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Feb 23, 2012

उदंती.com, फरवरी 2012


उदंती.com,फरवरी 2012
 वर्ष- 2, अंक 6
यदि किसी असाधारण प्रतिभा वाले आदमी से हमारा सामना हो तो हमें उससे पूछना चाहिये कि वो कौन सी पुस्तकें पढ़ता है।  - एमर्शन
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पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म
कहि देबे संदेस पर विशेष

अनकही: शिक्षा की ध्वस्त बुनियाद - डॉ। रत्ना वर्मा
बृजलाल वर्मा का साथ और पलारी वासियों ... - उदंती फीचर्स
हर मुश्किल पार करके पूरा हुआ, मनु नायक... - मोहम्मद जाकिर हुसैन
सुरीले गीतों का फनकार- डॉ. एस. हनुमंत नायडू
रफी साहब की दरियादिली देख...
मुबारक बेगम नहीं गा सकीं बिदाई गीत
छत्तीसगढिय़ा मिठास घोलने वाले संगीतकार ...
नए कलाकारों को मिला महत्व
'कहि देबे संदेस' की व्यथा- कथा
कहां गुम हो गई छत्तीसगढ़ी जनजीवन की झलक? - भूपेन्द्र मिश्रा
प्रकृति: कचनार की छाँह में - अर्बुदा ओहरी
सेहत: माटी का सेब आलू - नवनीत कुमार गुप्ता
हाइकु: प्यार का पर्व - मंजु मिश्रा
लघुकथाएं: 1. चाहत 2. पराया सम्मोहन - रचना गौड़ 'भारती'
गजलें: क्या रोज छिटकती है चाँदनी? - प्राण शर्मा
ब्लॉग बुलेटिन से: लहरें... एक नशा है... - रश्मि प्रभा
प्रेरक कथा: वृक्ष
पिछले दिनों
वाह भई वाह
मिसाल: नाव से दुनिया का ....
जरा सोचें: माफ करना सीखें - डॉ. सृष्टि सिसोदिया
पर्यावरण: विज्ञान की रक्षक भूमिका - भारत डोगरा
रंग बिरंगी दुनिया

शिक्षा की ध्वस्त बुनियाद

मानव समाज के विकास यात्रा का इतिहास हमें यह बताता है कि गुफा निवासी पाषाण युगीन प्राणी से आज के अंतरिक्ष यात्री मानव के विकास में सबसे महत्वपूर्ण तत्व शिक्षा है। शिक्षा मानव को सभ्य, सुसंस्कृत और सक्षम मनुष्य बनाती है। सामान्य ज्ञान की बात है कि चाहे पारिवारिक नीति हो या राष्ट्रीय नीति शिक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जानी है। यह निर्विवाद है कि मानवीय सशक्तीकरण का मूलमंत्र शिक्षा है।
शिक्षा एक बहुआयामी और विशाल संरचना है। किसी भी विशाल संरचना का सबसे महत्वपूर्ण अंग उसकी बुनियाद होती है। शिक्षा रूपी इमारत की बुनियाद प्राथमिक - प्रायमरी- शिक्षा है। प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता पर ही आधारित होती है उच्च शिक्षा ग्रहण करने की क्षमता। इसीलिए संसार के जितने भी विकसित देश हैं वे प्राथमिक शिक्षा (कक्षा 10 तक) को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हुए इसका समुचित प्रबंध सरकारी खर्चे पर करते हैं। विकसित देशों में सरकार प्राथमिक शिक्षा के लिए सभी अनिवार्य सुविधाओं यथा कक्षाओं के लिए उचित आकार के कमरों, पुस्तकालय, शौचालय, पेयजल, खेल के मैदान, प्रयोग शालाओं से युक्त स्कूल भवन तथा परिसर की स्थापना करती है। इन स्कूलों में हर विषय के लिए भली भांति प्रशिक्षित शिक्षकों की नियुक्ति की जाती है तथा इन विद्यालयों को पूर्णतया अपने खर्चे पर चलाने के साथ छात्रों को नि:शुल्क शिक्षा ही नहीं बल्कि उन्हें पाठ्य पुस्तकें व अन्य पाठ्य सामग्री भी मुफ्त दी जाती है। यही वजह है कि वर्तमान काल में किसी भी देश की समृद्धि का एक मापदंड उस देश में प्राथमिक शिक्षा की गुणवत्ता को भी माना जाता है।
इस परिप्रेक्ष्य में हमारे देश में प्राथमिक शिक्षा की स्थिति अत्यंत शर्मनाक है। ग्रामीण क्षेत्र में स्कूल की इमारत के नाम पर या तो कुछ भी नहीं है या अधिकांशत: खंडहर हो चुके अथवा हो रहे कमरे मात्र देखने को मिलेंगे। मेज, कुर्सी, शौचालय या पेयजल इत्यादि कल्पना से परे की बात है। शहरों में अधिकांश सरकारी स्कूलों की इमारतें अवश्य हैं परंतु टूटे खिड़की- दरवाजों तथा मेज- कुर्सियों और बरसों से पुताई को तरसती दीवारें अत्यंत दयनीय दृश्य प्रस्तुत करती हैं। शौचालयों की सफाई महीनों नहीं होती है। ऐसे स्कूलों में जिनमें शौचालय हैं भी तो वहां छात्राओं के लिए शौचालयों की कोई व्यवस्था नहीं होती, जिसके कारण ऐसी लड़कियों की बहुत बड़ी संख्या है जिन्हें माता पिता स्कूल नहीं भेजते हंै।
प्राथमिक पाठशालाओं में सरकारी प्रयत्नों का ढिंढोरा पीटने के नाम पर बच्चों को भोजन देने की योजना चलाई गई है। वास्तविकता में तो सरकारी कर्मचारियों को यह योजना बहुत प्रिय है क्योंकि इसमें भी अन्य सभी सरकारी योजनाओं की भांति भ्रष्टाचार का बोलबाला है। जहां तक स्कूली बच्चों का सवाल है तो रुखे- सूखे निकृष्ट भोजन में छिपकली तथा अन्य कीड़े मकोड़े का समावेश होने और बच्चों के बीमार होने के समाचार आते ही रहते हैं।
ग्रामीण क्षेत्र के अधिकांश स्कूलों में यदि एक या दो शिक्षक नियुक्त भी हैं तो बड़ी संख्या में वे विद्यालयों में शायद ही कभी उपस्थित होते हैं। अधिकांश शिक्षक शिक्षण में प्रशिक्षित नहीं है।
उपरोक्त पृष्ठभूमि में ऐसे प्राथमिक स्कूलों से निकलने वाले छात्रों के ज्ञान का स्तर क्या होगा? ऐसे में पिछले माह अंतरराष्ट्रीय छात्रों के आकलन कार्यक्रम (PISA) के मापदंड के अनुसार जब हमारे प्राथमिक स्कूल के छात्रों का आकलन किया गया तो पता चला कि बड़ी संख्या में हमारे पांचवी कक्षा के छात्र भाषा और अंक गणित में दूसरी कक्षा के प्रश्न भी हल नहीं कर पाते हैं। उक्त आकलन के अनुसार विश्व के 75 देशों में भारत का स्थान 74वां है। इस शर्मनाक स्थिति पर मीडिया में सुर्खियां बनी परंतु हमारे विचार में इसमें चौंकाने वाला कुछ भी नहीं है। केंद्र और राज्य सरकारों ने जिस तरह से प्राथमिक शिक्षा की दुर्गति की है उसमें ऐसी स्थिति स्वाभाविक है। इतना ही नहीं कई समाजशास्त्री और राजनीति विश्लेषक कहते हैं कि सभी राजनीतिक दल जान बूझ कर प्राथमिक शिक्षा की उपेक्षा करते हंै जिससे कि जनसंख्या का बड़ा हिस्सा अशिक्षित रहते हुए उनका आसान वोट बैंक बना रहे। जो भी हो शिक्षा के सबसे महत्वपूर्ण अंग की इस अत्यंत शर्मनाक और समाज के लिए घातक स्थिति के लिए केंद्र और प्रादेशिक सरकारें अर्थात सभी राजनैतिक दल जिम्मेदार हैं।
प्रश्न यह है कि इस समस्या का समाधान क्या है? इस समय जिस प्रकार राजनैतिक दल तथा सरकार भ्रष्टाचार के संरक्षण में जुटे हैं उससे यह स्पष्ट है कि इनसे शिक्षा के क्षेत्र में वांछित सुधार की आशा करना व्यर्थ है। केंद्रीय शिक्षामंत्री जो संचार मंत्री भी हैं संचार मंत्रालय में लाखों करोड़ रुपयों की सरकारी खजाने में लूट के मामले में यह सिद्ध करने में जुटे हैं कि खजाने के चौकीदारों (तत्कालीन वित्तमंत्री और प्रधानमंत्री) की कोई जिम्मेदारी नहीं है। ऐसे में प्राथमिक शिक्षा जैसे मामले के लिए उनके पास कोई समय नहीं है। हमारे विचार में शिक्षा की बुनियाद को सुदृढ़ बनाने के लिए भी अन्ना हजारे जैसा देशव्यापी आंदोलन चलाना होगा।

