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Aug 25, 2012

उदंती.com, अगस्त 2012

  उदंती.com
मासिक पत्रिका  वर्ष2, अंक 12, अगस्त 2012

अगर दुनिया में सबसे बड़ा कोई अपराध है तो 
वह है अन्याय और गलत चीजों के साथ समझौता करना। 
 - सुभाष चंद्र बोस


अनकही: कायर समाज - डॉ. रत्ना वर्मा
श्रद्धांजलि: कैप्टन लक्ष्मी सहगल - कृष्ण कुमार यादव
फ्रैंडशिप-डे: दोस्ती एक अनूठा रिश्ता - आर. वर्मा           
 एक पाती : कपिल सिब्बल साहब यह जिद क्यों है  - विनोद मिश्र
संस्कृत दिवस: भारतीय मानस में रची- बसी संस्कृत - लोकेन्द्र सिंह राजपूत
स्वतंत्र भारत का नारा: हर एक, सिखाए एक को   - दानिश खान
सावन की यादें : आया सावन झूम के... - पल्लवी सक्सेना

यदि बागडोर होती शासन की मेरे हाथों में ...
ग़ज़ल : रूहों ने शहीदों की फिर हमको पुकारा है  - आदिल रशीद
सेहत: उम्र से पंजा लड़ाइए ग्रीन टी पीजिए
कालजयी कहानियाँ: टोबा टेकसिंह - सआदत हसन मंटो
चिंतन: सिर्फ एक दिन ही क्यों?  - राम अवतार सचान
प्रेरक कथा: सत्य
ग़ज़ल : बिस्मिल की तड़प

कायर समाज

कायर समाज

 आजादी की 66वीं सालगिरह के अवसर पर पूरा भारत देश एक दिन का जश्न मनाकर थोड़ी देर के लिए खुश भले ही हो लें, लेकिन पिछले कुछ बरसों की ओर झांक कर देखें और ढूंढऩे की कोशिश करें कि हमने अपनी आजादी को कितनी ऊंचाईयों तक पहुंचाया है तो बहुत मुश्किल में पड़ जाएंगे। आज भारत के जो हालात हैं उसमें खुशी मनाने वाली जैसी कोई बात नजर नहीं आती। बढ़ते भ्रष्टाचार की बात कहते थक से गए हैं, मंहगाई बेलगाम हो गई है, गरीबी, भूखमरी, बेरोजगारी जैसी जनता से जुड़ी सैकड़ों समस्याएं मुँह- बाएं खड़ी हैं पर कोई इन पर लगाम लगाने की कोशिश करता भी नजर नहीं आता। पूरा देश आतंकवाद, नक्सलवाद और हिंसा (असम का ताजा मामला) की चपेट में है पर फिर भी हम 15 अगस्त को झंडा फहराते हुए कहते हैं कि देश में अमन और शांति है, देश खुशहाल है। यह सब घोर विडंबना है ....
यह कैसी आजादी है कि एक लड़की भीड़ भरी सड़क पर 20-30 युवकों द्वारा छेडख़ानी का शिकार होती है और हम चुपचाप देखते रह जाते हैं। आजादी के इस मौके पर मुझे उस मासूम लड़की की छटपटाहट भरी चीख, अनेक हाथों से अपने शरीर को बचाने की नाकाम करती कोशिश और उनके चंगुल से बचाए जाने की लोमहर्षक पुकार ही सुनाई दे रही है।
पिछले माह गुवाहाटी में सरेआम हुई एक लड़की से छेड़छाड़ की उस शर्मनाक घटना को कोई भूला नहीं होगा। इस घटना ने पूरे देश को हिला कर रख दिया था। इंटरनेट के इस दौर में तुरंत ही यू- ट्यूब पर छेड़छाड़ का यह वीडियो तुरंत अपलोड हो गया! और कई सवाल उठ खड़े हुए कि अपने चैनल पर सनसनीखेज खबरें देने की होड़ में वे यह कैसे भूल गए कि सरेराह एक मासूम लड़की की इज्जत पर हमला किया जा रहा है। आस- पास आ- जा रहे लोगों की इंसानियत भी तब क्या मर गई थी? उन्हें उस मासूम की चीख ही नहीं सुनाई दी। मनुष्य का यह कौन सा रूप है कि उसकी आँखों के सामने एक किशोरी के कपड़े फाड़े जा रहे थे, उसके बाल खींच कर उसकी इज्जत पर हमला बोला जा रहा था और सब तमाशबीन बने चुपचाप तमाशा देख रहे थे... आधे घंटे तक चले इस शर्मनाक कृत्य की जितनी भी भत्र्सना की जाए कम है।
लड़की के साथ की गई इस दरिंदगी का वीडियो सामने आने के बाद कुछ समाजसेवी संगठनों ने अपनी जिम्मेदारी समझते हुए जब शहर में आरोपियों के पोस्टर चिपका दिए तब जैसे सब सोते से जाग पड़े। गृहमंत्री, मुख्यमंत्री से लेकर सभी राजनीतिक दल इस मामले में दोषियों को सजा और महिला आयोग ने ऐसे दरिंदों को फांसी दिए जाने की मांग की। यह सब अपनी जगह सही है। कानून तो अपना काम करेगा। पर ऐसे कानूनों को और भी सख्त किए जाने की आवश्यकता है, क्योंकि ये कानून तब बने थे जब हमारे देश में ऐसी शर्मनाक दरिंदगी जैसी घटनाएं होती नहीं थी। जब तक ऐसा कुकृत्य करने वालों को कड़ी से कड़ी सजा नहीं दी जाएगी, ऐसी प्रवृत्तियों पर रोक नहीं लग पायेगी।
....पर इसके साथ ही समाज में आ रहे तेजी से बदलाव को भी नजर- अंदाज नहीं किया जा सकता। आज मानव, मानव न रहकर दानव क्यों बनता जा रहा है, समाज से संवेदना क्यों विलुप्त होती जा रही है? क्यों बार- बार ऐसी पुनरावृत्ति हो रही है कि मानव शर्मसार होने को अभिशप्त है? ऐसे कई सवाल हैं जिनके जवाब हमें तलाशने होंगे। 
 हमारे समाज, हमारे लोकतंत्र में ऐसी क्या खराबी आ गई है कि इस तरह की प्रवृत्तियाँ समाज में तेजी से उभर रहीं हैं। इन घटनाओं की बढ़ती संख्या को देखते हुए महसूस होने लगा है कि क्यों न देश में सामाजिक विशेषज्ञों की एक समिति बनाई जाए, जो समाज के सामाजिक स्तर का अध्ययन कर विश्लेषण करे कि मानवता के इस गिरते स्तर के लिए कौन से कारक जिम्मेदार हैं और समाज के इस गिरते स्तर को रोकने के लिए क्या उपाय किए जाएं। चाहे वह बच्चों व युवाओं के पालन- पोषण को लेकर हो या शिक्षा के ढांचे में परिवर्तन की बात हो या सामाजिक संरचना की। कहीं न कहीं जा कर हमें यह निष्कर्ष निकालना ही होगा कि इस संवेदनहीन होते जा रहे समाज के पीछे क्या कारण है। विशेषज्ञ हमें बताएं कि हममें कहाँ और किस प्रकार के सुधार की आवश्यकता है। यदि अब समाज के ऐसे नाजुक मुद्दों पर गंभीर नहीं हुआ जाएगा तो कहीं ऐसा न हो कि लोग बेख़ौफ़ होकर अपनी मनमानी करते चले जाएं।
हमारा देश जो संवेदनशील होने का दम भरता है पर कलंक का टीका लगे यह कोई भी देशवासी नहीं चाहेगा। इसलिए हम सबकी सामाजिक जिम्मेदारी बनती है कि ऐसी प्रवृत्तियों को बढ़ावा देने वाले कारकों को रोकें। स्वतंत्र होने का मतलब उच्छंखृल होना नहीं है। 
                                                                         -डॉ. रत्ना वर्मा

कैप्टन लक्ष्मी सहगल

साहस और मानवता की अप्रतिम मूर्ति

कैप्टन लक्ष्मी सहगल

- कृष्ण कुमार यादव

देश प्रेम और साहस का ऐसा अद्भुत समन्वय बिरले लोगों में होता है। सुभाष की सेना की इस महानायक ने युवावस्था को एक सैनिक की तरह प्रौढ़ावस्था को समाज सेविका नर्स की तरह और वृद्धावस्था को निराश्रितों की वत्सला माँ की तरह जिया। वह मानव के साथ- साथ मानवता की भी चिकित्सक थीं। ऐसे व्यक्तित्व कभी मरते नहीं, वे हमारे बीच हमेशा जीवंत रहेंगी।


पीढिय़ों का अन्तराल महत्वपूर्ण नहीं होता, यदि पुरातन पीढ़ी वर्तमान परिवेश में भी अपनी प्रासंगिकता बनाये ऐसी ही पीढ़ी की एक जिंदादिल महिला कैप्टन डॉक्टर लक्ष्मी सहगल थीं। उन्हें किताबों में पढ़ा, चित्रों में देखा, पोर्टब्लेयर गया तो वहां सेलुलर जेल की दीवारों पर देखा और कानपुर में रहने के दौरान एक साक्षात्कार के लिए उनसे रू-ब-रू भी हुआ। उनके बारे में इतना कुछ सुन रखा था कि कहीं-न-कहीं उनके व्यक्तित्व से आतंकित भी महसूस करता। पर जब पहली बार मिला तो इतना निश्छल और ममत्व भरा आत्मीय व्यवहार देखकर विश्वास ही नहीं हुआ कि यह आजाद हिन्द फौज की वही कर्नल हैं, जिन्होंने अपने साहस और बुद्धिमता के बल पर न सिर्फ आजादी को परवान पर चढ़ाया बल्कि नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को आजादी की जंग में नारी-शक्ति में अटूट विश्वास करने पर बाध्य भी कर दिया। देश की आजादी के बाद हर किसी ने उसे भुनाया और सत्ता की चांदी की होड़ में दिल्ली में बसकर अपनी पीढिय़ों का भविष्य सुरक्षित करना सुनिश्चित किया, पर 98 वर्षीया यह डाक्टर जीवन के अंतिम समय तक (24 जुलाई, 2012) लोगों का इलाज करती रहीं। देश सेवा को भुनाने की बजाय उन्होंने जीवन के ठाटबाट को त्याग कर दलितों, शोषितों, मेहनतकशों, उत्पीडऩ की शिकार महिलाओं के लिए और मानव सेवा के पीछे अपना पूरा जीवन ही लगा दिया। उन्होंने लाखों लोगों को स्वास्थ्य, सुरक्षा, साहस व आत्मविश्वास की नेमत दी। कानपुर शहर में उन्होंने दंगों के दौरान दोनों संप्रदायों के बीच जांबाजी से जाकर उन्हें समझाने के साथ घायलों का इलाज करके मानवता की सेवा की जो मिसाल रखा वह हमेशा आने वाले पीढिय़ों को प्रेरित करती रहेगी। वयोवृद्ध कैप्टन डॉ. लक्ष्मी सहगल को गरीब मरीजों का इतना ध्यान रहता था कि दिल का दौरा पडऩे से करीब 15 घंटे पहले तक अपने शहर में स्थित आर्य नगर के क्लीनिक में बैठकर मरीजों को देख रही थीं। मजदूर आंदोलनों में सड़क पर सोने से लेकर राष्ट्रपति का चुनाव लडऩे तक उनका पूरा जीवन संघर्ष, त्याग व देशभक्ति की अप्रतिम गाथा है।
डॉक्टर लक्ष्मी सहगल का जन्म 24 अक्टूबर 1914 को एक परंपरावादी तमिल परिवार में मद्रास उच्च न्यायालय के सफल वकील डॉ.एस. स्वामिनाथन और समाज सेविका व स्वाधीनता सेनानी अम्मुकुट्टी के घर हुआ था। घर पर बेटी के रूप में लक्ष्मी का आगमन हुआ तो माता-पिता ने उसका नाम ही रख दिया- लक्ष्मी स्वामिनाथन। बचपन से ही कुशाग्र लक्ष्मी ने 1930 में पिता के देहावसान का साहसपूर्वक सामना करते हुए 1932 में विज्ञान में स्नातक परीक्षा पास की। 1938 में उन्होंने मद्रास मेडिकल कालेज से एम.बी.बी.एस. किया और अगले वर्ष 1939 में जच्चा-बच्चा रोग विशेषज्ञ बनीं। कुछ दिन भारत में काम करके 1940 में वे सिंगापुर चली गयीं।
लक्ष्मी बचपन से ही राष्ट्रवादी आंदोलन से प्रभावित थीं और जब गाँधी जी ने विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का आंदोलन छेड़ा तो उन्होंने उसमें सक्रियता के साथ भाग लिया। उनका यह देश- प्रेम सिंगापुर जाने के बाद भी खत्म नहीं हुआ। सिंगापुर में उन्होंने न केवल भारत से आये अप्रवासी मजदूरों के लिये नि:शुल्क चिकित्सालय खोला बल्कि भारत स्वतंत्रता संघ की सक्रिय सदस्या भी बनीं। इतिहास गवाह है कि 1941 में जब युद्ध के बादल छा रहे थे, डॉ.लक्ष्मी सिंगापुर में मलाया के जंगलों में मजदूरों का इलाज कर रहीं थीं। युद्ध की आशंका से लोग अपने देश लौटने लगे परंतु लक्ष्मी नहीं लौटीं और युद्ध के दौरान वहीं भूमिगत रह कर घायल सैनिकों की सेवा करती रहीं। युद्ध की विभीषिका से रूबरू हुईं डॉ. लक्ष्मी को अनुभव हुआ कि अंग्रेजों के मुकाबले जापानियों का भारतीयों के प्रति व्यवहार ज्यादा सहानुभूति पूर्ण था। वर्ष 1942 में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जब अंग्रेजों ने सिंगापुर को जापानियों को समर्पित कर दिया तब उन्होंने आहत युद्धबन्दियों के लिये काफी काम किया। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान ही जब जापानी सेना ने सिंगापुर में ब्रिटिश सेना पर हमला किया तो उसी समय ब्रिटिश सेना के बहुत से भारतीय सैनिकों के मन में अपने देश की स्वतंत्रता के लिये काम करने का विचार उठ रहा था। 19 फरवरी 1942 को नेता सुभाषचंद्र बोस ने आजाद हिंद फौज का गठन किया। ऐसे ही माहौल में 2 जुलाई 1943 को सिंगापुर की धरा पर नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का ऐतिहासिक पदार्पण हुआ। नेताजी के विचारों से लक्ष्मी काफी प्रभावित हुईं और अंतत: उन्होंने इस पवित्र अभियान में नेताजी से अपने को भी शामिल करने की इच्छा जाहिर की। पहले तो नेताजी कुछ हिचकिचाए पर लक्ष्मी के बुलंद इरादों को देखकर उन्हें हामी भरनी ही पड़ी। उन्होंने 20 महिलाओं को तैयार करके 303 बोर की राइफलों के साथ नेताजी का गार्ड ऑफ ऑनर किया तो नेताजी ने उन्हें महिला रेजीमेंट की बागडोर सौंप दी। फिर क्या था, आजाद हिन्द फौज की पहली महिला रेजिमेंट के विचार ने मूर्तरूप लिया जिसका नाम वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई के सम्मान में रानी झाँसी रेजिमेंट रखा गया। 22 अक्टूबर 1943 को डॉ. लक्ष्मी ने बतौर कैप्टन रानी झाँसी रेजिमेंट में कैप्टन पद पर कार्यभार संभाला। उनकी सक्रियता से धीरे- धीरे रेजींमेंट में महिलाओं की संख्या 150 हो गई। यही नहीं अपने साहस और अद्भुत कार्य की बदौलत बाद में उन्हें कर्नल का पद भी मिला और उन्हें एशिया की प्रथम महिला कर्नल बनने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ, लेकिन जुबान पर चढ़ जाने के कारण लोगों ने उन्हें कैप्टन लक्ष्मी के रूप में ही याद रखा। डॉ. लक्ष्मी 1943 में सुभाषचन्द्र बोस की 'आरजी हुकूमते आजाद हिन्द सरकार' में महिला विभाग की कैबिनेट मंत्री भी बनीं। वह नेताजी के साथ छाया बनकर रहीं। सुभाष चन्द्र बोस के साथ उन्होंने बैंकाक की यात्रा की और वहां थाईलैंड की महारानी से मिलीं। बैंकाक से वह रंगून पहुंचीं। वहां भारतीयों की संख्या अधिक होने से उन्हें भारत में होने का अहसास हुआ। यहीं पर उनकी भेंट मानवती आर्या से हुई, जो की बाद में उनके साथ ही रानी झाँसी रेजिमेंट में कैप्टन के रूप में सक्रिय रहीं। 15 जनवरी, 1944 को उन्होंने रंगून में ही एक नई महिला रेजीमेंट शुरू की। उनके जुझारूपन, निर्भीकता, राष्ट्रभक्ति व नेतृत्व क्षमता को देख कर उन्हें 30 मार्च-1944 को रेजीमेंट में कमीशंड अफसर का पद मिला। इस रेजीमेंट ने अंग्रेजों से दो- दो हाथ किए।
 द्वितीय विश्व युद्ध में जापान की हार पश्चात अंतत: ब्रिटिश सेनाओं ने आजाद हिंद फौज के स्वतंत्रता सैनिकों की भी धरपकड़ की। सिंगापुर में पकड़े गये आजाद हिन्द सैनिकों में कर्नल डॉ. लक्ष्मी भी थीं। 1 जून 1945 को उन्हें अंग्रेजों ने गिरफ्तार किया। तमाम दबावों के बावजूद लक्ष्मी झुकी नहीं। परिस्थितिया बदलीं, नेताजी की विमान दुर्घटना में मौत की खबर आई इससे उन्हें दुख जरूर हुआ लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। 4 जुलाई 1946 को भारत लाये जाने के बाद अंतत: उन्हें बरी कर दिया गया, पर इतिहास गवाह है की नेताजी के दायें हाथ मेजर जनरल शाहनवाज व कर्नल गुरबक्ष सिंह ढिल्लन और कर्नल प्रेमकुमार सहगल पर लाल किले में देशद्रोह के आरोप में मुकदमे चले जिसमें पण्डित जवाहर लाल नेहरू, भूलाभाई देसाई और कैलाशनाथ काटजू जैसे दिग्गज वकीलों की दलीलों के चलते तीनों जांबाजों को बरी करना पड़ा। कैप्टन लक्ष्मी सहगल ने लाहौर में मार्च 1947 में कर्नल प्रेम कुमार सहगल से विवाह कर लिया और फिर कानपुर आकर बस गईं। पर उनका संघर्ष यहीं खत्म नहीं हुआ और वे वंचितों की सेवा में लग गईं। वे भारत विभाजन को कभी स्वीकार नहीं कर पाईं और दंगों के बीच जाकर लोगों को जोडऩे की कोशिश की। 1948-49 के बाद उन्होंने गाँव- गाँव एवं शहर- शहर जाकर मजदूरों, दलितों, मरीजों व पीडि़तों की हर तरह से सेवा की। अमीरों और गरीबों के बीच बढ़ती खाई का हमेशा विरोध करती रहीं। उन्होंने आंदोलन में साम्प्रदायिकता, अंधविश्वास, जातिवाद को निशाना बनाया। इस आंदोलन को तेज करने के लिए उन्होंने खुद को वामपंथी आंदोलन से जोड़ लिया और 1971 में मक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी से राज्यसभा की सदस्य बनीं। वे मिल बंदी को लेकर मजदूरों के पक्ष में खड़ी हुईं तो गरीब महिलाओं की समस्याओं को अपनी समस्या समझ कर दूर किया। यह एक विडंबना ही है कि जिन वामपंथी पार्टियों ने द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान का साथ देने के लिए सुभाष चंद्र बोस की आलोचना की, उसी से अंतत: कैप्टन लक्ष्मी सहगल का जुड़ाव हुआ। वे अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति की संस्थापक सदस्यों में रहीं। 1998 में उन्हें भारत सरकार द्वारा उल्लेखनीय सेवाओं के लिए पद्म विभूषण से सम्मनित किया गया। वर्ष 2002 में 88 वर्ष की आयु में उन्होंने वामपंथी दलों की ओर से श्री ए पी जे अब्दुल कलाम के विरुद्ध राष्ट्रपति पद का चुनाव भी लड़ा था।
 डॉक्टर लक्ष्मी सहगल जीवन के अंतिम समय तक मानवता के सेवा के लिए तत्पर रहीं। 1952 से कानपुर में प्रैक्टिस कर रहीं कैप्टन डॉ. लक्ष्मी सहगल का पहला प्यार उनका अपना प्रोफेशन था। शरीर की स्वस्थता उम्र से नहीं वरन् सक्रियता से निर्धारित होती है, का अक्षरक्ष: पालन करने वाली कैप्टन लक्ष्मी सहगल जीवन के अंतिम समय तक नियमित रूप से अपने क्लीनिक में मरीजों की देखभाल करती रहीं। वे सुबह 9.30 बजे अपने क्लीनिक के लिए निकल जाती और 10 बजे से 2 बजे तक का समय मरीजों की तीमारदारी में बितातीं। डॉ. लक्ष्मी सहगल किसी कर्मकांड में विश्वास नहीं रखतीं बल्कि मरीजों की देख भाल से वे अपने को ईश्वर के करीब पाती थीं। उनको मरीजों की सेवा करने का एक अजब-सा जुनून था, वे कभी इस बात का ख्याल नहीं करती थीं कि उनके मरीज के पास इलाज के लिए पैसा है या नहीं, बस वे इलाज शुरू कर देती थीं, तभी उन्हें एक बार दिखाने आने वाली महिला रोगी उनकी कायल हो जाती थीं और हमेशा उनसे ही अपना इलाज कराने आती थीं और वे भी अपने मरीजों को देखने के लिए हमेशा तैयार रहती थीं।
कैप्टन लक्ष्मी सहगल भले ही हमारे बीच नहीं हैं, पर उनके सम्बन्ध में उनकी मित्र, नेताजी की सहयोगी एवं स्वतंत्रता सेनानी कैप्टन मानवती आर्या के शब्द गौरतलब हैं- 'देश प्रेम और साहस का ऐसा अद्भुत समन्वय बिरले लोगों में होता है। सुभाष की सेना की इस महानायक ने युवावस्था को एक सैनिक की तरह प्रौढ़ावस्था को समाज सेविका नर्स की तरह और वृद्धावस्था को निराश्रितों की वत्सला माँ की तरह जिया। वह मानव के साथ- साथ मानवता की भी चिकित्सक थीं। ऐसे व्यक्तित्व कभी मरते नहीं, वे हमारे बीच हमेशा जीवंत रहेंगी।'

