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Apr 5, 2021

लघुकथाः चार हाथ

- जानकी वाही

ये क्या समझते हैं? अब इनका हमसे मतलब नहीं पड़ेगा?’ श्याम ने निराशा से क्षितिज को निहारा जहाँ अँधेरा अपनी धमक देने लगा था।

देखो जी! पड़ोसी से तो नून और राख का भी लेन-देन होता है। रशीद भाई क्या अपनी पक्की अटारी में चैन से सो पाएँगे?’ सुनीता ने जल्दी-जल्दी छप्पर छाने के लिए श्याम को लकड़ी पकड़ाते हुए कहा।

हमें तो गरीबी मार देती है मुन्नी की अम्मा। अब देखो, दंगा-वंगा सब खत्म हो गया है मगर हमारे जले घरों की बू को शानदार बँगलों में बैठे नेता क्या महसूस करेंगे?’ श्याम बोला।

हाँ जी! जब हमारी झोंपड़ी जल रही थी, तब रशीद भाई अन्दर छुपे रहे। खुद भीड़ में शामिल नहीं हुए तो क्या? साथ तो दे ही दिया ना अपने धर्म-भाइयों का?’

आवाज में हल्का गुस्सा तो था ही, साथ ही गरीबी में लिपटी बेबसी भी झलक रही थी।

हाँ री! पर चूल्हा तो सबका ही गीला हुआ ना? क्या हिन्दू, क्या मुसलमान! दोनों में से किसके घर देग चढ़ पाई इन दंगों में। गरीब की भी क्या जात!

तभी रशीद मियाँ अपने बेटे के साथ आ गए।

सही बोले श्यामू भाई! चूल्हा क्या जाने मजहब क्या होता है। हम भी जान के डर से छुप गए थे। पर पड़ोसी का रिश्ता तो हर मजहब से बड़ा होता है ना! उनके चेहरे पर थकान के साथ एक मधुर मुस्कान थी।

हाँ काका! दो हाथ आपके, दो हमारे। देखो, ऐसा मजबूत छप्पर बनाएँगे कि अबके कोई ढहा न पाएगा। काकी, अब आप हटिए, हम हैं ना!कहते हुए रशीद मियाँ का बेटा तेजी से श्याम के साथ छप्पर छाने लगा।

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