हर एक, सिखाए एक को
- दानिश खान
'हर एक, सिखाए एक को', आज शिक्षा को बढ़ावा देने की सबसे प्रभावी योजनाओं में एक महिला द्वारा लोकप्रिय बनाया गया था जो बहुत थोड़े लोगों को याद होगा लेकिन जो भारत में प्रौढ़ शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी थी।
कुलसुम सयानी का नाम कई लोगों को शायद याद न आए लेकिन उनका जीवन और काम वास्तव में उल्लेखनीय रहें हैं। प्रसिद्ध रेडियो व्यक्तित्व अमीन सयानी की माँ, कुलसुम 1900 में पैदा हुई थीं। उनकी प्रेरणा कोई और नहीं महात्मा गांधी थे। उनके पिता डॉ. राजाबाली पटेल, गांधी जी और मौलाना अब्दुल कलाम आजाद के निजी चिकित्सक थे।
'हर एक, सिखाए एक को', आज शिक्षा को बढ़ावा देने की सबसे प्रभावी योजनाओं में एक महिला द्वारा लोकप्रिय बनाया गया था जो बहुत थोड़े लोगों को याद होगा लेकिन जो भारत में प्रौढ़ शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी थी।
कुलसुम सयानी का नाम कई लोगों को शायद याद न आए लेकिन उनका जीवन और काम वास्तव में उल्लेखनीय रहें हैं। प्रसिद्ध रेडियो व्यक्तित्व अमीन सयानी की माँ, कुलसुम 1900 में पैदा हुई थीं। उनकी प्रेरणा कोई और नहीं महात्मा गांधी थे। उनके पिता डॉ. राजाबाली पटेल, गांधी जी और मौलाना अब्दुल कलाम आजाद के निजी चिकित्सक थे।
1921 में प्रिंस ऑफ वेल्स की मुंबई यात्रा के खिलाफ विरोध में कई प्रदर्शन आयोजित किए गए थे और शहर अस्थिर हो गया था। परिणाम स्वरूप लाठी चार्ज, गिरफ्तारी और मार्शल कानून लगाया गया। कई दर्जनों लोगों को चोट लगी और गंभीर रूप से घायल हुए।
उन मुश्किल परिस्थितयों का बयान करते हुए कुलसुम सयानी ने लिखा, 'घायलों की देखभाल करने के लिए एक नया कांग्रेस अस्पताल स्थापित किया गया था। मेरे स्वर्गीय पति जन मोहम्मद सयानी वहाँ नियुक्त होने वाले पहले चिकित्सक थे। हमारे पास एक छोटी सक्सन कार थी जिस पर रेड क्रॉस का बिल्ला प्रमुखता से नजर आता था। मेरे पति रोज अस्पताल जाते थे, लगभग पूरी तरह से सुनसान सड़कों पर जहाँ दोनों तरफ पुलिसकर्मी खड़े होते थे। मैं फोन के पास बैठी रहती थी जब तक वे अस्पताल से मुझे बता नहीं देते थे कि वो सुरक्षित पहुँच गए हैं।'
गांधी जी के साथ सयानी की बातचीत और उनके परिवार में शिक्षा को जो महत्व दिया जाता था उससे उन्हें निरक्षरता उन्मूलन की जरूरत का एहसास हुआ। 1938 में 100 रुपये (1 अमेरिकी डॉलर = 46.7 रुपये) की पूंजी के साथ उन्होंने दो शिक्षकों को रखा और छात्र ढूँढने के लिए मुस्लिम इलाकों के चक्कर लगाए। अभी भी महिला शिक्षा की ओर रूढि़वादी रवैये को देखते हुए, उस समय लड़कियों को शिक्षित करने के महत्व के बारे में परिवारों को समझाने के लिए सयानी के प्रयासों की कल्पना कीजिए। ऐसा भी होता था जब लोग हैरानी से, 'महिलाओं को पढऩा सीखने की क्या जरूरत है? कह कर उनके मुँह पर दरवाजा बंद कर देते थे।