संपर्क-  निदेशक डाक सेवाएँ, इलाहाबाद परिक्षेत्र, इलाहाबाद (उत्तर प्रदेश) -211001
            kkyadav.y@rediffmail.com

दोस्ती एक अनूठा रिश्ता

दोस्ती एक अनूठा रिश्ता

- डॉ. रत्ना वर्मा
बारिश के इस मौसम में इन दिनों एक और बारिश हो रही है, वह है दोस्ती निभाने की बारिश।
कभी बरखा कभी सावन बनकर बरसती है दोस्ती,
वफादारी और विश्वास से चलती है दोस्ती।
दोस्ती के इस जज्बे को समझने के लिए एक सच्चा दोस्त का होना जरूरी है। लेकिन मेरे मन में इन दिनों एक और उत्सुकता ने घर कर लिया है, वह यह कि आखिर इस फ्रेंडशिप डे मनाने के पीछे की कहानी क्या है। कई दिनों के लगातार प्रयास के बाद एक क्लू मिल ही गया और तब बहुत थोड़ी सी जानकारी की मालूमात हो पाई। उसी जानकारी को आपके साथ बांट कर दोस्ती के इस नाजुक रिश्ते के  सामाजिक तथा मनोवैज्ञानिक पहलू पर कुछ कहना चाहती हूं।  मेरे विचारों से आप भी सहमत हो यह जरूरी नहीं है, क्योंकि सबका अपना अलग- अलग नजरिया होता है-
'आप अपने परिवार का चुनाव तो नहीं कर सकते परंतु अपने दोस्त का चुनाव कर सकते हैं।' इसी भावना को अभिव्यक्त करने के लिए अमेरिकी कांग्रेस ने 1935 में अगस्त के पहले रविवार को 'नेशनल फ्रैंडशिप डे' मनाने का निश्चय किया। इसके बाद इस दिवस को विभिन्न देश व विभिन्न संस्कृतियों में भी मनाया जाने लगा। इसी ग्लोबलाइजेशन के चलते अब भारत में भी इस दिवस को बहुत जोर-शोर मनाया जाने लगा है। युवाओं की दुनिया में तो इस दिवस ने अपनी खास जगह बना ली है।
यद्यपि दोस्ती किसी देश, काल, जात- पाँत या उम्र के बंधन से परे एक ऐसा खूबसूरत रिश्ता है जो ताउम्र निभाने के लिए बनता है। भारतवासियों के लिए दोस्ती का यह एक दिन मनाये जाने की परंपरा भले ही आयातित हो पर भारत में दोस्ती निभाये जाने की मिसालें सदियों से ही दी जाती रही हैं। चाहे वह दो मुल्कों की दोस्ती हो चाहे दो व्यक्तियों के बीच की दोस्ती हो... और ऐसा हो भी क्यों न यह रिश्ता बनता ही तभी है जब दोनों के बीच कोई भेदभाव न हो कोई राग-द्वेष न हो, कोई स्वार्थ न हो, जहां स्वार्थ की घुसपैठ हुई नहीं कि दोस्ती खत्म।
फिर भी जब कभी भी हम इस पाक रिश्ते के बारे में बात करते हैं तो सामने वाले की जुबान पर एकदम से एक ही बात आती है- 'अरे कहां अब सच्चे दोस्त तो ढूंढे नहीं मिलते, सबको सिर्फ अपनी पड़ी रहती है, दोस्तों के बारे में कौन सोचता है आदि आदि...' कल ही की तो बात है मैंने जब अपने कुछ मित्रों से इस विषय में बात करना चाही तो उनका भी यही जवाब था कि दोस्ती तो आज मतलब के लिए की जाती है, इधर काम निकला उधर दोस्त गायब। इतना ही नहीं पक्के दोस्तों को पक्के दुश्मन बनते भी देर नहीं लगती। ...और यह भी कि दोस्ती तो सिर्फ फिल्मों में ही देखने को मिलती है, जिसमें वे अपने दोस्त के लिए अपनी जान तक देने के लिए तैयार बैठे रहते हैं और जब बात बिगड़ती है तो जान लेने में भी देर नहीं करते। इनका जीवन की सच्चाई से क्या लेना देना।
  शुरू में मैं उनकी बात चुपचाप सुनती रही जब वे अपनी पूरी भड़ास दोस्तों की दगाबाजी को लेकर निकाल चुके तब मैंने धीरे से कहा- अच्छा ये बताओ फिर मेरी दोस्ती किस श्रेणी में आयेगी? इसकी प्रतिक्रिया भी तुरंत हुई कि ऐसी दोस्ती ऊंगली में गिनी जाने वाली होती है, यह आम नहीं होती। क्योंकि जब आप किसी व्यक्ति से पूछते  हैं तब वह यह जरूर कहता है कि आज दोस्ती के मायने जरूर बदल गए हैं पर साथ ही वह यह भी स्वीकार करता है कि उनके सच्चे दोस्त भी हैं, इससे जाहिर होता है कि हर किसी का एक न एक दोस्त तो जरूर होता है और वह आम नहीं खास होता है। खास है इसीलिए तो दोस्त है। तभी तो कितना अच्छा लगता है यह सुनना, पढऩा कि दोस्ती एक अनुपम और अनूठा रिश्ता है, जो हमारा का साथ जीवन भर निभाता है। आज भी हम चाहे स्कूल की बात करें या कॉलेज की या फिर पास- पड़ोस की। जब भी इनमें से किसी भी दौर के पुराने दोस्तों से मिलते हैं तो चहक कर कहते हैं यह हमारे स्कूल का दोस्त है। या यह मेरे बचपन का सबसे अच्छा दोस्त है या यह मेरा एकमात्र ऐसा दोस्त है जिसे जब भी पुकारो हाजिर हो जाता है। सच भी है दोस्ती एक ऐसा मीठा रिश्ता है जो और सभी नाते- रिश्तों से ऊपर होता है और जिसे हम अपनी पसंद से चुनते हैं। तभी तो इसकी मिठास जीवन भर कायम रहती है। और चाहे उम्र के कितने ही पड़ाव पार क्यों न कर लिए हों उनसे मिलने की चाहत बनी ही रहती है। ऐसे कई उदाहरण हमें आस- पास मिल जाते हैं जो ताउम्र अपनी दोस्ती निभाते हैं।
ऐसी ही चार दोस्त हैं जो अपने बचपन की यादों को आज भी संजोए हुए हैं। सुमन परगनिहा, अरूणा तिवारी, अरूणलता श्रीवास्तव और अफरोज़। ये चारों सहेलियां माध्यमिक शिक्षा तक एक साथ पढ़ती थीं। इनमें से तीन ने तो आगे की पढ़ाई भी साथ की और शादी के बाद भी उनकी दोस्ती बनी रही। लेकिन सुमन से संपर्क टूट गया। 2004 में जब वह रायपुर पहुंची तब संयोग से वह उन तीनों से मिली। और अब आज उन चारों की दोस्ती ऐसी है कि वे पिछले 8-9 साल से अपना सुख- दुख बाँटतीं दोस्ती निभाते चली आ रहीं हैं। जन्मदिन पर शुभकामनाएं देने हर साल एक- दूसरे के घर पहुंचती हैं और  खुशियां मनाती हैं। इतना ही नहीं फ्रेंडशिप डे के दिन भी सभी इकट्ठा होती हैं और दोस्ती का धागा बांधती हैं। पुराने दोस्तों से मिलने की इसी चाहत का ही नतीजा है कि आज विभिन्न स्कूल कॉलेज में प्रतिवर्ष भूतपूर्व छात्र- छात्राएं मिलन समारोह आयोजित करते हैं। इस अवसर पर जब बरसों से बिछुड़े दोस्त मिलते हैं तो उनकी खुशी देखते ही बनती है।
अब प्रश्न यह उठता है कि इस दोस्ती के लिए इस एक दिन को विशेष बनाने की जरूरत क्यों हुई? बदलते हुए आज के सामाजिक संदर्भ में इसे देखें तो पारिवारिक रिश्ते धीरे- धीरे छीजते जा रहे हैं और अमेरिका जैसे विकासशील देश में तो इसकी शुरूआत बहुत पहले से ही हो गई है। गौर करने वाली बात यह है कि इस बात को आधुनिक विज्ञान ने मान लिया है कि मनुष्य एक संवेदनशील प्राणी है और उसे जीवन भर किसी न किसी के साथ की आवश्यकता होती है, इसके अभाव में उसका जीवन नीरस और बेमानी हो जाता है, और यह स्थिति किसी भी देश के विकास में बाधक बन सकती है। ऐसे में अन्य संबंध यदि बिखरते हैं तो दोस्ती ही एक ऐसा संबंध हैं जो किसी भी व्यक्ति को टूटने से बचा सकता है।
यद्यपि भारत के सामाजिक परिवेश को देखते हुए यह कहना गलत होगा कि यहां परिवार पूरी तरह बिखर गये हैं, बदलाव आया है और आ भी रहा है। परिवार तेजी से एकाकी होते जा रहे हैं, रिश्तों में बिखराव भी देखने को मिल रहे हैं। यही कारण है कि मनोवैज्ञानिक और समाजशास्त्री, परिवार के इस बिखरते दौर में यह कहने लगे हैं कि आज के माता- पिता को अपने बच्चों का दोस्त बनना होगा अभिभावक नहीं। शिक्षित परिवारों में यह वातावरण दिखाई भी देने लगा हैं, जो हमारे भारतीय समाज के लिए शुभ संकेत कहा जा सकता है। ऐसे में यदि हम इस एक दिवस के बहाने संबंधों को प्रगाढ़ करने या जोडऩे का प्रयास करें तो बुरा क्या है?
लेकिन इन सबके बाद भी दिवस मनाने की इस नई परंपरा, चाहे वह मदर्स-डे हो, फादर्स-डे या फिर वेलेंटाइन-डे को लेकर नाक- भौं सिकोडऩे वालों की कमी नहीं है। वे यह कहकर इस बात की आलोचना करते हैं कि जिन देशों में रिश्तों का सम्मान नहीं होता या जहां संबंध टूटने की कगार पर पहुंच चुके हैं उन्हें जोडऩे के लिए वे यह सब दिवस मनाते हैं ताकि बिखरे तारों को पुन: जोड़ सकें। परंतु भारत जैसे देश में तो आदिकाल से ही हम इन्हीं संबंधों, रिश्तों के बल पर मजबूती से खड़े हैं, तो फिर ऐसे दिवस मनाने के ढकोसलों की क्या जरूरत?
हां यह सब बिल्कुल सत्य है कि हमें हमारी भारतीय परंपरा और संस्कृति पर गर्व हैं, लेकिन भविष्य में भी हम इन पर गर्व करते रहें क्या इसके लिए यह जरूरी नहीं कि समाज के बदलते हुए इस नये रूप को भी स्वीकार करें। क्योंकि हमारे यहां विभिन्न शोधों के बाद जो नतीजे आ रहे हैं वे बहुत सकारात्मक नहीं कहे जा सकते। आंकड़े तो यही कहते हैं कि संयुक्त परिवार खत्म होते जा रहे हैं, वृद्ध माता- पिता अकेले, बेसहारा जीवन जीने को मजबूर हैं, तलाक के मामलों में वृद्धि हो रही है, ज्यादातर प्रेम विवाह असफल होते देखे गये हैं....
तब क्या हमें अभी से सचेत नहीं हो जाना चाहिए और यदि इन दिवसों के बहाने हम दोस्ती को स्वीकार करने का एक जतन करते हैं तो बुरा क्यों माना जाए। यूं भी भागदौड़ की इस जीवनचर्या में यदि हम एक दिन अपनों के नाम करके खुशियों का एक बहाना ढूंढ लें तो क्या जीवन ज्यादा आसान नहीं हो जायेगा। हो सकता है मेरी यह बात कुछ को नागावर गुजरे परंतु मैं उनसे सिर्फ इतना कहना चाहूंगी कि कोई नई परंपरा यदि रिश्तों की नींव मजबूत करती है तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए।
रहा सवाल बाजार का तो व्यापारी का तो काम ही है मनुष्य की भावनाओं को भुनाना, उसे तो एक अच्छा अवसर मिल गया अपने व्यवसाय को तरक्की के रास्ते पर ले जाने का। यदि कोई अपने बेस्ट फ्रेंड को फे्रंडशिप बैंड बांधकर या खूबसूरत कार्ड अथवा फूलों की सुंदर सा गुच्छा उपहार में देकर अपनी दोस्ती का इजहार करना चाहता है और इनके इस खूबसूरत इजहार को बाजार यदि नए- नए अंदाज में पेश करके बेच रहा है तो फिर शिकायत क्यों?
फूलों को देख मुस्कुराना आया,
पर तुम्हारी दोस्ती ने जीना सिखाया।
तो फिर क्यों नहीं आज हम सब मिलकर गिले- शिकवे दूर कर लें और दोस्ती के इस नये पैगाम का स्वागत करें। इस एक दिन को सेलिब्रेट करके उम्र भर के लिए इस गांठ को इतने कस के बांध दें कि फिर यह कभी छोड़े से भी न छूटे।
रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय
टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े गांठ पड़ जाय।

