कायर समाज
आजादी की 66वीं सालगिरह के अवसर पर पूरा भारत देश एक दिन का जश्न मनाकर थोड़ी देर के लिए खुश भले ही हो लें, लेकिन पिछले कुछ बरसों की ओर झांक कर देखें और ढूंढऩे की कोशिश करें कि हमने अपनी आजादी को कितनी ऊंचाईयों तक पहुंचाया है तो बहुत मुश्किल में पड़ जाएंगे। आज भारत के जो हालात हैं उसमें खुशी मनाने वाली जैसी कोई बात नजर नहीं आती। बढ़ते भ्रष्टाचार की बात कहते थक से गए हैं, मंहगाई बेलगाम हो गई है, गरीबी, भूखमरी, बेरोजगारी जैसी जनता से जुड़ी सैकड़ों समस्याएं मुँह- बाएं खड़ी हैं पर कोई इन पर लगाम लगाने की कोशिश करता भी नजर नहीं आता। पूरा देश आतंकवाद, नक्सलवाद और हिंसा (असम का ताजा मामला) की चपेट में है पर फिर भी हम 15 अगस्त को झंडा फहराते हुए कहते हैं कि देश में अमन और शांति है, देश खुशहाल है। यह सब घोर विडंबना है ....
यह कैसी आजादी है कि एक लड़की भीड़ भरी सड़क पर 20-30 युवकों द्वारा छेडख़ानी का शिकार होती है और हम चुपचाप देखते रह जाते हैं। आजादी के इस मौके पर मुझे उस मासूम लड़की की छटपटाहट भरी चीख, अनेक हाथों से अपने शरीर को बचाने की नाकाम करती कोशिश और उनके चंगुल से बचाए जाने की लोमहर्षक पुकार ही सुनाई दे रही है।
पिछले माह गुवाहाटी में सरेआम हुई एक लड़की से छेड़छाड़ की उस शर्मनाक घटना को कोई भूला नहीं होगा। इस घटना ने पूरे देश को हिला कर रख दिया था। इंटरनेट के इस दौर में तुरंत ही यू- ट्यूब पर छेड़छाड़ का यह वीडियो तुरंत अपलोड हो गया! और कई सवाल उठ खड़े हुए कि अपने चैनल पर सनसनीखेज खबरें देने की होड़ में वे यह कैसे भूल गए कि सरेराह एक मासूम लड़की की इज्जत पर हमला किया जा रहा है। आस- पास आ- जा रहे लोगों की इंसानियत भी तब क्या मर गई थी? उन्हें उस मासूम की चीख ही नहीं सुनाई दी। मनुष्य का यह कौन सा रूप है कि उसकी आँखों के सामने एक किशोरी के कपड़े फाड़े जा रहे थे, उसके बाल खींच कर उसकी इज्जत पर हमला बोला जा रहा था और सब तमाशबीन बने चुपचाप तमाशा देख रहे थे... आधे घंटे तक चले इस शर्मनाक कृत्य की जितनी भी भत्र्सना की जाए कम है।
लड़की के साथ की गई इस दरिंदगी का वीडियो सामने आने के बाद कुछ समाजसेवी संगठनों ने अपनी जिम्मेदारी समझते हुए जब शहर में आरोपियों के पोस्टर चिपका दिए तब जैसे सब सोते से जाग पड़े। गृहमंत्री, मुख्यमंत्री से लेकर सभी राजनीतिक दल इस मामले में दोषियों को सजा और महिला आयोग ने ऐसे दरिंदों को फांसी दिए जाने की मांग की। यह सब अपनी जगह सही है। कानून तो अपना काम करेगा। पर ऐसे कानूनों को और भी सख्त किए जाने की आवश्यकता है, क्योंकि ये कानून तब बने थे जब हमारे देश में ऐसी शर्मनाक दरिंदगी जैसी घटनाएं होती नहीं थी। जब तक ऐसा कुकृत्य करने वालों को कड़ी से कड़ी सजा नहीं दी जाएगी, ऐसी प्रवृत्तियों पर रोक नहीं लग पायेगी।
....पर इसके साथ ही समाज में आ रहे तेजी से बदलाव को भी नजर- अंदाज नहीं किया जा सकता। आज मानव, मानव न रहकर दानव क्यों बनता जा रहा है, समाज से संवेदना क्यों विलुप्त होती जा रही है? क्यों बार- बार ऐसी पुनरावृत्ति हो रही है कि मानव शर्मसार होने को अभिशप्त है? ऐसे कई सवाल हैं जिनके जवाब हमें तलाशने होंगे।
हमारे समाज, हमारे लोकतंत्र में ऐसी क्या खराबी आ गई है कि इस तरह की प्रवृत्तियाँ समाज में तेजी से उभर रहीं हैं। इन घटनाओं की बढ़ती संख्या को देखते हुए महसूस होने लगा है कि क्यों न देश में सामाजिक विशेषज्ञों की एक समिति बनाई जाए, जो समाज के सामाजिक स्तर का अध्ययन कर विश्लेषण करे कि मानवता के इस गिरते स्तर के लिए कौन से कारक जिम्मेदार हैं और समाज के इस गिरते स्तर को रोकने के लिए क्या उपाय किए जाएं। चाहे वह बच्चों व युवाओं के पालन- पोषण को लेकर हो या शिक्षा के ढांचे में परिवर्तन की बात हो या सामाजिक संरचना की। कहीं न कहीं जा कर हमें यह निष्कर्ष निकालना ही होगा कि इस संवेदनहीन होते जा रहे समाज के पीछे क्या कारण है। विशेषज्ञ हमें बताएं कि हममें कहाँ और किस प्रकार के सुधार की आवश्यकता है। यदि अब समाज के ऐसे नाजुक मुद्दों पर गंभीर नहीं हुआ जाएगा तो कहीं ऐसा न हो कि लोग बेख़ौफ़ होकर अपनी मनमानी करते चले जाएं।
