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Oct 29, 2011

उदंती.com-अक्टूबर 2011

उदंती.com
 वर्ष 2, अंक 2, अक्टूबर 2011

क्रोध को जीतने में मौन जितना सहायक होता है, उतनी कोई भी वस्तु नहीं।
- महात्मा गाँधी
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अनकही: विश्वसनीयता का अंधकार - डॉ. रत्ना वर्मा
 जीवन दर्शन: गाँधी व्यक्ति नहीं विचार थे  - विजय जोशी
मेरा भारत महान: मंगल पर गाँधी - लोकेन्द्र सिंह कोट
पर्व-संस्कृति: त्यौहार के रंगों से सजा महीना - पल्लवी सक्सेना

कविता: ये चेहरा अपना सा लगता है - आशा भाटी
अन्दोलन: आज भी प्रासंगिक हैं महात्मा के विचार - कृष्ण कुमार यादव
शोध: याददाश्त कम.../ अवसाद से मुक्ति...
पर्यावरण: हरित भवन- परंपरा की ओर लौटना होगा - के. जयलक्ष्मी
मुद्दा: क्या यही है जादुई छड़ी? - लोकेन्द्र सिंह राजपूत
हाइकु: सर्दी की धूप जैसी जिंदगी - डॉ. हरदीप कौर सन्धु
लघुकथाएं: 1. भूकंप 2. बाहर का मोह - डॉ. करमजीत सिंह नडाला
कहानी: बदला - अज्ञेय
कविता: विजयी मंत्र -रश्मि प्रभा
व्यंग्य: गाँधी, अंडा और मुर्गा - विनोद साव
सेहत: आपको भी पसंद है चॉकलेट आईसक्रीम?
पिछले दिनों: मिरेकल वूमेन, शांति का नोबेल ...
प्रेरक कथा:
बाँस की तरह...