एक पाती

कपिल सिब्बल साहब यह जिद क्यों है

- विनोद मिश्र
आदरणीय,
कपिल सिब्बल जी
एक प्रखर प्रवक्ता के रूप में आपको वर्षों से इस मुल्क ने करीब से देखा है। कानूनी दावपेंच और अकाट्य तर्कों के जरिये आपने अब तक अनर्गल बातों में भी जान डालने की जो महारत हासिल की है, देश को आप पर नाज है... 2जी के घोटाले में देश एक लाख छिहत्तर हजार करोड़ रुपए लूट लेने की चिंता से बाहर नहीं हो रहा था। लेकिन संचार मंत्रालय सँभालते ही आपने देश को अपने तर्कों से आश्वस्त करने की कोशिश की कि दरअसल कोई घोटाला हुआ ही नहीं। ये बात अलग थी कि सरकारी जाँच एजेंसी सीबीआई ने आपकी बातों पर तब्बजो नहीं दिया। अपने काले ड्रेस का जो चमत्कार आपने सियासत में दिखाया आज इस चमत्कार से हर छोटी बड़ी पार्टियां अभिभूत हंै। आज हर पार्टी का प्रवक्ता कोई न कोई वकील है। लेकिन विज्ञान के क्षेत्र में आपकी बढ़ी रूचि ने देश को एक बड़े  संकट में डाल दिया है। इन दिनों आप आईआईटी की परीक्षा में सुधार लाने की जिद पर अड़े हैं। आपने इसे नाक का सवाल बना लिया है। यह देश के 7 लाख बच्चों के जिंदगी का सवाल है लेकिन अपने अकाट्य तर्कों से आप देश को कम सरकार को ज्यादा संतुष्ट करना चाहते हैं। सामाजिक न्याय और प्रतिभा खोज का दायरा बढ़ाने के चक्कर में आपने जिसका भी भला किया हो (मुस्लिम बच्चों को 4 फीसदी आरक्षण देने की आपकी जिद ने आज आईआईटी उत्तीर्ण 450 मुस्लिम बच्चों के भविष्य को अधर में लटका दिया है) लेकिन इस देश के लाखों छात्र आपकी जिद के कारण हतोत्साहित हंै।
आप मानते हैं कि आईआईटी प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु के सपनों का संस्थान है। आप यह भी मानते हैं कि आईआईटी के फैकल्टी ने भारत को पूरी दुनिया में गौरव दिलाया है। आप यह भी मानते हैं कि देश के प्रौद्योगिकी विकास में इन संस्थानों का अमूल्य योगदान है। फिर यह अधिकार आपको किसने दिया कि भैंसे की तरह किसी सजे बगीचे में घुस कर उसे तहस नहस कर दें। आईआईटी के तमाम प्राध्यापक आपकी सलाह से इत्तेफाक नहीं रखते लेकिन आप जबरन अपनी वकालत घुसेरे हुए हैं। आपके घर में कोई बच्चा आईआईटी की तैयारी कर रहा होगा इसकी सम्भावना कम है। ऐसा नहीं है कि आपके बच्चे या रिश्तेदार प्रतिभाशाली नहीं होंगे लेकिन इस दौर में जिस कठिन परिश्रम और लम्बी पारी खेल कर बच्चे सफल होने की जिद करते हंै। शायद आप जैसे सुविधा संपन्न परिवार के बच्चे ऐसी जिद नहीं कर सकते। आईआईटी हम जैसे गरीब और मध्यम परिवार के बच्चों को आसमान छूने के ख्वाब जैसा है। वह अपनी पूरी प्रतिभा और लगन से जीवन का रास्ता खोजता है। मेरे जैसे परिवार के इन बच्चों के साथ साथ माता पिता ने अपनी तमाम गतिविधि बंद करके अपने घर को जेल बना दिया है। लेकिन आप उनकी प्रतिभा और मेहनत पर शक करते हैं। आपका मानना है की ये बच्चे कोचिंग से प्रतिभा उधार में ले आते हैं।
छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित इलाके से इस बार 175 आदिवासी बच्चों ने आई आई टी और ए आई ई ई ई में कामयाबी पाई है। दंतेवाड़ा के जिला कलेक्टर ने 'प्रयास' कोचिंग खोलकर गरीब बच्चों के सपनों को साकार किया है। आज छत्तीसगढ़ सरकार ने पटना के सुपर 30 की मदद से इस प्रयास को पूरे आदिवासी इलाके में खोलने की योजना बनायी है। लेकिन आपकी जिद है की बारहवीं की परीक्षा में 20 प्रतिशत टॉपर को ही आईआईटी की परीक्षा में शामिल होने का मौका मिले जबकि 80 फीसदी प्रतिभाशाली बच्चों को इस दौर से बाहर कर दिया जाए। आपके ध्यानार्थ यह बताना जरुरी है की +2 के इन टॉपर बच्चों में 10 फीसदी भी आईआईटी की परीक्षा में उतीर्ण नहीं हो पाते। वजह कोचिंग का ट्रिक नहीं है वजह सिर्फ सिलेबस है। देश के 42 राज्य बोर्ड का अलग अलग सिलेबस है तो अलग मानक लेकिन आपका तर्क है कि इससे गरीब बच्चों को आगे आने का मौका मिलेगा। गरीब बच्चे किस तरह आईआईटी का ख्वाब देख रहे हैं यह बात सुपर 30 के संस्थापक आनंद बेहतर बता सकते हैं।
चाँदी का चमचा मुंह में डाल आप पैदा हुए है... शायद आप उन मेधावी बच्चों के ख्वाब को नहीं जान सकते जो बड़ी मुश्किल से अपने लिए कापी- किताब जुटा कर आईआईटी का जिद पाले हुए हैं... उसकी यह जिद इसलिए भी है कि उन्हें भरोसा है कि आईआईटी उसके साथ अन्याय नहीं करेगा लेकिन राज्य बोर्ड किस बच्चे के साथ कितना न्याय करता है सरकार में रहकर शायद आप इसे बेहतर जान सकते हैं।
हर साल +2 के इम्तिहान में डीपीएस के छात्र -छात्राओं को अव्वल देखकर आपका मन जरूर बाग- बाग होता होगा, लेकिन एक बार उन बच्चों से यह सवाल जरूर पूछिए जिन्होंने तालीम किसी सरकारी स्कूल में ली है। बिहार, उत्तर प्रदेश के कई स्कूलों में वर्षों से विज्ञान शिक्षक नहीं है। राज्य सरकार मेधावी शिक्षकों की बहाली करने में अक्षम है लेकिन सिब्बल साहब आप गरीबों बच्चों को न्याय दिलाने के नाम पर शायद डीपीएस और संस्कृति के बच्चों की पैरवी कर रहे हैं।
अंत में सिब्बल साहब जिस देश में हर साल लाखों- करोड़ों रुपए घोटालों की भेंट चढ़ जाते हैं क्या उस देश में 1000-2000 करोड़ रूपए खर्च करके गरीब बच्चों के लिए कोचिंग की व्यवस्था नहीं की जा सकती? नारायण मूर्ति ने गरीब और पिछड़े तबके के मेधावी बच्चों को विशेष कोचिंग दिलाकर उन्हें प्रतिभा के दम पर पद हासिल करने का जज्बा दिया था। आरक्षण को बढ़ावा देने के बजाय गरीब बच्चों को बेहतर तालीम की जरूरत है जो आप नहीं दे सकते लेकिन आप लोगों में संशय फैला रहे हंै कि देश के कोचिंग संस्थान गरीब बच्चों का हक छीन रहे हैं मेरे जैसा एक साधारण आदमी अपनी गाढ़ी कमाई का एक बड़ा हिस्सा किस तरह बच्चों के कोचिंग पर खर्च करता है, इस जज्बे को आप शायद ही समझ सकते हैं। सर, अगर आपके पास कोई आइडिया नहीं है तो कोचिंग को निशाना बनाकर बच्चों के भविष्य के साथ मत खेलिये। जिस दिन आप आईआईटी के लिए कोई मरेथान रेस की शर्त रखेंगे ये कोचिंग संस्थाएं अपने बच्चों को दौडऩे के लिए ट्रेंड कर देगी। अगर आप जिद कर सकते हैं तो कृपया स्कूली शिक्षा के स्तर को सुधारने की जिद करें। आपकी यह जिद देश के लाखों गरीब बच्चों को नया जीवन दे सकती है जिसे किसी कोचिंग की कभी जरूरत ही नहीं होगी...।
सादर...
एक अभिवावक

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संस्कृत दिवस

भारतीय मानस में रची- बसी संस्कृत

-  लोकेन्द्र सिंह राजपूत

श्रावण मास की पूर्णिमा को 1969 से संस्कृत दिवस की शुरुआत हुई। संस्कृत भाषा भारतीय संस्कृति की परिचायक है। सभी भारतीय भाषाओं की जननी संस्कृत संस्कृति का समानार्थी शब्द कहा जा सकता है। इसी भाषा में भारतीय संस्कृति के सभी नियम, जन्म से लेकर मृत्यु तक सारे संस्कार और जीवन को गति प्रदान करने वाले संदेश मिलते हैं। अपनी संस्कृति को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए इस भाषा को सहेजना भी जरूरी है, इसीलिए हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित करने के बाद हिंदी दिवस मनाने की प्रथा शुरु होते ही संस्कृत दिवस की मांग की जाने लगी। काफी समय पश्चात श्रावण मास की पूर्णिमा को संस्कृत दिवस घोषित किया गया।