उनके अथक प्रयासों ने साबित कर दिया है कि शिक्षा के क्षेत्र में काम करने की जबरदस्त जरूरत थी, जिसके लिए एक और अधिक संगठित संरचना की जरूरत थी। उनके अनुभव ने उन्हें कई समितियों का हिस्सा बनाया, जिनका गठन बंबई अब मुंबई में वयस्कों के बीच साक्षरता बढ़ाने के लिए किया गया था। वे पहली राष्ट्रीय योजना समिति के साथ जुड़ी हुई थी जिसकी स्थापना मुंबई में 1938 में कांग्रेस सरकार द्वारा की गई थी। 1939 में गठित, मुंबई शहर सामाजिक शिक्षा समिति ने सयानी से मुस्लिम महिलाओं की सेवा के लिए उनके 50 केन्द्रों को चलाने के लिए कहा। धीरे- धीरे और लगातार कक्षाएं बढ़ी और संख्या 600 पर पहुंच गई। निश्चित रूप से उनके प्रयास केवल मुस्लिम समुदाय के लिए सीमित नहीं थे। 1944 में उन्हें अखिल भारतीय महिला सम्मेलन का महासचिव भी नियुक्त किया गया और उन्होंने महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए काम किया।
लेकिन उन्हें शिक्षा के प्रसार के लिए सबसे अधिक याद किया जाता है। 'टाइम्स ऑफ इंडिया' (10 मार्च,1970) के नई दिल्ली संस्करण ने कहा, '1939 से, जब उन्होंने (कुलसुम सयानी) बंबई शहर सामाजिक शिक्षा समिति का कार्यभार संभाला, पांच लाख वयस्क पांच भाषाओं- उर्दू, हिन्दी, गुजराती, मराठी और तेलगु में से एक के माध्यम से साक्षर बन गए हैं। उनके दिन स्कूलों में बच्चों को वयस्कों को पढ़ाने के लिए उत्साहित करने की जल्दी में और रात साक्षरता की नई योजनाओं का सपना देखने में बीतती हैं।'
सयानी बहुत व्यावहारिक थीं और विशेष रूप से 'हर एक, सिखाए एक को' सहित उन्होंने साक्षरता प्रसार के लिए अनेक योजनाएं शुरू की। वे कई स्कूलों में जाया करती थीं और युवा छात्रों को हर दिन एक वयस्क को पढ़ाने के लिए 15 मिनट समर्पित करने के लिए प्रोत्साहित करती थीं। इस योजना के तहत, छात्रों को हर दिन अपने परिवार, पड़ोस या घरेलू सहायकों में किसी भी वयस्क को एक नया अक्षर सिखाना और पढऩा होता था। नैतिक मूल्यों के महत्व के प्रति अत्यधिक जागरूक, वे छात्रों को वयस्कों से उन्हें एक लोक कथा या महाकाव्यों से एक कहानी सुनाने का अनुरोध करने के लिए प्रोत्साहित करती थीं।
एक बार उन्होंने कहा था, 'निम्न मध्यम वर्ग की महिलाएं, जो काम करने के लिए मजबूर हैं, उनके पास अपने बच्चों को स्कूल के बाद सड़कों पर छोडऩे के अलावा कोई चारा नहीं है, जबकि जो फैशनेबल हैं, ब्रिज और माह-जोंग पार्टियों के बाद बच्चों के लिए उनके पास कोई समय नहीं बचता'।
एक दूसरी साक्षरता पहल जो उन्होंने शुरू की वो थी- जोर से पढऩा। स्कूल के छात्रों को दोस्तों और वयस्कों को इकट्ठा करने और हर एक को बाहर जोर से पढऩे के लिए प्रोत्साहित किया गया। उनका विश्वास था, नव-साक्षरों के आत्मविश्वास और रुचि में सुधार के लिए यह करना आवश्यक था। इन योजनाओं की सफलता सुनिश्चित करने लिए वे हर सप्ताह छात्रों से मिलने और उन्हें प्रोत्साहित करने के लिए तीन से चार स्कूलों का दौरा करती थीं। स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान जेलों में सड़ रहे सैकड़ों राजनीतिक कैदियों ने उनके द्वारा निकाले जाने वाले अखबार 'रहबर' को जोर से पढ़कर अपनी हिन्दुस्तानी में सुधार किया। 1940 में शुरू हुआ 'रहबर' नए शिक्षार्थियों के उद्देश्य से शुरू किया गया था। यह तीन लिपियों में प्रकाशित होता था -नागरी, उर्दू और गुजराती। 'रहबर' की भाषा हिन्दुस्तानी - हिन्दी और उर्दू का मिश्रण थी। वो ऐसा समय था जब दोनों भाषाओं में भेद और अपनी श्रेष्ठता स्थापित करने के प्रयासों में हिन्दी के समर्थक भारी संस्कृत शब्दों का उपयोग कर रहे थे और उर्दू के समर्थक भाषा को फारसी और अरबी से बाँध रहे थे।
