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Feb 23, 2012

कहि देबे संदेस के 50 वर्ष- बृजलाल वर्मा का साथ और पलारी वासियों का अपनापन


बृजलाल वर्मा के साथ मनु नायक शूटिंग स्थल पर

पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म 'कहि देबे संदेस' जो समाज में व्याप्त जाति- भेद को खत्म करने पर आधारित थी, के निर्माण को 50 वर्ष होने जा रहे हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि हमारी सरकार खराब हो चुके इस फिल्म का रिप्रिंट कराकर इस सांस्कृतिक विरासत को बचाने की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी।
पिछले दिनों 'कहि देबे संदेस' के निर्माता निर्देशक मनु नायक जब रायपुर आए तो यह चर्चा जोरों पर थी कि वे अपनी बरसों से रूकी फिल्म 'पठौनी' के निर्माण की योजना बना रहे हैं। परंतु आज के माहौल को वे पहले जैसा नहीं पाते। लेकिन 75वें वर्ष की उम्र में पंहुचने के बाद भी उनके उत्साह में जरा भी कमी नहीं आई है, उन्हें मौका मिले तो वे एक और इतिहास रच सकते हैं। हमने जब उदंती में फिल्म 'कहि देबे संदेस' पर विशेष अंक प्रकाशित करने की योजना के बारे में उन्हें बताया इस फिल्म के निर्माण को लेकर आरंभ में आई कठिनाइयों को याद करते हुए मनु जी जैसे 1963-64 के दौर में चले गए ...कि कैसे उन्हें रास्ते में श्री बृजलाल वर्मा मिल गए और कैसे वे उनके गांव पलारी शूटिंग के लिए पहुंच गए। इस फिल्म में गांव का सिद्धेश्वर मंदिर तथा तालाब के कई दृश्य फिल्माएं गए हैं साथ ही गांव के गली- चौबारे, घर- आंगन, खेत- खलिहानों का बड़ी खूबसूरती के साथ फिल्मांकन किया गया है। वह पलारी गांव तो आज भी वहीं है, नहीं है तो सिर्फ वैसी हरियाली, वैसे भरे- पूरे खेत- खलिहान और वैसी खुशहाली। ...आइए मनु नायक जी से ही सुनते हैं कि ग्राम पलारी में शूटिंग के लिए वे कैसे पहुंचे और उनकी यूनिट ने वहां 22 दिनों की शूटिंग कैसे पूरी की - संपादक
पहली छत्तीसगढ़ी फिल्म को छत्तीसगढ़ अंचल में ही फिल्माया जाएगा यह पहले से ही तय था इसके लिए पंडरिया और आस-पास के कुछ स्थानों का चुनाव कर लिया गया था। फिल्म निर्माण के भागीदारों नारायण चंद्राकर और तारेंद्र द्विवेदी के साथ मेरा अनुबंध हुआ था, जिसके अनुसार मुझे पूरी यूनिट के साथ रायपुर पहुंचना था और पूर्व निर्धारित स्थान पर सीधे शूटिंग के लिए पंहुचना था। इसका पूरा खर्च भी भागीदार उठाएंगे यह तय था। पर किस्मत को कुछ और ही मंजूर था। जब मैं अपनी टीम लेकर 12 नवंबर 1964 को मुंबई से रायपुर पहुंचा तो दुर्ग रेल्वे स्टेशन पर नारायण चंद्राकर मिले और बताया कि रायपुर में द्विवेदी ने शूटिंग की कोई तैयारी नहीं की है। मैं तो जैसे होश ही खो बैठा। मेरे साथ मेरी पूरी टीम थी। पर मेरेही भागीदारों ने मुझे धोखा दे दिया था। मेरे पास इतने पैसे भी नहीं थे कि मैं अपनी टीम की वापसी के टिकिट का इंतजाम कर पाता। खैर रायपुर में बुनकर संघ के सामने खपरा भट्ठी के पास अपने खास मित्र रामाधार चंद्रवंशी के निवास पर मैंने अपनी पूरी टीम को ठहराया और कुछ इंतजाम करने के उद्देश्य से बाहर निकल पड़ा। टहलते हुए कुछ सोचता सा मैं बस स्टैंड की तरफ निकला- संयोग देखिए रास्ते में मेरी मुलाकात पलारी के विधायक बृजलाल वर्मा जी (बाद में 1977 के जनता शासन में वे केंद्रीय संचार और उद्योग मंत्री भी बने ) से हो गई। मुझे इस तरह सर झुकाए चिंता में पैदल जाते हुए देख कर उन्होंने पीछे से आवाज लगाई और मेरा हालचाल पूछने लगे। वर्मा जी को समाचारों के माध्यम से मालूम हो गया था कि मैं छत्तीसगढ़ी में पहली फिल्म बनाने जा रहा हूं।
मैंने साथ चलते हुए वर्मा जी को अपनी परेशानियों से अवगत कराया। वर्मा जी ने गंभीरता से मेरी सारी परेशानी सुनी और कहा- मनु जी आपने मेरा गांव देखा है?