भारत में उसकी मूल और सबसे पुरानी भाषा संस्कृत तुच्छ राजनीति की भेंट चढ़ गई। भाषाई राजनीति के घटिया खेल ने उसे अभिजात्य वर्ग की भाषा करार देकर सामान्य वर्ग को उससे दूर कर दिया। अंग्रेजी की महिमा गाकर संस्कृत की उपयोगिता पर सवाल खड़े कर दिए। सरल, सरस और समृद्ध संस्कृत को कठिन भाषा बताकर उसके अध्ययन को कर्मकाण्डी ब्राह्मणों तक सीमित कर दिया। सुनियोजित षड्यंत्र के तहत संस्कृत को स्कूली अध्ययन से बाहर कर दिया। लेकिन सूरज पर कितना भी मैला फेंका जाए वह गंदला नहीं होता। एक ओर जब संस्कृत के खिलाफ षड्यंत्र रचे जा रहे हैं दूसरी ओर उसे लोकप्रिय बनाने के लिए 'संस्कृत भारती' जी- जान से जुटी है। संस्था के प्रयासों से भारत की संस्कृति की आधार भाषा संस्कृत की चमक देश की भौगोलिक सीमाओं से भी बाहर पहुंच गई।
शिक्षा के व्यवसायीकरण के बाद से भारत में जहां अंग्रेजी का वर्चस्व बढ़ रहा है, वहीं विदेश में संस्कृत का झंडा बुलंद हो रहा है। देश- विदेश में समय- समय पर हुए तमाम शोधों ने भी स्पष्ट किया कि संस्कृत वैज्ञानिक सम्मत भाषा है। रिसर्च के बाद सिद्ध हुआ है कि कम्प्यूटर के लिए सबसे उपयुक्त भाषा भी संस्कृत ही है। विश्व की प्रतिष्ठित वैज्ञानिक संस्था नासा भी लंबे समय से संस्कृत को लेकर रिसर्च कर रही है। दुनिया के कई देशों में संस्कृत का अध्ययन कराया जा रहा है।
इसके अलावा कई विदेशी संस्कृत सीखने के लिए भारत का रुख कर रहे हैं। इन्हीं में से एक हैं पोलैंड की अन्ना रुचींस्की, जिनका पूरा परिवार ही अब संस्कृतमय हो गया है। रुचींस्की के परिवार में आपस में बातचीत भी संस्कृत में की जाती है। संस्कृत में रुचींस्की की रुचि 20 साल पहले जगी थी। अन्ना रुचींस्की अपने पति तामष रुचींस्की के साथ घूमने के लिए भारत आईं थीं। वे बनारस के घाट पहुंचीं। यहां गूंज रहे वेदमंत्रों से प्रभावित होकर वे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय और संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय पहुंचीं। विश्वविद्यालय में रुचींस्की ने संस्कृत भाषा और भारत की संस्कृति को पहली बार करीब से जाना। अंतत: देवभाषा से प्रेरित होकर अन्ना ने संस्कृत विश्वविद्यालय से डॉ. पुरुषोत्तम प्रसाद पाठक के निर्देशन में वर्ष 2006 में पीएच-डी किया। इसके पूर्व वे पोलैंड में भारतीय विज्ञान से एमए कर चुकी थीं।
इसी बीच उनके सबसे छोटे पुत्र स्कर्बीमीर रुचींस्की (योगानंद शास्त्री) के मन में भी संस्कृत के प्रति अलख जगी और वह वाराणसी आ गए। उन्होंने संस्कृत विश्वविद्यालय से विदेशी छात्रों के लिए चलाए जा रहे संस्कृत के प्रमाणपत्रीय पाठ्यक्रम में वर्ष 1999 में दाखिला लिया और द्वितीय श्रेणी से उत्तीर्ण हुए। 2004 में शास्त्री (स्नातक) और 2006 में आचार्य (स्नातकोत्तर) की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके बाद योगानंद ने वर्ष 2010 में योगतंत्रागम विभाग में उपाचार्य डॉ. शीतला प्रसाद उपाध्याय के निर्देशन में 'मंत्रदेव प्रकाशिका तंत्र ग्रंथस्य समालोचनात्मक' विषय पर पीएच-डी के लिए पंजीयन कराया। उनकी शोध साधना अभी जारी है। उन्होंने बताया कि उनके पिता ने पोलैंड में ही भारतीय दर्शन पर पीएच-डी की है। ऐसे और भी कई उदाहरण हैं जो संस्कृत के प्रति विदेशियों के मन में जगे प्रेम को प्रकट करते हैं।
'संस्कृत भारती' ने संस्कृत को बोलचाल की भाषा बनाने का अभियान 25 साल पहले शुरू किया था। संस्था की ओर से देश- विदेश में संस्कृत सिखाने के लिए दस- दस दिन के शिविरों से लेकर कुछ सर्टीफिकेट कोर्स भी कराए जाते हैं। संस्था के प्रयासों की बदौलत देश में कई क्षेत्र संस्कृतमय हो गए हैं। कर्नाटक में 200 परिवारों का गांव मत्तूर वैदिक काल का गांव लगता है। यहां घरों की दीवारों पर संस्कृत में मंत्र लिखे हैं। सुबह- शाम मत्तूर मंत्रोच्चार से गूंजता है। यहां सब आपस में संस्कृत में ही बातचीत करते हैं। वर्तमान पीढ़ी से आगामी पीढ़ी की ओर संस्कृत ज्ञान की गंगा बहती रहे, इसकी व्यवस्था भी है। मत्तूर में गुरुकुल परंपरा का पालन भी किया जा रहा है। भारतीय विद्या भवन के पूर्व अध्यक्ष स्वर्गीय पद्यश्री डॉ. मत्तूर कृष्णमूर्ति का संबंध इसी गांव से है। मत्तूर का लगभग हर व्यक्ति संस्कृत का प्रकांड विद्वान है। इतना ही नहीं इनकी ख्याति दूर- दूर तक फैली है। इनमें से कई विद्वान तो हिन्दू संस्कृति के प्रचार- प्रसार में भी लगे हुए हैं।
मध्यप्रदेश में झिरी गांव भी मत्तूर की तरह संस्कृतनिष्ठ गांव है। संस्कृत भारती के अथक प्रयासों से यहां भी बच्चों से लेकर बड़े- बूढ़े संस्कृत की अच्छी समझ रखते हैं। यहां आप पहुंचेंगे तो संस्कृत अभिवादन से ही आपका स्वागत होगा। खास बात यह है कि यहां इससे पहले संस्कृत का कोई माहौल नहीं था। यहां पहुंचने पर प्रतीत होता है कि यह कोई रामायण काल का गांव है। संभवत: ये लोग दुनिया की नजर से बचे रह गए होंगे। लेकिन, यह सच नहीं। सब आधुनिक सुविधाओं के बीच भी गांव में संस्कृत का प्रचलन है। उन्हें अपनी भाषा पर गर्व है।
संस्कृत विश्व की ज्ञात भाषाओं में सबसे पुरानी भाषा है। लैटिन और ग्रीक सहित अन्य भाषाओं की तरह समय के साथ इसकी मृत्यु नहीं हुई। कारण भारत का वैभव तो संस्कृत में ही रचा बसा है। भारत की अन्य भाषाओं हिन्दी, तेलगू, मराठी, सिन्धी, पंजाबी, बंगला, उडिय़ा आदि का जन्म संस्कृत की कोख से ही हुआ है। हिन्दू धर्म के लगभग सभी ग्रंथ संस्कृत में ही लिखे गए हैं। बौद्ध व जैन संप्रदाय के प्राचीन धार्मिक ग्रन्थ संस्कृत में ही हैं। हिन्दुओं, बौद्धों और जैनियों के नाम भी संस्कृत भाषा पर आधारित होते हैं। अब तो संस्कृत नाम रखने का फैशन भी चल पड़ा है। प्राचीनकाल से अब तक भारत में यज्ञ और देव पूजा संस्कृत भाषा में ही होते हैं। यही कारण रहा कि तमाम षड्यंत्रों के बाद भी संस्कृत को भारत से दूर नहीं किया जा सका। यह दैनिक जीवन में नित्य उपयोग होती रही, भले ही कुछ समय के लिए पूजा- पाठ तक सिमटकर रह गई थी। लेकिन, समय के साथ अब फिर इसकी स्वीकार्यता बढ़ रही है।
आज भी पूरे भारत में संस्कृत के अध्ययन- अध्यापन से भारतीय एकता को सुदृढ़ किया जा सकता है। इसके लिए क्षेत्रीयता और वोट बैंक की कुटिल राजनीति छोड़कर आगे आना होगा। सार्थक प्रयासों से संस्कृत को फिर से जन- जन की भाषा बनाया जा सकता है।
संपर्क-  गली नंबर-1 किरार कालोनी, एस.ए.एफ. रोड, 
कम्पू, लश्कर, ग्वालियर (म.प्र.) 474001 मो. 9893072930
Email- lokendra777@gmail.com

कुलसुम ने दिया स्वतंत्र भारत का नारा

हर एक, सिखाए एक को

-  दानिश खान
'हर एक, सिखाए एक को', आज शिक्षा को बढ़ावा देने की सबसे प्रभावी योजनाओं में एक महिला द्वारा लोकप्रिय बनाया गया था जो बहुत थोड़े लोगों को याद होगा लेकिन जो भारत में प्रौढ़ शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी थी।
कुलसुम सयानी का नाम कई लोगों को शायद याद न आए लेकिन उनका जीवन और काम वास्तव में उल्लेखनीय रहें हैं। प्रसिद्ध रेडियो व्यक्तित्व अमीन सयानी की माँ, कुलसुम 1900 में पैदा हुई थीं। उनकी प्रेरणा कोई और नहीं महात्मा गांधी थे। उनके पिता डॉ. राजाबाली पटेल, गांधी जी और मौलाना अब्दुल कलाम आजाद के निजी चिकित्सक थे।  
1921 में प्रिंस ऑफ वेल्स की मुंबई यात्रा के खिलाफ विरोध में कई प्रदर्शन आयोजित  किए गए थे और शहर अस्थिर हो गया था। परिणाम स्वरूप लाठी चार्ज, गिरफ्तारी और मार्शल कानून लगाया गया। कई दर्जनों लोगों को चोट लगी और गंभीर रूप से घायल हुए। 
उन मुश्किल परिस्थितयों का बयान करते हुए कुलसुम सयानी ने लिखा, 'घायलों की देखभाल करने के लिए एक नया कांग्रेस अस्पताल स्थापित किया गया था। मेरे स्वर्गीय पति जन मोहम्मद सयानी वहाँ नियुक्त होने वाले पहले चिकित्सक थे। हमारे पास एक छोटी सक्सन कार थी जिस पर रेड क्रॉस का बिल्ला प्रमुखता से नजर आता था। मेरे पति रोज अस्पताल जाते थे, लगभग पूरी तरह से सुनसान सड़कों पर जहाँ दोनों तरफ पुलिसकर्मी खड़े होते थे। मैं फोन के पास बैठी रहती थी जब तक वे अस्पताल से मुझे बता नहीं देते थे कि वो सुरक्षित पहुँच गए हैं।'
गांधी जी के साथ सयानी की बातचीत और उनके परिवार में शिक्षा को जो महत्व दिया जाता था उससे उन्हें निरक्षरता उन्मूलन की जरूरत का एहसास हुआ। 1938 में 100 रुपये (1 अमेरिकी डॉलर = 46.7 रुपये) की पूंजी के साथ उन्होंने दो शिक्षकों को रखा और छात्र ढूँढने के लिए मुस्लिम इलाकों के चक्कर लगाए। अभी भी महिला शिक्षा की ओर रूढि़वादी रवैये को देखते हुए, उस समय लड़कियों को शिक्षित करने के महत्व के बारे में परिवारों को समझाने के लिए सयानी के प्रयासों की कल्पना कीजिए। ऐसा भी होता था जब लोग हैरानी से, 'महिलाओं को पढऩा सीखने की क्या जरूरत है? कह कर उनके मुँह पर दरवाजा बंद कर देते थे।
उनके अथक प्रयासों ने साबित कर दिया है कि शिक्षा के क्षेत्र में काम करने की जबरदस्त जरूरत थी, जिसके लिए एक और अधिक संगठित संरचना की जरूरत थी। उनके अनुभव ने उन्हें कई समितियों का हिस्सा बनाया, जिनका गठन बंबई अब मुंबई में वयस्कों के बीच साक्षरता बढ़ाने के लिए किया गया था। वे पहली राष्ट्रीय योजना समिति के साथ जुड़ी हुई थी जिसकी स्थापना मुंबई में 1938 में कांग्रेस सरकार द्वारा की गई थी। 1939 में गठित, मुंबई शहर सामाजिक शिक्षा समिति ने सयानी से मुस्लिम महिलाओं की सेवा के लिए उनके 50 केन्द्रों को चलाने के लिए कहा। धीरे- धीरे और लगातार कक्षाएं बढ़ी और संख्या 600 पर पहुंच गई। निश्चित रूप से उनके प्रयास केवल मुस्लिम समुदाय के लिए सीमित नहीं थे। 1944 में उन्हें अखिल भारतीय महिला सम्मेलन का महासचिव भी नियुक्त किया गया और उन्होंने महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए काम किया। 
लेकिन उन्हें शिक्षा के प्रसार के लिए सबसे अधिक याद किया जाता है। 'टाइम्स ऑफ इंडिया' (10 मार्च,1970) के नई दिल्ली संस्करण ने कहा, '1939 से, जब उन्होंने (कुलसुम सयानी) बंबई शहर सामाजिक शिक्षा समिति का कार्यभार संभाला, पांच लाख वयस्क पांच भाषाओं- उर्दू, हिन्दी, गुजराती, मराठी और तेलगु में से एक के माध्यम से साक्षर बन गए हैं। उनके दिन स्कूलों में बच्चों को वयस्कों को पढ़ाने के लिए उत्साहित करने की जल्दी में और रात साक्षरता की नई योजनाओं का सपना देखने में बीतती हैं।'
सयानी बहुत व्यावहारिक थीं और विशेष रूप से 'हर एक, सिखाए एक को' सहित उन्होंने साक्षरता प्रसार के लिए अनेक योजनाएं शुरू की। वे कई स्कूलों में जाया करती थीं और युवा छात्रों को हर दिन एक वयस्क को पढ़ाने के लिए 15 मिनट समर्पित करने के लिए प्रोत्साहित करती थीं। इस योजना के तहत, छात्रों को हर दिन अपने परिवार, पड़ोस या घरेलू सहायकों में किसी भी वयस्क को एक नया अक्षर सिखाना और पढऩा होता था। नैतिक मूल्यों के महत्व के प्रति अत्यधिक जागरूक, वे छात्रों को वयस्कों से उन्हें एक लोक कथा या महाकाव्यों से एक कहानी सुनाने का अनुरोध करने के लिए प्रोत्साहित करती थीं।
एक बार उन्होंने कहा था, 'निम्न मध्यम वर्ग की महिलाएं, जो काम करने के लिए मजबूर हैं, उनके पास अपने बच्चों को स्कूल के बाद सड़कों पर छोडऩे के अलावा कोई चारा नहीं है, जबकि जो फैशनेबल हैं, ब्रिज और माह-जोंग पार्टियों के बाद बच्चों के लिए उनके पास कोई समय नहीं बचता'। 
एक दूसरी साक्षरता पहल जो उन्होंने शुरू की वो थी- जोर से पढऩा। स्कूल के छात्रों को दोस्तों और वयस्कों को इकट्ठा करने और हर एक को बाहर जोर से पढऩे के लिए प्रोत्साहित किया गया। उनका विश्वास था, नव-साक्षरों के आत्मविश्वास और रुचि में सुधार के लिए यह करना आवश्यक था। इन योजनाओं की सफलता सुनिश्चित करने लिए वे हर सप्ताह छात्रों से मिलने और उन्हें प्रोत्साहित करने के लिए तीन से चार स्कूलों का दौरा करती थीं। स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान जेलों में सड़ रहे सैकड़ों राजनीतिक कैदियों ने उनके द्वारा निकाले जाने वाले अखबार 'रहबर' को जोर से पढ़कर अपनी हिन्दुस्तानी में सुधार किया। 1940 में शुरू हुआ 'रहबर' नए शिक्षार्थियों के उद्देश्य से शुरू किया गया था। यह तीन लिपियों में प्रकाशित होता था -नागरी, उर्दू और गुजराती। 'रहबर' की भाषा हिन्दुस्तानी - हिन्दी और उर्दू का मिश्रण थी। वो ऐसा समय था जब दोनों भाषाओं में भेद और अपनी श्रेष्ठता स्थापित करने के प्रयासों में हिन्दी के समर्थक भारी संस्कृत शब्दों का उपयोग कर रहे थे और उर्दू के समर्थक भाषा को फारसी और अरबी से बाँध रहे थे।  
गांधीजी नागरी में लिखी हिन्दुस्तानी या उर्दू लिपि के पक्ष में थे। 'रहबर' ने गांधीजी के हिंदुस्तानी वाले विचार को आगे ले जाने की सोची। 16 जून, 1945 दिनांकित एक पत्र में गांधीजी ने सयानी को बेटी कुलसुम के रूप में संबोधित किया और लिखा है: 'मुझे 'रहबर' के हिन्दी और उर्दू को जोडऩे का मिशन अच्छा लगा। इसे सफलता मिले।' अखबार देश भर की जेलों में बंद सैकड़ों राजनैतिक कैदियों द्वारा पढ़ा जाता था, गांधीजी की हिन्दुस्तानी सीखने में रुचि रखने वाला हर कोई अखबार लेता था। भारत की स्वतंत्रता से पहले के महीनों में जब संविधान सभा में विचार- विमर्श शुरू हुआ, भाषा विवाद फिर से भड़क उठा। गांधीजी द्वारा सयानी को 22 जुलाई, 1947 को लिखे पत्र से उनके हिंदुस्तानी के साथ रहने के संकल्प का पता चलता है। उन्होंने लिखा है: 'भगवान जानता है कि आगे हमारे लिए क्या है। पुराने चीजें नई को जगह देने के लिए बदल रही हैं। कुछ निश्चित नहीं है। सी.ए. द्वारा जो भी फैसला किया जाएगा, तुम्हारे और मेरे लिए दो लिपियों के साथ हिन्दुस्तानी रहेगी।' सयानी ने दुनिया भर में शिक्षा के कई अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी भारत का प्रतिनिधित्व किया। उन्होंने 1953 में पेरिस (फ्रांस) में यूनेस्को सम्मेलन में भाग लिया और विचारों की सहभागिता की और कई देशों के प्रतिनिधियों के साथ बात कर नए दृष्टिकोण प्राप्त किए। उनकी अन्य रुचि शांति के साथ भारत और पाकिस्तान के बीच समझ बढ़ाने को बढ़ावा देने में थी। उनके एक कार्यकर्ता के रूप में अच्छी पहचान से उन्हें दोनों देशों में शीर्ष नेताओं के साथ औपचारिक बैठक में मदद मिलती थी। पाकिस्तानी राजनेताओं में, अन्य वरिष्ठ नेताओं के साथ उन्होंने पाकिस्तानी राष्ट्रपति, गुलाम मोहम्मद और अयूब खान से सीधे मुलाकात की।
भारत में 'रहबर' के संपादक के रूप में उनकी प्रतिष्ठा से उन्हें नेहरू, बी.जी. खेर, वी.के. कृष्ण मेनन, रफी अहमद किदवई और इंदिरा गांधी के साथ मिलने का समय लेने में मदद मिली। उन्हें पाकिस्तान के साथ दोस्ती बनाने के उनके प्रयासों के लिए भारत में सभी रंग के नेताओं से प्रोत्साहन और समर्थन मिला। हालाँकि, नेहरू और रफी किदवई जो पाकिस्तान के साथ संबंधों में सुधार लाने के सरोकार से इत्तेफाक रखते थे उनके निधन के बाद, उन्होंने अपनी ऊर्जा हिंदुस्तानी प्रचार के लिए समर्पित कर दी। सयानी का जीवन कई लोगों के लिए एक प्रेरणा है। शादी हुई जब वे केवल 18 साल की थी, उन्होंने अपने परिवार और सामाजिक रुझान को बराबर जोश से निभाया। उनके बेटे, हामिद और अमीन दोनों रेडियो प्रसारकों ने अपनी खुद की पहचान बनाई। अमीन सयानी 'हिंदुस्तानी में स्पष्ट और विश्वसनीय संचार की प्रारंभिक शिक्षा' का श्रेय 'रहबर' के प्रकाशन में अपनी माँ की सहायता में शामिल होने को देते हैं।
20 साल अकेले चलने के बाद, 1960 में बुढ़ापे और नौकरशाही ने उन्हें 'रहबर' बंद करने के लिए मजबूर कर दिया। वे हिन्दुस्तानी प्रचार सभा के साथ जुड़ी रहीं और कई व्याख्यान और सेमिनार आयोजित किए। हालाँकि, उन्होंने निरक्षरता उन्मूलन के अपने आजीवन जुनून से कभी ध्यान नहीं हटाया। 1960 में उन्होंने पद्मश्री प्राप्त की और 1969 में उन्हें नेहरू साक्षरता पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया।
सयानी, जिनकी 1987 में मृत्यु हो गई, उस युग से थी जहाँ लोग बिना किसी उम्मीद के राष्ट्र को अपना सर्वश्रेष्ठ देने में विश्वास करते थे। (विमेन्स फीचर सर्विस)