-डॉ. रत्ना वर्मा

कहि देबे संदेस के 50 वर्ष- बृजलाल वर्मा का साथ और पलारी वासियों का अपनापन


बृजलाल वर्मा के साथ मनु नायक शूटिंग स्थल पर

पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म 'कहि देबे संदेस' जो समाज में व्याप्त जाति- भेद को खत्म करने पर आधारित थी, के निर्माण को 50 वर्ष होने जा रहे हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि हमारी सरकार खराब हो चुके इस फिल्म का रिप्रिंट कराकर इस सांस्कृतिक विरासत को बचाने की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी।
पिछले दिनों 'कहि देबे संदेस' के निर्माता निर्देशक मनु नायक जब रायपुर आए तो यह चर्चा जोरों पर थी कि वे अपनी बरसों से रूकी फिल्म 'पठौनी' के निर्माण की योजना बना रहे हैं। परंतु आज के माहौल को वे पहले जैसा नहीं पाते। लेकिन 75वें वर्ष की उम्र में पंहुचने के बाद भी उनके उत्साह में जरा भी कमी नहीं आई है, उन्हें मौका मिले तो वे एक और इतिहास रच सकते हैं। हमने जब उदंती में फिल्म 'कहि देबे संदेस' पर विशेष अंक प्रकाशित करने की योजना के बारे में उन्हें बताया इस फिल्म के निर्माण को लेकर आरंभ में आई कठिनाइयों को याद करते हुए मनु जी जैसे 1963-64 के दौर में चले गए ...कि कैसे उन्हें रास्ते में श्री बृजलाल वर्मा मिल गए और कैसे वे उनके गांव पलारी शूटिंग के लिए पहुंच गए। इस फिल्म में गांव का सिद्धेश्वर मंदिर तथा तालाब के कई दृश्य फिल्माएं गए हैं साथ ही गांव के गली- चौबारे, घर- आंगन, खेत- खलिहानों का बड़ी खूबसूरती के साथ फिल्मांकन किया गया है। वह पलारी गांव तो आज भी वहीं है, नहीं है तो सिर्फ वैसी हरियाली, वैसे भरे- पूरे खेत- खलिहान और वैसी खुशहाली। ...आइए मनु नायक जी से ही सुनते हैं कि ग्राम पलारी में शूटिंग के लिए वे कैसे पहुंचे और उनकी यूनिट ने वहां 22 दिनों की शूटिंग कैसे पूरी की - संपादक
पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म को छत्तीसगढ़ अंचल में ही फिल्माया जाएगा यह पहले से ही तय था इसके लिए पंडरिया और आस-पास के कुछ स्थानों का चुनाव कर लिया गया था। फिल्म निर्माण के भागीदारों नारायण चंद्राकर और तारेंद्र द्विवेदी के साथ मेरा अनुबंध हुआ था, जिसके अनुसार मुझे पूरी यूनिट के साथ रायपुर पहुंचना था और पूर्व निर्धारित स्थान पर सीधे शूटिंग के लिए पंहुचना था। इसका पूरा खर्च भी भागीदार उठाएंगे यह तय था। पर किस्मत को कुछ और ही मंजूर था। जब मैं अपनी टीम लेकर 12 नवंबर 1964 को मुंबई से रायपुर पहुंचा तो दुर्ग रेल्वे स्टेशन पर नारायण चंद्राकर मिले और बताया कि रायपुर में द्विवेदी ने शूटिंग की कोई तैयारी नहीं की है। मैं तो जैसे होश ही खो बैठा। मेरे साथ मेरी पूरी टीम थी। पर मेरेही भागीदारों ने मुझे धोखा दे दिया था। मेरे पास इतने पैसे भी नहीं थे कि मैं अपनी टीम की वापसी के टिकिट का इंतजाम कर पाता। खैर रायपुर में बुनकर संघ के सामने खपरा भट्ठी के पास अपने खास मित्र रामाधार चंद्रवंशी के निवास पर मैंने अपनी पूरी टीम को ठहराया और कुछ इंतजाम करने के उद्देश्य से बाहर निकल पड़ा। टहलते हुए कुछ सोचता सा मैं बस स्टैंड की तरफ निकला- संयोग देखिए रास्ते में मेरी मुलाकात पलारी के विधायक बृजलाल वर्मा जी (बाद में 1977 के जनता शासन में वे केंद्रीय संचार और उद्योग मंत्री भी बने ) से हो गई। मुझे इस तरह सर झुकाए चिंता में पैदल जाते हुए देख कर उन्होंने पीछे से आवाज लगाई और मेरा हालचाल पूछने लगे। वर्मा जी को समाचारों के माध्यम से मालूम हो गया था कि मैं छत्तीसगढ़ी में पहली फिल्म बनाने जा रहा हूं।
मैंने साथ चलते हुए वर्मा जी को अपनी परेशानियों से अवगत कराया। वर्मा जी ने गंभीरता से मेरी सारी परेशानी सुनी और कहा- मनु जी आपने मेरा गांव देखा है?
मैंने कहा कि आपका गांव? कौन सा गांव?
उन्होंने बताया पलारी गांव।
जब मैंने कहा कि मैं तो खरोरा से आगे कहीं गया ही नहीं हूं। तब मेरी बात सुनकर वर्मा जी ने जो कहा उसकी तो मैंने कल्पना भी नहीं की थी- उन्होंने कहा- 'अगर आप मेरे गांव में अपनी फिल्म की शूटिंग करेंगे तो मैं सारा बंदोबस्त कर दूंगा। आपकी टीम के रहने के लिए रेस्ट हाऊस बुक करा देता हूं, भोजन के लिए बर्तन आदि की व्यवस्था करा देता हूं... और...' वे न जाने आगे और क्या-क्या कहते पर इतना सुनते ही मैं तो भाव- विभोर हो गया। मैंने और कुछ सोचे बिना तुरंत कहा वर्मा जी मैंने आपका गांव तो नहीं देखा है पर मैं अपनी फिल्म की शूटिंग अब तो आपके ही गांव में करूंगा।
यह सुनते ही उन्होंने कहा- 'तो ठीक है मैं गांव एक चिट्ठी लिख देता हूं क्योंकि मैं तो आज भोपाल जा रहा हूं।' उनके भोपाल जाने की बात सुनकर मैं फिर घबरा गया। तुरंत बोल पड़ा आप यहां नहीं रहेंगे तो मैं शूटिंग कैसे कर पाऊंगा। वे मुस्कुराए और उसी सहजता से कहा- 'सारी व्यवस्था हो जाएगी आप चिंता मत करो।' फिर उन्होंने वहीं खड़े- खड़े बस स्टैंड में ही अपने चचेरे भाई तिलकराम वर्मा के नाम चिट्ठी लिखी और ड्राइवर को दे दी। इसके बाद मुझसे कहा जाइए आपका काम हो जाएगा।
इसी दौरान बातों-बातों में श्री वर्मा जी ने एक और प्रस्ताव रख दिया कि 'पूरी फिल्म की शूटिंग तो पलारी में होगी ही साथ ही फिल्म में महिला पात्रों के लिए उनके घर के पुश्तैनी गहने भी पहनने के लिए दिए जाएंगे।' यह बात उन दिनों वर्मा जी के लिए भले ही सहज रही होगी लेकिन आज जब सोचता हूं तो लगता है कितनी बड़ी बात उन्होंने कह दी। आपसी प्यार और दोस्ती में विश्वास का एक ऐसा रिश्ता तब होता था जब डर या धोखे की बात मन में उपजती ही नहीं थी। मेरे लिए तो यह गर्व की बात थी कि उन्होंने मुझे यह सम्मान दिया।
छत्तीसगढ़ में पहने जाने वाले जितने भी गहने फिल्म में नायिकाओं और अन्य महिला पात्रों ने पहने हैं विशेष कर बिदाई के समय सुरेखा द्वारा पहने गए सोने के गहने जिसमें गले में पहनी गई ककनी, काले धागे से बंधी सोने की पुतरी, कान के कर्णफूल, नाक के लौंग तथा हाथ में चांदी का कटवा सभी वर्मा जी के घर के असली पुश्तैनी गहने हैं। सुरेखा तो उन गहनों को देखकर रोने लगी थी कि ये सारे गहने मैं ही पहनूंगी। दुलारी बाई ने भी गले में जो गोल कंठहार पहना है वह तथा फिल्म में अन्य महिला पात्रों द्वारा पहने गए गहने भी छत्तीसगढ़ के पारंपरिक गहने हैं।
...और इस तरह वर्मा जी द्वारा पूरी व्यवस्था करने के बाद मैं अपनी यूनिट लेकर पलारी पहुंच गया। पलारी में तिलक दाऊ रेस्ट हाउस के सामने बंदूक लेकर हमारे स्वागत में खड़े हुए मिले। पलारी में कदम रखते ही पहली ही नजर में मुझे भा गया वर्मा जी का पलारी गांव। सबसे पहले हम बालसमुंद पहुंचे जहां 9वीं सदी का ईंटों से बना ऐतिहासिक पुरातात्विक महत्व का सिद्धेश्वर मंदिर हैं वहां की खूबसूरती देखते ही बनती थी। तालाब, घाट और चारों ओर फैली हरियाली। हमने तुरंत मंदिर और बालसमुंद तालाब के किनारे फिल्म का एक गीत- होरे होरे होरे... (महेन्द्र कपूर और मीनू पुरूषोत्तम की आवाज में) की शूटिंग शुरु कर दी। फिल्म का एक और गाना बिहिनिया के उगत सूरूज देवता... (मीनू पुरूषोत्तम ) को भी हमने तालाब और मंदिर प्रांगण में ही सूट किया। तोर पैरी के झनर झनर... का फिल्मांकन दाऊ बलीराम जी के घर के सामने वाले तालाब में किया गया था।
मेरी फिल्म में अधिकांश कलाकार छत्तीसगढ़ से हैं। पलारी गांव के लोगों ने भी कई छोटी- छोटी भूमिकाएं निभाई हैं। वर्मा जी के भाई विष्णुदत्त ने तो नायक के पिता की महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। फिल्म में चूंकि सहकारिता पर बात की गई है तो बृजलाल जी का एक भाषण भी हमने फिल्म में रखा है। उन्हें हमने संवाद लिख कर दिया गया था पर उन्होंने अपने मन से ही सहकारिता पर संवाद बोल दिए। अत: उन्होंने जो बोला वही हमने फिल्म में रखा है। उनके साथ इस दृश्य में पलारी के बीडीओ ए. पी. श्रीवास्तव भी बैठे हुए दिखाई देते हैं। जिनका बहुत अधिक सहयोग हमें मिला।
सच बात तो यह है कि पलारी गांव के निवासियों का जैसा सहयोग मुझे मिला है वह भुलाए नहीं भूलता। जिसे अपना समझ कर भरोसे से शूटिंग करने आया था उन्होंने तो दगा किया पर असली अपने तो यहां मिले जिन्होंने बिना किसी स्वार्थ के भरपूर प्रेम लुटाया। शूटिंग के लिए वर्मा जी के चाचा बलिराम दाऊ का पूरा घर मुझे मिल गया था। जिसे जमींदार के घर के रूप में दिखाया गया है। बहुत बड़े आंगन वाला घर था उनका। दाऊ जी का मैं हमेशा आभारी रहूंगा।
हमने पलारी में 22 दिन बिताए। इस दौरान पलारी में कई स्थानों पर लगातार शूटिंग हुई। सारे कलाकार लगातार वहीं रहे। उन्होंने गांव के जीवन को पूरी तरह जीया। गांव में सादा खाना बनता था सब वही प्रेम से खाते थे। चूंकि फिल्म की सभी महिला पात्र गांव की पृष्ठभूमि से आईं थीं इसलिए लगातार इतने लंबे अरसे तक गांव में रहने में उन्हें कोई परेशानी नहीं हुई। इतना ही नहीं दुलारी बाई, उमा, सुरेखा सब खुद ही चावल चुन कर देती थीं और खाना बनाने में सहयोग करती थीं।
फिल्म के किसी भी दृश्य में कोई अतिरिक्त सेट नहीं लगाया गया था। घर, खेत, आंगन, मंदिर तालाब, गांव की गलियां सब कुछ बिल्कुल प्राकृतिक और वास्तविक रूप में ही रखे गए थे। जैसे स्कूल में जो शिक्षक पढ़ाते हुए नजर आते हैं वे वहां वास्तविक जीवन में भी शिक्षक थे। इसी तरह सतनामी गुरु के प्रवचन के लिए असली गुरु को बुलाया था। उन्हें कबीर के दोहे के साथ एक संवाद बोलना था- 'कुम्हार किसिम किसिम के हडिय़ा बनाथे पर सब्बेच माटी एकेच्च हे। गाय मन रंग रंग के होते पर सब्बो के दूध एके होते। अइसने ये दुनिया म रंग- रंग के चोला हम देखथन ...एकर सेती भइया मैं तुंहर मन से बिनती करत हवं एकता से राहव छूआछूत, ऊंच -नीच सब ल मिटावव उहीं म तुंहार, हमार, समाज सबके कल्याण हे।' लेकिन इस संवाद को गुरू बोल नहीं पाए, हमारे पास फिल्म कम थी अत: मैंने बचे हुए रील में संवाद को छोटा कर खुद ही डब किया। इसके बाद भी फिल्म के कई दृश्य व गाने फिल्माने बाकी थे। सुवा गीत -तरी हरी नहना मोर नहना री...और झमकत नदिया... की शूटिंग हम पलारी में ही करना चाहते थे पर अफसोस फिल्म की रील खत्म होने के कारण ऐसे कई महत्वपूर्ण दृश्यों को हमें मुम्बई में सेट लगाकर फिल्माना पड़ा। सबसे अधिक अफसोस तब हुआ जब दो दिन के लिए बस्तर महाराज महाराज प्रवीणचंद्र भंजदेव पलारी आए थे। उन्हें भी मैं अपनी फिल्म के लिए कैद करना चाहता था। वह दिन मुझे आज भी याद है जब बस्तर महाराज ने हमारे साथ बैठकर कढ़ी भात खाई थी।
वह यादगार दिन
शूटिंग के आखिरी दिन वर्मा जी ने हमें चाय के लिए बुलाया। चाय के साथ उन्होंने सबको छत्तीसगढ़ का प्रसिद्ध व्यंजन चावल के आटे का चीला खिलाया। वह दिन हम पूरी यूनिट के लिए यादगार दिन था। एक साथ कई चूल्हें चल रहे थे और तवे पर एक के बाद एक चीला बनते जाता था। पताल (टमाटर) की चटनी के साथ गरम गरम परोसे जा रहे उस दिन के चीले के स्वाद को मैं इतने बरसों बाद भी भूल नहीं पाता। पलारी से विदाई के दिन बीडीओ एपी श्रीवास्तव ने भी पूरी यूनिट को खाने पर बुलाया। श्रीवास्तव जी ने पूरी शूटिंग के दौरान भरपूर सहयोग दिया। मैं उनका, वर्मा जी का और पूरे पलारी गांव का आभारी हूं। उन सबके सहयोग और प्रेम के बगैर मैं यह फिल्म नहीं बना सकता था। लेकिन आज कहां हैं वैसे लोग और वैसा विश्वास कि जिन्होंने अपने सोने चांदी के पुश्तैनी गहने तिजौरी से निकाल कर शूटिंग के लिए बड़ी सहजता से दे दिए। धन्य है पलारी गांव और पलारी के लोग। (उदंती फीचर्स)

