौर पर यहाँ 300 से 325 कुन्तल प्रति हेक्टेयर गन्ने के उपज होती है जो की 250 रुपये प्रति कुन्तल के हिसाब से बेचा (चीनी मिलों को) जाता है । आइये अब इस एक हेक्टेयर पर होने वाले खर्च कि भी मोटे तौर पर गणना कर ली जाये, जहाँ तक मेरी जानकारी है एक हेक्टेयर में 45 कुन्तल गन्ना बतौर बीज (250*45= 11250 रुपये) उर्वरक [4 बोरी डीएपी (1230*4= 4920 रुपये) 9 बोरी यूरिया (380*9= 3420 रुपये) जिंक 20 किलोग्राम (25*20= 500 रुपये)], कीटनाशक 5000 रुपये, 5 बार की सिंचाई 200 लीटर डीजल(45* 200 = 9000 रुपये ), तीन जुताई (लागत 4500 रुपये ), मजदूरी - 3000 रुपये, कटाई 20 प्रति कुन्तल (325*20 = 7000 रुपये ) ढुलाई विक्रय केन्द्र तक (3000 रुपये ) इस प्रकार कुल योग होता है (11250 + 4920 + 3420 + 500 + 5000 + 9000 + 4500 + 3000 + 7000 + 3000 = 51590 रुपये ) और 325 कुन्तल का मूल्य होता है (325* 250= 81250 रुपये ) यानी  शुद्ध लाभ: 81250 - 51590 = 29660 रुपये। वो भी तब जब कोई दैवीय आपदा माथे न आ टकराए। यानी 29660 रुपये  के लिए इतना बवाल! और ये तो किसी ने देखा ही नहीं कि जाड़ों की बर्फीली रातों में किसान कैसे गन्ना काटकर कैसे विक्रय केन्द्र पर बेचता है- कुर्सी तोडऩे वालों को बहुत आसान लगता है ये सब, और ऊपर से चीनी मिलें समय से किसानों का भुगतान नहीं करती है। अब यहाँ मैं जानना चाहता हूँ कि जब एक हेक्टेयर में 51590 का खर्च आएगा तो अगली फसल में (जिसे हम पेड़ी के नाम से जानते है उसमे खर्च लगभग 22000 रुपये  कम हो जायेगा और उपज भी, फिर भी ये खर्च 29590 रुपये  होगा) ये खर्च किसान लाएगा कहाँ से? अगली फसल का खर्च निकलने के बाद अब रुपये बचते है 70, क्यों कैसी रही? फिर भी किसान उसी में जूझा है ये तो केवल गन्ने की बात है अगर गेहूँ, धान, दलहन, तिलहन की बात करूँ तो वो भी निराली है खैर...
हम गन्ना किसानों से तो वो अच्छे है जो पान की दुकान चलाते हैं। सन् 1972 के आस पास जब सरकार ने किसानों से उनकी फसलों को खरीदना शुरू किया तब सरकारी खरीद में गेहूँ का मूल्य लगभग 55 से 65 रुपये  प्रति कुन्तल (जिला लखीमपुर खीरी में- जिला कृषि अधिकारी, मंडी समिति एवं खाद्य एवं रसद विभाग के पास आकड़े उपलब्ध नहीं या वो देना नहीं चाहते) के बीच था, उस वख्त 1972 के आस पास एक प्राइमरी स्कूल के अध्यापक की तनख्वाह शायद ही 100 से 200 रुपये  के बीच ही प्रति माह रही हो पर आज सरकार की अजब नीतियों की वजह से वह जरूर 25 से 30 हजार प्रति माह पहुँच गई है पर किसान के गेहूँ की कीमत आज भी 1200 से 1400 रुपये  प्रति कुन्तल प्रति वर्ष के बीच अटकी है जरा हिसाब लगा कर देखें कि क्या किसान को एक प्राइमरी स्कूल के अध्यापक के जितने पैसे की जरूरत नहीं है? यह तो एक बहुत छोटा सा उदाहरण है ऐसे न जाने कितने और उदाहरण हैं जो मस्तिष्क को दीमक की भाति कुरेदते रहते हैं। वाह रे देश के हुक्मरानों.... वाह! यहाँ पर प्रश्न उठता है तो क्या किसानों को खेती बन्द कर देनी चाहिए? तो जनाब मेरा जवाब है 'हाँ’! क्यों चौक गए न? चौकना स्वाभाविक है, क्योंकि आँकड़े के लिए हम गन्ने की बात करें तो- हम गन्ना पैदा तो करते है पर एक हेक्टेयर गन्ने में जो बचता है उससे किसान खुद के लिए 2 किलोग्राम शक्कर भी नहीं खरीद सकता, खरीदते तो वो है जो एयरकंडीशन आफिस में बैठ कर किसानों पर रौब दिखाते है। बासमती उगाते तो हम है पर खाता वो वर्ग है जिसको ये तक पता नहीं कि इसका पौधा कैसा होता है। अब क्या-क्या कहूँ... हमारे देश में ऐसे लोगों को कृषि से जुड़े मुद्दों की नीतियों का क्रियान्वयन सौपा जाता है जिनको कृषि का 'Ó तक नहीं मालूम...जनाब एयरकंडीशन कमरों में कृषि की नीतियाँ तय नहीं की जा सकती, इसके लिए जमीन पर उतरना ही होगा कागज़ी सच और ज़मीनी सच में जमीन आसमान का अंतर है।
 किसानों की स्थिति में तब तक सुधार नहीं होगा, जब तक वह मेरी तरह बैठकर इसका आकलन नहीं करेगा कि वह कर क्या रहा है! किसान को दुनिया के सामने ऐसी परिस्थिति उत्पन्न करनी होगी, जिससे लोगों को उसकी वास्तविक अहमियत का अहसास हो... उसे परम्परागत खेती को छोड़ कर ऐसी फसलों को तरज़ीह देनी होगी, जिससे उसकी जेब तो भरे, पर किसी का पेट न भरे! (जैसे कि- हल्दी, अदरक, मेंथा, मिर्च, आवला, आम, अमरुद, नीबू, कटहल एवं कृषि वानिकी में बॉस, पापुलर, सागौन आदि) सागौन एक प्रतिबन्धित प्रजाति (काटने हेतु) का वृक्ष है जिसके काटने पर रोक है;  इसलिए इसे सीमित तरीके से लगाए, हाँ एक बात और जिसकी जानकारी बहुत ही कम लोगों को है कोई भी व्यक्ति अपने द्वारा लगाये गए किसी भी प्रतिबन्धित / गैर प्रतिबन्धित प्रजाति का एक वृक्ष प्रति वर्ष अपने स्वयं के इस्तेमाल के लिए काट सकता है  जिस पर वन विभाग को भी कोई आपति नहीं होगी- बस उसे वन विभाग को एक प्रार्थना पत्र देना होगा जिसे वन विभाग उसे काटने हेतु परमिट एक माह के भीतर जारी करेगा। यदि वन विभाग एक माह में परमिट जारी नहीं करता तो नियम में मुताबिक ये मान लिया जाए कि परमिट जारी है वह कटान कर सकता है 'पर ये भारत है अत: यहाँ सलाह दी जाती है कि किसी भी परेशानी से बचने हेतु वन विभाग से कटान परमिट जारी होने पर ही कटान करे।
किसान को गेहूँ, धान, दलहन, तिलहन उतना ही उगाना होगा जितना वह खुद खाए। सच कहता हूँ सरकार से लेकर इंसान तक सबकी आखें सिर्फ 6 महीने में खुल जाएँगी। जो कुछ मैंने कहा ये महज़ कागजी आँकड़ा नहीं है न ही कोई काल्पनिक कहानी। बस इस देश में किसान की वास्तविक स्थिति को दर्शाना ही इस लेख का वास्तविक उद्देश्य है।
हमारे सत्ता नायक यह भूल गए कि ये जमीनें और ये किसान इस देश की सम्पूर्ण जनता के अन्नदाता है परन्तु रियल स्टेट डेवलपर की भाँति सोचता ये शासनतंत्र सिर्फ अपनी तिजोरिया भरने में मस्त है। हमारे हुक्मरानों ने उदार नीतियों के नाम पर व्यवसायीकरण के रास्ते को अपनाते हुए किसानों के लिए ऐसी नीतियों को रचने का खेल शुरू कर दिया है जो मिट्टी से प्यार करने वाले ग्राम देवता के देवत्व को ज़मीदोज करने के लिए काफी है। नोट: इन आकड़ों में किसान की भूमि जिसकी कीमत लखीमपुर खीरी जिले में सबसे कम जोडऩे पर लगभग 22 लाख रुपये प्रति हेक्टेयर और किसान की 16 माह की मेहनत का आकलन नहीं किया गया है। गेहूँ एवं अन्य फसलों की सरकारी खरीद (प्रति वर्ष के सरकारी मूल्य जब से सरकार ने खरीद शुरू की तब से अब तक) के आकड़ों के लिए आरटीआई दाखिल है वास्तविक मूल्य के आँकड़ों का इंतजार है।