हमारा देश जो संवेदनशील होने का दम भरता है पर कलंक का टीका लगे यह कोई भी देशवासी नहीं चाहेगा। इसलिए हम सबकी सामाजिक जिम्मेदारी बनती है कि ऐसी प्रवृत्तियों को बढ़ावा देने वाले कारकों को रोकें। स्वतंत्र होने का मतलब उच्छंखृल होना नहीं है।
-डॉ. रत्ना वर्मा
यह कैसी आजादी है कि एक लड़की भीड़ भरी सड़क पर 20-30 युवकों द्वारा छेडख़ानी का शिकार होती है और हम चुपचाप देखते रह जाते हैं। आजादी के इस मौके पर मुझे उस मासूम लड़की की छटपटाहट भरी चीख, अनेक हाथों से अपने शरीर को बचाने की नाकाम करती कोशिश और उनके चंगुल से बचाए जाने की लोमहर्षक पुकार ही सुनाई दे रही है।
पिछले माह गुवाहाटी में सरेआम हुई एक लड़की से छेड़छाड़ की उस शर्मनाक घटना को कोई भूला नहीं होगा। इस घटना ने पूरे देश को हिला कर रख दिया था। इंटरनेट के इस दौर में तुरंत ही यू- ट्यूब पर छेड़छाड़ का यह वीडियो तुरंत अपलोड हो गया! और कई सवाल उठ खड़े हुए कि अपने चैनल पर सनसनीखेज खबरें देने की होड़ में वे यह कैसे भूल गए कि सरेराह एक मासूम लड़की की इज्जत पर हमला किया जा रहा है। आस- पास आ- जा रहे लोगों की इंसानियत भी तब क्या मर गई थी? उन्हें उस मासूम की चीख ही नहीं सुनाई दी। मनुष्य का यह कौन सा रूप है कि उसकी आँखों के सामने एक किशोरी के कपड़े फाड़े जा रहे थे, उसके बाल खींच कर उसकी इज्जत पर हमला बोला जा रहा था और सब तमाशबीन बने चुपचाप तमाशा देख रहे थे... आधे घंटे तक चले इस शर्मनाक कृत्य की जितनी भी भत्र्सना की जाए कम है।
लड़की के साथ की गई इस दरिंदगी का वीडियो सामने आने के बाद कुछ समाजसेवी संगठनों ने अपनी जिम्मेदारी समझते हुए जब शहर में आरोपियों के पोस्टर चिपका दिए तब जैसे सब सोते से जाग पड़े। गृहमंत्री, मुख्यमंत्री से लेकर सभी राजनीतिक दल इस मामले में दोषियों को सजा और महिला आयोग ने ऐसे दरिंदों को फांसी दिए जाने की मांग की। यह सब अपनी जगह सही है। कानून तो अपना काम करेगा। पर ऐसे कानूनों को और भी सख्त किए जाने की आवश्यकता है, क्योंकि ये कानून तब बने थे जब हमारे देश में ऐसी शर्मनाक दरिंदगी जैसी घटनाएं होती नहीं थी। जब तक ऐसा कुकृत्य करने वालों को कड़ी से कड़ी सजा नहीं दी जाएगी, ऐसी प्रवृत्तियों पर रोक नहीं लग पायेगी।
....पर इसके साथ ही समाज में आ रहे तेजी से बदलाव को भी नजर- अंदाज नहीं किया जा सकता। आज मानव, मानव न रहकर दानव क्यों बनता जा रहा है, समाज से संवेदना क्यों विलुप्त होती जा रही है? क्यों बार- बार ऐसी पुनरावृत्ति हो रही है कि मानव शर्मसार होने को अभिशप्त है? ऐसे कई सवाल हैं जिनके जवाब हमें तलाशने होंगे।
हमारे समाज, हमारे लोकतंत्र में ऐसी क्या खराबी आ गई है कि इस तरह की प्रवृत्तियाँ समाज में तेजी से उभर रहीं हैं। इन घटनाओं की बढ़ती संख्या को देखते हुए महसूस होने लगा है कि क्यों न देश में सामाजिक विशेषज्ञों की एक समिति बनाई जाए, जो समाज के सामाजिक स्तर का अध्ययन कर विश्लेषण करे कि मानवता के इस गिरते स्तर के लिए कौन से कारक जिम्मेदार हैं और समाज के इस गिरते स्तर को रोकने के लिए क्या उपाय किए जाएं। चाहे वह बच्चों व युवाओं के पालन- पोषण को लेकर हो या शिक्षा के ढांचे में परिवर्तन की बात हो या सामाजिक संरचना की। कहीं न कहीं जा कर हमें यह निष्कर्ष निकालना ही होगा कि इस संवेदनहीन होते जा रहे समाज के पीछे क्या कारण है। विशेषज्ञ हमें बताएं कि हममें कहाँ और किस प्रकार के सुधार की आवश्यकता है। यदि अब समाज के ऐसे नाजुक मुद्दों पर गंभीर नहीं हुआ जाएगा तो कहीं ऐसा न हो कि लोग बेख़ौफ़ होकर अपनी मनमानी करते चले जाएं।
हमारा देश जो संवेदनशील होने का दम भरता है पर कलंक का टीका लगे यह कोई भी देशवासी नहीं चाहेगा। इसलिए हम सबकी सामाजिक जिम्मेदारी बनती है कि ऐसी प्रवृत्तियों को बढ़ावा देने वाले कारकों को रोकें। स्वतंत्र होने का मतलब उच्छंखृल होना नहीं है।
-डॉ. रत्ना वर्मा
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