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Aug 25, 2011

लोक चेतना में स्वाधीनता की लय

- आकांक्षा यादव
यह आजादी हमें यूं ही नहीं प्राप्त हुई वरन इसके पीछे शहादत का इतिहास है। लाल- बाल- पाल ने इस संग्राम को एक पहचान दी तो महात्मा गाँधी ने इसे अपूर्व विस्तार दिया। एक तरफ सत्याग्रह की लाठी और दूसरी तरफ भगतसिंह आजाद जैसे क्रान्तिकारियों द्वारा पराधीनता के खिलाफ दिया गया इंकलाब का अमोघ अस्त्र अंग्रेजों की हिंसा पर भारी पड़ा और अन्तत: 15 अगस्त 1947 के सूर्योदय ने अपनी कोमल रश्मियों से एक नये स्वाधीन भारत का स्वागत किया।
स्वतंत्रता व्यक्ति का जन्मसिद्ध अधिकार है। आजादी का अर्थ सिर्फ राजनैतिक आजादी नहीं अपितु यह एक विस्तृत अवधारणा है, जिसमें व्यक्ति से लेकर राष्ट्र का हित व उसकी पंरपराएं छुपी हुई हैं। कभी सोने की चिडिय़ा कहे जाने वाले भारत राष्ट्र को भी पराधीनता के दौर से गुजरना पड़ा। पर पराधीनता का यह जाल लम्बे समय तक बाँध नहीं पाया और राष्ट्रभक्तों की बदौलत हम पुन: स्वतंत्र हो गये। स्वतंत्रता रुपी यह क्रान्ति करवटें लेती हुयी लोकचेतना की उत्ताल तरंगों से आप्लावित है। यह आजादी हमें यूँ ही नहीं प्राप्त हुई वरन इसके पीछे शहादत का इतिहास है। ला- बाल- पाल ने इस संग्राम को एक पहचान दी तो महात्मा गाँधी ने इसे अपूर्व विस्तार दिया। एक तरफ सत्याग्रह की लाठी और दूसरी तरफ भगतसिंह व आजाद जैसे क्रान्तिकारियों द्वारा पराधीनता के खिलाफ दिया गया इंकलाब का अमोघ अस्त्र अंग्रेजों की हिंसा पर भारी पड़ा और अन्तत: 15 अगस्त 1947 के सूर्योदय ने अपनी कोमल रश्मियों से एक नये स्वाधीन भारत का स्वागत किया।
इतिहास अपनी गाथा खुद कहता है। सिर्फ पन्नों पर ही नहीं बल्कि लोकमानस के कंठ में, गीतों और किवदंतियों इत्यादि के माध्यम से यह पीढ़ी- दर- पीढ़ी प्रवाहित होता रहता। तभी तो कहा जाता है कि किसी भी देश या समाज की संस्कृति, सभ्यता को जानने के लिए सबसे पहले उसके लोक साहित्य का अध्ययन करना जरुरी है। लोक साहित्य में जीवन की भावात्मक अभिव्यक्ति होती है और यह भावव्यंजना लोकमंगलकारी होती है। लोकलय की आत्मा में मस्ती और उत्साह की सुगन्ध है तो पीड़ा का स्वाभाविक शब्द स्वर भी। कहा जाता है कि पूरे देश में एक ही दिन 31 मई 1857 को क्रान्ति आरम्भ करने का निश्चय किया गया था, पर 29 मार्च 1857 को बैरकपुर छावनी के सिपाही मंगल पाण्डे की शहादत से उठी ज्वाला वक्त का इन्तजार नहीं कर सकी और प्रथम स्वाधीनता संग्राम का आगाज हो गया। मंगल पाण्डे के बलिदान की दास्तां को लोक चेतना में यूँ व्यक्त किया गया है-
जब सत्तावनि के रारि भइलि, बीरन के बीर पुकार भइल।
बलिया का मंगल पाण्डे के, बलिवेदी से ललकार भइल।
मंगल मस्ती में चूर चलल, पहिला बागी मसहूर चलल।