 लेखक के बारे में: जन्म 12 जनवरी 1980 दिन शनिवार को इस अपने जनपद मुख्यालय से 24 किलोमीटर दूर (पोस्ट: नीमगाँव) सकेथू ग्राम में, प्रारम्भिक शिक्षा कुँवर खुशक्तराय शिशु विद्यालय लखीमपुर शहर से शुरू करते हुए कक्षा आठ उत्तीर्ण की तत्पश्चात हाई स्कूल एवं इंटरमीडिएट लखीमपुर शहर के धर्म सभा इण्टर कालेज से उत्तीर्ण की, विश्व के सबसे बड़े मुक्त विश्वविद्यालय (इग्नू, नई दिल्ली) से स्नातक कंप्यूटर विज्ञान में एवं परास्नातक (कंप्यूटर एवं उसके अनुप्रयोग) की शिक्षा प्रथम श्रेणी के दर्जे से हासिल की। कुछ दिन एक सॉफ्टवेर कम्पनी में बतौर प्रोग्रामर नौकरी करने के बाद त्यागपत्र।
कृषि में कुछ नया करने की सोच ने मुझे इस ओर का रास्ता दिखाया...पर जब यहाँ खुद समर्पित हुआ तो परिणाम वास्तविकता से परे थे, बस यही से शुरू हुआ परम्परागत कृषि का परित्याग और जागरूकता अभियान! व्यवसाय: कृषि (विविधीकरण), बागवानी एवं वानिकी से सम्बन्धित।
संपर्क:मकान नम्बर: 03 संत निरंकारी भवन के पीछे (सरबती देवी कालोनी) बेहजम रोड, लखीमपुर खीरी- 262701 (उत्तर- प्रदेश), मोबाइल 9415542179, E-mail: avermaaa@gmail.com

