आपमें से कितने लोग हैं, जो गर्मियों की रात में अपने घर के आँगन या छत पर खुले आसमान तले खाट डालकर चाँद और तारे देखते हुए सोए हैं? मेरी पीढ़ी के बहुत लोग ऐसे होंगे, जिन्होंने ऐसे पलों जिया होगा। हम गर्मियों की छुट्टियों में, जो तब दो माह की हुआ करती थी, अपने गाँव में बिताते थे। खपरैलवाला दो मंजिला घर, मिट्टी से छबाई की हुई मोटी- मोटी दीवारें और गाय के गोबर से लीपे हुए आँगन, बरामदा और फिर कमरे। कितनी भी तेज गर्मी हो, मिट्टी की मोटी दीवारों को भेद कर सूरज की गर्मी कमरों में घुस ही नहीं पाती थी।
रात के भोजन के बाद आँगन में कुएँ से पानी लाकर छींटा मारा जाता था, ताकि धरती की गर्मी थोड़ी कम हो जाए, फिर परिवार के प्रत्येक सदस्य के लिए खाट बिछाकर बिस्तर लगा दिया जाता और हम सब बच्चे किस्से- कहानियाँ सुनते, चाँद के छोटे- बड़े होते आकार के बारे में बातें करते और तारों की गितनी करते, सप्तऋषियों को ढूँढते हुए सपनों की दुनिया में सैर करते हुए चैन की नींद सो जाया करते थे। यह उस ज़माने की बात है, जब गाँव में बिजली भी नहीं पहुँची थी। तब पंखे की जरूरत भी महसूस नहीं होती थी। आप कल्पना ही कर सकते हैं कि तब का वातावरण कितना निर्मल और शुद्ध हुआ करता था। जाहिर है, हरियाली इतनी थी कि दिन की गर्मी की तपन शाम होते ही कम होने लगती थी और रात होते ही हवा ठंडी हो जाया करती थी। पीपल, बड़, आम, इमली और नीम के विशालकाय वृक्षों से घिरे गाँव में तालाब और पोखर इतने अधिक होते थे कि धरती का तापमान संतुलित रहता था।
पर यह सुख बहुत सालों तक नहीं रहा। धीरे- धीरे खपरैल के घर सिमेंट की पक्की छत में बदलते चले गए। मिट्टी के आँगन जो गोबर से लिपे- पुते कीटाणुरहित और स्वच्छ होते थे, फर्श में तब्दील होने लगे। गाँव के आस- पास के जंगल कटने लगे और धरती बंजर होने लगी। तालाब और पोखर भी सिमटते चले गए। लघु उद्योग- धंधों और कृषि पर निर्भर गाँव की अर्थव्यवस्था डगमगाने लगी। कुल मिलाकर गांधी जी ने ग्राम स्वराज्य का जो सपना देखा था, वह सब एक- एक करके ऊँची- ऊँची गगनचुम्बी इमारतों, धुँआ उगलते कल- कारखानों और सरपट दौड़ती मोटर- गाड़ियों के शोर तले कहीं दबती चला गया। ऐसे माहौल में ताजी और ठंडी हवा का झोंका आए भी तो कहाँ से आए। तभी तो अब हमारी पीढ़ी के लोग छत और आँगन में खाट डालकर सोने की बात किस्से कहानियों की तरह वर्तमान पीढ़ी को सुनाते हैं, और वे आश्चर्य के साथ कहते हैं कि मच्छरों की इस भनभनाहट में दो पल भी छत पर खड़े नहीं हो सकते, रात भर सोना तो दूर की बात है।
पर ऐसे किस्से- कहानियों को सुनाते हुए हमें यह भी याद रखना चाहिए कि साथ- साथ बच्चों को यह भी बताते चलें कि आखिर हम क्यों अब खुले आसमान तले सो नहीं सकते, क्यों बिना एयर कंडीशनर और पंखों के बिना जीवन गुजारना दूभर हो गया है ? विकास की इस अंधी दौ़ड़ में शुद्ध हवा, शुद्ध पानी और शुद्ध भोजन की कमी क्यों होते जा रही है? जब तक हम उन्हें इनके पीछे का सच सब नहीं बताएँगे, वे पुरानी गलतियों से सबक नहीं लेंगे।