गोरनि का पलटनि का आगे, बलिया के बाँका सूर चलल।
कहा जाता है कि 1857 की क्रान्ति की जनता को भावी सूचना देने हेतु और उनमें सोयी चेतना को जगाने हेतु 'कमल' और 'चपाती' जैसे लोकजीवन के प्रतीकों को संदेशवाहक बनाकर देश के एक कोने से दूसरे कोने तक भेजा गया। यह कालिदास के मेघदूत की तरह अतिरंजना नहीं अपितु एक सच्चाई थी। क्रान्ति का प्रतीक रहे 'कमल' और 'चपाती' का भी अपना रोचक इतिहास है। किंवदन्तियों के अनुसार एक बार नाना साहब पेशवा की भेंट पंजाब के सूफी फकीर दस्सा बाबा से हुई। दस्सा बाबा ने तीन शर्तों के आधार पर सहयोग की बात कही- सब जगह क्रान्ति एक साथ हो, क्रान्ति रात में आरम्भ हो और अंग्रेजों की महिलाओं व बच्चों का कत्लेआम न किया जाय। नाना साहब की हामी पर अलौकिक शक्तियों वाले दस्सा बाबा ने उन्हें अभिमंत्रित कमल के बीज दिये तथा कहा कि इसका चूरा मिला आटे की चपातियाँ जहाँ- जहाँ वितरित की जायेंगी वह क्षेत्र विजित हो जायेगा। फिर क्या था, गाँव- गाँव तक क्रान्ति का संदेश फैलाने के लिए चपातियाँ भेजी गईं। कमल को तो भारतीय परम्परा में शुभ माना जाता है पर चपातियों का भेजा जाना सदैव से अंग्रेज अफसरों के लिए रहस्य बना रहा। वैसे भी चपातियों का सम्बन्ध मानव के भरण- पोषण से है। वी.डी. सावरकर ने एक जगह लिखा है कि-'हिन्दुस्तान में जब भी क्रान्ति का मंगल कार्य हुआ, तब ही क्रान्तिदूत चपातियों द्वारा देश के एक छोर से दूसरे छोर तक इस पावन संदेश को पहुँचाने के लिये इसी प्रकार का अभियान चलाया गया था क्योंकि वेल्लोर के विद्रोह के समय में भी ऐसी ही चपातियों ने सक्रिय योगदान दिया था।' चपाती (रोटी) की महत्ता मौलवी इस्माईल मेरठी की इन पंक्तियों में देखी जा सकती है-
मिले खुश्क रोटी जो आजाद रहकर,
तो वह खौफो जिल्लत के हलवे से बेहतर।
जो टूटी हुई झोंपड़ी वे जरर हो,
भली उस महल से जहाँ कुछ खतर हो।
1857 की क्रान्ति वास्तव में जनमानस की क्रान्ति थी, तभी तो इसकी अनुगूंज लोक साहित्य में भी सुनायी पड़ती है। भारतीय स्वाधीनता का संग्राम सिर्फ व्यक्तियों द्वारा नहीं लड़ा गया बल्कि कवियों और लोक गायकों ने भी लोगों को प्रेरित करने में प्रमुख भूमिका निभायी।
भोजपुरी में गाए जाने वाले 'चैता' में देशभक्ति का ज्वार
यूं फूटा-
राम किया लडि़ मरबि या मारबि फिरंगिया ए रामा
जीतबि या आपन जानवाँ गवाँइबि ए रामा।
लोगों को इस संग्राम में शामिल होने हेतु प्रकट भाव को लोकगीतों में इस प्रकार व्यक्त किया गया-
गाँव-गाँव में डुग्गी बाजल, बाबू के फिरल दुहाई।
लोहा चबवाई के नेवता बा, सब जन आपन दल बदल।
बा जन गंवकई के नेवता, चूड़ी फोरवाई के नेवता।
सिंदूर पोंछवाई के नेवता बा, रांड कहवार के नेवता।