हर मुश्किल पार करके पूरा हुआ मनु नायक का सपना

- मोहम्मद जाकिर हुसैन

अनुपम चित्र कंपनी के मुलाजिम के तौर पर 350 रूपए मासिक पगार पाने वाले मनु नायक के सामने चुनौती थी कि छत्तीसगढ़ी में फिल्म बनाएं तो बनाएं कैसे...? एक तो रकम का जुगाड़ नहीं दूसरे हौसला डिगाने वाले भी ढेर सारे लोग।
पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म बनाने वाले मनु नायक की कहानी भी किसी फिल्मी पटकथा से कम नहीं है। 11 जुलाई 1937 को रायपुर तहसील के कुर्रा गांव (अब तिल्दा तहसील) में जन्मे श्री नायक 1957 में मुंबई चले गए थे कुछ बनने की चाह लेकर। यहां शुरूआती संघर्ष के बाद उन्हें काम मिला निर्माता-निर्देशक महेश कौल के दफ्तर में।
स्व. कौल की सुप्रसिद्ध पटकथा लेखक पं. मुखराम शर्मा के साथ व्यवसायिक साझेदारी में अनुपम चित्र नाम की कंपनी थी। इसी अनुपम चित्र के दफ्तर में वे मुलाजिम हो गए। मुलाजिम भी ऐसे कि लगभग 'ऑल इन वन' का काम। प्रोडक्शन से लेकर अकाउंट सम्हालने तक का। और इन सब से बढ़ कर हिंदी में लिखने वाले पं. मुखराम शर्मा की रफ स्क्रिप्ट को फेयर करने, कॉपी राइटर जैसी जवाबदारी भी। पं. मुखराम शर्मा की लिखी और महेश कौल की निर्देशित अनुपम चित्र की पहली फिल्म 'तलाक' 1958 में रिलीज हुई। राजेंद्र कुमार, कामिनी कदम, राधाकिशन और सगान अभिनीत इस फिल्म में गीत पं. प्रदीप और संगीत सी. रामचंद्र का था। फिल्म 'तलाक' सुपर-डुपर हिट साबित हुई और इसके साथ ही चल निकली अनुपम चित्र कंपनी। इस कंपनी ने न सिर्फ फिल्में बनाई बल्कि फिल्मों के प्रदर्शन के अधिकार भी खरीदे। इस तरह मनु नायक भी फिल्म निर्माण के हर पहलू से परिचित होते चले गए। इन्हीं सब अनुभवों को लेकर एक छत्तीसगढिय़ा अपनी भाषा में पहली फिल्म बनाने के लिए प्रेरित हुआ-
भोजपुरी ने दिखाया छत्तीसगढ़ी को रास्ता
वह 1961-62 का दौर था जब पहली भोजपुरी फिल्म 'गंगा मइया तोहे पियरी चढ़इबो' की रिकार्ड तोड़ सफलता ने भोजपुरी सिनेमा का सुखद अध्याय शुरू किया। दादर के रूपतारा स्टूडियो व श्री साउंड स्टूडियो में धड़ल्ले से दूसरी कई भोजपुरी फिल्मों की शूटिंग चल रही थी। माहौल ऐसा था कि क्षेत्रीय सिनेमा के नाम से भोजपुरी फिल्मों का सूरज पूरे शबाब पर था। ऐसे में रंजीत स्टूडियो में महेश कौल की दूसरी फिल्मों में व्यस्त फिल्मकार मनु नायक तक भी भोजपुरी फिल्मों की चर्चा पहुंची। 'गंगा मइया...' और उसके बाद बनने वाली 'लागी नाही छूटे राम' और 'बिदेसिया' जैसी दूसरी फिल्मों की सफलता ने मनु नायक को भी उद्वेलित किया कि आखिर हम छत्तीसगढ़ी में फिल्म क्यों नहीं बना सकते। बस फिर क्या था मनु नायक के मन में अपनी माटी से जुड़ी छत्तीगसगढ़ी फिल्म बनाने का सपना झिलमिलाने लगा।
अनुपम चित्र कंपनी के मुलाजिम के तौर पर 350 रूपए मासिक पगार पाने वाले मनु नायक के सामने चुनौती थी कि छत्तीसगढ़ी में फिल्म बनाएं तो बनाएं कैसे...? एक तो रकम का जुगाड़ नहीं दूसरे हौसला डिगाने वाले भी ढेर सारे लोग थे। जैसे ...भोजपुरी के नजीर हुसैन, शैलेंद्र, चित्रगुप्त और एसएन त्रिपाठी जैसे दिग्गज छत्तीसगढ़ी में नहीं हैं तो फिर तुम्हारी छत्तीसगढ़ी फिल्म मुंबई में बनेगी कैसे? इसमें कौन काम करेगा? बन भी गई तो देखेगा कौन? सिर्फ छत्तीसगढ़ में रिलीज कर घाटे की भरपाई कर पाओगे? ऐसे ढेर सारे 'ताने' और सवाल थे युवा मनु नायक के सामने। लेकिन पास था तो खुद का विश्वास और डॉ. हनुमंत नायडू 'राजदीप' जैसे हौसला देने वाले दोस्त का साथ। फिर महेश कौल और पं. मुखराम शर्मा की छाया का भी असर था कि बहुत सी दिक्कतें तो शुरूआती दौर में ही खत्म हो गई। और हो गया उनका सपना साकार। बन गई छत्तीसगढ़ी भाषा में उनकी पहली फिल्म 'कहि देबे संदेस' ।
सेक्रेटरी से प्रोडक्शन कंट्रोलर तक का सफर
अब थोड़ी बात मनु नायक के कैरियर को लेकर- लगातार विवादों के चलते मनु नायक का कैरियर भी प्रभावित हुआ। हालांकि उन्होंने अगली छत्तीसगढ़ी फिल्म 'पठौनी' की घोषणा कर दी थी। लेकिन 'कहि देबे संदेस' का कर्ज छूटते- छूटते और कई कारणों से 'पठौनी' शुरू नहीं हो पाई। इस बीच मुंबई में टिके रहने और परिवार चलाने मनु नायक 'जो काम मिला सो किया' की स्थिति में आ गए। उस दौर में भी कई मॉडल, हीरोइन बनने का ख्वाब लिए मुंबई पहुंच रहीं थीं, जिन्हें बतौर सेक्रेटरी मनु नायक ने मंजिल दिलाने की कोशिश की लेकिन मॉडल और उनके सेक्रेटरी दोनों को नाकामी हासिल हुई। तभी नई तारिका रेहाना (सुल्ताना) का पदार्पण हुआ। मनु नायक ने रेहाना की सेक्रेट्रीशिप कर ली। इस दौरान 'दस्तक' और 'चेतना' की सफलता ने रेहाना के कैरियर को नई ऊंचाईयां दीं। इसी बीच संयोगवश नायक को तब की सुपर स्टार तनूजा का सेक्रेट्री बनने का मौका मिला। तनूजा और मनु नायक दोनों एक दूसरे के लिए 'लकी' साबित हुए। बाद में इन्हीं संबंधों के चलते तनूजा ने अपनी बेटी काजोल को लांच करने पहली फिल्म 'बेखुदी' के निर्देशन का दायित्व भी मनु नायक को सौंपा था, हालांकि परिस्थितिवश फिल्म उनके हाथों से निकल गई। खैर, तनूजा की सेक्रेट्रीशिप के दौरान नायक ने प्रोडक्शन कंट्रोलर के तौर पर अपने कैरियर की नए ढंग से शुरूआत की। पहली फिल्म डायरेक्टर मुकुल दत्त की 'आज की राधा' थी। रेहाना सुल्ताना, महेंद्र संधू, रंजीत, डैनी डैंग्जोंपा और पद्मा खन्ना जैसे सितारों से जड़ी यह फिल्म कतिपय कारणों से रिलीज नहीं हो पाई। बाद में 'जीते हैं शान से' सहित बहुत सी फिल्में बतौर प्रोडक्शन कंट्रोलर उन्होंने की।
नहीं बन पाई 'पठौनी'
मनु नायक की दूसरी छत्तीसगढ़ी फिल्म'पठौनी' आज 40 साल गुजर जाने के बाद भी बनने के इंतजार में है। आज भी मनु नायक अपनी इस फिल्म को लेकर बेहद उत्साहित हैं। वह कहते हैं- अगर सही फाइनेंसर मिल जाए तो वह अपना 'पठौनी' प्रोजेक्ट हर हाल में पूरा करना चाहते हैं। वे कहते हैं मेरी 'पठौनी' नारी शक्ति जागरण पर केंद्रित है, उसके लिए मैंनें संगीतकार मलय चक्रवर्ती और गीतकार डा. एस. हनुमंत नायडू के साथ रायपुर में संगीत पक्ष की तैयारी की थी और यहां से मिथिलेश साहू व पुष्पलता कौशिक को मुंबई ले जाकर गीत रिकार्ड करवाए थे। 'पठौनी' का प्रोजेक्ट उसी दौरान पूरा करना था लेकिन 'कहि देबे संदेश' का कर्जा छूटते-छूटते मुझे कई साल लग गए। जिससे मेरा कैरियर भी चौपट हो गया।

नूतन की सादगी बस्तर का लाली लुगरा
पलारी का अनुभव सुनाते हुए मनु नायक ने बस्तर में फिल्माई गई कस्तूरी फिल्म की नायिका नूतन की सादगी को भी याद किया। वे बताते हैं कि कस्तूरी फिल्म में नूतन, मिथुन दा आदि को लेकर मैं बस्तर आया था। नूतन के आने की खबर लोगों को पहले ही लग चुकी थी। भीड़ से बचाने के लिए उन्हें मैंने राजनांदगांव में ही उतार लिया फिर वहां से उन्हें बस्तर ले गया। नूतन से मैंने कहा जंगल में बंगलो है आप शहर में रहेंगी या जंगल में। तब उन्होंने कहा कि आप जैसा रखेंगे वैसा रहूंगी। वे बस्तर में 10-12 दिन रही और वहां की जीवनचर्या को अपना लिया। भोजन, कपड़ा रहन- सहन सब बिल्कुल आदिवासियों जैसा सादगी से भरा। शूटिंग समाप्त होने पर उन्हें बस्तर की आदिवासी साड़ी लाल लुगरा चाहिए थी। वे स्वयं बाजार गईं और लाली लुगरा पसंद किया। मैंने वह लुगरा उन्हें भेंट स्वरूप दिया। उन्होंने एक कोसा कपड़ा भी अपने पैसे से खरीदा। जयकिशोर ने एक टिन शहद उन्हें भेंट किया। इतनी उच्च दर्जै की कलाकार होने के बावजूद उन्होंने यहां रहते हुए किसी किस्म की कोई शिकायत नहीं की। फिल्म आखिरी दांव में भी हमने साथ काम किया था।

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उदंती के इस अंक में प्रकाशति छत्तीसगढ़ी में बनने वाली पहली फिल्म 'कहि देबे संदेस' से संबंधित सामग्री मोहम्मद जाकिर हुसैन द्वारा संकिलित की गई हैं । वे भिलाई नगर के निवासी हैं तथा पेशे से पत्रकार हैं। उन्होंने प्रथम श्रेणी से बीजेएमसी करने के बाद फरवरी 1997 में दैनिक भास्कर से पत्रकरिता की शुरुवात की। दैनिक जागरण, दैनिक हरिभूमि, दैनिक छत्तीसगढ़ में विभिन्न पदों पर अपनी सेवाएं देने के बाद आजकल दैनिक भास्कर (भिलाई) में कार्यरत हैं। पत्रकारिता के साथ मो. जाकिर विभिन्न सामाजिक, संस्कृतिक आदि विषयों पर लेखन कार्य करते हैं, जिनका प्रकाशन देश के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में होता है।
संपर्क- क्वार्टर नं.6 बी, स्ट्रीट-20, सेक्टर-7, भिलाई नगर, जिला-दुर्ग (छत्तीसगढ़) मो.9425558442,
Email: mzhbhilai@yahoo.co.in