गांधीजी नागरी में लिखी हिन्दुस्तानी या उर्दू लिपि के पक्ष में थे। 'रहबर' ने गांधीजी के हिंदुस्तानी वाले विचार को आगे ले जाने की सोची। 16 जून, 1945 दिनांकित एक पत्र में गांधीजी ने सयानी को बेटी कुलसुम के रूप में संबोधित किया और लिखा है: 'मुझे 'रहबर' के हिन्दी और उर्दू को जोडऩे का मिशन अच्छा लगा। इसे सफलता मिले।' अखबार देश भर की जेलों में बंद सैकड़ों राजनैतिक कैदियों द्वारा पढ़ा जाता था, गांधीजी की हिन्दुस्तानी सीखने में रुचि रखने वाला हर कोई अखबार लेता था। भारत की स्वतंत्रता से पहले के महीनों में जब संविधान सभा में विचार- विमर्श शुरू हुआ, भाषा विवाद फिर से भड़क उठा। गांधीजी द्वारा सयानी को 22 जुलाई, 1947 को लिखे पत्र से उनके हिंदुस्तानी के साथ रहने के संकल्प का पता चलता है। उन्होंने लिखा है: 'भगवान जानता है कि आगे हमारे लिए क्या है। पुराने चीजें नई को जगह देने के लिए बदल रही हैं। कुछ निश्चित नहीं है। सी.ए. द्वारा जो भी फैसला किया जाएगा, तुम्हारे और मेरे लिए दो लिपियों के साथ हिन्दुस्तानी रहेगी।' सयानी ने दुनिया भर में शिक्षा के कई अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी भारत का प्रतिनिधित्व किया। उन्होंने 1953 में पेरिस (फ्रांस) में यूनेस्को सम्मेलन में भाग लिया और विचारों की सहभागिता की और कई देशों के प्रतिनिधियों के साथ बात कर नए दृष्टिकोण प्राप्त किए। उनकी अन्य रुचि शांति के साथ भारत और पाकिस्तान के बीच समझ बढ़ाने को बढ़ावा देने में थी। उनके एक कार्यकर्ता के रूप में अच्छी पहचान से उन्हें दोनों देशों में शीर्ष नेताओं के साथ औपचारिक बैठक में मदद मिलती थी। पाकिस्तानी राजनेताओं में, अन्य वरिष्ठ नेताओं के साथ उन्होंने पाकिस्तानी राष्ट्रपति, गुलाम मोहम्मद और अयूब खान से सीधे मुलाकात की।
भारत में 'रहबर' के संपादक के रूप में उनकी प्रतिष्ठा से उन्हें नेहरू, बी.जी. खेर, वी.के. कृष्ण मेनन, रफी अहमद किदवई और इंदिरा गांधी के साथ मिलने का समय लेने में मदद मिली। उन्हें पाकिस्तान के साथ दोस्ती बनाने के उनके प्रयासों के लिए भारत में सभी रंग के नेताओं से प्रोत्साहन और समर्थन मिला। हालाँकि, नेहरू और रफी किदवई जो पाकिस्तान के साथ संबंधों में सुधार लाने के सरोकार से इत्तेफाक रखते थे उनके निधन के बाद, उन्होंने अपनी ऊर्जा हिंदुस्तानी प्रचार के लिए समर्पित कर दी। सयानी का जीवन कई लोगों के लिए एक प्रेरणा है। शादी हुई जब वे केवल 18 साल की थी, उन्होंने अपने परिवार और सामाजिक रुझान को बराबर जोश से निभाया। उनके बेटे, हामिद और अमीन दोनों रेडियो प्रसारकों ने अपनी खुद की पहचान बनाई। अमीन सयानी 'हिंदुस्तानी में स्पष्ट और विश्वसनीय संचार की प्रारंभिक शिक्षा' का श्रेय 'रहबर' के प्रकाशन में अपनी माँ की सहायता में शामिल होने को देते हैं।