वाह भई वाह
आपके पत्र
रंग बिरंगी दुनिया

विश्वसनीयता का अंधकार


विश्वसनीयता का अंधकार

-डॉ. रत्ना वर्मा
मानवीय समाज में प्रगति के जो मुख्य कारण हैं उनमें से एक है मनुष्यों के बीच में आपसी विश्वसनीयता। जब यह दो मनुष्यों के बीच में होती है तो इसे गहरी मित्रता कहा जाता है। परिवार की ओर हम ध्यान दें तो परिवार के सदस्यों के बीच में विश्वास पारिवारिक संगठन का मूलमंत्र होता है। इस आपसी विश्वसनीयता के चलते परिवार के सदस्य निजी तथा एक दूसरे की प्रगति के लिए सतत प्रयत्न करते रहते हैं।
वास्तव में तो विश्वसनीयता मानवीय समाज की प्राणवायु है और समाज इसी विश्वसनीयता के चलते सुचारू रुप से चलता रहता है। समाज में यह अनिवार्य है कि हमें विश्वास हो कि चौकीदार हमारे जान-माल की रक्षा के लिए है। अभिभावकों को यह विश्वास होना चाहिए कि शिक्षक उनके बच्चों को सही तरीके से पढ़ायेगा और उचित मार्गदर्शन देगा। जनता को यह विश्वास होना चाहिए कि न्यायाधीश निष्पक्ष भाव से न्याय करेगा और डॉक्टर मरीज का सहानुभूति पूर्वक इलाज करेगा। इसी प्रकार से समाज के कई अन्य कार्यकलाप हैं जिनमें विश्वसनीयता का होना अनिवार्य है।
परंतु क्या वास्तव में ऐसा है? आज के मानवीय समाज में यह स्पष्ट दिख रहा है कि विश्वसनीयता का बड़ा संकट उपस्थित हो गया है। जनता में गरीबों की संख्या बढ़ती चली जा रही है और सरकार कह रही है कि शहर में जो व्यक्ति प्रतिदिन 32 रूपए कमाता है या गांव में 26 रूपए उसे गरीबी रेखा से ऊपर अर्थात समृद्ध माना जाए। दिन-प्रति-दिन सरकार द्वारा जनता के टैक्स की राशि में बड़ी-बड़ी रकम के घोटालों के प्रमाण आ रहे हैं। कहीं मोबाइल टेलीफोन लाइसेंस में, कहीं कॉमनवेल्थ खेलों में तो कहीं एयरइंडिया के परिचालन में... इत्यादि इत्यादि। और तब भी सरकार के कर्णधार चाहते हैं कि जनता इस बात का विश्वास रखे कि वह बड़ी इमानदारी से काम कर रहे हैं। इस माहौल में क्या यह संभव है कि ऐसे प्रशासन तंत्र के प्रति जनता में तनिक भी विश्वास होगा। जबकि किसी भी सरकार की सबसे बड़ी शक्ति होती है जनता का उस पर विश्वास। इसे बोलचाल की भाषा में कहते हैं सरकार का इकबाल। वास्तविकता तो ये है कि आज के भारत में जो प्रशासन तंत्र है वह जनता की निगाह में अपनी विश्वसनीयता पूर्णतया खो चुका है। इसका प्रमाण ये है कि जहां कहीं भी सरकारी तंत्र द्वारा जनता के पैसे की लूट-खसोट के बारे में आवाज उठाई जाती है, प्रशासन तंत्र जनता की आवाज को कुचलने का पूर्ण प्रयत्न करता है। भ्रष्टाचार और दूराचार के खिलाफ शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने वालों को, जब वे थके-मांदे सो रहे हों तो मध्य रात्रि में उन पर बर्बर हमला करता है और अंदोलन को छिन्न-भिन्न कर देता है। अहिंसात्मक एवं पूर्णतया शांतिमय प्रदर्शन करने वाले एक सम्मानित वृद्ध को जेल में ठूंस देता है। तो स्पष्ट है कि आज मानवीय समाज में विश्वसनीयता का अंधकार छाया हुआ है।
जिस प्रकार से भारत के अंदर समाज और सरकार के बीच में विश्वसनीयता का अंधकार छाया है उसी प्रकार भारत से बाहर भी कई देशों में विश्वसनीयता के अंधकार से त्रसित जनता द्वारा मजबूर होकर क्रंातिकारी अंदोलन करने पड़े। मिस्र में, लीबिया में और यमन इत्यादि में जो कुछ हुआ वह सरकार द्वारा विश्वसनीयता खो देने के कारण हुआ है। आज के दिन अमेरिका और यूरोप में भी जनता आंदोलित है क्योंकि वहां भी जनता का विश्वास उठता जा रहा है। न्यूयार्क, रोम और ग्रीस में छाई अशांति इसका प्रमाण है।
सरकारों का रवैया ऐसा है कि वह जनता से सिर्फ चुनाव के समय ही मात्र चुनाव जीतने के लिए ही संबंध रखना चाहते हैं। शेष बीच के समय में सरकारी तंत्र जनता को अड़चन या रोड़ा मानता है। यह बहुत खतरनाक स्थिति है। दुनिया भर में इसके खिलाफ जनता आवाज उठा रही है। अत: अब समय आ गया है कि सरकारों और प्रशासन तंत्र को अपना रवैया बदलना होगा तथा हर समय जनता की आवाज को सर्वोच्च प्राथमिकता देनी होगी, तभी वह जनता के हृदय में अपने प्रति विश्वसनीयता पूनस्र्थापित कर पाएंगे।
उजालों के त्यौहार दीपावली पर इस बार जनता के सेवकों को यही संकल्प लेना होगा कि हम विश्वसनीयता के इस घनघोर अंधकार से मुक्ति पाएंगे और जनता का मन जीतकर उनके दिलों में विश्वास की ज्योति जलाएंगे।
उदंती के सुधी पाठकों को दीप पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं।

गाँधी व्यक्ति नहीं, विचार थे

गाँधी व्यक्ति नहीं, विचार थे
- विजय जोशी
इक्कीसवीं सदी में इस समग्र दर्शन का एकमात्र जीवंत, जागृत तथा सार्थक उदाहरण केवल महात्मा गाँधी का है। गाँधी व्यक्ति नहीं, विचार थे। एक ऐसा विचार जो समूची मानवता को जीवन का नया दर्शन देकर प्रस्थान कर गया।