सुरीले गीतों का फनकार डॉ. एस. हनुमंत नायडू

डॉ. एस. हनुमंत नायडू मूलत: तेलुगू भाषी होने के बावजूद हिंदी और छत्तीसगढ़ी के प्रति दीवानगी की हद तक समर्पित थे। कॉलेज में वह हिंदी के प्रोफेसर थे तो पीएचडी उन्होंने छत्तीसगढ़ी लोकगीतों पर की। तकिया पारा दुर्ग में रहने वाले डॉ. नायडू ने शुरूआती कुछ साल दुर्ग में अध्यापन के बाद अपना कर्मक्षेत्र महाराष्ट्र को चुना। मुंबई के कॉलेज में नौकरी मिलने से पहले से ही वह युवा फिल्मकार मनु नायक के संपर्क में आ गए थे। इस युवा जोड़ी ने 'कहि देबे संदेस' में जो रचा वह अपने आप में एक अनूठा इतिहास बन चुका है। डॉ. नायडू के बारे में ज्यादातर जानकारी उनके बोरसी भिलाई में निवासरत भाई एस. वेंकट राव नायडू से मिली और कुछ जानकारी मनु नायक ने भी दी।
अध्यापन, साहित्य और पत्रकारिता में सक्रिय
डॉ. नायडू ने 34 साल तक हिंदी के प्रोफेसर के रूप में मुंबई के एल्फिंस्टन कॉलेज, नागपुर के वसंतराव नाइक कला व समाज विज्ञान संस्था (पूर्व में नागपुर महाविद्यालय)और कोल्हापुर के राजाराम कॉलेज में अपनी सेवाएं दी थी। उन्होंने मुंबई विश्वविद्यालय व नागपुर विश्वविद्यालय में एमए हिंदी का भी अध्यापन कार्य किया।
ऐसे पहुंचे डॉ. नायडू मुंबई
महाराष्ट्र जाने से पहले और महाराष्ट्र में मृत्युपर्यंत रहते हुए भी डॉ. नायडू छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़ी के प्रति समर्पित रहे। डॉ. नायडू के मुंबई पहुंचने और कॉलेज ज्वाइन करने के संबंध में फिल्मकार मनु नायक बताते हैं- दुर्ग में नायडू साहब स्कूल में पढ़ा रहे थे और साहित्यिक अभिरूचि की वजह से काव्य गोष्ठियों व साहित्यिक सम्मेलनों की एक प्रमुख पहचान बन कर उभरे थे। 1958 में किसी माध्यम से वह मेरे पास मुंबई आए। यहां एल्फिंस्टन कॉलेज में प्रोफेसर के पद के लिए उनका इंटरव्यू था। वह बेहद घबराए हुए थे। मैंने अखबारों में छपी उनकी रचनाएं और उनका अकादमिक रिकार्ड देखने के बाद पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा कि अगर फेयर सलेक्शन हुआ तो यह नौकरी आपको ही मिलेगी। और हुआ भी यही। नौकरी मिलते ही सबसे पहले मेरे पास आए और धन्यवाद दिया। इसके बाद हम लोगों की दोस्ती परवान चढ़ती गई। मेरी फिल्म 'कहि देबे संदेस' की पृष्ठभूमि भी नायडू साहब के साथ बैठकों में ही बनीं और जब सारे लोग मुझे हतोत्साहित कर रहे थे तब हौसला देने वाले एकमात्र नायडू साहब ही थे। यह तो तय ही था कि मेरी फिल्म के गीत नायडू साहब ही लिखेंगे, क्योंकि मैंने उनका काम देखा था। कोई भी सिचुएशन बता दो वह तुरंत गीत लिख देते थे। नायडू साहब ने मेरी 'कहि देबे संदेस' और 'पठौनी' में 'राजदीप' उपनाम से गीत लिखे। गीतों की रिकार्डिंग के दौर का एक वाकया याद आ रहा है मुझे। मैंने रफी साहब को बताया था कि मेरी फिल्म में आपको छत्तीसगढ़ी के गीत गाने हैं। शायद यहां थोड़ी सी चूक हो गई और रफी साहब ने छत्तीसगढ़ी का मतलब गीतकार का नाम समझ लिया। और पहले गीत की रिकार्डिंग के दौरान वे नायडू साहब को 'मिस्टर छत्तीसगढ़ी' कह कर पुकारने लगे। बाद में मैंने रफी साहब को बताया कि छत्तीसगढ़ी एक बोली है। रफी साहब ने बाद में अपनी गलती सुधार ली और दूसरे गीत 'तोर पैरी के...' की रिकार्डिंग के दौरान नायडू जी का ही संबोधन दिया।
छत्तीसगढ़ी संस्कार उन्हें घुट्टी में मिला था
डॉ. एस. हनुमंत नायडू का जन्म 7 अप्रैल 1933 को हुआ। मारवाड़ी स्कूल में पढ़ाई के बाद उन्होंने शासकीय बहुद्देशीय उच्चतर माध्यमिक शाला और महात्मा गांधी स्कूल में शिक्षक का दायित्व निभाया। अपने बेहतरीन अकादमिक रिकार्ड की वजह से 1958 में उन्हें मुंबई के एल्फिंस्टन कॉलेज में हिंदी के व्याख्याता के तौर पर जॉब मिल गई। यहां से वह कोल्हापुर गए और उसके बाद नागपुर के कॉलेज से सेवानिवृत्त हुए। 25 फरवरी 1998 को नागपुर में हृदयघात से उनका निधन हुआ। उनके परिवार में पत्नी श्रीमती कुसुम नायडू के अलावा तीन पुत्र एस. रजत नायडू ,एस. अमित नायडू और एस. सुचित नायडू हैं। उनकी कई पुस्तकें तथा सैकड़ों कविताएं, गजल, व्यंग्य लेख तथा शोध निबंध देश भर की प्रमुख पत्र- पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं।

रफी साहब की दरियादिली देख सभी गायकों ने घटा दी अपनी फीस

मनु नायक अपने सीमित बजट की वजह से गीतकार डॉ. एस. हनुमंत नायडू 'राजदीप' और संगीतकार मलय चक्रवर्ती पर यह राज जाहिर नहीं करना चाहते थे कि वह बड़े गायक-गायिका को नहीं ले सकेंगे। लेकिन, होनी को कुछ और मंजूर था। तब मलय चक्रवर्ती धुन तैयार करने के बाद पहला गीत रफी साहब की आवाज में ही रिकार्ड करने की तैयारी कर चुके थे और उनकी रफी साहब के सेक्रेट्री से इस बाबत बात भी हो चुकी थी। सेक्रेट्री रफी साहब की तयशुदा फीस से सिर्फ 500 रूपए कम करने राजी हुआ था। सीमित बजट के बावजूद अपनी धुन के पक्के मनु नायक ने हिम्मत नहीं हारी और मलय दा को लेकर सीधे फेमस स्टूडियो ताड़देव पहुंच गए।
उस घटना को याद करते हुए मनु जी बताते हैं कि 'वहां जैसे ही रफी साहब रिकार्डिंग पूरी कर बाहर निकले, उनके वक्त की कीमत जानते हुए मैनें एक सांस में सब कुछ कह दिया। मैनें अपने बजट का जिक्र करते हुए कहा कि मैं छत्तीसगढ़ी की पहली फिल्म बना रहा हूं, अगर आप मेरी फिल्म में गाएंगे तो यह क्षेत्रीय बोली- भाषा की फिल्मों को नई राह दिखाने वाला कदम साबित होगा। चूंकि रफी साहब मुझसे पूर्व परिचित थे, इसलिए वह मुस्कुराते हुए बोले- कोई बात नहीं, तुम रिकार्डिंग की तारीख तय कर लो। और इस तरह रफी साहब की आवाज में पहला छत्तीसगढ़ी गीत-'झमकत नदिया बहिनी लागे' रिकार्ड हुआ। इसके अलावा रफी साहब ने मेरी फिल्म मे दूसरा गीत 'तोर पैरी के झनर-झनर, तोर चूरी के खनर-खनर, जीव ह रेंगाही तोर हंसा असन' को भी अपना स्वर दिया। इन दोनों गीतों की रिकार्डिंग के साथ खास बात यह रही कि रफी साहब ने किसी तरह का कोई एडवांस नहीं लिया और रिकार्डिंग के बाद मैनें जो थोड़ी सी रकम का चेक उन्हें दिया, उसे उन्होंने मुस्कुराते हुए रख लिया। मेरी इस फिल्म में मन्ना डे, सुमन कल्याणपुर, मीनू पुरूषोत्तम और महेंद्र कपूर ने भी गाने गाए लेकिन जब रफी साहब ने बेहद मामूली रकम लेकर मेरी हौसला अफज़ाई की तो उनकी इज्जत करते हुए इन दूसरे सारे कलाकारों ने भी उसी अनुपात में अपनी फीस घटा दी। इस तरह रफी साहब की दरियादिली के चलते मैं पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म में इन बड़े और महान गायकों से गीत गवा पाया।'
मुबारक बेगम की जगह लिया सुमन कल्याणपुर ने
पहले लता मंगेशकर फिर शमशाद बेगम और मुबारक बेगम से होते हुए 'कहि देबे संदेस' का विदाई गीत 'मोर अंगना के सोन चिरैया वो नोनी' अंतत: आया सुमन कल्याणपुर के हिस्से में।
हो अ हो हो अ हो अ हो
मोरे अंगना के सोन चिरइया ओ नोनी
अंगना के सोन चिरइया ओ नोनी
तैं तो उडि़ जाबे पर के दुवार ...
इसका खुलासा भी बड़ा रोचक है। निर्माता- निर्देशक मनु नायक इस बारे में बताते हैं कि इस विदाई गीत के लिए हमारे सामने पहली पसंद तो लता दीदी थीं लेकिन उनकी डेट तत्काल नहीं मिल रही थी फिर उनकी फीस को लेकर भी हमारे लिए थोड़ी उलझन थी। अंतत: हम लोगों ने शमशाद बेगम से इस गीत को गवाना चाहा। खोजबीन करने पर पता चला कि शमशाद बेगम अब गाना बिल्कुल कम कर चुकीं हैं। ऐसे में हम लोगों ने मुबारक बेगम को इस गीत के लिए एचएमवी से अनुबंधित कर लिया। मुबारक बेगम स्टूडियो पहुंची और रिहर्सल भी किया। लेकिन होनी को कुछ और ही मंजूर था। उनकी आवाज में यह गाना जम भी रहा था। लेकिन दिक्कत आ रही थी महज एक शब्द के उच्चारण को लेकर। गीत में जहां 'राते अंजोरिया' शब्द है उसे वह रिहर्सल में ठीक उच्चारित करती थीं लेकिन पता नहीं क्यों जैसे ही रिकार्डिंग शुरू करते थे वह 'राते अंझुरिया' कह देती थीं। इसमें हमारे एक शिफ्ट का नुकसान हो गया। उस रोज पूरे छह घंटे में मुबारक बेगम से 'अंजोरिया' नहीं हुआ वह 'अंझुरिया' ही रहा। अंतत: हमने अनुबंध की शर्त के मुताबिक उनका और सारे साजिंदों व तकनीशियनों का भुगतान किया और अगले ही दिन सुमन कल्याणपुर को अनुबंधित कर उनकी आवाज में यह विदाई गीत रिकार्ड करवाया। चूंकि हम एचएमवी से पहले ही अनुबंध कर चुके थे, ऐसे में गीत न गवाने के बावजूद मुबारक बेगम का नाम टाइटिल में हमें देना पड़ा।
हरिप्रसाद चौरसिया की बांसुरी का जादू
'कहि देबे संदेस' के संगीत का एक और सशक्त पक्ष यह भी है कि फिल्म में गीतों से लेकर पाश्र्व में जहां कहीं भी बांसुरी के स्वर सुनाई देते हैं वह पं. हरिप्रसाद चौरसिया के बजाए हुए हैं। ददरिया शैली में गाया गया गीत 'होरे... होरे... होरे... होर' सुनकर इसे अच्छी तरह समझा जा सकता है। फिल्म का संगीत पक्ष सशक्त रखने मनु नायक ने किस तरह की पहल की खुद उन्हीं की जुबानी सुनिए- जब चक्रवर्ती साहब के साथ फिल्म के संगीत को लेकर चर्चा चल रही थी तब यह बात उठी कि आर्केस्ट्रा कितना बड़ा रखा जाए और कितने साजिंदे हों? मैंने चक्रवर्ती साहब से कहा कि देखिए यहां तो साधारण बजट की फिल्म में भी आर्केस्ट्रा में 70 से 100 साजिंदे होते हैं, लेकिन हमारा बजट बेहद सीमित है, हम इतना नहीं कर पाएंगे। ऐसे में चक्रवर्ती साहब ने 10 से 15 साजिंदों के साथ गीत रिकार्ड करने अपनी सहमति दी लेकिन इसके साथ ही उनकी शर्त यह थी कि सारे साजिंदे ए ग्रेड या एक्स्ट्रा स्पेशल ए ग्रेड के लोग होने चाहिए। तब साजिंदों में एबीसी तीन ग्रेड होते थे। इसके ऊपर भी एक्स्ट्रा स्पेशल ए ग्रेड हुआ करता था। इस ग्रेड में पं. हरिप्रसाद चौरसिया आते थे। सभी साजिंदों का पारिश्रमिक भी ग्रेड के हिसाब से होता था। इस आधार पर चक्रवर्ती साहब ने सबसे पहले पं. हरिप्रसाद चौरसिया को अनुबंधित किया। इसके बाद ए ग्रेड के सुदर्शन धर्माधिकारी और इंद्रनील बनर्जी भी अनुबंधित किए गए। सुदर्शन धर्माधिकारी को ठेका, तबला और पखावज में महारत हासिल थी वहीं सितार वादन में इंद्रनील बनर्जी का कोई सानी नहीं था। ऐसे गुणी साजिंदों को लेकर हमनें सारे गीत और पार्श्व संगीत रिकार्ड किए।

मुबारक बेगम नहीं गा सकीं बिदाई गीत

मीनू पुरूषोत्तम की आवाज में गया यह गीत 'बिहनिया के उगत सुरूज देवता, तोरे चरणन के प्रभु जी में दासी हवव....' पलारी के बालसमुंद तालाब व मंदिर प्रांगण में फिल्माया गया है।

मीनू पुरूषोत्तम की आवाज में गाए इस सुवा गीत 'तरी हरी नहना मोर नहनारि नहना मोरि भई सुवा हो...' की शूटिंग फिल्म समाप्त होने के कारण पलारी में नहीं फिल्माई जा सकी।


मोहम्मद रफी ने फिल्म का एक और संगीतमय गीत 'तोर पैरी के झनर झनर...' मीनू पुरूषोत्तम के साथ गाया। इस गीत की शूटिंग गांव के तालाब के घाट पर की गई।

सुमन कल्याणपुर की आवाज में गाया यह बिदाई गीत 'मोर अंगना के सोन चिरइया नोनी...' दाऊ बलीराम जी के घर के विशाल आंगन का है जहां फिल्म के अधिकांश दृश्य फिल्माए गए हैं।

महेन्द्र कपूर की आवाज में गाए ददरिया शैली के गीत 'होरे...होरे होरे..' का फिल्मांकन बालसमुंद मंदिर में किया गया है। इसमें हरिप्रसाद चौरसिया के बांसुरी की धुन का बड़ी खूबसूरती से इस्तेमाल हुआ है।
मन्ना डे और साथियों के स्वर में गाये गीत के दृश्य 'कही देबे संदेश सबो ला..... दुनिया के मन आगू बढग़े चंदा तक म जाए रे भइया ...'

