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Feb 23, 2012

सुरीले गीतों का फनकार डॉ. एस. हनुमंत नायडू

डॉ. एस. हनुमंत नायडू मूलत: तेलुगू भाषी होने के बावजूद हिंदी और छत्तीसगढ़ी के प्रति दीवानगी की हद तक समर्पित थे। कॉलेज में वह हिंदी के प्रोफेसर थे तो पीएचडी उन्होंने छत्तीसगढ़ी लोकगीतों पर की। तकिया पारा दुर्ग में रहने वाले डॉ. नायडू ने शुरूआती कुछ साल दुर्ग में अध्यापन के बाद अपना कर्मक्षेत्र महाराष्ट्र को चुना। मुंबई के कॉलेज में नौकरी मिलने से पहले से ही वह युवा फिल्मकार मनु नायक के संपर्क में आ गए थे। इस युवा जोड़ी ने 'कहि देबे संदेस' में जो रचा वह अपने आप में एक अनूठा इतिहास बन चुका है। डॉ. नायडू के बारे में ज्यादातर जानकारी उनके बोरसी भिलाई में निवासरत भाई एस. वेंकट राव नायडू से मिली और कुछ जानकारी मनु नायक ने भी दी।
अध्यापन, साहित्य और पत्रकारिता में सक्रिय
डॉ. नायडू ने 34 साल तक हिंदी के प्रोफेसर के रूप में मुंबई के एल्फिंस्टन कॉलेज, नागपुर के वसंतराव नाइक कला व समाज विज्ञान संस्था (पूर्व में नागपुर महाविद्यालय)और कोल्हापुर के राजाराम कॉलेज में अपनी सेवाएं दी थी। उन्होंने मुंबई विश्वविद्यालय व नागपुर विश्वविद्यालय में एमए हिंदी का भी अध्यापन कार्य किया।
ऐसे पहुंचे डॉ. नायडू मुंबई
महाराष्ट्र जाने से पहले और महाराष्ट्र में मृत्युपर्यंत रहते हुए भी डॉ. नायडू छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़ी के प्रति समर्पित रहे। डॉ. नायडू के मुंबई पहुंचने और कॉलेज ज्वाइन करने के संबंध में फिल्मकार मनु नायक बताते हैं- दुर्ग में नायडू साहब स्कूल में पढ़ा रहे थे और साहित्यिक अभिरूचि की वजह से काव्य गोष्ठियों व साहित्यिक सम्मेलनों की एक प्रमुख पहचान बन कर उभरे थे। 1958 में किसी माध्यम से वह मेरे पास मुंबई आए। यहां एल्फिंस्टन कॉलेज में प्रोफेसर के पद के लिए उनका इंटरव्यू था। वह बेहद घबराए हुए थे। मैंने अखबारों में छपी उनकी रचनाएं और उनका अकादमिक रिकार्ड देखने के बाद पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा कि अगर फेयर सलेक्शन हुआ तो यह नौकरी आपको ही मिलेगी। और हुआ भी यही। नौकरी मिलते ही सबसे पहले मेरे पास आए और धन्यवाद दिया। इसके बाद हम लोगों की दोस्ती परवान चढ़ती गई। मेरी फिल्म 'कहि देबे संदेस' की पृष्ठभूमि भी नायडू साहब के साथ बैठकों में ही बनीं और जब सारे लोग मुझे हतोत्साहित कर रहे थे तब हौसला देने वाले एकमात्र नायडू साहब ही थे। यह तो तय ही था कि मेरी फिल्म के गीत नायडू साहब ही लिखेंगे, क्योंकि मैंने उनका काम देखा था। कोई भी सिचुएशन बता दो वह तुरंत गीत लिख देते थे। नायडू साहब ने मेरी 'कहि देबे संदेस' और 'पठौनी' में 'राजदीप' उपनाम से गीत लिखे। गीतों की रिकार्डिंग के दौर का एक वाकया याद आ रहा है मुझे। मैंने रफी साहब को बताया था कि मेरी फिल्म में आपको छत्तीसगढ़ी के गीत गाने हैं। शायद यहां थोड़ी सी चूक हो गई और रफी साहब ने छत्तीसगढ़ी का मतलब गीतकार का नाम समझ लिया। और पहले गीत की रिकार्डिंग के दौरान वे नायडू साहब को 'मिस्टर छत्तीसगढ़ी' कह कर पुकारने लगे। बाद में मैंने रफी साहब को बताया कि छत्तीसगढ़ी एक बोली है। रफी साहब ने बाद में अपनी गलती सुधार ली और दूसरे गीत 'तोर पैरी के...' की रिकार्डिंग के दौरान नायडू जी का ही संबोधन दिया।
छत्तीसगढ़ी संस्कार उन्हें घुट्टी में मिला था
डॉ. एस. हनुमंत नायडू का जन्म 7 अप्रैल 1933 को हुआ। मारवाड़ी स्कूल में पढ़ाई के बाद उन्होंने शासकीय बहुद्देशीय उच्चतर माध्यमिक शाला और महात्मा गांधी स्कूल में शिक्षक का दायित्व निभाया। अपने बेहतरीन अकादमिक रिकार्ड की वजह से 1958 में उन्हें मुंबई के एल्फिंस्टन कॉलेज में हिंदी के व्याख्याता के तौर पर जॉब मिल गई। यहां से वह कोल्हापुर गए और उसके बाद नागपुर के कॉलेज से सेवानिवृत्त हुए। 25 फरवरी 1998 को नागपुर में हृदयघात से उनका निधन हुआ। उनके परिवार में पत्नी श्रीमती कुसुम नायडू के अलावा तीन पुत्र एस. रजत नायडू ,एस. अमित नायडू और एस. सुचित नायडू हैं। उनकी कई पुस्तकें तथा सैकड़ों कविताएं, गजल, व्यंग्य लेख तथा शोध निबंध देश भर की प्रमुख पत्र- पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं।

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