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Feb 23, 2012

छत्तीसगढिय़ा मिठास घोलने वाले संगीतकार मलय चक्रवर्ती

चक्रवर्ती साहब मूलत: पं. उदय शंकर के लिटिल बैले ग्रुप के मुख्य गायक थे। तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू की सरकार ने पंचशील सिद्धांत के आधार पर लिटिल बैले ग्रुप जैसे सांस्कृतिक समूहों को मान्यता दी थी जो विदेशों में जाकर भारतीय संस्कृति का प्रचार-प्रसार करें। इस ग्रुप में पं.रविशंकर सितार वादक और पं. उदय शंकर नृत्य निर्देशक थे। इसी ग्रुप से पं. हरिप्रसाद चौरसिया सहित कई दूसरे युवा कलाकार भी जुड़े हुए थे। जब यह ग्रुप टूट गया तो चक्रवर्ती साहब को राजा मेहंदी अली खां मुंबई की फिल्मी दुनिया में ले आए।

फिल्म 'कहि देबे संदेस' में अपनी धुनों का जादू जगाने वाले संगीतकार मलय चक्रवर्ती ने सीमित फिल्मों में ही संगीत दिया है। लेकिन फिल्मी दुनिया में उनका योगदान उत्कृष्ट गायक- गायिकाओं की जमात तैयार करने में ज्यादा रहा। मलय चक्रवर्ती ने 50 के दशक में एन मूलचंदानी की नलिनी जयवंत और मोतीलाल अभिनीत फिल्म 'मुक्ति' में संगीत दिया था। जिसमें लता मंगेशकर, मोहम्मद रफी और आशा भोंसले ने अपनी आवाज का जादू जगाया था। 'मुक्ति' की अपार सफलता के बाद उन्हें वी. शांताराम जैसे निर्देशकों ने अपनी फिल्म में अनुबंधित किया लेकिन 'कमबख्त बीड़ी' की आदत ने चक्रवर्ती को राजकमल कला मंदिर से दूर कर दिया।
इस बारे में विस्तार से मनु नायक बताते हैं कि- 'मुक्ति' के निर्माता एन. मूलचंदानी संगीत के रसिक थे और उन्होंने चक्रवर्ती साहब के लिए अपने दफ्तर में एक जगह तय कर दी थी कि वो यहां आकर रोज उन्हें कोई न कोई धुन सुनाएंगे। मूलचंदानी जी के दफ्तर के ठीक बगल में हमारा अनुपम चित्र का दफ्तर था। ऐसे में गाते हुए चक्रवर्ती साहब की आवाज ऑफिस से बाहर तक आती थी। उनकी आवाज में ऐसी कशिश थी कि दिल खिंचा चला आता था। एक- दो दिन तो मैंने नजरअंदाज किया लेकिन बाद में जब पता लगाया तो मालूम हुआ कि चक्रवर्ती साहब मूलचंदानी जी के म्यूजिक डायरेक्टर हैं।
इसी दौरान संगीतकार जमाल सेन साहब भी हमारी कंपनी से जुडऩे के लिए बहुत कोशिश कर रहे थे। जमाल सेन साहब को मैंने ही महेश कौल साहब से मिलवाया था। ऐसे में मैंने सोच रखा था कि 'कहि देबे संदेस' में मैं उन्हें ही लूंगा। लेकिन चक्रवर्ती साहब को सुनने के बाद जमाल सेन साहब थोड़े फीके लगने लगे। हालांकि दोनों ही गुणी आदमी थे। लेकिन भाग्य जिस का था। चक्रवर्ती साहब की फिल्म इंडस्ट्री में इतनी इज्जत थी कि वे जिस सिंगर को गाने के लिए बोलते थे वह तत्काल तैयार हो जाता। ऐसे में रिकार्डिंग की तारीख तय करने में हमारे लिए बहुत ही सहूलियत हो गई। चक्रवर्ती साहब की आदत ऐसी थी कि वह पहले धुन बनाते थे, यदि उस दौरान मौजूद सारे लोगों को धुन पसंद आ जाए तो ही वे गीत लिखवा कर उसकी रिकार्डिंग की तारीख तय करते थे।
चक्रवर्ती साहब द्वारा 'मुक्ति' में दिए संगीत से प्रभावित होकर वी. शांताराम ने अपनी संस्था राजकमल कला मंदिर में उन्हें अनुबंधित कर लिया था। जब पहली बार चक्रवर्ती साहब उन्हें अपनी धुन सुनाने बैठे तो आदतन इसके पहले वह बीड़ी सुलगा रहे थे। लेकिन वी. शांताराम स्टूडियो में ऐसी अनुशासनहीनता बर्दाश्त नहीं कर सकते थे। लिहाजा, शांताराम जी ने चक्रवर्ती साहब के सामने शर्त रख दी कि आप जितने घंटे इस स्टूडियो में रहेंगे बीड़ी बिल्कुल नहीं पीएंगे। शांताराम जी की यह शर्त सुन चक्रवर्ती साहब नाराज हो गए और तुरंत अपना छाता पकड़ा और वहां से निकल लिए। इसके बाद चक्रवर्ती साहब हिंदी फिल्मों में नहीं जम पाए। कुछ बांग्ला फिल्मों में जरूर उन्होंने संगीत दिया। हां 'कहि देबे संदेस' के बाद 'पठौनी' में भी चक्रवर्ती साहब ने संगीत दिया।
बाद में उन्होंने फिल्मों में संगीत देने के बजाए संगीत की शिक्षा देने का फैसला ले लिया। उनके शिष्यों में कविता कृष्णमूर्ति, मीनू मुखर्जी (हेमंत कुमार की बेटी), छाया गांगुली, आरती मुखर्जी और आज के गायक शान के पिता मानस मुखर्जी जैसे लोगों का शुमार है। तब हालत यह थी कि गायकी में जिन्हें भी आना होता, वह चक्रवर्ती साहब के पास पहुंच जाता था। यहां तक कि वरिष्ठ संगीतकारों में हेमंत कुमार मुखर्जी अपनी बेटी को चक्रवर्ती साहब के पास संगीत सीखने के लिए भेजते ही थे साथ ही खुद भी चक्रवर्ती साहब से संगीत के गुर सीखते चले जाते थे।

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