20 साल अकेले चलने के बाद, 1960 में बुढ़ापे और नौकरशाही ने उन्हें 'रहबर' बंद करने के लिए मजबूर कर दिया। वे हिन्दुस्तानी प्रचार सभा के साथ जुड़ी रहीं और कई व्याख्यान और सेमिनार आयोजित किए। हालाँकि, उन्होंने निरक्षरता उन्मूलन के अपने आजीवन जुनून से कभी ध्यान नहीं हटाया। 1960 में उन्होंने पद्मश्री प्राप्त की और 1969 में उन्हें नेहरू साक्षरता पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया।
सयानी, जिनकी 1987 में मृत्यु हो गई, उस युग से थी जहाँ लोग बिना किसी उम्मीद के राष्ट्र को अपना सर्वश्रेष्ठ देने में विश्वास करते थे। (विमेन्स फीचर सर्विस)
उन मुश्किल परिस्थितयों का बयान करते हुए कुलसुम सयानी ने लिखा, 'घायलों की देखभाल करने के लिए एक नया कांग्रेस अस्पताल स्थापित किया गया था। मेरे स्वर्गीय पति जन मोहम्मद सयानी वहाँ नियुक्त होने वाले पहले चिकित्सक थे। हमारे पास एक छोटी सक्सन कार थी जिस पर रेड क्रॉस का बिल्ला प्रमुखता से नजर आता था। मेरे पति रोज अस्पताल जाते थे, लगभग पूरी तरह से सुनसान सड़कों पर जहाँ दोनों तरफ पुलिसकर्मी खड़े होते थे। मैं फोन के पास बैठी रहती थी जब तक वे अस्पताल से मुझे बता नहीं देते थे कि वो सुरक्षित पहुँच गए हैं।'
गांधी जी के साथ सयानी की बातचीत और उनके परिवार में शिक्षा को जो महत्व दिया जाता था उससे उन्हें निरक्षरता उन्मूलन की जरूरत का एहसास हुआ। 1938 में 100 रुपये (1 अमेरिकी डॉलर = 46.7 रुपये) की पूंजी के साथ उन्होंने दो शिक्षकों को रखा और छात्र ढूँढने के लिए मुस्लिम इलाकों के चक्कर लगाए। अभी भी महिला शिक्षा की ओर रूढि़वादी रवैये को देखते हुए, उस समय लड़कियों को शिक्षित करने के महत्व के बारे में परिवारों को समझाने के लिए सयानी के प्रयासों की कल्पना कीजिए। ऐसा भी होता था जब लोग हैरानी से, 'महिलाओं को पढऩा सीखने की क्या जरूरत है? कह कर उनके मुँह पर दरवाजा बंद कर देते थे।
उनके अथक प्रयासों ने साबित कर दिया है कि शिक्षा के क्षेत्र में काम करने की जबरदस्त जरूरत थी, जिसके लिए एक और अधिक संगठित संरचना की जरूरत थी। उनके अनुभव ने उन्हें कई समितियों का हिस्सा बनाया, जिनका गठन बंबई अब मुंबई में वयस्कों के बीच साक्षरता बढ़ाने के लिए किया गया था। वे पहली राष्ट्रीय योजना समिति के साथ जुड़ी हुई थी जिसकी स्थापना मुंबई में 1938 में कांग्रेस सरकार द्वारा की गई थी। 1939 में गठित, मुंबई शहर सामाजिक शिक्षा समिति ने सयानी से मुस्लिम महिलाओं की सेवा के लिए उनके 50 केन्द्रों को चलाने के लिए कहा। धीरे- धीरे और लगातार कक्षाएं बढ़ी और संख्या 600 पर पहुंच गई। निश्चित रूप से उनके प्रयास केवल मुस्लिम समुदाय के लिए सीमित नहीं थे। 1944 में उन्हें अखिल भारतीय महिला सम्मेलन का महासचिव भी नियुक्त किया गया और उन्होंने महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए काम किया।