6 comments:

anagarh said...

बोईन ऊख बहुत मन हरसा, किहिन हिसाब बचा का सिरका !
भाई ये कहावत मैं बहुत वर्षों से सुनते आ रहा हूँ ।
कृषि और कृषक की जिस विडंबना और समस्या को आप लगातार रेखांकित करते आ रहे हैं इसके तार मुझे बहुत उलझे लगते हैं । आपका लेख उन उलझनों को सुलझाने कि दिशा में एक सार्थक पहल लगता है ।

Unknown said...

विचार बहुत अच्छे हैं लेख भी अति सुन्दर सराहनीय एवं तथ्यात्मक है . बस एक कमी है लेख का अंतिम छोर नकारात्मकता से भर गया है लेख में किसानों की मजबूरियों को सही से उकेरा गया है परन्तु कोई समाधान नहीं बताया गया है .
वेद प्रकाश

Punit Sachan said...

अमित जी आपने बात तो सौ आना सही कही है. लेकिन इस देश में जहा शासन कान में रुई लगाकर बैठा है, किसानो को अपनी लड़ाई खुद ही लड़नी पड़ेगी. यहाँ मै कानपुर देहात के किसानो के बारे में कुछ तथ्य रखना चाहूँगा. कानपुर देहात गंगा और यमुना के बीच का वोह मैदानी भाग है जिसे भुगोल में सबसे ज्यादा उपजाऊ कहा गया है. येंहा की जमीन सभी प्रकार की खेती के लिए उपयुक्त है और किसी ज़माने में धान और गन्ने की खेती बहुतायत में की जाती थी. लेकिन सरकारी उदासीनता ने गन्ने की खेती में लगभग विराम लगा दिया है. यहाँ की सभी नहरे अब सूख चुकी है और पानी के लिए पूरी तरह से पम्पस पर निर्भर है. खेती की लागत इतनी ज्यादा बाद गयी है की नयी पीड़ी पूरी तरह से पलायन कर गयी है. खेती करना आज की तारीख़ में घाटे का सौदा हो गया है. इस सब के लिए किसान भी कुछ हद तक जिम्मेदार है. किसानो ने न तो खेती करने के तरीके बदले न ही कोई अलग फसल उगने की कोसिस की. आज का किसान पूरे सीजन में १०-१५ दिन काम करके बाकी दिन जुआ खेलने में व्यस्त रहते है. अब तो कोई चमत्कार ही यहाँ के किसानो के हालत सुधार सकता है.

अजनबी -सत्य said...

very nice brother ...its really very nice n i got many points from ur article .....great ...

अजनबी -सत्य said...

very nice .....and reality .....

अजनबी -सत्य said...

very nice ....n reality of farmer ....