सावन की यादें

आया सावन झूम के...

 - पल्लवी सक्सेना
सवान के महीने में हरे रंग का सर्वाधिक महत्व होता है। क्यूंकि सावन के महीने में धरती सूरज की तपिश से मुक्त होकर अपनी धानी चूनर छोड़ हरीयाली से परिपूर्ण ठंडी- ठंडी हरी चुनरी जो ओढ़ लिया करती है। बड़े- बड़े पेड़ों से लेकर नन्हें- नन्हें पौधों पर पड़ी बारिश की बूंदें जैसे बचपन पर आया नवयौवन का निखार
यूं तो जिंदगी में भी न जाने कितने मौसम आते जाते है। लेकिन चाहकर भी कभी कोई मौसम ठहरता नहीं जिंदगी में। हमेशा पतझड़ के बाद ही बहार आती है, और बहार के बाद फिर पतझड़ बिलकुल सपनों के पंछियों की तरह नींद की डाल पर कुछ देर के लिए आए सपने वक्त की हवा के साथ उड़ जाते है और हमारे दिल में अपने कदमों के कुछ निशां छोड़ जाते हैं। जिनके सहारे कभी तो यह जिंदगी सुकून से गुजर जाती है तो कभी इन्हीं सपनों के पूरा ना होने पर एक टीस सी रह जाती है मन के किसी कोने में कहीं....मगर वक्त कभी एक सा कहाँ रहता है इसलिए शायद प्रकृति भी हमारे साथ कभी धूप तो कभी छाँव की अटखेलियाँ खेला करती है सदा।
लंबी चली गर्मियों के बाद आज फिर 'मौसम ने ली अंगड़ाई' और एक बार फिर 'आया सावन झूम के' आज सुबह जब उनींदी आँखों से देखा खिड़की की ओर तो जैसे एक पल में सारी नींद हवा हो गयी ऐसा लगा जैसे यह सुहाना मौसम बाहें फैलाये मेरे नींद से जागने का ही इंतजार कर रहा था। यूं तो यहाँ (यूके) सदा ही बारिश हुआ करती है। मगर आज न जाने क्यूँ एक अलग सा एहसास था इस बारिश में, ऐसा महसूस हो रहा था जैसे यह बारिश का पानी मुझसे कुछ कहना चाहता है। मुझे कुछ याद दिलाना चाहता है। तभी सहसा याद आया सावन का महीना इस महीने सवान के सोमवार शुरू हो रहे हैं। यह याद आते ही मुझे सब से पहले याद आया मंदिरों में होती शिव आराधना,  मंत्रोच्चारण से गूँजते मंदिर,  मंदिर के बाहर बेलपत्र, धतूरे और पूजा के अन्य सामग्री से सजी दुकानों का कोलाहल, सब घूम गया आँखों के सामने और इस सबके साथ- साथ मन प्रकृति के सुंदर नजारों में कही खो गया।
जैसा के आप सभी जानते ही होंगे कि सवान के महीने में हरे रंग का सर्वाधिक महत्व होता है। क्यूंकि सावन के महीने में धरती सूरज की तपिश से मुक्त होकर अपनी धानी चूनर छोड़ हरीयाली से परिपूर्ण ठंडी- ठंडी हरी चुनरी जो ओढ़ लिया करती है। बड़े- बड़े पेड़ों से लेकर नन्हें- नन्हें पौधों पर पड़ी बारिश की बूंदें जैसे बचपन पर आया नवयौवन का निखार, जल मग्न रास्ते,  झीलों, तालाबों और नदियों में बढ़ता जलस्तर बहते पानी का तेज होता बहाव जैसे सब पर एक नया जोश, एक नयी उमंग छा जाती है।
हर कोई, चाहे 'प्रकृति हो या इंसान' इस मौसम में एक नये जोश के साथ अपने- अपने जीवन की एक नयी शुरुवात करने की इच्छा रखते है। इसलिए तो प्रकृति भी नए अंकुरों को जन्म देकर उन्हें नन्हें हरे- हरे पौधों के रूप में बदल कर नव जीवन की शुरआत का संदेशा देती नजर आती है। घर आँगन में पड़े सावन के झूले, उन झूलों पर आज भी झूलता बचपन और उस बचपन में मेरे बचपन की झलक जिसे आज भी सिर्फ मैं देख सकती हूँ।
हरी- हरी चूडिय़ों की खनक, मिट्टी की सौंधी खुशबू में मिली मेहंदी की महक, मेहंदी के रंग को देखने का उतावलापन कि रंग आया या नहीं। नए कपड़ों को खरीद कर जल्द से जल्द पहनने की होड़, भाइयों के आने का बेसब्र इंतजार, मिठाइयों की दुकानों पर सजे फेनी और घेवर की खुशबू, बाजारों का कोलाहल, फुर्सत के पल में घड़ी- घड़ी बनती चाय और पकौड़ों की महक, ताश के पत्ते, पिकनिक की जगह तलाशता बचपन, गर्मागर्म भुट्टों का स्वाद, पानी से भरी सड़कों पर बिना कीचड़ की परवाह किए बेझिझक भीगना और मम्मी की डांट कि बस बहुत हो गया बहुत भीग लिए, अब बस करो और भीगोगे तो बीमार पड़ जाओगे।
सब जैसे एक साथ किसी चलचित्र की तरह चल रहा है जामुन का स्वाद, सबसे सुंदर राखी चुन लेने की उत्सुकता और भी न जाने क्या- क्या....मेरे लिए तो इतना कुछ छुपा है इस सावन के मौसम में जिसे पूरी तरह व्यक्त कर पाना शायद मेरे बस में नहीं, बस एक यादों का अथाह समंदर है जिसमें यादों की ही लहरें उठ रही है। एक अजीब सी बेकरारी है। एक अजीब सा खिंचाव जो हर साल, हर सावन में, हर बार मुझे यूं हीं खींचता है अपनी ओर, और उन यादों के आवेग में मेरा मन बस यूँ हीं बहता चला जाता है किसी मदहोश इंसान की तरह जिसे मौसम का नशा चढ़ा हो। ना जाने क्यूँ कुछ लोग नशे के लिए शराब का सहारा लिया करते हैं। कभी कुदरत के नशे में भी खोकर देखें उसमें जो नशा जो खुमारी है वह शायद ही उस नशे में हो जिसे लोग नशा कहा करते हैं।
लेकिन इन सब चीजों के बाद भी सावन का यह महीना  एक चीज के बिना अधूरा है वह है संगीत। सावन के इस मौसम में चाय का कप और बारिश के पानी के साथ किशोर कुमार की आवाज... भला और क्या चाहिए जिंदगी में इस आनंद के सिवा...
रिमझिम गिरे सावन, सुलग- सुलग जाए मन
भीगे आज इस मौसम में लगी कैसी ये अगन...
संपर्क-     द्वारा- डॉ. एस.के. सक्सेना, 27/1, गीतांजलि काम्प्लेक्स,
               गेट नं. 3 भोपाल (मप्र)
               Email- pallavisaxena80@gmail.com

यदि बागडोर होती शासन की मेरे हाथों में ...