मैंने कहा कि आपका गांव? कौन सा गांव?
उन्होंने बताया पलारी गांव।
जब मैंने कहा कि मैं तो खरोरा से आगे कहीं गया ही नहीं हूं। तब मेरी बात सुनकर वर्मा जी ने जो कहा उसकी तो मैंने कल्पना भी नहीं की थी- उन्होंने कहा- 'अगर आप मेरे गांव में अपनी फिल्म की शूटिंग करेंगे तो मैं सारा बंदोबस्त कर दूंगा। आपकी टीम के रहने के लिए रेस्ट हाऊस बुक करा देता हूं, भोजन के लिए बर्तन आदि की व्यवस्था करा देता हूं... और...' वे न जाने आगे और क्या-क्या कहते पर इतना सुनते ही मैं तो भाव- विभोर हो गया। मैंने और कुछ सोचे बिना तुरंत कहा वर्मा जी मैंने आपका गांव तो नहीं देखा है पर मैं अपनी फिल्म की शूटिंग अब तो आपके ही गांव में करूंगा।
यह सुनते ही उन्होंने कहा- 'तो ठीक है मैं गांव एक चिट्ठी लिख देता हूं क्योंकि मैं तो आज भोपाल जा रहा हूं।' उनके भोपाल जाने की बात सुनकर मैं फिर घबरा गया। तुरंत बोल पड़ा आप यहां नहीं रहेंगे तो मैं शूटिंग कैसे कर पाऊंगा। वे मुस्कुराए और उसी सहजता से कहा- 'सारी व्यवस्था हो जाएगी आप चिंता मत करो।' फिर उन्होंने वहीं खड़े- खड़े बस स्टैंड में ही अपने चचेरे भाई तिलकराम वर्मा के नाम चिट्ठी लिखी और ड्राइवर को दे दी। इसके बाद मुझसे कहा जाइए आपका काम हो जाएगा।
इसी दौरान बातों-बातों में श्री वर्मा जी ने एक और प्रस्ताव रख दिया कि 'पूरी फिल्म की शूटिंग तो पलारी में होगी ही साथ ही फिल्म में महिला पात्रों के लिए उनके घर के पुश्तैनी गहने भी पहनने के लिए दिए जाएंगे।' यह बात उन दिनों वर्मा जी के लिए भले ही सहज रही होगी लेकिन आज जब सोचता हूं तो लगता है कितनी बड़ी बात उन्होंने कह दी। आपसी प्यार और दोस्ती में विश्वास का एक ऐसा रिश्ता तब होता था जब डर या धोखे की बात मन में उपजती ही नहीं थी। मेरे लिए तो यह गर्व की बात थी कि उन्होंने मुझे यह सम्मान दिया।
छत्तीसगढ़ में पहने जाने वाले जितने भी गहने फिल्म में नायिकाओं और अन्य महिला पात्रों ने पहने हैं विशेष कर बिदाई के समय सुरेखा द्वारा पहने गए सोने के गहने जिसमें गले में पहनी गई ककनी, काले धागे से बंधी सोने की पुतरी, कान के कर्णफूल, नाक के लौंग तथा हाथ में चांदी का कटवा सभी वर्मा जी के घर के असली पुश्तैनी गहने हैं। सुरेखा तो उन गहनों को देखकर रोने लगी थी कि ये सारे गहने मैं ही पहनूंगी। दुलारी बाई ने भी गले में जो गोल कंठहार पहना है वह तथा फिल्म में अन्य महिला पात्रों द्वारा पहने गए गहने भी छत्तीसगढ़ के पारंपरिक गहने हैं।