द्वापर का एक बड़ा रोचक प्रसंग है। लौकिक जीवन के अंतिम क्षणों में कृष्ण जब देह से विदेह हो रहे थे तो उनके स्मृति पटल पर केवल राधा की छवि अंकित थी। अस्तु उन्होंने अपने प्रिय बालसखा उद्धव को यह गुरूतर भार सौंपा कि उनके निर्वाण का समाचार उसी राधा तक पहुँचाए, जो उनकी सर्वाधिक प्रिय थी।
उद्धव भारी मन से किसी तरह चलकर संध्याकाल गोकुल पहुँचे। उनकी सारी रात बगैर पलक झपके आंखों में कटी। रात के अंतिम पहर यमुना में स्नान किया और भारी मन से जैसे- तैसे पूरा साहस जुटाते हुए जब वे राधा के समक्ष उपस्थित हुए तथा कृष्ण के धरा त्याग का समाचार अवरूद्ध कंठ से सुनाया तो वह जोर से हँस उठी और कहा- कृष्ण और मृत्यु। हे उद्धव! यह कैसी अजीब सी बात तुम कर रहे हो। तब तो बाल सखा होकर भी तुमने कृष्ण को नहीं जाना। क्या तुम्हें गोकुल के कदंब, पेड़, पत्ते, कुसुम, लता व पक्षियों की चहचहाहट देखकर भी यह नहीं लगता कि कृष्ण तो इन सब में व्याप्त हैं। अरे वे तो कण- कण में समाये हैं और जो ऐसा है, वह भला मृत्यु को कैसे प्राप्त हो सकता है।
इक्कीसवीं सदी में इस समग्र दर्शन का एकमात्र जीवंत, जागृत तथा सार्थक उदाहरण केवल महात्मा गाँधी का है। गाँधी व्यक्ति नहीं, विचार थे। एक ऐसा विचार जो समूची मानवता को जीवन का नया दर्शन देकर प्रस्थान कर गया। वह बादलों में ढंके सूर्य के समान कुछ समय के लिये दृष्टि से ओझल तो हो सकता है, किन्तु छुप नहीं सकता।
लेकिन अफसोस की बात तो यह है कि उनके विचारों को जीवन में अंगीकार करने के बजाय हमने उन्हें पोस्ट कार्ड और करंसी नोट पर छापकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली। चौराहों पर लगे बुतों को साल में एक बार धुलवा कर माला पहनाते हुए स्वयं को सच्चा देशभक्त व धन्य मान लिया। वर्ष के शेष दिन तो वे केवल पक्षियों के सखा बनकर रह गए।
एक फैंटेसी स्वप्न में साक्षात्कार- एक बार संयोग से स्वप्न में जब मेरी महात्मा गाँधी से मुलाकात हुई तो उनका सबसे पहला प्रश्न था- कैसा है मेरा भारत, जिसकी आजादी के लिये अनेकों ने अपना जीवन होम कर दिया।
मैंने कहा- बेहद सुंदर। आपके सारे शिष्य तो युग निर्माण योजना के अनन्य उपासक हैं- हम सुधरेंगे, जग सुधरेगा अर्थात पहले खुद, घर, परिवार, नाते- रिश्तेदारों को सुख- सुविधा संपन्न बनाकर सुधार लिया और अब देश के आम जन की दशा सुधारने की कोशिश में व्यस्त हैं।
गाँधी ने विस्मयपूर्वक कहा- लेकिन मैंने तो ऐसा नहीं चाहा था।
मैंने कहा- प्रश्न आपके नहीं, हमारे चाहने का है। आपकी त्याग, तपस्या का प्रतिफल यदि आपके भक्तों को मिल रहा है तो फिर आपको ईर्ष्या क्यों? आपने नहीं चाहा तो क्या वे भी न चाहें।
गाँधी एक क्षण रुके फिर बोले- तो अच्छा कहो, इन सारी सुविधाओं के बीच वे क्या कभी मुझे याद भी करते हैं। 
याद? हाँ क्यों नहीं। पाँच साल में एक बार चुनाव पूर्व की बेला में आपको पूरी शिद्दत और श्रद्धा से याद ही नहीं करते वरन पूरी तरह भुनाते भी हैं। आज बड़े शहरों के सारे मुख्य मार्ग आपके नाम पर हैं। करेंसी नोटों पर आपकी छवि अंकित है। चौराहे चौराहे आपके स्टेच्यू लगा दिये गये हैं, ताकि लोग आपको भूल न पाएँ। इससे अधिक भला और क्या चाहते हैं आप। और तो और आपके स्वदेशी प्रेम की अवधारणा को पूरी तरह आत्मसात करते हुए अब बीडिय़ों तक में आपकी छवि अंकित है- गाँधी छाप बीड़ी। आपके नाम के उपयोग से तो नकली गाँधी मार्क घी तेल भी आमजन की नजर में शुद्धता का प्रतीक हो जाता है।