...लेकिन वह दिन कब आएगा

- साधना वैद 
मेरे हाथों में शासन की बागडोर आ जाये तो जो स्कूल कॉलेज वर्तमान में चल रहे हैं मैं ना केवल उन्हीं की दिशा में हर संभव सुधार लाकर उन्हें और बेहतर बनाऊंगी वरन उन्हीं में दो शिफ्ट्स चला कर नये स्कूल कॉलेज खोलने के खर्च के बोझ से भी जनता को बचाऊंगी।
सरकार चलाना एक बहुत बड़े प्रोजेक्ट को हैंडिल करने जैसा ही है। समस्याएं अनेक हैं, साधन भी कम हैं और समय की भी तो सीमा होती है। ऐसे में आवश्यकता है उन समस्याओं की पहचान करना जिनके निदान से देश में सकारात्मक बदलाव लाया जा सके, त्वरित राहत मिल सके और उनका निदान हमारे पास उपलब्ध साधनों के द्वारा ही निकाला जा सके। साधनों से मेरा तात्पर्य हमारे पास उपलब्ध धन, तकनीक व जनशक्ति से है। मामला जरा टेढ़ा तो लगता है लेकिन अगर हमारे पास दूरदृष्टि है और साथ ही शासन की बागडोर भी हमारे हाथ में आ जाये तो फिर क्या कहने। हम तो देश में ऐसा जादू कर दें कि लोग देखते ही रह जायें। 
सबसे पहले तो विकास के नाम पर जिस तरह से पब्लिक मनी का दुरुपयोग हो रहा है उस पर मैं तुरंत रोक लगा दूंगी। हमें शहरों के सौन्दर्यीकरण के लिए नये पाक्र्स, मॉल्स या महंगी- महंगी मूर्तियों और मनोरंजन स्थलों के निर्माण की कोई जरूरत नहीं है। शहरों की मौजूदा सड़कों और नालियों की सही तरीके से सफाई और मरम्मत कर दी जाये, सारे शहर में यहां वहां फैले कूड़े कचरे और गन्दगी के निस्तारण की उचित व्यवस्था कर दी जाये और शहरों में उचित स्थानों पर कूड़ा एकत्रित करने के लिए गार्बेज बिन्स को जमीन में ठोक कर मजबूती से लगा दिया जाये तो इस समस्या से काफी हद तक छुटकारा पाया जा सकता है। बाजारों में और सड़कों पर समुचित व्यवस्था ना होने के कारण लोग यहां वहां गन्दगी करने के लिए विवश होते हैं। इसे रोकने के लिए स्थान- स्थान पर शौचालयों और मूत्रालयों की व्यवस्था होनी चाहिए और उन्हें साफ रखने के लिए कर्मचारी तैनात किये जाने चाहिए। उनका प्रयोग करने के लिए लोगों को जागरूक किया जाना चाहिए। यदि इन छोटी- छोटी बातों का ध्यान रखा जाये तो शहरों की सूरत ही बदल जाये।
मेरे हाथ में शासन की बागडोर आ जाये तो मैं सबसे पहले इसी दिशा में काम करना पसंद करूंगी और उन लोगों के साथ सख्ती से पेश आऊंगी जो इसका उल्लघन करेंगे। शहरों की सड़कों की मरम्मत और रख रखाव की तो जरूरत है ही वहां पर रांग पार्किंग और अनाधिकृत निर्माण तथा फेरीवाले और चाट पकौड़ों के ठेले वाले और उनके ग्राहकों की भीड़ उन्हें और सकरा बना देती हैं। जहां थोड़ी सी भी जगह की गुन्जाइश होती है वहां कूड़ों के ढेर लग जाते हैं। यदि सड़कों के आजू- बाजू के मकानों की पेंट पुताई और मरम्मत की ओर ध्यान दिया जाये, बाउण्ड्री वाल्स पर पोस्टर्स ना लगाए जाएं तो यही शहर चमन लगने लगेगा। हमें अपने शहरों को ढेरों धन व्यय करके लन्दन, पेरिस, रोम या न्यूयार्क नहीं बनाना है बस थोड़ा सा ध्यान देकर बिना अतिरिक्त धन खर्च किये उन्हें साफ सुथरा रखें तो ही बहुत फर्क पड़ जायेगा।
मेरे हाथ में शासन की बागडोर हो तो मेरा सारा ध्यान शहरों की साफ सफाई, सड़कों और नालियों की मरम्मत और रख रखाव पर ही होगा जिसके लिये धन खर्च करने से अधिक मुस्तैदी से काम करने की जरूरत अधिक होगी।  
कोई भी प्रोजेक्ट बिना जन समर्थन के कामयाब नहीं होता। इसके लिए नये- नये कानून बनाने से अधिक जनता में जागरूकता फैलाने के लिये प्रचार- प्रसार माध्यमों का सही तरीके से उपयोग करने पर पूरा ध्यान दिया जाना चाहिए। हम इन्हें मजबूत बना कर लोगों को शिक्षित बना सकते हैं और उनकी संकीर्ण सोच को बदल देश में क्रान्ति ला सकते हैं। कन्या भ्रूण हत्या, बाल विवाह, विधवा विवाह, दहेज, खर्चीली शादियां, मृत्यु भोज, परिवार नियोजन आदि सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ सिनेमा, नाटक, नुक्कड़ नाटक, टी वी धारावाहिक, सार्थक साहित्य, नृत्य नाटिकायें, पेंटिंग्स इत्यादि को माध्यम बना कर लोगों की सोच में बदलाव लाया जा सकता है। इस कार्य के लिए स्वयंसेवी कलाकारों को साथ ले मुहिम चलाई जा सकती है। दृश्य और प्रिंट मीडिया इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
मेरे हाथों में शासन की बागडोर आ जाये तो मैं इस दिशा में अवश्य सार्थक पहल करूंगी। जब- जब इनके लिये कानून बनाये गये उनका दुरुपयोग किया गया और जनता सरकार के विरुद्ध खड़ी हो गयी। कानूनों को मन मुताबिक तोडऩे मरोडऩे के लिए भ्रष्टाचार बढ़ा। इनसे निबटने के लिए कानून बनाने से अधिक लोगों में सही गलत का निर्णय खुद लेने की क्षमता विकसित करने की अधिक जरूरत है। 
बढ़ती जनसंख्या के दबाव के चलते स्थान की कमी हो रही है और जंगल बड़ी मात्रा में काटे जा रहे हैं जिनसे पर्यावरण के लिए भी बड़ा खतरा पैदा हो रहा है। मेरे हाथों में शासन की बागडोर आ जाये तो जो स्कूल कॉलेज वर्तमान में चल रहे हैं मैं ना केवल उन्हीं की दिशा में हर संभव सुधार लाकर उन्हें और बेहतर बनाऊंगी वरन उन्हीं में दो शिफ्ट्स चला कर नये स्कूल कॉलेज खोलने के खर्च के बोझ से भी जनता को बचाऊंगी। इस तरह से बिना किसी अतिरिक्त खर्च के शिक्षा के क्षेत्र में जो कमी आ रही है उसका निदान हो सकेगा। इसी तरह स्वास्थ्य सेवाओं को भी सुधारा जा सकता है। नये- नये अस्पताल खोलने की जगह यदि वर्तमान में मौजूद स्वास्थ केन्द्रों, अस्पतालों और नर्सिंग होम्स की दशाओं को सुधारा जाये तो स्थिति में बहुत सार्थक परिवर्तन लाया जा सकता है।
शासन की बागडोर मेरे हाथ में आ जाये तो मेरा अगला कदम यहां की न्याय व्यवस्था में सुधार लाने की दिशा में होगा। न्यायालयों में वर्षों से लंबित विचाराधीन मुकदमों का अविलम्ब निपटारा होना चाहिए। ऐसे कानून जिनका कोई अर्थ नहीं रह गया उन्हें तुरंत निरस्त कर दिया जाना चाहिए। हर केस के लिए समय सीमा निर्धारित की जानी चाहिए ताकि लोगों को समय से न्याय मिल सके और शातिर अपराधियों को सबूत मिटाने का या गवाहों को खरीद फरोख्त कर बरगलाने का मौका ना मिल सके। मेरा फोकस इस दिशा में होगा और मैं इसके लिए हर संभव उपाय करूंगी। 
कई उत्पादों जैसे सिगरेट, शराब, पान तम्बाकू, गुटका, पान मसाला आदि पर वैधानिक चेतावनी लिखी होती है कि ये स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं। मुझे आश्चर्य होता है कि यदि ये वाकई हानिकारक हैं तो ये बनाये ही क्यों जाते हैं और इन्हें बेचने का लाइसेंस सरकार देती ही क्यों है। मेरे हाथों में यदि शासन की बागडोर आ जाये तो सबसे पहले मैं इन उत्पादों की बिक्री पर रोक लगा दूंगी जो मनुष्य को शारीरिक और मानसिक दोनों तौर पर खोखला बना देते हैं और वह अपना विवेक खोकर मनुष्य से जानवर बन जाता है।
भ्रष्टाचार का दानव सबसे अधिक हमारी प्रशासनिक व्यवस्था में पैर पसार कर जमा हुआ है। इसे वहां से हटाना बहुत मुश्किल हो रहा है। लेकिन ब्यूरोक्रेसी को डाउन साइज करके हम इसके आकार प्रकार को कम जरूर कर सकते हैं। मेरे हाथों में शासन की बागडोर आ जायेगी तो सबसे पहले मैं ऐसे नियम कानूनों को हटाऊंगी जिनका अनुपालन भ्रष्टाचार को बढ़ावा देता है। जनता को कानूनों के फंदे में लपेटने से अधिक उचित है कि उनमें सही तरीके से सिविक सेन्स डेवलप किया जाये ताकि वे अपने देश के आदर्श नागरिक बन सकें और स्वयं देश के प्रति अपने दायित्वों और प्राथमिकताओं को समझ कर उनका स्वेच्छा से पालन करें। यदि वे कायदे कानूनों की अहमियत को नहीं समझते तो वे उनका पालन भी नहीं करते और जब कभी कानून के लपेटे में आ जाते हैं तो पैसा ले देकर स्वयं को बचाने की कोशिश में जुट जाते हैं और भ्रष्टाचार को बढ़ावा देते हैं। मेरे हाथों में जिस दिन शासन की बागडोर आ जायेगी इन सभी अनियमितताओं पर मैं जरूर अंकुश लगा दूंगी। लेकिन वह दिन आये तभी ना। ना नौ मन तेल होगा ना राधा नाचेगी।
मेरे बारे में - एक संवेदनशील, भावुक और न्यायप्रिय महिला हूँ। अपने स्तर पर अपने आस- पास के लोगों के जीवन में खुशियाँ जोडऩे की यथासम्भव कोशिश में जुटे रहना मुझे अच्छा लगता है। 
संपर्क- 33/23, आदर्श नगर, रकब गंज, आगरा (उप्र) 282001       
           sadhana.vaid@gmail.com

यदि बागडोर होती शासन की मेरे हाथों में ...

बेटी होना कभी न खलता

 - अनामिका

धर्म- बंधन में हर कोई बंधता
हर प्राणी यहाँ कर्मठ बनता
छोटे बड़ों के करते सम्मान
बड़े  दिखाते बड़प्पन बातों ही बातों में
यदि बागडोर होती शासन की मेरे हाथों में ...

राजा- प्रजा का भेद न होता
कटुता का कोई बीज न बोता
रहते मिलजुल कुटुंब समान
ऊंच- नीच का भाव न पलता लोगों के जज्बातों में
यदि बागडोर होती शासन की मेरे हाथों में ...

अधिक न कोई संचय करता
कभी न कोई भूखों मरता
होता न कोई देश में बेईमान..
अमन- चैन से रहते, होते न शामिल उत्पातों में
यदि बागडोर होती शासन की मेरे हाथों में ...

हंसी- खुशाी से मिलजुल रहते
मानवता की इज्जत करते
मेहनत का सब करते मान
जीते ना झूठे वादों और खैरातों में
यदि बागडोर होती शासन की मेरे हाथों में ...

देह का व्यापार न चलता
बेटी होना कभी न खलता
नर- नारी होते एक समान
दहेज प्रथा का चलन न होता शादी की सौगातों में
यदि बागडोर होती शासन की मेरे हाथों में ...

काले धन का नाम न होता
महंगाई का काम न होता
डालर पर होती रुपए की उड़ान
डीजल- पेट्रोल होता सस्ता, इन मुश्किल हालातों में
यदि बागडोर होती शासन की मेरे हाथों में ...

शिक्षा का कर चहु-मुखी विकास
गरीबी का कर जड़ से विनाश
होता रोटी, कपड़ा और मकान,
मगन न रहते लोग हर पल घातों- प्रतिघातों में
यदि बागडोर होती शासन की मेरे हाथों में ...

मेरे बारे में -  
मेरे पास अपना कुछ नहीं है, जो कुछ है मन में उठी सच्ची भावनाओं का चित्र है और सच्ची भावनाएं चाहे वो दु:ख की हों या सुख की... मेरे भीतर चलती हैं... महसूस होती हैं... और मेरी कलम में उतर आती हैं...! 
संपर्क- C/O सुनीता खुराना, मकान नं. 2513,सेक्टर-16, फरीदाबाद- 121002 हरियाणा

ख्वाब तो यही है...

ख्वाब तो यही है...

- अनिता निहालानी 

यदि मेरे हाथों में शासन की बागडोर हो
.....तो खोल डालूं पांच सितारा होटल के द्वार
उन निर्धन मजदूरों के लिये
जिन्होंने कड़ी धूप में तपकर खड़े किये थे
वे गगनचुम्बी महल....

और दूर दराज के गावों में
जहाँ न सड़के हैं न बिजली
रहने को भेज दूँ मोटे-मोटे खादी धारियों को...

आलीशान बंगलों में
खाली पड़े हैं जो, सन्नाटा गूंजता है जहाँ
स्कूल और अस्पताल चलाऊँ
विवश हैं जो लम्बी कतारों में लगने को
उनको वहाँ दाखिला दिलाऊँ...

मिलावट करने वाले हों या कालाबाजारी
भेज दूँ उनको, उनकी सही जगह
और मेहनतकश, कर्मठ हाथों को
ईमानदारी से शुद्ध सामान बेचने में लगा दूँ...

जो भूल गए हैं ड्यूटी पर आना
ऐसे अध्यापकों, डाक्टरों, अधिकारियों या
पायलटों को रिटायर कर दूँ किसी भी उम्र में
और काम करने को आतुर लोगों की
रिटायरमेंट उम्र बढ़ा दूँ जितनी वे चाहें....

जहरीली दवाएं और जहरीली खादें 
धरती को विषैला न बनाएँ
ऐसा फरमान निकालूं
विकलांग न हों जिससे
दूषित भोजन को खाकर और बच्चे...
टीवी पर आने वाले झूठे विज्ञापनों के
जाल से मुक्त करूं आम जनता को
बढ़ावा मिले योग और सात्विकता को
हर बच्चे की पहुँच हो
संगीत व नृत्य तक
पेड़ लगाना अनिवार्य हो जाये
हर बच्चे के जन्म पर....

विज्ञान के साथ-साथ
साहित्य पढऩे वाले विद्यार्थी भी
उच्च पदों पर आयें
कलाविहीन मानव
पशु रूप में और न बढऩे पाएँ...

गर्व हो अपनी संस्कृति पर ऐसे
मंत्री बनाऊँ
सरकारी ठेके की दुकानों पर दूध-लस्सी की
नदियाँ बहाऊँ...

ख्वाब तो यही है कि
न हो अन्याय किसी के साथ
हर किसी के पास हो
सम्मान से जीने का अधिकार...

मेरे बारे में - 
यह अनंत सृष्टि एक रहस्य का आवरण ओढ़े हुए है, काव्य में यह शक्ति है कि उस रहस्य को उजागर करे या उसे और भी घना कर दे। लिखना मेरे लिये सत्य के निकट आने का प्रयास है। कविता लिखना और पढऩा मुझे भाता है।  ध्यान, प्राणायाम आदि आर्ट ऑफ लिविंग से जुडऩे के बाद जीवन का अंग बन गए हैं। बागवानी, घूमना, प्रकृति दर्शन भी अच्छा लगता है, किताबें बचपन से मित्र रही हैं।
संपर्क- C/o M C Nihalani, D + 207, OIL COLONY,  DULIAJAN - 786 602  ASSAM

यदि बागडोर होती शासन की मेरे हाथों में ...

खोना और पाना

- सीमा सिंघल

हमारे पास शुरू से ही हर चीज के दो विकल्प रहे हैं ...  खोना और पाना अथवा करो या मरो, जीवन इन्हीं दो विकल्पों के आधार पर टिका हुआ है हर सिक्के के दो पहलू होते हैं... कई बार होता है स्थितियों को हम उसी रूप में स्वीकार कर लें वे जैसी हैं या फिर उन्हें बदलने का उत्तरदायित्व स्वीकार कर लें...
वर्तमान में देश के जो हालात हैं उन्हें हम स्वीकार कर चुके हैं क्योंकि उसे बदलने के लिए एक हाथ एक विचार या किसी एक व्यक्ति की आवश्यकता नहीं बल्कि प्रत्येक व्यक्ति को आगे आना होगा .. देश में समस्याओं की बात करें तो समस्याओं का गढ़ बन चुका है यह चौतरफा लूट-खसोट मची हुई है, यह सब मेरे कहने की जरूरत नहीं न ही किसी को बताने की बल्कि हर जागरूक व्यक्ति यही विचार रखता है अपने मन में लेकिन यहां किसी की तरफ उंगली उठाने के लिए किसी से नहीं कहा जा रहा है ना ही किसी को दोषी ठहरा न्याय-अन्याय की परिधी में उसका आंकलन किया जा रहा है बल्कि एक शक्तिशाली विचार दिया गया है ..
यदि बागडोर होती शासन की मेरे हाथों में .. यह विचार अपने आप में ही एक ऊर्जा देता हुआ सा है एक आम इंसान से हटकर आप स्वयं सत्तासीन होकर अपनी कल्पना को साकार कर सकते हैं जिन खामियों को लेकर आप मन ही मन कुढ़ते रहते हैं सरकार को दोषी ठहराते हैं यदि सुधार करने के लिए एक अवसर मिले तो आप क्या कर सकते हैं देश के लिए ... देश को आज जिस बात से ज्यादा खतरा है वह है भ्रष्टाचार  का। जब तक इसको रोकने के कारगर उपाय नहीं होंगे तब हर व्यवस्था पर पानी फिरता रहेगा चाहे वह शिक्षा का क्षेत्र हो या आतंकवाद को रोकने के उपाय हो..या फिर बढ़ती मँहगाई से निपटने के तरीके सबसे पहले इसके लिए समूह बनाकर भ्रष्टाचार का खात्मा करना ही होगा तभी हर क्षेत्र में विकास संभव है... जैसा कि शुरू में ही मैंने कहा है एक हाथ एक विचार या किसी एक व्यक्ति की आवश्यकता नहीं बल्कि प्रत्येक व्यक्ति को आगे आना होगा... यहां वो स्थिति तो रही नहीं कि हवा जिधर को बह रही हो हम भी उधर हो लें बल्कि हवाओं का रूख बदलने के लिए तैयार हों।

http://sadalikhna.blogspot.in

ग़ज़ल: रूहों ने शहीदों की फिर हमको पुकारा है

- आदिल  रशीद

रूहों ने शहीदों की फिर हमको पुकारा है
सरहद की सुरक्षा का अब फर्ज तुम्हारा है

हमला हो जो दुश्मन का हम जाएँगे सरहद पर
जाँ देंगे वतन पर ये अरमान हमारा है

इन फिरकापरस्तों की बातों में न आ जाना
मस्जिद भी हमारी है, मंदिर भी हमारा है

ये कह के हुमायूँ को भिजवाई थी इक राखी
मजहब हो कोई लेकिन तू भाई हमारा है

अब चाँद भले काफिर कह दें ये जहाँ वाले
जिसे कहते हैं मानवता वो धर्म हमारा है

रूहों ने शहीदों की फिर हमको पुकारा है
सरहद की सुरक्षा का अब फर्ज तुम्हारा है

 संपर्क-     एफ 53/1, चौथा माला, शाहीन बाग जमिया नगर,
              नई दिल्ली-110025 मो. 9811444626
               email :aadilrasheed.tilhari