...और इस तरह वर्मा जी द्वारा पूरी व्यवस्था करने के बाद मैं अपनी यूनिट लेकर पलारी पहुंच गया। पलारी में तिलक दाऊ रेस्ट हाउस के सामने बंदूक लेकर हमारे स्वागत में खड़े हुए मिले। पलारी में कदम रखते ही पहली ही नजर में मुझे भा गया वर्मा जी का पलारी गांव। सबसे पहले हम बालसमुंद पहुंचे जहां 9वीं सदी का ईंटों से बना ऐतिहासिक पुरातात्विक महत्व का सिद्धेश्वर मंदिर हैं वहां की खूबसूरती देखते ही बनती थी। तालाब, घाट और चारों ओर फैली हरियाली। हमने तुरंत मंदिर और बालसमुंद तालाब के किनारे फिल्म का एक गीत- होरे होरे होरे... (महेन्द्र कपूर और मीनू पुरूषोत्तम की आवाज में) की शूटिंग शुरु कर दी। फिल्म का एक और गाना बिहिनिया के उगत सूरूज देवता... (मीनू पुरूषोत्तम ) को भी हमने तालाब और मंदिर प्रांगण में ही सूट किया। तोर पैरी के झनर झनर... का फिल्मांकन दाऊ बलीराम जी के घर के सामने वाले तालाब में किया गया था।
मेरी फिल्म में अधिकांश कलाकार छत्तीसगढ़ से हैं। पलारी गांव के लोगों ने भी कई छोटी- छोटी भूमिकाएं निभाई हैं। वर्मा जी के भाई विष्णुदत्त ने तो नायक के पिता की महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। फिल्म में चूंकि सहकारिता पर बात की गई है तो बृजलाल जी का एक भाषण भी हमने फिल्म में रखा है। उन्हें हमने संवाद लिख कर दिया गया था पर उन्होंने अपने मन से ही सहकारिता पर संवाद बोल दिए। अत: उन्होंने जो बोला वही हमने फिल्म में रखा है। उनके साथ इस दृश्य में पलारी के बीडीओ ए. पी. श्रीवास्तव भी बैठे हुए दिखाई देते हैं। जिनका बहुत अधिक सहयोग हमें मिला।
सच बात तो यह है कि पलारी गांव के निवासियों का जैसा सहयोग मुझे मिला है वह भुलाए नहीं भूलता। जिसे अपना समझ कर भरोसे से शूटिंग करने आया था उन्होंने तो दगा किया पर असली अपने तो यहां मिले जिन्होंने बिना किसी स्वार्थ के भरपूर प्रेम लुटाया। शूटिंग के लिए वर्मा जी के चाचा बलिराम दाऊ का पूरा घर मुझे मिल गया था। जिसे जमींदार के घर के रूप में दिखाया गया है। बहुत बड़े आंगन वाला घर था उनका। दाऊ जी का मैं हमेशा आभारी रहूंगा।
हमने पलारी में 22 दिन बिताए। इस दौरान पलारी में कई स्थानों पर लगातार शूटिंग हुई। सारे कलाकार लगातार वहीं रहे। उन्होंने गांव के जीवन को पूरी तरह जीया। गांव में सादा खाना बनता था सब वही प्रेम से खाते थे। चूंकि फिल्म की सभी महिला पात्र गांव की पृष्ठभूमि से आईं थीं इसलिए लगातार इतने लंबे अरसे तक गांव में रहने में उन्हें कोई परेशानी नहीं हुई। इतना ही नहीं दुलारी बाई, उमा, सुरेखा सब खुद ही चावल चुन कर देती थीं और खाना बनाने में सहयोग करती थीं।