1857 की जनक्रान्ति का गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही' ने भी बड़ा जीवन्त वर्णन किया है। उनकी कविता पढ़कर मानो 1857, चित्रपट की भाँति आँखों के सामने छा जाता है-
सम्राट बहादुरशाह 'जफर', फिर आशाओं के केन्द्र बने।
सेनानी निकले गाँव- गाँव, सरदार अनेक नरेन्द्र बने।
लोहा इस भाँति लिया सबने, रंग फीका हुआ फिरंगी का।
हिन्दू-मुस्लिम हो गये एक, रह गया न नाम दुरंगी का।
अपमानित सैनिक मेरठ के, फिर स्वाभिमान से भड़क उठे।
घनघोर बादलों- से गरजे, बिजली बन-बनकर कड़क उठे।
हर तरफ क्रान्ति ज्वाला दहकी, हर ओर शोर था जोरों का।
पुतला बचने पाये न कहीं पर, भारत में अब गोरों का।
1857 की क्रान्ति की गूँज दिल्ली से दूर पूर्वी उत्तर प्रदेश के इलाकों में भी सुनायी दी थी। वैसे भी उस समय तक अंग्रेजी फौज में ज्यादातर सैनिक इन्हीं क्षेत्रों के थे। स्वतंत्रता की गाथाओं में इतिहास प्रसिद्ध चौरीचौरा की डुमरी रियासत बंधू सिंह का नाम आता है, जो कि 1857 की क्रान्ति के दौरान अंग्रेजों का सर कलम करके और चौरीचौरा के समीप स्थित कुसुमी के जंगल में अवस्थित माँ तरकुलहा देवी के स्थान पर इसे चढ़ा देते। कहा जाता है कि एक गद्दार के चलते अंग्रेजों की गिरफ्त में आये बंधू सिंह को जब फाँसी दी जा रही थी, तो सात बार फाँसी का फन्दा ही टूटता रहा। यही नहीं जब फाँसी के फन्दे से उन्होंने दम तोड़ दिया तो उस पेड़ से रक्तस्राव होने लगा जहाँ बैठकर वे देवी से अंग्रेजों के खिलाफ लडऩे की शक्ति माँगते थे।
पूर्वांचल के अंचलों में अभी भी यह पंक्तियाँ सुनायी जाती हैं-
सात बार टूटल जब, फांसी के रसरिया,
गोरवन के अकिल गईल चकराय।
असमय पड़ल माई गाढ़े में परनवा,
अपने ही गोदिया में माई लेतु तू सुलाय।
बंद भईल बोली रुकि गइली संसिया,
नीर गोदी में बहाते, लेके बेटा के लशिया।
भारत को कभी सोने की चिडिय़ा कहा जाता था। पर अंग्रेजी राज ने हमारी सभ्यता व संस्कृति पर घोर प्रहार किये और यहाँ की अर्थव्यवस्था को भी दयनीय अवस्था में पहुँचा दिया। भारतेन्दु हरिशचन्द्र ने इस दुर्दशा का मार्मिक वर्णन किया है-
रोअहु सब मिलिकै आवहु भारत भाई
हा हा! भारत दुर्दशा न देखी जाई
सबके पहिले जेहि ईश्वर धन बल दीनो
सबके पहले जेहि सभ्य विधाता कीनो
सबके पहिले जो रूप- रंग रस- भीनो
सबके पहिले विद्याफल जिन गहि लीनो
अब सबके पीछे सोई परत लखाई
हा हा! भारतदुर्दशा न देखी जाई।
आजादी की सौगात भीख में नहीं मिलती बल्कि उसे छीनना पड़ता है। इसके लिये जरूरी है कि समाज में कुछ नायक आगे आयें और शेष समाज उनका अनुसरण करे। ऐसे नायकों की चर्चा गाँव- गाँव की चौपालों पर देखी जा सकती थी। बिरसा मुण्डा के बारे मेंप्रचलित एक मुंडारी लोकगीत के शब्द देखें-
तमाड़ परगना गेरडे अली हातु,
बिरसा भोगवान-ए जानोम लेगा।
आटा-माटा बिरको तला चलेकद रे दो,
चले कद हतु रे उलगुलान लेदा।