नए कलाकारों को मिला महत्व

'कहि देबे संदेस' सीमित बजट में बनीं थी। इस लिहाज से कलाकारों के मामले में निर्माता- निर्देशक मनु नायक को बहुत हद तक समझौता करना पड़ा। मुख्य पात्रों के अलावा ढेर सारे पात्र स्थानीय स्तर पर लिए गए या फिर ऐसे लोगों को मौका दिया गया जो बड़े परदे पर आने का ख्वाब संजोए हुए थे। मुख्य कलाकारों में नायक की भूमिका कान मोहन ने निभाई है। कान मोहन सुपरहिट सिंधी फिल्म 'अबाना' में मुख्य भूमिका की वजह से चर्चा में आए थे। इसके बाद छत्तीसगढ़ी की शुरूआती दौर की दोनों फिल्में 'कहि देबे संदेस' और 'घर-द्वार' में नायक की भूमिका कान मोहन ने ही निभाई। इसके अलावा बाद की फिल्मों में वह ज्यादातर चरित्र भूमिकाओं में नजर आए। उनकी एक प्रमुख फिल्म अमिताभ बच्चन और नवीन निश्चल अभिनीत 'फरार' है। महेश कौल निर्देशित 'हम कहां जा रहे हैं' में भी कान मोहन नजर आए थे। वह राजेश खन्ना और कादरखान के साथ थियेटर में भी सक्रिय रहे।
फिल्म की नायिकाओं में उमा मूलत: मराठी फिल्मों की नायिका थी। हिंदी फिल्मों में राजश्री प्रोडक्शन की 'दोस्ती' में बहन का किरदार उमा ने ही निभाया था। नायिका की बहन का किरदार अदा करने वाली सुरेखा की पहली फिल्म ख्वाजा अहमद अब्बास की 'शहर और सपना' थी जिसे राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। नायक कान मोहन के दोस्त की भूमिका साप्ताहिक हिंदुस्तान के तब के पत्रकार कपिल कुमार थे।
खल पात्र कमल नारायण का किरदार निभाने वाले स्व.जफर अली फरिश्ता रायपुर के थे, जिन्होंने मुंबई फिल्मी दुनिया में लंबा अरसा गुजारा और छोटी- बड़ी भूमिकाएं करने के अलावा उन्होंने 'भागो भूत आया' नाम से फिल्म भी बनाई थी, जिसे अपेक्षित प्रतिसाद नहीं मिला।
फिल्म में नायिका की मां की भूमिका निभाने वाली दुलारी बाई किसी परिचय की मोहताज नहीं है। उस दौर में निरूपा राय से पहले दुलारी बाई 'मां' के किरदार के लिए सर्वाधिक व्यस्त कलाकार थी। राजेश खन्ना व धर्मेंद्र की फिल्मों में तब दुलारी बाई अनिवार्य हिस्सा हुआ करती थीं। वहीं नायक की मां की भूमिका निभाने वाली सविता गुजराती रंगमंच की कलाकार थी। फिल्म में नायिका के पिता की भूमिका निभाई है रमाकांत बख्शी ने। खैरागढ़ निवासी और प्रसिद्ध साहित्यकार पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी के भतीजे रमाकांत बख्शी तब रंगमंच में सक्रिय थे। इस फिल्म के बाद एक अप्रत्याशित घटनाक्रम में उनकी मौत हो गई थी। वहीं नायक के पिता की भूमिका अदा करने वाले विष्णुदत्त वर्मा पलारी गांव के दाऊ थे उनका भी रंगमंच के प्रति जुड़ाव था वे बृजलाल वर्मा के चचेरे भाई थे।
फिल्म की शुरूआत में मनु नायक ने आभार में बीडीओ पलारी के एपी श्रीवास्तव का भी नाम दिया है। दरअसल प्रशासनिक स्तर पर श्रीवास्तव ने फिल्म की यूनिट को काफी मदद की थी। जब फिल्म में दोनों नायिकाओं के बचपन की भूमिका का मामला आया तो मनु नायक ने श्रीवास्तव की बेटी बेबी कुमुद और विष्णुदत्त वर्मा की बेटी बेबी केसरी को यह मौका दिया। दोनों के नाम का उल्लेख टाइटिल में भी है। फिल्म मे स्कूल के शिक्षक की भूमिका अदा करने वाले सोहनलाल वास्तविक जीवन में भी शिक्षक ही थे। उस वक्त उनकी पदस्थापना बलौदाबाजार में थी।
फिल्म के ज्यादातर गीतों में अनजाने से कलाकारों को मौका दिया गया है। मसलन 'होरे...होरे' गीत ही लीजिए। इस गीत में कलकत्ता की थियेटर आर्टिस्ट बीना और मराठी रंगमंच के कलाकार सतीश नजर आते हैं। सतीश के साथ छोटे कद का कलाकार टिनटिन भी मराठी रंगमंच का है। एक अन्य गीत 'तोर पैरी के...' में मुंबई के ही एक कलाकार पाशा को मौका दिया गया जिसमें उनके साथ राजनांदगांव की कलाकार कमला बैरागी भी नजर आती हैं।
फोटो में : १. रमाकांत बख्शी जिन्होंने जमींदार की भूमिका निभाई है वे प्रसिद्ध साहित्यकार पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी के भतीजे हैं । उनकी पत्नी का किरदार निभाया हैं दुलारी बाई ने चित्र में नीचे बैठी चावल साफ कर रही हैं। साथ बैठे हैं पंडित की भूमिका में रसिक राज व पीछे खड़ी हैं छोटी बहन की भूमिका में सुरेखा।
2. नायक कान मोहन के साथ नायिका उमा
3. नायक के माता- पिता की भूमिका में विष्णुदत्त वर्मा व सविता

छत्तीसगढिय़ा मिठास घोलने वाले संगीतकार मलय चक्रवर्ती

चक्रवर्ती साहब मूलत: पं. उदय शंकर के लिटिल बैले ग्रुप के मुख्य गायक थे। तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू की सरकार ने पंचशील सिद्धांत के आधार पर लिटिल बैले ग्रुप जैसे सांस्कृतिक समूहों को मान्यता दी थी जो विदेशों में जाकर भारतीय संस्कृति का प्रचार-प्रसार करें। इस ग्रुप में पं.रविशंकर सितार वादक और पं. उदय शंकर नृत्य निर्देशक थे। इसी ग्रुप से पं. हरिप्रसाद चौरसिया सहित कई दूसरे युवा कलाकार भी जुड़े हुए थे। जब यह ग्रुप टूट गया तो चक्रवर्ती साहब को राजा मेहंदी अली खां मुंबई की फिल्मी दुनिया में ले आए।

फिल्म 'कहि देबे संदेस' में अपनी धुनों का जादू जगाने वाले संगीतकार मलय चक्रवर्ती ने सीमित फिल्मों में ही संगीत दिया है। लेकिन फिल्मी दुनिया में उनका योगदान उत्कृष्ट गायक- गायिकाओं की जमात तैयार करने में ज्यादा रहा। मलय चक्रवर्ती ने 50 के दशक में एन मूलचंदानी की नलिनी जयवंत और मोतीलाल अभिनीत फिल्म 'मुक्ति' में संगीत दिया था। जिसमें लता मंगेशकर, मोहम्मद रफी और आशा भोंसले ने अपनी आवाज का जादू जगाया था। 'मुक्ति' की अपार सफलता के बाद उन्हें वी. शांताराम जैसे निर्देशकों ने अपनी फिल्म में अनुबंधित किया लेकिन 'कमबख्त बीड़ी' की आदत ने चक्रवर्ती को राजकमल कला मंदिर से दूर कर दिया।
इस बारे में विस्तार से मनु नायक बताते हैं कि- 'मुक्ति' के निर्माता एन. मूलचंदानी संगीत के रसिक थे और उन्होंने चक्रवर्ती साहब के लिए अपने दफ्तर में एक जगह तय कर दी थी कि वो यहां आकर रोज उन्हें कोई न कोई धुन सुनाएंगे। मूलचंदानी जी के दफ्तर के ठीक बगल में हमारा अनुपम चित्र का दफ्तर था। ऐसे में गाते हुए चक्रवर्ती साहब की आवाज ऑफिस से बाहर तक आती थी। उनकी आवाज में ऐसी कशिश थी कि दिल खिंचा चला आता था। एक- दो दिन तो मैंने नजरअंदाज किया लेकिन बाद में जब पता लगाया तो मालूम हुआ कि चक्रवर्ती साहब मूलचंदानी जी के म्यूजिक डायरेक्टर हैं।
इसी दौरान संगीतकार जमाल सेन साहब भी हमारी कंपनी से जुडऩे के लिए बहुत कोशिश कर रहे थे। जमाल सेन साहब को मैंने ही महेश कौल साहब से मिलवाया था। ऐसे में मैंने सोच रखा था कि 'कहि देबे संदेस' में मैं उन्हें ही लूंगा। लेकिन चक्रवर्ती साहब को सुनने के बाद जमाल सेन साहब थोड़े फीके लगने लगे। हालांकि दोनों ही गुणी आदमी थे। लेकिन भाग्य जिस का था। चक्रवर्ती साहब की फिल्म इंडस्ट्री में इतनी इज्जत थी कि वे जिस सिंगर को गाने के लिए बोलते थे वह तत्काल तैयार हो जाता। ऐसे में रिकार्डिंग की तारीख तय करने में हमारे लिए बहुत ही सहूलियत हो गई। चक्रवर्ती साहब की आदत ऐसी थी कि वह पहले धुन बनाते थे, यदि उस दौरान मौजूद सारे लोगों को धुन पसंद आ जाए तो ही वे गीत लिखवा कर उसकी रिकार्डिंग की तारीख तय करते थे।
चक्रवर्ती साहब द्वारा 'मुक्ति' में दिए संगीत से प्रभावित होकर वी. शांताराम ने अपनी संस्था राजकमल कला मंदिर में उन्हें अनुबंधित कर लिया था। जब पहली बार चक्रवर्ती साहब उन्हें अपनी धुन सुनाने बैठे तो आदतन इसके पहले वह बीड़ी सुलगा रहे थे। लेकिन वी. शांताराम स्टूडियो में ऐसी अनुशासनहीनता बर्दाश्त नहीं कर सकते थे। लिहाजा, शांताराम जी ने चक्रवर्ती साहब के सामने शर्त रख दी कि आप जितने घंटे इस स्टूडियो में रहेंगे बीड़ी बिल्कुल नहीं पीएंगे। शांताराम जी की यह शर्त सुन चक्रवर्ती साहब नाराज हो गए और तुरंत अपना छाता पकड़ा और वहां से निकल लिए। इसके बाद चक्रवर्ती साहब हिंदी फिल्मों में नहीं जम पाए। कुछ बांग्ला फिल्मों में जरूर उन्होंने संगीत दिया। हां 'कहि देबे संदेस' के बाद 'पठौनी' में भी चक्रवर्ती साहब ने संगीत दिया।
बाद में उन्होंने फिल्मों में संगीत देने के बजाए संगीत की शिक्षा देने का फैसला ले लिया। उनके शिष्यों में कविता कृष्णमूर्ति, मीनू मुखर्जी (हेमंत कुमार की बेटी), छाया गांगुली, आरती मुखर्जी और आज के गायक शान के पिता मानस मुखर्जी जैसे लोगों का शुमार है। तब हालत यह थी कि गायकी में जिन्हें भी आना होता, वह चक्रवर्ती साहब के पास पहुंच जाता था। यहां तक कि वरिष्ठ संगीतकारों में हेमंत कुमार मुखर्जी अपनी बेटी को चक्रवर्ती साहब के पास संगीत सीखने के लिए भेजते ही थे साथ ही खुद भी चक्रवर्ती साहब से संगीत के गुर सीखते चले जाते थे।