लेकिन उन्हें शिक्षा के प्रसार के लिए सबसे अधिक याद किया जाता है। 'टाइम्स ऑफ इंडिया' (10 मार्च,1970) के नई दिल्ली संस्करण ने कहा, '1939 से, जब उन्होंने (कुलसुम सयानी) बंबई शहर सामाजिक शिक्षा समिति का कार्यभार संभाला, पांच लाख वयस्क पांच भाषाओं- उर्दू, हिन्दी, गुजराती, मराठी और तेलगु में से एक के माध्यम से साक्षर बन गए हैं। उनके दिन स्कूलों में बच्चों को वयस्कों को पढ़ाने के लिए उत्साहित करने की जल्दी में और रात साक्षरता की नई योजनाओं का सपना देखने में बीतती हैं।'
सयानी बहुत व्यावहारिक थीं और विशेष रूप से 'हर एक, सिखाए एक को' सहित उन्होंने साक्षरता प्रसार के लिए अनेक योजनाएं शुरू की। वे कई स्कूलों में जाया करती थीं और युवा छात्रों को हर दिन एक वयस्क को पढ़ाने के लिए 15 मिनट समर्पित करने के लिए प्रोत्साहित करती थीं। इस योजना के तहत, छात्रों को हर दिन अपने परिवार, पड़ोस या घरेलू सहायकों में किसी भी वयस्क को एक नया अक्षर सिखाना और पढऩा होता था। नैतिक मूल्यों के महत्व के प्रति अत्यधिक जागरूक, वे छात्रों को वयस्कों से उन्हें एक लोक कथा या महाकाव्यों से एक कहानी सुनाने का अनुरोध करने के लिए प्रोत्साहित करती थीं।
एक बार उन्होंने कहा था, 'निम्न मध्यम वर्ग की महिलाएं, जो काम करने के लिए मजबूर हैं, उनके पास अपने बच्चों को स्कूल के बाद सड़कों पर छोडऩे के अलावा कोई चारा नहीं है, जबकि जो फैशनेबल हैं, ब्रिज और माह-जोंग पार्टियों के बाद बच्चों के लिए उनके पास कोई समय नहीं बचता'।
एक दूसरी साक्षरता पहल जो उन्होंने शुरू की वो थी- जोर से पढऩा। स्कूल के छात्रों को दोस्तों और वयस्कों को इकट्ठा करने और हर एक को बाहर जोर से पढऩे के लिए प्रोत्साहित किया गया। उनका विश्वास था, नव-साक्षरों के आत्मविश्वास और रुचि में सुधार के लिए यह करना आवश्यक था। इन योजनाओं की सफलता सुनिश्चित करने लिए वे हर सप्ताह छात्रों से मिलने और उन्हें प्रोत्साहित करने के लिए तीन से चार स्कूलों का दौरा करती थीं। स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान जेलों में सड़ रहे सैकड़ों राजनीतिक कैदियों ने उनके द्वारा निकाले जाने वाले अखबार 'रहबर' को जोर से पढ़कर अपनी हिन्दुस्तानी में सुधार किया। 1940 में शुरू हुआ 'रहबर' नए शिक्षार्थियों के उद्देश्य से शुरू किया गया था। यह तीन लिपियों में प्रकाशित होता था -नागरी, उर्दू और गुजराती। 'रहबर' की भाषा हिन्दुस्तानी - हिन्दी और उर्दू का मिश्रण थी। वो ऐसा समय था जब दोनों भाषाओं में भेद और अपनी श्रेष्ठता स्थापित करने के प्रयासों में हिन्दी के समर्थक भारी संस्कृत शब्दों का उपयोग कर रहे थे और उर्दू के समर्थक भाषा को फारसी और अरबी से बाँध रहे थे।