गुरिल्ला शैली के कारण फिरंगियों में दहशत और आतंक का पर्याय बन क्रान्ति की ज्वाला भड़काने वाले तात्या टोपे से अंग्रेजी रूह भी कांपती थी फिर उनका गुणगान क्यों न हो। राजस्थानी कवि शंकरदान सामौर तात्या की महिमा 'हिन्द नायकÓ के रूप में गाते हैं-
जठै गयौ जंग जीतियो, खटकै बिण रण खेत।
तकड़ौ लडियाँ तांतियो, हिन्द थान रै हेत।
मचायो हिन्द में आखी, तहल कौ तांतियो मोटो।
धोम जेम घुमायो लंक में हणंू घोर।
रचाओ ऊजली राजपूती रो आखरी रंग।
जंग में दिखायो सूवायो अथग जोर।
1857 की क्रान्ति में जिस मनोयोग से पुरुष नायकों ने भाग लिया, महिलाएं भी उनसे पीछे न रहीं। लखनऊ में बेगम हजरत महल तो झाँसी में रानी लक्ष्मीबाई ने इस क्रान्ति की अगुवाई की। बेगम हजरत महल ने लखनऊ की हार के बाद अवध के ग्रामीण क्षेत्रों में जाकर क्रान्ति की चिन्गारी फैलाने का कार्य किया।
मजा हजरत ने नहीं पाई, केसर बाग लगाई।
कलकत्ते से चला फिरंगी, तंबू कनात लगाई।
पार उतरि लखनऊ का, आयो डेरा दिहिस लगाई।
आसपास लखनऊ का घेरा, सड़कन तोप धराई।
रानी लक्ष्मीबाई ने अपनी वीरता से अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिये। उनकी मौत पर जनरल ह्यूरोज ने कहा था कि- 'यहाँ वह औरत सोयी हुई है, जो व्रिदोही में एकमात्र मर्द थी।' 'झाँसी की रानी' नामक अपनी कविता में सुभद्राकुमारी चौहान 1857 की उनकी वीरता का बखान करती हैं, पर उनसे पहले ही बुंदेलखण्ड की वादियों में दूर-दूर तक लोक लय सुनाई देती है-
खूब लड़ी मरदानी, अरे झाँसी वारी रानी।
पुरजन पुरजन तोपें लगा दई, गोला चलाए असमानी।
अरे झाँसी वारी रानी, खूब लड़ी मरदानी।
सबरे सिपाइन को पैरा जलेबी, अपन चलाई गुरधानी।
छोड़ मोरचा जसकर कों दौरी, ढूढ़ेहूँ मिले नहीं पानी।
अरे झाँसी वारी रानी, खूब लड़ी मरदानी।
1857 की क्रान्ति के दौरान ज्यों- ज्यों लोगो को अंग्रेजों की पराजय का समाचार मिलता वे खुशी से झूम उठते। अजेय समझे जाने वाले अंग्रेजों का यह हश्र, उस क्रान्ति के साक्षी कवि सखवत राय ने यूँ पेश किया है-
गिद्ध मेडराई स्वान स्यार आनंद छाये,
कहिं गिरे गोरा कहीं हाथी बिना सूंड के।
1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम ने अंग्रेजी हुकूमत को हिलाकर रख दिया। बौखलाकर अंग्रेजी हुकूमत ने लोगों को फांसी दी, पेड़ों पर समूहों में लटका कर मृत्यु दण्ड दिया और तोपों से बांधकर दागा-
झूलि गइलें अमिली के डरियाँ, बजरिया गोपीगंज कई रहलि।
वहीं जिन जीवित लोगों से अंग्रेजी हुकूमत को ज्यादा खतरा महसूस हुआ, उन्हें कालापानी की सजा दे दी। तभी तो अपने पति को कालापानी भेजे जाने पर एक महिला 'कजरी' के बोलो में कहती है-
अरे रामा नागर नैया जाला काले पनियां रे हरी,
सबकर नैया जाला कासी हो बिसेसर रामा।
नागर नैया जाला काले पनियां रे हरी,