लेकिन मेरे विचार...
उसका क्या डालें हम अचार। उससे भी कहीं वोट मिलते हैं।
गाँधी सिर पकड़कर बैठ गए। फिर अचानक पूछ लिया- अच्छा तो फिर बताओ भला मेरे कितने स्टेच्यू लगे होंगे पूरे देश में।
भला यह भी कोई हमसे पूछने की बात है। इसका उत्तर तो उन कबूतरों से पूछिये, जो साल भर उनका उपयोग करते हैं। हम तो वर्ष में केवल एक ही बार आपको तकलीफ देते हैं, जब आपकी मूर्तियों को धो ताजे- ताजे फूलों की माला से आपका अभिनंदन करते हुए सामने बैठकर पूरी बेशर्मी के साथ गाते हैं आपका वही प्रिय भजन-
वैष्णव जन तो तेने कहिये, जे पीर पराई जाणे रे
गाँधी बोले- और मेरा दर्शन तथा आचरण।
उसकी तो आप पूछिये ही मत। सारे सरकारी दफ्तरों में न केवल आपकी फ्रेम जड़ित तस्वीर लगी है, बल्कि उसके साये में ही सारे काम हो रहे हैं। आपके गाँधीवादी सरकारी कर्मचारी जब तक हरे- हरे करंसी नोट सामने वाले की जेब से निकलवा कर उस पर छपे आपके चित्र के दर्शन करते हुए 'ओम महात्माय नम:' मंत्र का जाप नहीं कर लेते, कोई फाइल आगे बढ़ाते ही नहीं।
अब भला गाँधी क्या बोलते। वे उत्तर रहित थे और जब तक मैं वापस लौटा वे सिर झुकाए बैठे थे। धरती उनके अश्रुकणों से आप्लावित थी लेकिन मेरी आँखों में कवि रहीम का- 'रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून', वाला पानी शेष ही कहाँ बचा था।
गाँधी की प्रासंगिकता-
गाँधी इस युग के महानायक थे। उस दौर में कार्ल मार्क्स बहुत प्रसिद्ध थे। वे भी निर्धन के हित में पूंजी का उपयोग चाहते थे, लेकिन दोनों के तरीकों में जमीन आसमान का फर्क था। मार्क्स का रास्ता जहाँ वर्ग संघर्ष और हिंसा की सुरंग से होकर गुजरता था, वहीं गाँधी का रास्ता वर्ग सहयोग के साथ ही साथ अहिंसा के सिद्धांत से ओत- प्रोत था। वे साध्य के साथ ही साधन की शुचिता के भी हिमायती थे।
हर समस्या चाहे वह गरीबी, मँहगाई, सांप्रदायिक सद्भाव या स्वदेशी हो, उनका सोच स्पष्ट, कार्य शैली साफ सुथरी तथा जबान पर साफगोई थी। उन्हें धर्मरहित राजनीति से परहेज था। उनके धर्म की परिभाषा विशालता को अपने में समेटे हुए सबको साथ लेकर चलने की थी। वे अपने राम में बुद्ध, पैगंबर, ईसा, जरतुष्त सभी की छवि देखते थे।
हवाई जहाज की इकानामी श्रेणी को कैटल क्लास की संज्ञा देने वाले आज के सियासतदां लोगों के लिये ट्रेन की जनरल बोगी में यात्रा करने वाली भीड़ मात्र कीड़े- मकोड़े वाली अहमियत रखती है। क्या वे कभी यह कल्पना भी कर पाएँगे कि वे आज जिस गाँधी की तपस्या, त्याग व बलिदान से प्राप्त स्वाधीनता के सिंहासन पर बैठे हैं, वह खुद रेल के साधारण डिब्बे में सफर करता था।
महाभारत के शांति पर्व में एक स्थान पर लिखा गया है कि राजा प्रजा पर इतनी दया भी न करे कि वह कर लेना छोड़कर अपना कोष खाली कर दे और इतना भी कर न ले कि प्रजा महँगाई और कष्ट से कराह उठे। राम राज्य के अनन्य उपासक गाँधी ने खुद एक जगह उस समय की कर नीति की व्याख्या की थी-
बरसत हर्षत लोग सब, करसत लखै न कोय
तुलसी प्रजा सुभाग से, भूप भान सम होय
अर्थात प्रजा के भाग्य से राजा को सूर्य की तरह होना चाहिये। समुद्र, नदी या जलाशयों से पानी को खींचते हुए सूर्य को कोई नहीं देखता। सूर्य पानी लेने के उपक्रम में स्रोत के सामर्थ्य का पूरा ध्यान रखते हुए समुद्र से अधिक और पोखर से कम जल लेता है। वे राम राज्य की कर नीति के ही सम्बन्ध में तुलसी का यह दोहा भी अक्सर सुनाते थे -
मनि मानिक महंगे किये, सहजे तृन जल नाज
तुलसी सेई जानिए, राम गरीब निवाज