सेहतः उम्र से पंजा लड़ाइए ग्रीन टी पीजिए

 यदि आप ग्रीन टी पीने के शौकीन हैं तो बढ़ती उम्र और बीमारियों की ओर से निश्चित हो जाइए। नियमित रूप से ग्रीन टी पीने वाले लोग ग्रीन टी नहीं पीने वाले लोगों की तुलना में अधिक चुस्त और रोग मुक्त रहते हैं।
ग्रीन टी में मौजूद एंटी ऑक्सिडेंट रसायन उन कोशिकाओं को नष्ट होने से रोकते हैं, जो बीमारियों को रोकने में मददगार होती हैं। शोधकर्ताओं को ग्रीन टी के प्रभावों की जांच के दौरान हाई कोलेस्ट्रॉल और कैंसर जैसी बीमारियों के बारे में मिश्रित परिणाम मिले।
अमेरिकन जर्नल ऑफ क्लीनिकल न्यूट्रीशन में प्रकाशित नई रिपोर्ट में ग्रीन टी के फायदों के बारे में लिखा गया है। लेकिन इस चाय के फायदे कैसे और क्या हो रहे हैं इस बारे में और व्यापक रिसर्च किया जाएगा।
जापान की टोहोकू यूनिवर्सिटी के मेडिसिन विभाग के यासुटके टोमाटा और उनके साथियों ने 65 वर्ष और उससे अधिक के 14,000 ऐसे लोगों पर अध्ययन किया जो ग्रीन टी पीते हैं। उन्होंने पाया कि ऐसे लोगों को नहाना, कपड़े पहनना जैसे रोजमर्रा के कामों में कम परेशानियों का सामना करना पड़ा। रिसर्च में यह भी पता चला कि हर दिन एक कप ग्रीन टी पीने वालों की तुलना में पांच कप ग्रीन टी पीने वाले ज्यादा चुस्त
रहते हैं।
टोमाटो और उनके सहयोगियों ने रिपोर्ट में लिखा है कि ग्रीन टी की खपत आंशिक शारीरिक अक्षमता को दूर करने वाले तत्वों से सीधे तौर पर जुड़ी है। लेकिन रिसर्च में यह साबित नहीं हो रहा था कि क्या सिर्फ ग्रीन टी की वजह से ही लोगों की क्षमता में इजाफा होता है। यह भी देखा गया है कि ग्रीन टी पसंद करने वाले लोग अपने खान पान के प्रति भी सजग रहते हैं। मछली, सब्जी और फल को खाने में शामिल करने के साथ ही ऐसे लोगों में धूम्रपान का प्रतिशत भी कम रहता है। वे हार्ट अटैक के भी कम शिकार होते हैं और मानसिक रूप से भी तीक्ष्ण होते हैं। ये समाज और परिवार में भी अधिक सक्रिय रहते हैं।
हालांकि अभी तक यह स्पष्ट नहीं हो सका है कि कैसे ग्रीन टी शारीरिक अक्षमता को दूर करने में सहायक होती है। टोमाटा और उनकी टीम ने यह भी पाया कि ग्रीन टी से उम्रदराज महिलाओं के पैरों की मांसपेशियां भी मजबूत रहती हैं। ग्रीन टी और इसमें मौजूद तत्वों को कुछ हद तक सुरक्षित माना जाता है। इसमें शामिल कैफीन और विटामिन रक्त का थक्का जमाने में भी सहायक हैं।

टोबा टेकसिंह

- सआदत हसन मंटो
बंटवारे के दो- तीन साल बाद पाकिस्तान और हिंदुस्तान की सरकारों को ख्याल आया कि साधारण कैदियों की तरह पागलों का भी तबादला होना चाहिए। यानी जो मुसलमान पागल हिंदुस्तान के पागलखाने में हैं, उन्हें पाकिस्तान पहुंचा दिया जाए और जो हिंदू पाकिस्तान के पागलखानों में हैं, उन्हें हिन्दुस्तान के हवाले कर दिया जाए।
मालूम नहीं यह बात ठीक थी या नहीं। बहरहाल बुद्धिमानों के फैसले के अनुसार इधर- उधर ऊंचे स्तर की कांफ्रेंस हुई और आखिरकार एक दिन पागलों के तबादलों के लिए नियत हो गया। अच्छी तरह छानबीन की गई। वे मुसलमान पागल, जिनके अभिभावक हिंदुस्तान में थे, वहीं रहने दिए गए थे। और जो बाकी थे, उन्हें सीमा पर रवाना कर दिया गया था। यहां पाकिस्तान से, क्योंकि करीब- करीब सब हिंदू- सिख जा चुके थे, इसलिए किसी को रखने- रखाने का सवाल ही न पैदा हुआ। जितने हिंदू- सिख पागल थे, सबके सब पुलिस के संरक्षण में सीमा पर पहुंचा दिए गए। उधर की मालूम नहीं, लेकिन इधर लाहौर के पागलखाने में जब इस तबादले की खबर पहुंची तो बड़ी दिलचस्प और कौतूकपूर्ण बातें होने लगीं। एक मुसलमान पागल, जो बारह बरस से रोजाना बकायदगी के साथ नमाज पढ़ता था, उससे जब उसके दोस्त ने पूछा-मौलवी साहब, यह पाकिस्तान क्या होता है? तो उसने बड़ा सोच- विचारकर जवाब दिया -'हिंदुस्तान में एक जगह है, जहां उस्तरे बनते हैं।'
यह जवाब सुनकर उसका मित्र संतुष्ट हो गया।
इसी तरह एक सिख पागल ने एक दूसरे सिख पागल से पूछा-'सरदार जी, हमें हिंदुस्तान क्यों भेजा जा रहा है? हमें तो वहां की बोली भी नहीं आती।'
दूसरा मुस्करा दिया- 'मुझे तो हिंदुस्तान की बोली आती है-हिंदुस्तानी बड़े शैतानी आकड़- आकड़ फिरते हैं-।'
एक मुसलमान पागल ने नहाते- नहाते पाकिस्तान जिंदाबाद का नारा इस जोर से बुलंद किया कि फर्श पर फिसलकर गिरा और अचेत हो गया। कुछ पागल ऐसे भी थे जो पागल नहीं थे। इनमें अधिकतर ऐसे कातिल थे, जिनके रिश्तेदारों ने अफसरों को दे-दिलाकर पागलखाने भिजवा दिया था कि वे फांसी के फंदे से बच जाएं।
ये कुछ- कुछ समझते थे कि हिंदुस्तान का क्यों विभाजन हुआ है और यह पाकिस्तान क्या है, लेकिन सभी घटनाओं से ये भी बेखबर थे। अखबारों से कुछ पता नहीं चलता था और पहरेदार सिपाही अनपढ़ जाहिल थे। उनकी बातचीत से भी वे कोई नतीजा नहीं निकाल सकते थे। उनको सिर्फ इतना मालूम था कि एक आदमी मुहम्मद अली जिन्ना है, जिसको कायदे- आजम कहते हैं। उसने मुसलमानों के लिए एक अलग मुल्क बनाया है, जिसका नाम पाकिस्तान है। वह कहां है? इसकी स्थिति क्या है? इसके विषय में वे कुछ नहीं जानते थे। यही कारण है कि पागलखाने में वे सब पागल, जिनका दिमाग पूरी तरह से खराब नहीं था, इस ऊहापोह में थे कि वे पाकिस्तान में हैं या हिंदुस्तान में। अगर हिंदुस्तान में हैं तो पाकिस्तान कहां है और अगर वे पाकिस्तान में हैं तो यह कैसे हो सकता है कि कुछ अर्सा पहले यहां रहते हुए भी हिंदुस्तान में थे। एक पागल तो पाकिस्तान और हिंदुस्तान और हिंदुस्तान और पाकिस्तान के चक्कर में ऐसा पड़ा कि और ज्यादा पागल हो गया। झाडू देते- देते एक दिन दरख्त पर चढ़ गया और एक टहनी पर बैठकर दो घंटे लगातार भाषण देता रहा, जो पाकिस्तान और हिंदुस्तान के नाजुक मामले पर था। सिपाहियों ने उसे नीचे उतरने के लिए कहा तो वह और ऊपर चढ़ गया। डराया- धमकाया गया तो उसने कहा - 'मैं न हिंदुस्तान में रहना चाहता हूं न पाकिस्तान में, मैं इस पेड़ पर ही रहूंगा।'
बड़ी मुश्किल के बाद जब उसका दौरा ठंडा पड़ गया, तो वह नीचे उतरा और अपने हिंदू- सिख दोस्तों से गले मिल- मिलकर रोने लगा। इस ख्याल से उसका दिल भर आया कि वे उसे छोड़कर हिंदुस्तान चले जाएंगे।
एक एम. एस. सी. पास रेडियो इंजीनियर, जो मुसलमान था और दूसरे पागलों से बिलकुल अलग- थलग बाग की एक खास रौश पर सारा दिन खामोश टहलता रहता था, में यह तब्दीली प्रकट हुई कि उसने तमाम कपड़े उतारकर दफेदार के हवाले कर दिए और नंग-धड़ंग सारे बाग में चलना शुरू कर दिया।
चनयूट एक मोटे मुसलमान पागल ने, जो मुस्लिम लीग का एक सक्रिय कार्यकर्ता रह चुका था और दिन में पंद्रह- सोलह बार नहाया करता, एकदम नई आदत छेड़ दी। उसका नाम मुहम्मद अली जिन्ना है। उसकी देखा- देखी एक सिख पागल मास्टर तारासिंह बन गया। करीब था कि उस जंगल में खूनखराबा हो जाए, मगर दोनों को खतरनाक पागल करार देकर अलग बंद कर दिया गया।
लाहौर का एक नौजवान हिंदू वकील था, जो मुहब्बत में पड़कर पागल हो गया था। जब उसने सुना कि अमृतसर हिंदुस्तान में चला गया है तो उसे बहुत दुख हुआ। उसी शहर की एक हिंदू लड़की से उसे प्रेम हो गया था। यद्यपि उसने उस वकील को ठुकरा दिया था, मगर दीवानगी की हालत में भी वह उसको भूला नहीं था। चुनांचे वह उन तमाम मुस्लिम लीडरों को गालियां देता था, जिन्होंने मिल-मिलाकर हिंदुस्तान के दो टुकड़े कर दिए। उसकी प्रेमिका हिंदुस्तानी बन गई और वह पाकिस्तानी।
जब तबादले की बात शुरू हुई तो वकील को पागलों ने समझाया। वह दिल छोटा न करे, उसको हिंदुस्तान भेज दिया जाएगा-उस हिंदुस्तान में, जहां उसकी प्रेमिका रहती है, मगर वह लाहौर छोडऩा नहीं चाहता था, इस ख्याल से कि अमृतसर में उसकी प्रेक्टिस नहीं चलेगी। यूरोपियन वार्ड में दो ऐंग्लो-इंडियन पागल थे। उनको जब मालूम हुआ कि हिंदुस्तान को आजाद कर अंग्रेज चले गए हैं तो उनको बड़ा दुख हुआ। वे छिप-छिपकर घंटों इस समस्या पर बातचीत करते रहते कि पागलखाने में उनकी हैसियत किस तरह की होगी- यूरोपीय वार्ड रहेगा या जाएगा। ब्रेकफास्ट मिला करेगा या नहीं। क्या उन्हें डबल रोटी के बजाए ब्लडी इंडियन चपाती तो जहर मार नहीं करनी पड़ेगी?
एक सिख था, जिसको पागलखाने में दाखिल हुए पंद्रह वर्ष हो चुके थे। हर समय उसकी जबान से अजीब- गरीब शब्द सुनने में आते थे, 'ओपड़ दी गडग़ड़ दा एनेक्स दी बेध्याना दी मुंग दी दाल आफ दी लालटेन।'
अलबत्ता कभी-कभी दीवार के साथ लगा लेता था तो भी हर समय खड़े रहने से उसके पांव सूज गए थे। पिंडलियां भी फैल गईं थीं, मगर इस शारीरिक तकलीफ के बावजूद लेटकर आराम नहीं करता था। हिंदुस्तान-पाकिस्तान और पागलों के तबादले के विषय में जब कभी पागलों में चर्चा होती थी तो वह बड़े ध्यान से सुनता था। कोई उससे पूछता कि उसका क्या ख्याल है तो वह बड़ी गंभीरता से जवाब देता 'ओपड़ दी गडग़ड़ दी एनेक्स दी बेध्याना दी मूंग दी दाल आफ दी पाकिस्तान गवर्नमेंट।'
लेकिन बाद में आफ दी पाकिस्तान गवर्नमेंट की जगह आफ दी टोबा टेकसिंह ने ले ली और उसने दूसरे पागलों से पूछना शुरू कर किया कि टोबा टेकसिंह कहां है, कहां का रहनेवाला है? लेकिन किसी को भी मालूम नहीं था कि वह पाकिस्तान में है या हिंदुस्तान में। जो बताने की कोशिश करते थे, खुद इस उलझन में फंस जाते थे कि स्यालकोट पहले हिंदुस्तान में होता था, पर अब सुना है पाकिस्तान में है। क्या पता कि लाहौर जो अब पाकिस्तान में है, कल हिंदुस्तान में चला जाएगा या सारा हिंदुस्तान ही पाकिस्तान बन जाए और यह भी कौन सीने पर हाथ रखकर कह सकता था कि हिंदुस्तान और पाकिस्तान दोनों किसी दिन सिरे से गायब न हो जाएंगे।
एक सिख पागल के केश छिदरे होकर बहुत थोड़े ही रह गए थे। चूंकि वह बहुत कम नहाता था, दाढ़ी और बाल आपस में जम गए थे, जिसके कारण उसकी शक्ल बड़ी भयानक हो गई थी। लेकिन वह आदमी किसी का नुकसान नहीं करता था। पंद्रह वर्षों में उसने किसी से झगड़ा- फसाद नहीं किया था। पागलखाने के जो पुराने नौकर थे, वे उसके बारे में इतना जानते थे कि टोबा टेकसिंह में उसकी कई जमीनें थीं। अच्छा खाता-पीता जमींदार था कि अचानक ही दिमाग उलट गया। उसके रिश्तेदार लोहे की मोटी- मोटी जंजीरों में उसे बांध कर लाए और पागलखाने में दाखिल करा गए।
महीने में एक बार मुलाकात के लिए ये लोग आते थे और उसकी राजी- खुशी मालूम करते चले जाते थे। एक मुद्दत तक यह क्रम चलता रहा लेकिन जब पाकिस्तान- हिंदुस्तान की गड़बड़ शुरू हो गई तो उनका आना बंद हो गया।
उसका नाम बिशनसिंह था, मगर सब उसे टोबा टेकसिंह कहते थे। उसे बिल्कुल यह मालूम न था कि दिन कौन-सा है, महीना कौन-सा है या कितने साल बीत चुके हैं? लेकिन हर महीने जब उसके स्वजन और संबंधी उससे मिलने आते तो उसे अपने आप पता चल जाता था। चुनांचे वह एक दफेदार से कहता कि उसकी मुलाकात आ रही है। उस दिन वह अच्छी तरह से नहाता, बदन पर खूब साबुन घिसता और सिर में तेल लगाकर कंघी करता। अपने कपड़े, जो वह कभी इस्तेमाल नहीं करता था, निकलवाकर पहनता और यूं सज-बनकर मिलनेवालों के पास जाता। वे उससे कुछ पूछते तो वह चुप रहता था या कभी-कभी 'ओपड़ दी एनेक्स दी बेध्याना दी मुंग दी दाल आफ दी लालटेन कह देता।'
उसकी एक लड़की थी जो हर महीने में एक अंगुल बढ़ती-बढ़ती पंद्रह वर्ष में जवान हो गई थी। बिशनसिंह उसे पहचानता ही न था। जब वह बच्ची थी, तब भी अपने बाप को देख कर रोती थी। जवान हुई तब भी उसकी आंखों से आंसू बहते थे।
पाकिस्तान और हिंदुस्तान का किस्सा शुरू हुआ तो उसने दूसरे पागलों से पूछना शुरू किया कि टोबा टेकसिंह कहां है? जब संतोषजनक उत्तर न मिला तो उसकी कुरेद दिन-ब-दिन बढ़ती गई। अब मुलाकात भी नहीं आती थी। पहले तो उसे अपने आप पता चल जाता था कि मिलनेवाले आ रहे हैं, पर अब जैसे उसके दिल की आवाज भी बंद हो गई थी, जो उसे उनके आने की खबर दिया करती थी।
उसकी बड़ी इच्छा थी कि वे लोग आएं, जो उससे सहानुभूति प्रकट करते थे और उसके लिए फल, मिठाइयां और कपड़े लाते थे। वह यदि उनसे पूछता कि टोबा टेकसिंह कहां है तो वे निश्चित बता देते कि पाकिस्तान में है या हिंदुस्तान में है, क्योंकि उसका विचार था कि वे टोबा टेकसिंह ही से आते हैं, जहां उसकी जमीन है।
पागलखाने का एक और पागल ऐसा भी था जो अपने को खुदा कहता था। उससे जब एक दिन बिशनसिंह ने पूछा कि टोबा टेकसिंह पाकिस्तान में है या हिंदुस्तान में, तो उसने अपनी आदत के मुताबिक कहकहा लगाया और कहा-' यह न पाकिस्तान में है और न हिंदुस्तान में, इसलिए कि हमने अभी तक हुकम नहीं दिया।'
बिशनसिंह ने खुदा से कई बार मिन्नत -खुशामद से कहा कि वह उसे हुक्म दे दे ताकि झंझट खत्म हो, मगर वह बहुत व्यस्त था, क्योंकि उसे और भी अनगिनत हुक्म देने थे। एक दिन तंग आकर वह उस पर बरस पड़ा, 'ओपड़ दी गडग़ड़ दी एनेक्स दी बेध्याना दी मुंग दी दाल आफ वाहे गुरूजी खालसा, एंड वाहे गुरूजी दी फतह- जो बोले सो निहाल-सत श्री अकाल।'
उसका शायद यह मतलब था कि तुम मुसलमानों के खुदा हो-सिखों के खुदा होते तो जरूर मेरी सुनते।
तबादले के कुछ दिन पहले तक टोबा टेकसिंह का एक मुसलमान, जो उसका दोस्त था, मुलाकात के लिए आया। पहले वह कभी नहीं आया था। जब बिशनसिंह ने उसे देखा तो एक तरफ हटा और वापस जाने लगा। मगर सिपाहियों ने उसे रोका, 'यह तुमसे मिलने आया है-तुम्हारा दोस्त फजलुद्दीन है।'
बिशनसिंह ने फजलुद्दीन को एक नजर देखा और कुछ बड़बड़ाने लगा। फजलुद्दीन ने आगे बढ़कर उसके कंधे पर हाथ रखा- 'मैं बहुत दिनों से सोच रहा था कि तुमसे मिलूं, लेकिन फुर्सत ही न मिली- तुम्हारे सब आदमी राजी-खुशी हिंदुस्तान चले गए थे। मुझसे जितनी मदद हो सकी, मैंने की तुम्हारी बेटी रूपकौर...।'
वह कुछ कहते- कहते रूक गया। बिशनसिंह कुछ याद करने लगा-' बेटी रूपकौर? '
फजलुद्दीन ने कुछ रूककर कहा -'हां..वह...भी ठीक-ठाक है।...उनके साथ ही चली गई थी।'
बिशनसिंह चुप रहा। फजलुद्दीन ने कहना शुरू किया -'उन्होंने मुझसे कहा था कि तुम्हारी राजी- खुशी पूछता रहूं। अब मैंने सुना है कि तुम हिंदुस्तान जा रहे हो-भाई बलबीर सिंह और भाई बधवासिंह से मेरा सलाम कहना और बहन अमृतकौर से भी। भाई बलबीर सिंह से कहना फजलुद्दीन राजी-खुशी है। दो भूरी भैंसे, जो वे छोड़ गए थे, उनमें से एक ने कट्टा दिया है, दूसरे के कट्टी हुई थी, पर वह छह दिन की होकर मर गई...और... और मेरे लायक जो खिदमत हो कहना। हर वक्त तैयार हूं... और यह तुम्हारे लिए थोड़े से भरूंडे लाया हूं।'
बिशनसिंह ने भरूंडों की पोटली लेकर पास खड़े सिपाही के हवाले कर दी और फजलुद्दीन से पूछा- 'टोबा टेकसिंह कहां?'
'टोबा टेकसिंह!' उसने तनिक आश्चर्य से कहा-'कहां है? वहीं है जहां था।'
बिशनसिंह ने पूछा- 'पाकिस्तान में या हिंदुस्तान में?'
'हिंदुस्तान में... नहीं नहीं, पाकिस्तान में।' फजलुद्दीन बौखला-सा गया।
बिशनसिंह बड़बड़ाता हुआ चला गया- 'ओपड़ दी गडग़ड़ दी एनेक्स दी बेध्याना दी मुंग दी दाल ऑफ दी पाकिस्तान एंड हिंदुस्तान ऑफ दी दुर फिट्टे मुंह।' तबादले की तैयारियां पूरी हो चुकी थीं। इधर से उधर और उधर से इधर आनेवाले पागलों की सूचियां पहुंच गई थीं और तबादले की तारीख भी निश्चित हो चुकी थी। सख्त सर्दियां थीं। लाहौर के पागलखाने से हिंदू-सिख पागलों से भरी लारियां पुलिस के दस्ते के साथ रवाना हुईं। संबंधित अफसर भी उनके साथ थे। वाघा बार्डर पर दोनों ओर के सुपरिटेंडेंट एक- दूसरे से मिले और प्रारंभिक कार्यवाही खत्म होने के बाद तबादला शुरू हो गया, जो रात भर जारी रहा।
पागलों को लारियों से निकालना और उनको दूसरे अफसरों के हवाले करना बड़ा कठिन काम था। कुछ तो बाहर निकलते ही नहीं थे, जो निकलने को तैयार होते, उनको संभालना होता, क्योंकि इधर- उधर भाग उठते थे। जो नंगे थे, उनको कपड़े पहनाए जाते थे तो वे फाड़कर अपने शरीर से अलग कर देते। कोई गालियां बक रहा है। कान पड़ी आवाज सुनाई नहीं देती थी। पागल स्त्रियों का शोरगुल अलग था। और सर्दी इतने कड़ाके की थी कि दांत से दांत बज रहे थे।
अधिकतर पागल इस तबादले को नहीं चाहते थे। इसलिए कि उनकी समझ में नहीं आता था कि उन्हें अपनी जगह से उखाड़कर कहां फेंका जा रहा है? थोड़े से वे जो सोच-समझ सकते थे, 'पाकिस्तान जिंदाबाद' के नारे लगा रहे थे। दो-तीन बार झगड़ा होते-होते बचा क्योंकि कुछ हिंदुओं और सिखों को ये नारे सुनकर तैश आ गया था।
जब बिशनसिंह की बारी आई और जब उसको दूसरी ओर भेजने के संबंध में अधिकारी लिखत-पढ़त करने लगे तो उसने पूछा -'टोबा टेकसिंह कहां? पाकिस्तान में या हिंदुस्तान में?'
संबंधित अधिकारी हंसा, बोला-'पाकिस्तान में। '
यह सुनकर बिशनसिंह उछलकर एक तरफ हटा और दौड़कर अपने शेष साथियों के पास पहुंच गया। पाकिस्तानी सिपाहियों ने उसे पकड़ लिया और दूसरी तरफ ले जाने लगे, किंतु उसने चलने से साफ इनकार कर दिया- 'टोबा टेकसिंह कहां है?' और जोर-जोर से चिल्लाने लगा, 'ओपड़ दी गडग़ड़ दी एनेक्सी दी बेध्याना दी मुंग दी दाल ऑफ टोबा टेकसिंह एंड पाकिस्तान।'
उसे बहुत समझाया गया, 'देखो, टोबा टेकसिंह अब हिंदुस्तान में चला गया है- यदि नहीं गया है तो उसे तुरंत ही भेज दिया जाएगा।' किंतु वह न माना। जब जबरदस्ती दूसरी ओर उसे ले जाने की कोशिशें की गईं तो वह बीच में एक स्थान पर इस प्रकार अपना सूजी हुई टांगों पर खड़ा हो गया, जैसे अब कोई ताकत उसे वहां से हटा नहीं सकेगी। क्योंकि आदमी बेजरर था, इसलिए उसके साथ जबरदस्ती नहीं की गई, उसको वहीं खड़ा रहने दिया गया और शेष काम होता रहा।
सूरज निकलने से पहले स्तब्ध खड़े हुए बिशनसिंह के गले से एक गगनभेदी चीख निकली। इधर-उधर से कई अफसर दौड़े आए और देखा कि वह आदमी, जो पंद्रह वर्ष तक दिन-रात अपनी टांगों पर खड़ा रहा था, औंधे मुंह लेटा था। इधर कांटेदार तारों के पीछे हिंदुस्तान था- उधर वैसे ही कांटेदार तारों के पीछे पाकिस्तान। बीच में जमीन के उस टुकड़े पर जिसका कोई नाम नहीं था टोबा टेकसिंह पड़ा था।