'कहि देबे संदेस' की व्यथा-कथा

'कहि देबे संदेस' की कहानी छुआछूत और जातिवाद पर करारा प्रहार थी। इसके साथ ही फिल्म में सहकारिता पर आधारित खेती (को-आपरेटिव फार्मिंग) को भी प्रमोट किया गया था। कहानी शुरू होती है जमीन के विवाद को लेकर। पटवारी की लिखा- पढ़ी की गड़बड़ी की वजह से जमींदा शिव प्रसाद पाठक (रमाकांत बख्शी) के हक में जा रही जमीन जो थी असल में चरणदास (विष्णुदत्त वर्मा) की। फिर भी अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर जमींदार मामला जीत जाता है। इस अन्याय के खिलाफ चरणदास फरसा उठा कर जमींदार को मारने निकल पड़ता है। इसी दौरान चरणदास की पत्नी फूलबति (सविता) भाग कर जमींदार के घर पहुंचती है और जमींदार की पत्नी पार्वती (दुलारी बाई) से गुहार लगाती है। जब जमींदार इस गुहार को सुनता है तो वह भी बंदूक लेकर चरणदास को मारने निकल पड़ता है। ऐसे में हताश फूलबति जाकर तालाब में कूद जाती है। पीछे आ रहा जमींदार उसे बचा लेता है। इस तरह दुश्मनी को भूल दो परिवार एक हो जाते हैं।
इसी बीच कहानी में जात- पा के भेद को स्कूल में पढ़ रहे बच्चों के माध्यम से आगे बढ़ाया गया है जिसमें छोटी जात का बच्चा नयनदास जमींदार की बहन गीता को लड्ड़ू देता है गीता भाई शिव प्रसाद के डर से लड्ड़ू कुएं में फेंक देती है। लेकिन बेटे की शिकायत पर सीता और गीता को भाई से डांट खानी पड़ती है।
कहानी आगे बढ़ती है और जमींदार की दोनों बहनें सीता (सुरेखा), गीता (उमा) और चरणदास का बेटा नयनदास (कान मोहन) बड़े हो जाते हैं। गीता और नयनदास का बाल सुलभ आकर्षण प्रेम में परिवर्तित हो जाता है। आदर्शवादी जमींदार दहेज का विरोधी है इसलिए उसकी दोनों बहनों के लिए सही रिश्ते नहीं आते हैं। एक और पात्र कमल नारायण (जफर अली फरिश्ता) स्वजातीय होने की वजह से जमींदार की बहन से शादी करना चाहता है इसके लिए वह पंडित (शिवकुमार दीपक) को प्रलोभित कर बार- बार अपना रिश्ता जमींदार के घर भेजता है। लेकिन जमींदार इसके लिए तैयार नहीं होता। ऐसे में कमल नारायण लड़कियों की बदनामी शुरू कर देता है। नायक नयनदास का डॉक्टर दोस्त भी अपना वादा निभाते हुए उसी गांव में डॉक्टरी करने आ जाते हैं। जमींदार सजातीय होने के कारण डॉ. को अपनी बहन उमा से शादी का प्रस्ताव रखता है पर छोटी बहन सुरेखा डॉ. को पसंद करने लगती है। अंत में उनकी ही शादी होती है। विवाद के कारण मनु नायक वैसा अंत नहीं कर पाए जैसा वे चाहते थे।
रूकावटें भी कम नहीं थी
अंग्रेजी की कहावत 'वैल बिगन इस हाफ डन' की तर्ज पर स्टोरी, कास्टिंग और दूसरे तमाम पहलुओं को फाइनल करने के बाद अंतत: मनु नायक ने तय किया पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म को छत्तीसगढ़ अंचल में ही फिल्माया जाए। वे फिल्म के निर्देशन की जवाबदारी महेश कौल के सहायक के तौर पर सेवा दे रहे रायपुर के निरंजन तिवारी को देना चाहते थे। लेकिन कुछ व्यक्तिगत कारणों से अनुबंध के बावजूद मनु नायक ने निरंजन तिवारी की जगह खुद ही निर्देशन की जवाबदारी सम्हालने का फैसला लिया। फिर भी 'कहि देबे संदेस' के रास्ते में रूकावटें कम नहीं हुईं। फिल्म निर्माण के लिए मनु नायक का रायपुर के व्यवसायिक भागीदारों नारायण चंद्राकर और तारेंद्र द्विवेदी के साथ बाकायदा अनुबंध हुआ था, जिसमें प्रमुख रूप से इस बात का उल्लेख था कि श्री नायक अपनी पूरी टीम लेकर रायपुर पहुंचेंगे और इन भागीदारों द्वारा पहले से तय की गई लोकेशनों पर शूटिंग होगी जिसका सारा खर्च भी भागीदार ही उठाएंगे। पर किस्मत को कुछ और ही मंजूर था, उन्होंने अनुबंध तोड़ दिया।
ऐसे मुश्किल वक्त में मनु नायक को रायपुर के रामाधार चंद्रवंशी, पलारी के विधायक बृजलाल वर्मा, बीडीओ एपी श्रीवास्तव और पलारी गांव के लोगों का उदार सहयोग मिला। फिल्म के टाइटिल में मनु नायक ने इन सभी लोगों का आभार भी जताया है।
विवाद की कहानी
मनु नायक ने बताया कि मेरी फिल्म 'कहि देबे संदेस' को जबरिया विवादित कराने का श्रेय रायपुर के उन सगान को जाता है, जिन्हें मुंबई में मैं अपनी इस फिल्म में एक महत्वपूर्ण जवाबदारी दे रहा था। लेकिन वह रात भर ड्रिंक करके सुबह उपलब्ध नहीं होते थे। इसलिए मैनें उन्हें अपनी फिल्म से हटा दिया। इसे उन्होंने अपना अपमान समझा और रायपुर आकर लोगों को भड़का दिया कि इस फिल्म में उनके समुदाय को नीचा दिखाया गया है। इससे लोग एकजुट हो गए और धमकी दे दी कि टॉकीज में आग लगा देंगे और किसी भी हालत में इस फिल्म को रिलीज नहीं होने देंगे। मनोहर टॉकीज के संचालक शारदाचरण तिवारी जी इन धमकियों से बेहद परेशान थे, उन्होंने भी फिल्म के पोस्टर अपने यहां से उतरवा लिए और फिल्म प्रदर्शित करने से मना कर दिया। इसके बाद भी विवाद खत्म नहीं हुआ। मेरी फिल्म में एक पात्र का नाम कमल नारायण है। संयोग से इसी नाम के एक चर्चित वकील और कांग्रेसी नेता रायपुर में थे। उन्होंने भी आपत्ति जता दी कि उन्हें व उनके समुदाय को बदनाम करने के लिए खल पात्र का नाम कमल नारायण जानबूझकर रखा गया है। उन्हें भी मैनें किसी तरह समझाया।
इंदिरा गांधी ने देखी सांसदों-विधायकों के साथ
जिन लोगों ने विवाद को हवा दी थी उन्होंने दुर्ग और भाठापारा में फिल्म रिलीज होने के तुरंत बाद कु लोगों को दिल्ली ले जाकर फिल्म पर प्रतिबंध लगाने की मांग कर दी। उच्च स्तरीय शिकायत के बाद तत्कालीन सूचना एवं प्रसारण मंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने फिल्म देखने के लिए एक कमेटी बनाई। स्क्रीनिंग की तारीख तय हुई तो मैंने मंत्रालय में अपील की कि इस दौरान छत्तीसगढ़ के तमाम सांसदों और दिल्ली में उपलब्ध छत्तीसगढ़ के विधायकों को भी बुलवाया जाए। लिहाजा सांसद डॉ. खूबचंद बघेल, मिनीमाता और विधायक बृजलाल वर्मा सहित कई लोगों ने फिल्म देखी।
स्क्रीनिंग के दौरान श्रीमती गांधी भी पहुंची उन्होंने फिल्म का कुछ हिस्सा देखा और रायपुर की कांग्रेसी सांसद मिनी माता से कुछ जानकारी ली। मैं उस स्क्रीनिंग में नहीं था। मुझे माता जी और डॉ. बघेल ने बताया था कि इंदिरा जी ने फिल्म को बड़े चा से देखा था। इसके बाद माताजी ने मुझे इंदिरा जी से मिलवाया तो मैनें तुरंत उन्हें विवाद की पृष्ठभूमि का सार बता दिया। इस पर उन्होंने कहा कि 'नहीं-नहीं आपने बहुत अच्छी फिल्म बनाई है और ऐसी फिल्म और बननी चाहिए।' इसके बाद शाम को उन्होंने प्रेस में अपना वक्तव्य दे दिया कि- यह फिल्म राष्ट्रीय एकता पर आधारित है।
फिर तो सारा विरोध स्वत: दब गया। हालांकि रायपुर में एक समुदाय विशेष के लोग तब भी मेरी फिल्म को लेकर परेशान थे। उनके समुदाय के कुछ बुजुर्ग मेरे रायपुर वाले घर में आकर रोज आजिजी करते थे कि-'भांवर के सीन भर ला काट दे ददा। ऐसे में रोज-रोज की आजिजी से तंग आकर मैनें नायक- नायिका के फेरे सहित कुछ दृश्य काट दिए। मैनें अनमने ढंग से सिर्फ नायिका की बिदाई दिखा कर नायक को फौज में जाते हुए एक दृश्य डाल दिया। हालांकि इस दृश्य की वजह से ही फिल्म का अंत गड़बड़ा गया।
एक चिटठी से फिल्म हुई टैक्स फ्री
नई दिल्ली में विवाद का पटाक्षेप होने के पहले से मैं मध्यप्रदेश के तत्कालीन रेवेन्यू मिनिस्टर से मिलकर अपनी फिल्म को टैक्स फ्री करवाने की जुगत में लगा था। लेकिन कोई बात नहीं बन रही थी। ऐसे में मंैने तत्कालीन मुख्यमंत्री द्वारका प्रसाद मिश्र को एक चिटठी लिखी। जिसमें मैंनें अपना उद्देश्य उल्लेखित करते हुए अंत में लिखा कि-'एक महान जननेता के रूप में ही नहीं बल्कि 'कृष्णायन' के अमर रचयिता के रूप में भी आपका सम्मान है।' हालांकि मुझे पहले ही (डॉ. एस. हनुमंत) नायडू साहब ने उन दिनों की चर्चा के मुताबिक बता दिया था कि श्री मिश्र ने 'रामायण' की तर्ज पर 'कृष्णायन' लिखवाई है। खैर, इसी दौरान दिल्ली में फिल्म की स्क्रीनिंग हुई और श्रीमती गांधी का बयान सारे प्रमुख समाचार पत्रों में प्रकाशित हो गया। इसके बाद बिना किसी कोशिश के खुद मुख्यमंत्री ने मुझे बुलवाया और कहा कि- जहां ऐसे मुद्दे पर नाटकों का मंचन तक नहीं होता वहां आपने पूरी फिल्म बनाई है यह बहुत बड़ी बात है। इस तरह उन्होंने बिना देखे ही मेरी फिल्म को टैक्स फ्री घोषित किया।
बाद में मेरी श्री मिश्र के साथ एक और बैठक हुई जिसमें उन्होंने मुझे मध्यप्रदेश शासन का फिल्म सलाहकार नियुक्त करने का प्रस्ताव रखा। हालांकि यह सब उस वक्त धरा रह गया, जब हमारे पलारी के विधायक बृजलाल वर्मा ने 36 विधायकों के साथ बगावत कर श्री मिश्र की सरकार गिरा गोविंद नारायण सिंह को मुख्यमंत्री बनवा दिया था। मेरी फिल्म टैक्स फ्री करने के साथ ही मध्यप्रदेश शासन के समाज कल्याण विभाग ने भी एक प्रिंट खरीदा। तब करीब 10 साल तक विभाग की ओर से मध्यप्रदेश विशेषकर छत्तीसगढ़ के गांव- गांव में मेरी फिल्म का प्रदर्शन होता था। आज भी भोपाल में विभाग के पास मेरी फिल्म का प्रिंट रखा होगा।
मुहूर्त शॉट रायपु के विवेकानंद आश्रम में
14 नवंबर की शाम पलारी रवाना होने के पूर्व मनु नायक के सामने दुविधा थी कि पूरे एक दिन टीम को खाली कैसे रखें। इसका भी उपाय उन्होंने सोच लिया पास ही रामकृष्ण मिशन आश्रम में जाकर उन्होंने स्वामी आत्मानंद से मुलाकात की और धूम्रपान की पाबंदी की शर्त पर आश्रम के भीतर एक दृश्य फिल्माने की इजाजत ले ली। इस तरह 'कहि देबे संदेस' के मुहूर्त शॉट के तौर पर 14 नवंबर 1964 को पहला दृश्य हॉस्टल के एक कमरे में दो दोस्तों कान मोहन और कपिल कुमार के बीच की बातचीत वाला दृश्य शूट किया गया। पलारी में फिल्म की शूटिंग शुरू तो हुई लेकिन सबसे बड़ी दिक्कत थी कच्ची फिल्म की। शूटिंग के लिए तब ब्लैक एंड व्हाइट कच्ची फिल्म ब्रिटेन से समुद्री मार्ग से आती थी। भारत-पाक युद्ध के चलते देश में आपातकाल के चलते कच्ची फिल्म के लिए लगभग राशनिंग की स्थिति थी। ऐसे में मनु नायक के सामने चुनौती थी कि जितनी फिल्म मिल सकती है उससे कम से कम रि-टेक में शूटिंग पूरी करें। इस चुनौती को भी उन्होंने पूरा भी किया।
प्रीमियर रायपुर के बजाए दुर्ग में
पोस्ट प्रोडक्शन के बाद अंतत: 14 अप्रैल 1965 को फिल्म रिलीज हुई दुर्ग की प्रभात टाकीज में। फिल्म का प्रीमियर होना था रायपुर के मनोहर टॉकीज में, लेकिन कतिपय विवाद के चलते टॉकीज के प्रोप्राइटर शारदा चरण तिवारी ने अनुबंध के बावजूद दो दिन पहले ही फिल्म के प्रदर्शन से मनाही कर दी। यह अलग बात है कि दुर्ग में यह फिल्म बिना किसी विवाद के चली, फिर इसे भाटापारा में रिलीज किया गया और सारे विवादों के निपटारे के बाद जब फिल्म टैक्स फ्री हो गई तो रायपुर के राजकमल (आज के राज टॉकीज) में प्रदर्शित हुई।
रूपहले परदे पर भिलाई दिखाने की ऐसी मेहनत
'कहि देबे संदेस' में मन्ना डे की आवाज में गाया गीत 'दुनिया के मन आघू बढ़ गे' में स्वतंत्र भारत के पहले औद्योगिक तीर्थ भिलाई पर गीतकार डॉ. एस. हनुमंत नायडू राजदीप ने 'भिलाई तुंहर काशी हे ऐला जांगर के गंगाजल दौ, ऐ भारत के नवा सुरूज हे इन ला जुर मिल के बल दौ, तुंहर पसीना गिरै फाग मा नवा फूल मुस्काए रे' जैसी सार्थक पंक्ति लिखी है। फिल्म में इस गीत के दौरान जहां यह पंक्तियां आती है ठीक वहीं भिलाई के दृश्य आते हैं। इसकी शूटिंग की भी बड़ी रोचक दास्तां है।
मनु नायक इस बारे में बताते हैं सीमित खर्च में फिल्म पूरी करना एक चुनौती थी और वह दौर बेहद कठिन था। पाकिस्तान के साथ युद्ध की वजह से आपातकाल लगा हुआ था। एक तो कच्ची फिल्म की विदेश से आपूर्ति नहीं रही थी दूसरा भिलाई इस्पात संयंत्र को सुरक्षा के लिहाज से संवेदनशील मानते हुए इसके आस- पास फोटोग्राफी या शूटिंग पर उन दिनों भारत सरकार द्वारा प्रतिबंध लगा दिया गया था। मेरे लिए मुश्किल थी कि फिल्म डिवीजन से संपर्क नहीं हो पाया था। फिर जो कच्ची फिल्म उपलब्ध थी उसी में मुझे शूटिंग हर हाल में करनी थी। इसलिए प्रतिबंध के दौर में मैंने एक मूवी कैमरा उस वक्त की एक बड़ी वैन में रखा और पहुंच गया आज के बीएसपी के मेनगेट के पास। तब प्लांट की बाउंड्री, मेनगेट और सेक्टर-3 का निर्माण नहीं हुआ था और चारों तरफ दूर- दूर तक मशीनों और मैदान के सिवा कुछ नजर नहीं आता था। मैंने वैन में परदा डाल कर चोरी छिपे भिलाई के शॉट्स लिए। फिल्म रिलीज होने के बाद कई लोगों ने मुझसे इस दृश्य के बारे में पूछा लेकिन हंस कर टालने के सिवा मेरे पास कोई चारा नहीं था।