फिल्म के किसी भी दृश्य में कोई अतिरिक्त सेट नहीं लगाया गया था। घर, खेत, आंगन, मंदिर तालाब, गांव की गलियां सब कुछ बिल्कुल प्राकृतिक और वास्तविक रूप में ही रखे गए थे। जैसे स्कूल में जो शिक्षक पढ़ाते हुए नजर आते हैं वे वहां वास्तविक जीवन में भी शिक्षक थे। इसी तरह सतनामी गुरु के प्रवचन के लिए असली गुरु को बुलाया था। उन्हें कबीर के दोहे के साथ एक संवाद बोलना था- 'कुम्हार किसिम किसिम के हडिय़ा बनाथे पर सब्बेच माटी एकेच्च हे। गाय मन रंग रंग के होते पर सब्बो के दूध एके होते। अइसने ये दुनिया म रंग- रंग के चोला हम देखथन ...एकर सेती भइया मैं तुंहर मन से बिनती करत हवं एकता से राहव छूआछूत, ऊंच -नीच सब ल मिटावव उहीं म तुंहार, हमार, समाज सबके कल्याण हे।' लेकिन इस संवाद को गुरू बोल नहीं पाए, हमारे पास फिल्म कम थी अत: मैंने बचे हुए रील में संवाद को छोटा कर खुद ही डब किया। इसके बाद भी फिल्म के कई दृश्य व गाने फिल्माने बाकी थे। सुवा गीत -तरी हरी नहना मोर नहना री...और झमकत नदिया... की शूटिंग हम पलारी में ही करना चाहते थे पर अफसोस फिल्म की रील खत्म होने के कारण ऐसे कई महत्वपूर्ण दृश्यों को हमें मुम्बई में सेट लगाकर फिल्माना पड़ा। सबसे अधिक अफसोस तब हुआ जब दो दिन के लिए बस्तर महाराज महाराज प्रवीणचंद्र भंजदेव पलारी आए थे। उन्हें भी मैं अपनी फिल्म के लिए कैद करना चाहता था। वह दिन मुझे आज भी याद है जब बस्तर महाराज ने हमारे साथ बैठकर कढ़ी भात खाई थी।
वह यादगार दिन
शूटिंग के आखिरी दिन वर्मा जी ने हमें चाय के लिए बुलाया। चाय के साथ उन्होंने सबको छत्तीसगढ़ का प्रसिद्ध व्यंजन चावल के आटे का चीला खिलाया। वह दिन हम पूरी यूनिट के लिए यादगार दिन था। एक साथ कई चूल्हें चल रहे थे और तवे पर एक के बाद एक चीला बनते जाता था। पताल (टमाटर) की चटनी के साथ गरम गरम परोसे जा रहे उस दिन के चीले के स्वाद को मैं इतने बरसों बाद भी भूल नहीं पाता। पलारी से विदाई के दिन बीडीओ एपी श्रीवास्तव ने भी पूरी यूनिट को खाने पर बुलाया। श्रीवास्तव जी ने पूरी शूटिंग के दौरान भरपूर सहयोग दिया। मैं उनका, वर्मा जी का और पूरे पलारी गांव का आभारी हूं। उन सबके सहयोग और प्रेम के बगैर मैं यह फिल्म नहीं बना सकता था। लेकिन आज कहां हैं वैसे लोग और वैसा विश्वास कि जिन्होंने अपने सोने चांदी के पुश्तैनी गहने तिजौरी से निकाल कर शूटिंग के लिए बड़ी सहजता से दे दिए। धन्य है पलारी गांव और पलारी के लोग। (उदंती फीचर्स)

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