चिंतन

सिर्फ एक दिन ही क्यों?
- राम अवतार सचान
देखा जाए तो इन सबको बचाने के लिए कोई विशेष दिन का इंतजार क्यों? ये हमारी रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा होना चाहिए। घर, परिवार, मुहल्ले, शहर, देश, प्रदेश के प्रत्येक नागरिक को इसके महत्व का पाठ बचपन से पढ़ाया जाना चाहिए। नहीं तो आने वाले समय में पीढिय़ों को बहुत कठिन दिन देखने होंगे और बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी।

31 मार्च को दुनिया भर में अर्थ आवर डे मनाया गया। दुनिया भर में करोड़ों लोगों ने एक 1 घंटे तक अपने- अपने घरों की बिजली को बंद रखा और ऊर्जा बचाने का संदेश दिया। प्रश्न यह उठता है कि किसी बचत के लिए क्या मात्र एक घंटा, एक दिन वर्ष में काफी है? पूरे वर्ष क्यों न किया जाए। ऊर्जा बचाने या उसका अपव्यय रोकने को हम अपने आदत में ही क्यों न शामिल कर लें ताकि बिजली का अधिक से अधिक संचय किया जा सके। ...और उसकी पहल हमें अपने घरों से ही शुरु करनी होगी। घर पर अनावश्यक जलने वाली बिजली को तुरंत बंद करना होगा और साथ- साथ सभी परिवार के सदस्यों को भी इसके महत्व को समझाना होगा। इसके अलावा कम किलोवाट वाले बल्व या सीएफएल का प्रयोग करना होगा।
इसके साथ सरकारी प्रयास भी अत्यंत आवश्य है परमाणु ऊर्जा जैसी महंगी एवं खतरनाक ऊर्जा के विकल्प के तौर पर, प्रकृति ने सस्ते ऊर्जा के विकल्प भी हमें प्रचुर मात्रा में उपलब्ध कराए हैं। जैसे सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा पर भी ध्यान देना होगा। इनके उपयोग से न केवल हम ऊर्जा की पूर्ति करेंगे बल्कि पेट्रोलियम पदार्थों की बड़ी मात्रा में बचत कर सकते हैं जो रोजगार के नए अवसर प्रदान करने में सहायक होंगे। इसका उदाहरण गुजरात सरकार स्वयं है।
ठीक इसके कुछ दिन पूर्व हमने वाटर डे, इन्वॉयरमेंट डे, प्लेनेट डे मनाया था, क्या समाचार पत्रों और पत्रिकाओं मैग्जीनों में लेख लिखने मात्र से इसके असर को कम किया जा सकेगा? इसके लिए हमें दृढ़ इच्छा शक्ति के साथ कठोर कदम भी उठाने होंगे। हमारी सरकारों को भी दैनिक जीवन में ऐसा आचरण करना पड़ेगा जो वे नहीं कर रही हैं। बल्कि ग्लोबल वार्मिंग का बढऩा और ग्राउंड वाटर का लेबल दिनों दिन लगातार नीचे खिसकते जाना चिंता का विषय है।
बीमारियों के बचाव की बातें ऐसे ही खास दिनों पर करते हैं मगर उनमें कमी की बजाए प्रतिवर्ष बीमार लोगों की संख्या में इजाफा हो रहा है। दरअसल में ये चिंताएं भी वैसी ही नजर आती है जैसे पेट्रोल की कीमत के बढऩे के बाद लोग थोड़ा परेशान होते हैं पर इसके कम इस्तेमाल करने या इसके बेजा इस्तेमाल करने की तरफ कोई ध्यान नहीं देता है। यह फिक्र भी रस्मी है उसी तरह ग्लोबल वार्मिंग, पानी की चिंता, पावर बचाने और बीमारी की चिंताएं भी रस्मी हो चली हैं। सब थोड़े से शोर शराबे, अखबारों, विज्ञापनों, टीवी व रेडियों के प्रसारण तक ही सीमित रह जाते हैं।
अभी देश और विदेश के वैज्ञानिकों ने यह गणना की है कि अधिक तापमान बढऩे से ग्लेशियर पिघलेंगे, पानी का स्तर बढ़ेगा, तटीय प्रदेश व देश जल में समाहित हो जाएंगे। अधिक गर्मी की वजह से अन्न का उत्पादन घटेगा, भूखमरी होगी, जलवायु में अप्रत्याशित परिवर्तन होगा और जैव विविधता में बड़ा परिवर्तन होगा। वैज्ञानिकों का ऐसा मत है कि सन् 2050 तक 30 प्रतिशत पादप प्रजातियां विलुप्त हो जाएंगी। अभी तक पृथ्वी पर ज्ञात 5487 स्तनधारी प्रजातियों में 1141 पर विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है।
इन सबको बचाने के लिए कोई विशेष दिन का इंतजार क्यों? ये हमारी रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा होना चाहिए। घर, परिवार, मुहल्ले, शहर, देश, प्रदेश के प्रत्येक नागरिक को इसके महत्व का पाठ बचपन से पढ़ाया जाना चाहिए। नहीं तो आने वाले समय में पीढिय़ों को बहुत कठिन दिन देखने होंगे और बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी। फालतू ऊर्जा, पानी तथा अन्य प्राकृतिक संसाधनों का बेजा इस्तेमाल बंद करना होगा अन्यथा कहीं ऐसा न हो जब तक हमारी आंख खुले, बहुत देर हो चुकी होगी।
संपर्क- 13/1, बलरामपुर हाउस, ममफोर्डगंज,  इलाहाबाद 211002 मो. 09628216646

प्रेरक

 सत्य
यदि मैं तुम्हें यह बताऊँ कि ऐसा कुछ है जो तुम्हें व्याप्त किये हुए है।
तुम उसे देख नहीं सकते लेकिन वह तुम्हारे अस्तित्व के लिए परम आवश्यक है,
गुरु ने शिष्य से कहा, तो क्या तुम ऐसी किसी विषय-वस्तु के अस्तित्व पर विश्वास करोगे?
आप परमचेतना की बात कर रहे हैं, हैं न?, शिष्य ने कहा।
गुरु ने उत्तर दिया, नहीं। मैं ऑक्सीजन के बारे में बात कर रहा हूँ।
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