कहां गुम हो गई छत्तीसगढ़ी जनजीवन की झलक ?

कहां गुम हो गई छत्तीसगढ़ी 
जनजीवन की झलक ?
- भूपेन्द्र मिश्रा
छत्तीसगढ़ में फिल्म निर्माण का दौर 1964 से शुरु हुआ जब मनु नायक ने 'कहि देबे संदेश' का निर्देशन किया था। फिल्म की कहानी एक सामाजिक समस्या पर आधारित थी जिसमें जात-पात जैसे संवेदनशील विषय को प्रस्तुत किया गया था। इसके गीत- संगीत कर्णप्रिय थे। इसके बाद फिल्म 'घर द्वार' आई। और फिर एक लम्बे विराम के बाद जनता की नब्ज पर हाथ रखने आई 'मोर छईयां भुईयां' जो पूरे छत्तीसगढ़ में लोकप्रियता के शिखर पर पहुंच गई। बाद की कुछ ही फिल्में सफल रहीं। 'मया' शब्द को लेकर भी कुछ फिल्में बनाई गईं जिसमें छत्तीसगढ़ी जनजीवन की झलक मिलती थी।
छत्तीसगढ़ के अलग राज्य बनने के बाद छत्तीसगढ़ी फिल्मों की बाढ़ आ गई। लेकिन इसे बनाने वाले वे लोग थे जो कभी गांव व ग्रामीण परिवेश से जुड़े हुए नहीं थे। वे छत्तीसगढ़ की संस्कृति उसकी आत्मा और यहां की सोंधी खूशबू से अवगत नहीं थे। अत: छत्तीसगढ़ की सही तस्वरी इन फिल्मों में नजर नहीं आई। गांव के सरल, सुलभ वातावरण में रहने वाली छत्तीसगढ़ की जनता की समस्या और यहां के लोक जीवन और लोक कला को सामने लाने के बजाय कुछ ऐसी फिल्मों का दौर चला जिनके शीर्षक पढऩे मात्र से वे छत्तीसगढिय़ों की हंसी उड़ाते हुए ऐसी तस्वीर जेहन में लाते हैं मानों छत्तीसगढ़ की जनता बेवकूफ हंै। उदाहरण के लिए 'लेडग़ा नं.१', 'जकहा', 'झकला' आदि कई ऐसे नाम हैं जो छत्तीसगढ़ का मजाक उड़ाते प्रतीत होते हैं।
जबकि वास्तविकता कुछ और ही है। विकसित होता यह राज्य भले ही अभी अपने पिछड़ेपन और अपनी गरीबी से उबरने की कोशिश कर रहा हो लेकिन इस क्षेत्र की अपनी एक समृद्ध परंपरा और संस्कृति रही है। छत्तीसगढ़ के गांवों में आज भी पारिवारिक माहौल आपको देखने को मिल जाएगा। जो छत्तीसगढ़ की पहचान है।
इस राज्य में खून के रिश्तों के अलावा दोस्ती का रिश्ता इतनी मजबूती से जिंदा है कि यहां मित्र बनने और बनाने की एक परंपरा ही बन गई है। जिसे मितान बदना कहा जाता है। यह परंपरा छत्तीसगढ़ में सौहाद्र्र का प्रतीक बन चुका है। यहां की महिलाएं 'जवारा' मितान और गजामूंग आदि बद (मित्रता) कर जीवन भर दोस्ती का रिश्ता निभाती हैं जो पीढिय़ों तक जारी रहता है। गांव में एक घर में बनी सब्जी पड़ोस के हर दूसरे- तीसरे घर में मिल- बांट कर खाई जाती है।
समय के बदलाव के साथ यहां के गांव में भी बुराईयों ने अपना घर बना लिया है जैसे शराब का नशा लोगों की सेहत को नष्ट करते चले जा रहा है। बावजूद इसके आज भी कई गांव छत्तीसगढ़ में स्वर्ग जैसा वातावरण बनाए हुए हैं इसका ताजा तरीन उदाहरण है अभनपुर ब्लाक का एक गांव 'परसदा' जो आदर्श गांव के रूप में प्रसिद्ध है। इस गांव में न कोई शराब पीता न कोई अपराध होता है। लोग जाति- पाति से दूर भाईचारा के साथ रहते हैं। परसदा में दाऊ रामकृष्ण मिश्र ने बरसों पहले सौहाद्र्र का जो बीज बोया था वह आज भी लहलहा रहा है। इसी तरह सिमगा के पास खिलोरा गांव में ग्रामीण बड़े- छोटे के भेदभाव से दूर सामाजिक चेतना के साथ आगे बढ़ते हुए सच्चे भारतीय होने की बात गर्व से कहते हैं।
इस अंचल के गांवों में तीज त्यौहार पर बहन- बेटियों का अपने मायके आने का क्रम अटूट रहता है। जब वे बचपन की सहेलियों से मिलती है तो उनका प्यार, समर्पण ईश्वर के प्रेम से भी ज्यादा दिखाई पड़ता है। यह सब कहने का तात्पर्य यह है कि इस तरह के वातावरण को अभी तक किसी छत्तीसगढ़ी फिल्मों में क्यों नहीं दिखाया गया। क्यों नहीं इस तरह की पृष्ठभूमि पर किसी छत्तीसगढ़ी फिल्म की पटकथा लिखी गई?
दीपावली, दशहरे जैसे त्यौहारों पर गांव में जो आनंद का माहौल रहता है वह शहरों में कहां दिखता है। रावत बंधु जब दोहा कहते हुए राऊत नाचा नाचते हैं तो साक्षात कृष्ण युग साकार हो उठता है बिलासपुर का रौताही मेला छत्तीसगढ़ की शान है जिस ढंग से यादव बंधु सजते संवरते हंै व बाजे की धुन पर पूरे शहर व गांव में घर- घर जाकर नृत्य करते है, ऐसी संस्कृति हमारी फिल्मों का हिस्सा क्यों नहीं बन सकती। क्या कॉमेडी के नाम पर फूहड़ नाच- गान और अश्लील डायलाग ही सफलता का एकमात्र मूलमंत्र है?
अलग राज्य बनने के बाद प्रदेश ने प्रगति के कई सोपान पार किए हैं। पंचायती राज्य में महिलाएं तेजी से घर की चाहर- दीवारी से निकलकर अपने गांव का प्रतिनिधित्व कर रही हैं, शिक्षा के क्षेत्र में उसने कई उपलब्धि हासिल किए हंैं। खेलकूद व अन्य क्षेत्रों में गांव की लड़कियां आज शहर की बालिकाओं से कई समस्याओं से जूझने के बाद भी लोहा ले रही हैं। छत्तीसगढ़ की अकलतरा की ऋचा ने प्रथम आईएएस होने का गौरव प्राप्त किया हैं। रीता शांडिल्य भी इसी कड़ी में काफी मेहनत के बाद पहुंची हैं।
ऐसे विषयों पर छत्तीसगढ़ के फिल्मकारों की नजर क्यों नहीं पड़ती? क्या सफलता के लिए बॉलीवुड की तर्ज पर उनकी फिल्मों में आइटम गाने ही जरूरी हैं, प्रदेश की कला संस्कृति और विकास की बातें कोई मायने नहीं? बॉलीवुड की तर्ज पर छालीवुड नाम रख लेने भर से बात नहीं बनती। एक ओर जहां प्रदेश की अपनी अनूठी सांस्कृतिक पहचान है वहीं इस प्रदेश की माटी में यहां के जनजीवन को शराब जैसी भयंकर बुराई ने बहुत नुकसान भी पंहुचाया है। यद्यपि हाल ही में छत्तीसगढ़ शासन इस बुराई को दूर करने की दिशा में गंभीरता से सोच रही है और प्रदेश के मुख्यमंत्री माननीय डॉ. रमन सिंह जी ने शराब मुक्त प्रदेश के लिए काम करना शुरू कर दिया है।
उपरोक्त विषयों का यहां पर उल्लेख करने का तात्पर्य सिर्फ यही है कि ऐसे तमाम विषय को केन्द्र में रखकर भी एक मनोरंजक फिल्म का निर्माण छत्तीसगढ़ में किया जा सकता है। लोक जीवन के सांस्कृतिक पक्ष और समाज में पनप रही बुराईयों को रूपहले पर्दे पर प्रस्तुत करके जनता को जागरूक करने का काम भी तो फिल्मों के माध्यम से किया जा सकता है?
परंपरा, संस्कृति और समाज के विषय के अलावा छत्तीसगढ़ी फिल्म में हमारे क्षेत्रीय कलाकारों को भी घोर उपेक्षा का सामना करना पड़ रहा है। छत्तीसगढ़ी फिल्मों की नायिकाएं ज्यादातर उड़ीसा, झारखंड व बंबई से बुलाई जाती हैं। जिनको छत्तीसगढ़ी बोलने में अड़चन तो आती ही है साथ ही चूंकि वे छत्तीसगढ़ के संस्कारों से वंचित होते हैं तो क्षेत्रीयता का जैसा पुट आना चाहिए वह नहीं आ पता जबकि ऐसा नहीं है कि हमारे प्रदेश में स्थानीय कलाकारों की कमी है, जरुरत उन्हें पहचानने, महत्व देने और आगे लाने की है। पर कहते हैं न- घर का जोगी जोंगड़ा आन गांव के नाव.... कुछ ऐसा ही हाल हमारे छत्तीसगढ़ के कलाकारों का भी हो रहा है।
इन दिनों बन रही छत्तीसगढ़ी फिल्मों में मनोरंजन के नाम पर कुछ भी दिखाया जा रहा है। छत्तीसगढ़ी फिल्मों में कहानी के रूप में पुरानी हिंदी व भोजपुरी फिल्मों का रीमेक किया जा रहा है। क्योंकि छत्तीसगढ़ में बनने वाली फिल्मों के लगातार फ्लॉप होने से इंडस्ट्री में निराशा छा गई है। शायद यही वजह है कि छत्तीसढ़ी में पहली फिल्म 'कहि देबे संदेस' बनाने वाले मनु नायक अपनी दूसरी फिल्म 'पठौनी' को बनाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं। छत्तीसगढ़ में पिछले वर्ष दो दर्जन से भी अधिक फिल्में बॉक्स आफिस पर औंधे मुंह गिर चुकी हैं। फिल्मों में बदले अंदाज को देखते हुए पैसा लगाने से निर्माता कतराने लगे हैं। यहां तक की घाटे को पूरा करने के लिए निर्माता छत्तीसगढ़ी के साथ भोजपुरी में फिल्में बनाने को मजबूर हंै। तो क्या छत्तीसगढ़ी में अब सार्थक फिल्म नहीं बन पायेंगी?
संपर्क- रायपुर (छ.ग.), मो. 9993316225

