खलल
संतो के प्रवचन सुनने का उन्हें शौक था। नियमित प्रवचन सुनते। कोई संत
नगर में आता तो रोज सुनने जाते। अब तो ऊपर वाले ने उनकी सुन ली थी। टेलीविजन पर
रोज प्रवचन आने लगे। वे सुबह से ले कर शाम तक अपने समय के खाली हिस्सों को इन्हीं
प्रवचनों से भरते। उनकी इस भक्ति भावना को देखते हुए उन्हें धार्मिक प्रवृत्ति का
व्यक्ति समझा जाने लगा था।
एक दिन वे टेलीविजन पर प्रवचन सुन रहे थे। संत कह रहे थे- बुजुर्गों
की सेवा में ही जीवन का सार है। जिसने अपने बुजुर्गों की उपेक्षा की, उसका
जीवन नर्क के समान है।
वे प्रवचन में खो चुके थे। संत वाणी को सुन उनकी ऑंखों से अश्रुधारा
बह रही थी। तभी खट्-खट् की आवाज से उनका ध्यान भंग हुआ। पीछे के द्वार पर बूढ़े
पिता दस्तक दे रहे थे। वे उठे और उनके पास पहुँचे। लगभग चिल्लाते हुए बोले, क्या
है? सभी कुछ तो धर दिया है आपके कमरे में। अब तो चैन से रहने दो। यह कहते
हुए वे पिता को घसीटते हुए उनके कमरे में छोड़ आए। आते वक्त उन्होंने पिता के कक्ष
के द्वार की साँकल बाहर से जड़ दी। अब प्रवचन सुनने में कोई खलल नहीं होगा। यह
सोचते हुए वे पुन: टेलीविजन के सामने बैठ गए।
बहू घर में पहली बार आई तो सास ने बहू को वही साड़ी दी जो उन्हें अपनी
सास से मिली थी। यह घर की परम्परा थी। सास अपनी बहू को साड़ी देती, जिसे
वह गोदभराई के वक्त पहनती। बहू का जब गोदभराई का समय आया तो सास ने याद दिलाया कि
बहू वही साड़ी पहनना।
बहू ने मुँह बिचकाकर कहा- वो साड़ी और मैं पहनूँ? उसे तो
मैंने कभी का बर्तन वाली बाई को दे दिया। कितनी ओल्ड फैशन और घिसी-पिटी साड़ी थी।
उसे मैं पहन लेती तो मेरा दम ही घुट जाता।
सास, इस वक्त चुपचाप खड़े अपने बेटे और बोलती बहू के
बीच खड़ी नई परम्परा से खुद को जोडऩे की असफल कोशिश कर रही थी।

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