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Apr 5, 2021

व्यंग्यः हमरा लोकतंत्र खेला हौबे

-  बी. एल. आच्छा

  चुनाव भी लोकतांत्रिक खेला है। जब भी होता हैनया-नया खेला हुइबे। लोकतांत्रिक खेला -बुद्धि इतनी चतुर कि तुम डाल- डाल हम पात -पात को भी धता बता देती है। हर बार नए पंगे। नए दाँव। बुद्धि के तीर। शब्दों की खिलंदड़ी। नए नए फंडे। वह जमाना भी था जब मत पेटियां छीन ली जाती थीं। लोग मतपत्रों पर सीरियल से ठप्पा लगाकर मतपेटी में ठूँस देते थे। गीली स्याही के इंप्रिंट  न्यायालयों में अकथ कहानी कहते जीत को खारिज कर जाते थे। अब  ईवीएम का फंडा। जीते तो मशीन सही, हारे तो ईवीएम को फाँसी।

   पर चुनावी रण के सिपहसालार चाकू- छुरी जैसी बुद्धि से नहींशब्दों के मिसाइल हथियारों से भेद जाते हैं। कभी समान नाम और जाति वाले उम्मीदवारों की तलाश,  मतिभ्रम हो जाए मतदाताओं को।  तगड़ा उम्मीदवार हो तो बीमार  या नब्बेपार को चुनावी मुकुट पहना दें। संसारगमन कर गएतो चुनाव स्थगित।  

   चुनावों ने वनस्पति विज्ञान और जीव विज्ञान पर भी दाँव चलाए। प्याज का चुनावी गणित आँसू और  पुलक का,हार और जीत का प्रतिमान। चुनाव चिह्न में गाय बैल भी जमेतो आस्थाओं के निचोड़ मतपत्रों की स्याही बने। किरसानी इलाके में हलधर वोट खींचता रहा। जेट और चंद्रयान के जमाने में साइकिल गरीबों की तरफदार। कभी सारी इंजीनियरिंग के बावजूद झाड़ू का राजधानीत्व कायम हुआ लुब्बेलुबाब यही कि प्रतीक वोट सहेजवा बनते गए। इतनी भयंकर तरक्की और ये आदिम प्रतीक। लगता है कि हुगली नदी गंगोत्री तक जा रही है।

    फिर आई वोटों को मुफ्तिया लीला का आविष्कार। दो रुपये किलो चावल। मुफ्त टीवी। कभी लैपटॉप। कभी साइकिलें। कभी कन्यादान के सामान। कभी सब्सिडी। कभी कर्ज माफी। कभी मुफ्त चिकित्सा। संकड़ी जेबवालों  की जबानें इतनी उदार कि चुनाव में हर चीज बाँटने को तैयार। सब कुछ लेते जाओमगर वोट देते जाओ। और गाँठ का लगता भी क्या है? अपनी कंपनी की बस से एक्सीडेंट हो जाए तो दो दो हजार। मगर सरकारी से हो जाए तो दो- दो लाख। वेतनमान की तरह रैलियों दुर्घटनाओं के लिए भी मृत्युमान निर्धारित होना चाहिए। अपनी पॉकेट से तो जा नहीं रहा।  सीधी सी बात-उसका तुझको देते क्या लागे मेरा ?’

   शब्दों का खेला भी खूब खैलाबे। चायवाला क्या कह दियाज्वारभाटा आ गया। कहनेवाले की तकदीर बिखर गई । लोग क्रिकेट की बॉल पर  छक्का लगा जाते हैं। किसी की जुबान से कोई शब्द अगले की किस्मत से फिसल  जाएफिर तो गुगली ही गुगली। कोई स्याही फेंक दें चेहरे परसहानुभूति का पूरा अखबार बिना शब्दों के छप जाता है। कोई पत्थर फेंक दें। नाक पर लग जाए तो बिना मास्क वाले दिनों में नाक की बड़ी पट्टी मतदान तक चुपके-चुपके वोट सहेजवा बन जाती है। अगर कोई नामीगिरामी स्वर्ग मार्ग पर चल देतो सहानुभूति की लहर चुनावी नैया पार करा देती है।

  टिकाऊ और बिकाऊ का चुनावी फंडा अपनी चाल चलता है। खुद के पाले में आ जाए , तो नेकी नेकी। दूसरे वाले में जाए तो बिकाऊ बिकाऊ। लोग असल गलवान घाटी की बात नहीं करते पर चुनाव में  अपनी तरह की घाटियाँ ईजाद कर लेते हैं। संविधान है , धाराएँ हैंप्रशासन के डंडे हैं , मगर चुनावों के दिमागी झंडे हर बार नए डंडो को तलाशते हैं। लग जाए चोट तो सहानुभूति की पट्टियाँ मतदान से पहले उतरने से इंकार कर देती हैं। युद्ध और प्रेम में नियम नहीं चलते। मगर चुनावी रण में नियमों को साधते गलियारे खेला हुईबे का लोकतंत्र मुखर कर जाते हैं ।

सम्पर्कः फ्लैट  -701  टावर-27, नॉर्थ टाउन अपार्टमेंट, पेरंबूरचेन्नई (टी एन), पिन-600012, मोबा-9425083335

1 comment:

ज्योति-कलश said...

सम-सामयिक बढ़िया व्यंग्य