घरवा में रोवै नागर, माई और बहिनियां रामा।
से जिया पैरोवे बारी धनिया रे हरी।
बंगाल विभाजन के दौरान स्वदेशी बहिष्कार, प्रतिरोध का नारा खूब चला। अंग्रेजी कपड़ों की होली जलाना और उनका बहिष्कार करना देश भक्ति का शगल बन गया था, फिर चाहे अंग्रेजी कपड़ों में ब्याह रचाने आये बाराती ही हों-
फिर जाहु- फिरि जाहु घर का समधिया हो,
मोर धिया रहिहैं कुंआरि।
बसन उतारि सब फेंकहु विदेशिया हो, मोर पूत रहिहैं उघार।
बसन सुदेसिया मंगाई पहिरबा हो, तब होइहै धिया के बियाह।
जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड अंग्रेजी हुकूमत की बर्बरता व नृशंसता का नमूना था। इस हत्याकाण्ड ने भारतीयों विशेषकर नौजवानों की आत्मा को हिलाकर रख दिया। गुलामी का इससे वीभत्स रूप हो भी नहीं सकता।
सुभद्राकुमारी चौहान ने 'जलियाँवाला बाग में वसंत' नामक कविता के माध्यम से श्रद्धांजलि अर्पित की है-
कोमल बालक मरे यहाँ गोली खा- खाकर,
कलियाँ उनके लिए गिराना थोड़ी लाकर।
आशाओं से भरे हृदय भी छिन्न हुए हैं,अपने प्रिय- परिवार देश से भिन्न हुए हैं।
कुछ कलियाँ अधखिली यहाँ इसलिए चढ़ाना,
करके उनकी याद अश्रु की ओस बहाना।
तड़प- तड़पकर वृद्ध मरे हैं गोली खाकर,
शुष्क पुष्प कुछ वहाँ गिरा देना तुम जाकर।
यह सब करना, किन्तु बहुत धीरे- से आना,
यह है शोक- स्थान, यहाँ मत शोर मचाना।
कोई भी क्रान्ति बिना खून के पूरी नहीं होती, चाहे कितने ही बड़े दावे किये जायें। भारतीय स्वाधीनता संग्राम में एक ऐसा भी दौर आया जब कुछ नौजवानों ने अंग्रेजी हुकूमत की चूल हिला दी, नतीजन अंग्रेजी सरकार उन्हें जेल में डालने के लिये तड़प उठी। 11 अगस्त 1908 को जब 15 वर्षीय क्रान्तिकारी खुदीराम बोस को अंग्रेज सरकार ने निर्ममता से फांसी पर लटका दिया तो मशहूर उपन्यासकार प्रेमचन्द के अन्दर का देशप्रेम भी हिलोरें मारने लगा और वे खुदीराम बोस की एक तस्वीर बाजार से खरीदकर अपने घर लाये तथा कमरे की दीवार पर टांग दिया। खुदीराम बोस को फांसी दिये जाने से एक वर्ष पूर्व ही उन्होंने 'दुनिया का सबसे अनमोल रतन' नामक अपनी प्रथम कहानी लिखी थी, जिसके अनुसार- 'खून की वह आखिरी बूँद जो देश की आजादी के लिये गिरे, वही दुनिया का सबसे अनमोल रतन है।' उस समय अंग्रेजी सैनिकों की पदचाप सुनते ही बहनें चौकन्नी हो जाती थीं। तभी तो सुभद्राकुमारी चौहान ने 'बिदा' में लिखा कि-
गिरफ्तार होने वाले हैं, आता है वारंट अभी।
धक- सा हुआ हृदय, मैं सहमी, हुए विकल आशंक सभी।
मैं पुलकित हो उठी! यहाँ भी, आज गिरफ्तारी होगी।
फिर जी धड़का, क्या भैया की, सचमुच तैयारी होगी।
आजादी के दीवाने सभी थे। हर पत्नी की दिली तमन्ना होती थी कि उसका भी पति इस दीवानगी में शामिल हो। तभी तो पत्नी पति के लिए गाती है- जागा बलम गाँधी टोपी वाले आई गइलैं.. ..