गांधीजी नागरी में लिखी हिन्दुस्तानी या उर्दू लिपि के पक्ष में थे। 'रहबर' ने गांधीजी के हिंदुस्तानी वाले विचार को आगे ले जाने की सोची। 16 जून, 1945 दिनांकित एक पत्र में गांधीजी ने सयानी को बेटी कुलसुम के रूप में संबोधित किया और लिखा है: 'मुझे 'रहबर' के हिन्दी और उर्दू को जोडऩे का मिशन अच्छा लगा। इसे सफलता मिले।' अखबार देश भर की जेलों में बंद सैकड़ों राजनैतिक कैदियों द्वारा पढ़ा जाता था, गांधीजी की हिन्दुस्तानी सीखने में रुचि रखने वाला हर कोई अखबार लेता था। भारत की स्वतंत्रता से पहले के महीनों में जब संविधान सभा में विचार- विमर्श शुरू हुआ, भाषा विवाद फिर से भड़क उठा। गांधीजी द्वारा सयानी को 22 जुलाई, 1947 को लिखे पत्र से उनके हिंदुस्तानी के साथ रहने के संकल्प का पता चलता है। उन्होंने लिखा है: 'भगवान जानता है कि आगे हमारे लिए क्या है। पुराने चीजें नई को जगह देने के लिए बदल रही हैं। कुछ निश्चित नहीं है। सी.ए. द्वारा जो भी फैसला किया जाएगा, तुम्हारे और मेरे लिए दो लिपियों के साथ हिन्दुस्तानी रहेगी।' सयानी ने दुनिया भर में शिक्षा के कई अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी भारत का प्रतिनिधित्व किया। उन्होंने 1953 में पेरिस (फ्रांस) में यूनेस्को सम्मेलन में भाग लिया और विचारों की सहभागिता की और कई देशों के प्रतिनिधियों के साथ बात कर नए दृष्टिकोण प्राप्त किए। उनकी अन्य रुचि शांति के साथ भारत और पाकिस्तान के बीच समझ बढ़ाने को बढ़ावा देने में थी। उनके एक कार्यकर्ता के रूप में अच्छी पहचान से उन्हें दोनों देशों में शीर्ष नेताओं के साथ औपचारिक बैठक में मदद मिलती थी। पाकिस्तानी राजनेताओं में, अन्य वरिष्ठ नेताओं के साथ उन्होंने पाकिस्तानी राष्ट्रपति, गुलाम मोहम्मद और अयूब खान से सीधे मुलाकात की।
भारत में 'रहबर' के संपादक के रूप में उनकी प्रतिष्ठा से उन्हें नेहरू, बी.जी. खेर, वी.के. कृष्ण मेनन, रफी अहमद किदवई और इंदिरा गांधी के साथ मिलने का समय लेने में मदद मिली। उन्हें पाकिस्तान के साथ दोस्ती बनाने के उनके प्रयासों के लिए भारत में सभी रंग के नेताओं से प्रोत्साहन और समर्थन मिला। हालाँकि, नेहरू और रफी किदवई जो पाकिस्तान के साथ संबंधों में सुधार लाने के सरोकार से इत्तेफाक रखते थे उनके निधन के बाद, उन्होंने अपनी ऊर्जा हिंदुस्तानी प्रचार के लिए समर्पित कर दी। सयानी का जीवन कई लोगों के लिए एक प्रेरणा है। शादी हुई जब वे केवल 18 साल की थी, उन्होंने अपने परिवार और सामाजिक रुझान को बराबर जोश से निभाया। उनके बेटे, हामिद और अमीन दोनों रेडियो प्रसारकों ने अपनी खुद की पहचान बनाई। अमीन सयानी 'हिंदुस्तानी में स्पष्ट और विश्वसनीय संचार की प्रारंभिक शिक्षा' का श्रेय 'रहबर' के प्रकाशन में अपनी माँ की सहायता में शामिल होने को देते हैं।
20 साल अकेले चलने के बाद, 1960 में बुढ़ापे और नौकरशाही ने उन्हें 'रहबर' बंद करने के लिए मजबूर कर दिया। वे हिन्दुस्तानी प्रचार सभा के साथ जुड़ी रहीं और कई व्याख्यान और सेमिनार आयोजित किए। हालाँकि, उन्होंने निरक्षरता उन्मूलन के अपने आजीवन जुनून से कभी ध्यान नहीं हटाया। 1960 में उन्होंने पद्मश्री प्राप्त की और 1969 में उन्हें नेहरू साक्षरता पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया।
सयानी, जिनकी 1987 में मृत्यु हो गई, उस युग से थी जहाँ लोग बिना किसी उम्मीद के राष्ट्र को अपना सर्वश्रेष्ठ देने में विश्वास करते थे। (विमेन्स फीचर सर्विस)
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