यानी राम राज्य में मणि- माणिक आदि विलासिता की वस्तुएँ महँगी की गई थी। सस्ता क्या था? तृण अर्थात चारा, अनाज और पानी। मतलब साफ है कि राम इसलिए गरीब नवाज कहलाए कि उनके राज्य में जीवन की अनिवार्य आवश्यकता की वस्तुएँ सस्ती थीं। और जो राजा यह न कर सके उसके बारे में कहा गया है-
जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी, 
सो नृप अवसि नरक अधिकारी
यदि आज गाँधी होते तो कम से कम यह दृष्य तो हमें नहीं देखना पड़ता कि कार, टी.वी., फ्रिज जैसी विलासिता की वस्तुएँ तो सस्ती हो रही हैं और निर्वाह के लिये आवश्यक वस्तुओं की कीमतें आसमान पर। विसंगति की पराकाष्ठा तो यह है कि 'दाल रोटी खाओ प्रभु के गुण गाओ' वाली उक्ति भी अब नेपथ्य में चली गई है। अब तो दाल जैसी आजीविका की साधारण वस्तु भी आम आदमी की पहुँच से बाहर है तथा अमीर घरों में स्टेटस का सूचक हो गई है।
दरअसल हमारी त्रासदी यही है कि हम अच्छाई को अच्छाई मानते हुए उसका यशोगान तो करते हैं, लेकिन आचरण में उतारने से परहेज करते हैं। हमारी यही दोहरी मानसिकता आज ऊपर से साधन संपन्न लेकिन अंदर से खोखली व्यवस्था के लिए जिम्मेदार है।
अच्छे और सच्चे जीवन प्रबंधन के क्षेत्र में तो गाँधी से बड़ा कोई गुरू हो नहीं सकता। वे साध्य के साथ ही साथ साधन की शुचिता के न केवल पैरोकार थे, बल्कि अपने आप में उत्तम उदाहरण थे। यदि ऐसा न होता तो मात्र एक लंगोटीनुमा वस्त्रधारी फकीर दुनिया की इतनी शातिर कौम से देश को कैसे आजाद करा पाता और वह भी पूरी तरह अहिंसात्मक तरीके से। शायद इसीलिये स्वयं वैज्ञानिक एवं प्रोफेसर आंइस्टीन को भी कहना पड़ा- 'आने वाली पीढ़ी कभी यह विश्वास नहीं कर पाएगी कि इस धरती पर कभी गाँधी जैसा व्यक्तित्व भी हुआ करता था।' यही साधारण सी उक्ति इस सत्य को प्रकट करती है कि गाँधी अपने जीवन व विचारों में बेहद सरल, सादगीपूर्ण तथा साधारण थे।
गाँधी का ताबीज-
दुविधा के पलों में गाँधी का ताबीज न केवल हमें साहस और शक्ति प्रदान करता है, बल्कि कठिनाई के क्षणों में उर्जा का संचार भी करता है।
मैं तुम्हें एक ताबीज देता हूँ। जब तुम्हें दुविधा हो या तुम्हारा अहं तुम पर चढ़कर बोले, तो इसका अभ्यास करो
अपने मन मस्तिष्क में स्वयं द्वारा अब तक देखे गए सबसे निर्धन व असहाय व्यक्ति की छवि को निहारो और फिर स्वयं से पूछो कि जो कार्य मैं करने जा रहा हूँ-
* क्या इससे उसको कुछ प्राप्त होगा या उसका कुछ फायदा होगा?
* क्या इससे उसे अपनी नियति और जीवन को नियंत्रित करने की शक्ति प्राप्त होगी ?
* क्या इससे स्वराज्य सुलभ होगा अथवा देश के लाखों शारीरिक व आध्यात्मिक रूप से भूखे लोगों की स्वतंत्रता की शर्त पूरी होगी?
तब तुम पाओगे कि तुम्हारी दुविधा या शंका तुम्हारे अहं के साथ खुद ब खुद तिरोहित हो जाएगी और तुम्हें असीम सुख तथा आत्म संतोष की प्राप्ति होगी।
गाँधी ने किसी वाद- विवाद के झमेले में पड़े बगैर पूरे संसार को ऐसी राह दिखाई कि संभवतया उनकी मृत्यु के बाद जन्मे बराक ओबामा जैसे भी उनके दर्शन के खुले मन से प्रशंसक हो गए हैं।
काश हम गाँधी को आज भी समझ पाते। वरना महाकवि इकबाल तो कह ही गए हैं-
वतन की फिक्र कर नादाँ मुसीबत आने वाली है
कि तेरी बरबादियों के चर्चे हैं आसमानों में
न सँभलोगे तो मिट जाओगे ऐ हिंदोस्तांँ वालों
तुम्हारी दास्तांँ तक भी न होगी दास्तानों में...
आमीन
संपर्क- पूर्व समूह महाप्रबंधक भेल, भोपाल
Email- v.joshi415@gmail.com