राजगुरु, सुखदेव, भगत सिंह हो।
तहरे जगावे बदे फाँसी पर चढ़ाय गइलै।
सरदार भगत सिंह क्रान्तिकारी आन्दोलन के अगुवा थे। उन्होंने जब भरी असेंबली में बम फेंका तो लोक लय स्वत: मुखरित हो उठी-
'केड़ी माँ ने भगत नू जम्मियाँ, जंगल च शेर बुकदा।
बारीं बरसी खटणा गया, खट के लिया दा माया।
भगत सिंह सुरमे ने, असैंबली च बंब चलाया।'
भगत सिंह ने तो हँसते- हँसते फांसी के फन्दों तक को चूम लिया था। एक लोकगायक भगत सिंह के इस तरह जाने को बर्दाश्त नहीं कर पाता और गाता है-
एक- एक क्षण बिलम्ब का मुझे यातना दे रहा है,
तुम्हारा फंदा मेरे गरदन में छोटा क्यों पड़ रहा है।
मैं एक नायक की तरह सीधा स्वर्ग में जाऊँगा,
अपनी- अपनी फरियाद धर्मराज को सुनाऊँगा।
मैं उनसे अपना वीर भगत सिंह माँग लाऊँगा।
इसी प्रकार चन्द्रशेखर आजाद की शहादत पर उन्हें याद करते हुए एक अंगिका लोकगीत में कहा गया-
हौ आजाद त्वौं अपनौ प्राणे कऽ ,
आहुति दै के मातृभूमि कै आजाद करैलहों।
तोरो कुर्बानी हम्मै जिनगी भर नैऽ भुलैबे,
देश तोरो रिनी रहेते।
सुभाष चन्द्र बोस ने नारा दिया कि- 'तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा, फिर क्या था पुरूषों के साथ- साथ महिलाएं भी उनकी फौज में शामिल होने के लिए बेकरार हो उठेे-
हरे रामा सुभाष चन्द्र ने फौज सजायी रे हारी।
कड़ा- छड़ा पैंजनिया छोड़बै, छोड़बै हाथ कंगनवा रामा।
हरे रामा, हाथ में झण्डा लै के जुलूस निकलबैं रे हारी।
महात्मा गाँधी आजादी के दौर के सबसे बड़े नेता थे। चरखा कातकर उन्होंने स्वावलम्बन और स्वदेशी का रूझान जगाया। नौजवान अपनी- अपनी धुन में गाँधी जी को प्रेरणास्त्रोत मानते और एक स्वर में गाते-
अपने हाथे चरखा चलउबै, हमार कोऊ का करिहैं।
गाँधी बाबा से लगन लगउब, हमार कोई का करिहैं।
पंजाबी लोक गीतों में भी यही भावना अभिव्यक्त होती है-
'दे चर्खे नूं गेड़ा, लोड़ नहीं तोपां दी।
तेरे बंब नू चलज नहीं देणा, गांधी दे चर्खे ने।'
1942 में जब गाँधी जी ने 'अंग्रेजों भारत छोड़ो' का आह्वान किया तो ऐसा लगा कि 1857 की क्रान्ति फिर से जिन्दा हो गयी हो। क्या बूढ़े, क्या नवयुवक, क्या पुरुष, क्या महिला, क्या किसान, क्या जवान...... सभी एक स्वर में गाँधी जी के पीछे हो लिये। ऐसा लगा कि अब तो अंग्रेजों को भारत छोड़कर जाना ही होगा। गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही' ने इस ज्वार को महसूस किया औरइस जन क्रान्ति को शब्दों से यूँ सँवारा-
बीसवीं सदी के आते ही, फिर उमड़ा जोश जवानों में।
हड़कम्प मच गया नए सिरे से, फिर शोषक शैतानों में।
सौ बरस भी नहीं बीते थे, सन् बयालीस पावन आया।
लोगों ने समझा नया जन्म, लेकर सन् सत्तावन आया।
आजादी की मच गई धूम, फिर शोर हुआ आजादी का।
फिर जाग उठा यह सुप्त देश, चालीस कोटि आबादी का।
भारत माता की गुलामी की बेडिय़ाँ काटने में असंख्य लोग शहीद हो गये, बस इस आस के साथ कि आने वाली पीढिय़ाँ स्वाधीनता की बेला में साँस ले सकें। इन शहीदों की तो अब बस यादें बची हैं और इनके चलते पीढिय़ाँ मुक्त जीवन के सपने देख रही हैं। कविवर जगदम्बा प्रसाद मिश्र 'हितैषी' इन कुर्बानियों को व्यर्थ नहीं जाने देते-
शहीदों की चिताओं पर जुड़ेंगे हर बरस मेले।
वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशाँ होगा।