प्रकृति कचनार की छाँह में

- अर्बुदा ओहरी

यह इतना सुन्दर है कि कवियों के मन को भा जाता है, इसलिए कचनार के फूल से सुन्दरता की तुलना की जाती है। पतझड़ के समय जब कचनार की पत्तियाँ झड़ जाती हैं तब इसमें फूल खिलते हैं। कच्ची कली कचनार की दिखने में जितनी प्यारी होती है उतनी ही स्वादिष्ट भी होती है तभी तो कचनार की कली का शोरबा तथा अचार भी बनाया जाता है।
कचनार छायादार वृक्षों की श्रेणी में तो नहीं आता लेकिन इसके विषय में जानने के लिए इसकी छाँह में आना जरूरी है। कचनार सुंदर फूलों वाला वृक्ष है और परिसर में या रास्तों की शोभा बढ़ाने के लिए इसको लगाया जाता है और इसे सुंदरता की मिसाल के रूप में माना जाता है।
कचनार का वनस्पतिक नाम बहुनिया ब्लैकियाना है पर भारत में यह मुख्यतया कचनार के नाम से ही जाना जाता है। भारत में इसकी बारह से अधिक प्रजातियाँ मिलती हैं। प्रजाति अथवा भाषा के आधार पर इसे अलग- अलग नामों से पुकारा जाता है। मराठी में कोरल या कोविदार, बंगला में कांचन, तेलगु में यह देवकांचनमु कन्नड़ में केंयुमंदार, अंग्रेजी में माउंटेन एबोनी कहते हैं और संस्कृत में इसे कन्दला या कश्चनार। संस्कृत में इसके विभिन्न गुणों के आधार पर भी इसका नामकरण किया गया है जैसे गण्डारि जिसका अर्थ है चंवर के समान फूल वाला या कोविदार यानी विचित्र फूल तथा फटे पत्ते वाला। इसका वनस्पतिक नाम 1880 में हांगकांग के ब्रिटिश गवर्नर सर हेनरी ब्लेक के नाम पर रखा गया था। सर हेनरी ब्लेक जाने माने वनस्पतिशास्त्री थे जिन्होंने हांगकांग में अपने घर के पास समुद्र के किनारे पर कचनार को पाया था। फिर 1908 में बाटेनिकल व फारेस्ट्री विभाग ने सर ब्लेक के सुझाए नाम को सहमति दे दी, तब ही से कचनार की एक विशेष प्रजाति का नाम वानस्पतिक नाम बहुनिया ब्लैकियाना पड़ गया।
कचनार के पेड़ की खासियत इसकी पत्तियाँ होती हैं। दो भागों में बँटी इसकी पत्तियाँ एक मध्य रेखा से जुड़ी होती हैं यदि इसकी पत्ती को समतल सतह पर रखें तो यह ऊँट के पैर के समान की आकृति दिखती है। एक सामान्य पत्ती सात से दस से.मी. लंबी और दस से तेरह से.मी चौड़ी होती है। कुछ प्रजातियों की पत्तियाँ अपेक्षाकृत लंबी और पतली होती हैं इन पत्तियों के द्विदलीय सिरे गोल की बजाय नुकीले होते हैं।
कचनार की सदाबहार बहुनिया ब्लैकियाना प्रजाति गहरी बैंगनी गुलाबी होती है और नवंबर से मार्च तक खिलती है। यह इतना सुन्दर है कि कवियों के मन को भा जाता है, इसलिए कचनार के फूल से सुन्दरता की तुलना की जाती है। बहुनिया परपूरिया गुलाबी होता है और इसकी सुंगंध बहुत आकर्षक होती है। इसके फूल की पंखुरियाँ और पत्तियाँ दोनों ही अपेक्षाकृत लंबे होते हैं। बहूनिया वैरिगाटा की चार पंखुरियाँ बिलकुल हल्की गुलाबी होती हैं और एक पंखुरी बिलकुल गहरी गुलाबी। इसका पेड़ मध्यम आकार का होता है और पतझड़ में पूरी तरह से झड़ जाता है। रास्तों को सुंदर बनाने के लिए इसका प्रयोग किया जाता है, साथ ही यह मीठा गाने वाले पक्षियों को भी बहुत आकर्षित करता है। ब्राजील और पेरू में सफेद फूलों वाला एक बहुनिया पाया जाता है जो मधुमेह के इलाज के लिए बहुत अच्छा समझा जाता है। इसका नाम पेटा डि वेका है। एक और सफेद प्रजाति बहुनिया एक्युमिनाटा के नाम से जानी जाती है। इसका सफेद फूल आकार में बहुत छोटा होता है इसलिए इसे बौनी सफेद बहुनिया भी कहा जाता है। यह मलेशिया इंडोनेशिया तथा फिलिपीन में सुंदर वृक्षों के रूप में बहुतायत से उगाई जाती है।
हृदयाकार पत्तियों वाले कचनार के खूबसूरत फूल सदियों से हांगकांग को अपने हल्के जामुनी रंग से रंगे हुए है। कचनार को हांगकांग आर्किड ट्री के नाम से भी जाना जाता है। इसको हांगकांग के राष्ट्रीय फूल होने का सम्मान प्राप्त है और 1965 में हांगकांग के अर्बन काउंसिल ने इसे प्रतीक चिन्ह के रूप में भी अपना लिया है। यही नहीं 1997 तक तो इसके सुन्दर फूल को हांगकांग के झंडे में भी स्थान मिल गया और चीनी मुद्रा पर भी यह फूल नजर आने लगा। वैसे कचनार का फूल सफेद से लेकर गहरे गुलाबी- जामुनी रंग का हो सकता है अत: हांगकांग के लाल झंडे पर इसका रंग सफेद स्वीकृत किया गया। यही नहीं हांगकांग के डाक-विभाग ने भी इसको पर्याप्त सम्मान दिया है और बार- बार टिकटों पर इसकी सुंदर छवियों को स्थान मिला है। ऐसा माना जाता है कि यह हांगकांग का स्थानीय पेड़ है परंतु 1967 में ताईवान में भी इसे उगाया गया था। भारत के अत्यंत प्राचीन साहित्य में भी कचनार की उपस्थिति पाई जाती है।
पूर्व में बर्मा से लेकर पश्चिम में अफगानिस्तान तक कचनार को देखा जा सकता है। भारत में हिमालय की घाटी से लेकर दक्षिण तक कचनार की सुन्दरता को देख सकते हैं। इसका पेड़ 20 से 40 फीट लंबाई तक बढ़ता है वैसे कचनार की कई प्रजाति बेल या झाड़ी जैसी भी होती है। कचनार का पेड़ मिट्टी को बाँध कर रख सकता है तथा भूस्खलन को भी रोकता है। इस खासियत के कारण इसे बहुत सी जगह उगाया जाता है। पतझड़ के समय जब कचनार की पत्तियाँ झड़ जाती हैं तब इसमें फूल खिलते हैं। कच्ची कली कचनार की दिखने में जितनी प्यारी होती है उतनी ही स्वादिष्ट भी होती है तभी तो कचनार की कली का शोरबा तथा अचार भी बनाया जाता है। इसकी पत्तियों से पशुओं के लिए चारा बनाया जाता है, जो ताकत से भरपूर होता है। दुधारू पशुओं के लिए यह चारा खास फायदेमंद होता है। बहुनिया ब्लैकियाना को छोड़ कर कचनार की अन्य सभी प्रजातियों में फल भी आते है। कचनार की छाल भूरे रंग की होती है तथा लंबाई में जगह- जगह से कटी होती है। इसके तने में चीरा देने से गोंद का स्राव होता है, इस गोंद के भी बहुत से औषधीय गुण हैं।
कचनार को बहुत सी दवाइयाँ बनाने के उपयोग में भी लिया जाता है। इसकी जड़ें तथा छाल विभिन्न प्रकार के चर्म रोगों के इलाज तथा गेंग्रीन, अक्•िामा में काम आती हैं, इसे लेप्रोसी तथा अल्सर की तकलीफ में भी फायदेमंद माना जाता है। कचनार की एक प्रजाति बहुनिया फोरफिकाटा से मधुमेह की दवाई भी बनती है। कचनार की कली को सुखा कर उससे डायरिया, बवासीर तथा पेचिश की दवाएँ बनती हैं। घरेलू तथा पारंपरिक दवाइयों के साथ- साथ आयुर्वेदिक चिकित्सा में भी बहुनिया का विभिन्न रूप से उपयोग किया जाता है। पित्त विकार, खांसी, प्रदर, क्षय के लिए भी इसे काम में लिया जाता है। लसिका ग्रंथि यानी लिंफ नोड में यदि कोई तकलीफ हो तो कचनार बहुत ही फायदा करती है। कचनार के साथ गुगल को मिला कर ट्यूमर की दवाई भी बनाई जाती है। यहाँ तक कि मेलिग्नेंट केंसर जैसी गंभीर बीमारी के इलाज में इसका अद्भुत असर देखा गया है। गर्भाशय में फाइब्रोइड की समस्या तथा अंडाशय की सिस्ट के लिए भी ये दवाई बहुत आराम पहुँचाती है।
कचनार की वृद्धि को बढ़ावा देने के लिए भारत सरकार के जंगल विभाग ने इसके बीज को सस्ते दामों में देने की शुरुआत की है। जिनके पास पशु हैं उनके लिए कचनार को उगाना खास फायदेमंद है तथा कचनार को सजावट के रूप में भी उगा सकते हैं। यह विभिन्न औषधि बनाने के काम में आता है और किसी भी प्रकार की जलवायु के अनुरूप खुद को ढाल लेता है।
लेखक के बारे में-
जन्म-10 नवम्बर 1978 को जोधपुर में।
शिक्षा- जोधपुर से एम एससी वनस्पति शास्त्र में।
कार्यक्षेत्र- बचपन से ही लेखन को अभिव्यक्ति का माध्यम पाया। कहानियाँ, कविताएँ तथा आलेख विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित। एक कहानी अखिल भारतीय साहित्य परिषद, जयपुर इकाई, द्वारा पुरस्कृत। आकाशवाणी, जोधपुर के युववाणी कार्यक्रम में भी नियमित रूप से भागीदारी। संप्रति- पिछले कुछ समय से दुबई में । reply_arbuda@yahoo.com