यह तो सर्वविदित है कि जनसंख्या वृद्धि के कारण मनुष्य दिन-प्रतिदिन जंगल को काटते हुए जमीन पर कब्जा करते चले जा रहा है। खाद्य पदार्थों की आपूर्ति के लिए रासायनिक खादों का प्रयोग किया जा रहा है, जिससे हमारी उपजाऊ जमीन तो प्रदूषित हो ही गई है, इन रासायनिक कीटाणुओं ने धरती के जल भी प्रदूषित कर दिया है। जनसंख्या बढ़ी, तो यातायात के नए नए साधन भी बढ़े, जिसके कारण ध्वनि एवं वायु प्रदूषित इतना बढ़ा कि सुनने और साँस लेने में तकलीफ होने लगी। इन सबके चलते नई- नई बीमारियों ने मनुष्य को अपनी गिरफ्त में ले लिया है। इन सबका जिम्मेदार कोई दूसरा नहीं, हम स्वयं है, हमारी बदलती जीवनशैली है, हमारा बदलता खान- पान है।
सभ्यता के विकास के साथ- साथ मनुष्य ने कई नए आविष्कार तो कर लिये और उन्नति के अनेक सोपान भी पार कर लिये; परंतु औद्योगीकरण एवं नगरीकरण की बढ़ती इस प्रवृत्ति से धरती की आबो-हवा इतनी प्रदूषित होती चली गई कि हमने अपना जीवन ही असुरक्षित कर लिया। और अब इस समस्या से पूरा विश्व इस चिंता में है कि इसका निराकरण कैसे किया जाए? क्योंकि कहीं बहुत ज्यादा गर्मी है, तो कहीं बहुत ज्यादा ठंड। गौर किया जाए, तो प्रदूषण वृद्धि का एक बड़ा कारण मानव की वे अवांछित गतिविधियाँ हैं, जो प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन करते हुए इस पृथ्वी को कूड़े-कचरे का ढेर बना रही है। कूड़े-कचरे के बढ़ते इस जंगल के कारण जल, वायु और भूमि जिस तेजी से प्रदूषित हो रही है, वह सम्पूर्ण जगत् के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं।
अब प्रश्न यही है कि ऐसा क्या करें कि इस वैश्विक समस्या का समाधान मिले? दरअसल इसके जवाब में सवाल ही ज्यादा उठ रहे है कि क्या हम फिर से गोबर से लिपे छप्पर वाले घर में रह सकते हैं? या आज बन रही इमारतों को इतना हवादार बना सकते हैं कि कमरों में एसी की जरूरत न हो! क्या हम अपनी उपजाऊ भूमि को रासायनिक दवाओं से मुक्त कर सकते हैं? क्या हम अपने रहने वाले स्थान को कूड़े- कचरे से मुक्त साफ- सुथरा बना कर रख सकते हैं, क्या हममें से प्रत्येक इंसान प्लास्टिक का उपयोग न करने का संकल्प ले सकता है? इस तरह के ढेरों सवाल हैं, जिनके जवाब हम सबके पास ही हैं । तो जाहिर है इन सबका हल भी हमारे पास ही है, जरूरत उस पर अमल करने की है।
5 comments:
सच्ची बात, चिंतन व अमल करना ही उपाय,बढ़िया आलेख दी ।बधाई
आपका आलेख पढ़कर सच में बचपन याद आ गया। रात में खुले आसमान में तारों की छाँव में सोना और चाँद को निहारना। सब सपना हो गया है। पर इस सपने को सच भी कर सकते हैं। बात सोच की है। इन्सान ग्रहों पर जा सकता है तो उसकी बुद्धि शुद्ध वातावरण के बारे में भी सोच सकती है, समाधान निकाल सकती है। जिसकी अत्यंत आवश्यकता है। आप सदैव समाज और देश के हित की बात सोचती हैं। ज्वलंत समस्याओं की ओर पाठकों का ध्यान आकर्षित करती है। बहुत सुंदर उत्तम सोच रत्ना जी। हार्दिक बधाई सुदर्शन रत्नाकर
ये लेख हमें बचपन की गलियों में ले जाता है-बधाई।
सुंदर ,सारगर्भित आलेख......दौड़ में कहीं पीछे न छूट जाएं यही सोचते सोचते शहर गावों को निगलते जा रहे हैं ....फिर वो आबो हवा कहां से लायेंगे जो ईश्वर प्रदत्त है .....हर वस्तु बिकने के लिए तैयार है.....शुद्ध हवा, साफ पानी ,सुरक्षित माहौल, और स्वस्थ दिनचर्या जो पहले सहज ही उपलब्ध था ।
आपके लेख ने बचपन से पुनः मिला दिया .....
बहुत बहुत शुभकामनाएं इस सुंदर अंक के लिए ...🙏🌹
मेरा बचपन लौट आया है
मेरे गाँव से जब भी कोई आया है !
सच्चाई और यादों की दहलीज़ को महसूस करवाता लेख !
चलो गाँव की और चलें 🙏
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