कभी वह दिन भी आएगा जब अपना राज देखेंगे।
जब अपनी ही जमीं होगी और अपना आसमाँ होगा।
देश आजाद हुआ। 15 अगस्त 1947 के सूर्योदय की बेला में विजय का आभास हो रहा था। फिर कवि लोकमन को कैसे समझाता। आखिर उसके मन की तरंगें भी तो लोक से ही संचालित होती हैं। कवि सुमित्रानन्दन पंत इस सुखद अनुभूति को यूँ
सँजोते हैं-
चिर प्रणम्य यह पुण्य अहन्, जय गाओ सुरगण।
आज अवतरित हुई चेतना भू पर नूतन।
नव भारत, फिर चीर युगों का तमस आवरण।
तरुण- अरुण- सा उदित हुआ परिदीप्त कर भुवन।
सभ्य हुआ अब विश्व, सभ्य धरणी का जीवन।
आज खुले भारत के संग भू के जड़ बंधन।
शांत हुआ अब युग- युग का भौतिक संघर्षण।
मुक्त चेतना भारत की यह करती घोषण।
देश आजाद हो गया, पर अंग्रेज इस देश की सामाजिक-सांस्कृतिक- आर्थिक व्यवस्था को छिन्न-भिन्न कर गये। एक तरफ आजादी की उमंग, दूसरी तरफ गुलामी की छायाओं का डर। कवि रसूल मियाँ 'पन्द्रह अगस्त' की बेला पर उल्लास भी व्यक्त करते हैं और सचेत भी करते हैं -
पंद्रह अगस्त सन् सैंतालिस के सुराज मिल,
बड़ा कठिन से ताज मिल। सुन ला हिन्दू- मुसलमान भाई,
अपना देशवा के कर ला भलाई।
तोहरे हथवा में हिन्द माता के लाज मिल,
बड़ा कठिन से ताज मिल।
आजादी भले ही मिल गई पर देश में सांप्रदायिकता व नफरत के बीज भी बो गई। 'बांटो और राज करो' की तर्ज पर अंग्रेजों ने जाते-जाते देश के दो टुकड़े कर दिए। आजादी के जश्न से परे महात्मा गांधी निकल पड़े ऐसे ही दंगाइयों को समझाने पर उनकी नियति में कुछ और ही लिखा था। अंतत: 30 जनवरी 1948 को गाँधी जी की गोली मारकर हत्या कर दी गई। फिर भला लोक- कवि का आहत मन भला कैसे शांत रहता-
के मारल हमरा गाँधी के गोली हो, धमाधम तीन गो।
कल्हीए आजादी मिल, आज चलल गोली।
गाँधी बाबा मारल गइले, देहली के गली हो।
धमाधम तीन गो, पूजा में जात रहले बिरला भवन में।
दुशमनवा बइठल रहल पाप लिए मन में,
गोलिया चला के बनल बली हो।
धमाधम तीन गो। - कवि रसूल मियाँ
आजादी की कहानी सिर्फ एक गाथा भर नहीं है बल्कि एक दास्तान है कि क्यों हम बेडिय़ों में जकड़े, किस प्रकार की यातनायें हमने सहीं और शहीदों की किन कुर्बानियों के साथ हम आजाद हुये। लोक साहित्य में आजादी के दिनों का सहज और स्वाभाविक चित्र देखने को मिलता है। लोक साहित्य असीम है और यह ऐतिहासिक घटनाक्रम की मात्र एक शोभा यात्रा नहीं अपितु भारतीय स्वाभिमान का संघर्ष, राजनैतिक दमन व आर्थिक शोषण के विरूद्ध लोक चेतना का प्रबुद्ध अभियान एवं सांस्कृतिक नवोन्मेष की दास्तान है। जरूरत है हम अपनी कमजोरियों का विश्लेषण करें, तद्नुसार उनसे लडऩे की चुनौतियाँ स्वीकारें और नए परिवेश में नए जोश के साथ आजादी के नये अर्थों के साथ एक सुखी व समृद्ध भारत का निर्माण करें।

मेरे बारे में
30 जुलाई 1982, सैदपुर, गाजीपुर (उ.प्र.) में जन्म व संस्कृत में एम.ए। देश-विदेश की शताधिक प्रतिष्ठित पत्र- पत्रिकाओं एवं वेब में कविता, लेख, बाल कविताएँ व लघु कथाओं का प्रकाशन, सम्प्रति- कॉलेज में प्रवक्ता। संपर्क: टाइप 5, ऑफिसर्स बंगला, हैडो, पोर्टब्लेयर, अंडमान- निकोबार द्वीप समूह 744102
ईमेल- kk_akanksha@yahoo.com
ब्लॉग - shabdshikhar.blogspot.com

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