मंगल पर गाँधी

- लोकेन्द्र सिंह कोट
हम पुण्यतिथि और जन्मतिथि के दो दिन में गाँधी को निपटा देते हैं और फिर साल भर वही सब कुछ करते है जो इन दो दिनों में नहीं करने की कसमें खाते हैं। परिणाम देखिये कि शराब, तम्बाकू जैसी चीजों से हमें सबसे ज्यादा राजस्व प्राप्त होता है। यहां भी हम एक तरीके से अप्रत्यक्ष रूप से गांधी को सरेआम बेच ही रहे होते हैं।

जो नहीं होना था आखिर वह हो गया। पिछले दिनों खबर थी कि गाँधी जी की समदृष्य तस्वीर मंगल ग्रह पर मिली और अखबारों में कई फोटो भी प्रकाशित हुए। वास्तव में यह अंदर की बात है कि जिस व्यक्ति को हरेक बात में पृथ्वी ग्रह पर भुनाया जाता हो वह आखिर बचने के लिए कहीं न कहीं तो जाएगा।
गाँधीजी कहां नहीं है, सरकारी दफ्तर में, सेमिनार में, सिम्पोजियम में, नेताओं की जुबान में, चौराहों में, फेंसी ड्रेस प्रतियोगिता में, कागजों में, फाईलों में, बिल्लोंं में, नोट में, डाक टिकट में, संसद में, विधानसभा आदि सभी जगहों पर हैं। गाँधी अगर कहीं नहीं है तो घरों में, दिलों में, विचारों में, हकीकत में, सिस्टम में, और अपनी आत्माओं में। फिर क्यों न जाएंगे गाँधी जी मंगल पर?
इससे पहले महात्मा गाँधी से जुड़ी कुछ वस्तुएं मसलन ऐनक, एक जोड़ी चप्पल, एक घड़ी और एक पीतल का कटोरा व तश्तरी सरेआम अमेरिका में नीलाम किया गया। हमारे सारे अंतर्विरोध जाकर उस अहंकार से टकरा गए जो हमारे अंदर ठसा-ठस भरा है। हमें डूब मरने वाली शर्म भी पैदा नहीं हो पाई। अखबारों ने हेडिंग दिए भारत की विरासत भारत में लौट आई। इसे विडंबना ही कहेंगे कि गांधी की वस्तुओं को उस व्यक्ति ने खरीदा जो शराब का सबसे बड़ा व्यापारी है। गाँधीजी जीवन भर जिस मद्यपान का विरोध करते रहे उनकी वस्तुओं का तारणहार एक मद्यपान निर्माता निकला। फिर क्यों न जाएंगे गाँधी जी मंगल पर?
समय के साथ हम कितने लापरवाह होते गए यह इस बात से साबित हो गया। मेरा भारत महान के नारे लगाते हुए अतंत: गाँधी को बेचने का उपक्रम भी प्रारंभ हो गया। हमने गाँधी को कहीं तो ब्लैक में तो कहीं टके सेर बेचा है। वैसे भी पिछले साठ- सत्तर वर्षों में गांधी को हम लगातार खोते ही रहे। अब यदि गाँधी की वही वस्तुएं अ_ारह लाख डालर में बिकीं तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है क्योंकि इससे ज्यादा तो हम अपने देश में गांधी को बेच चुके हैं। अभी हाल ही में फिर खबर आई है कि गाँधी जी का चश्मा पिछले नवम्बर से गायब है और किसी को कोई खबर नहीं है। फिर क्यों न जाएंगे गाँधी जी मंगल पर?
हम पुण्यतिथि और जन्मतिथि के दो दिन में गाँधी को निपटा देते हैं और फिर साल भर वही सब कुछ करते है जो इन दो दिनों में नहीं करने की कसमें खाते हैं। परिणाम देखिये कि शराब, तम्बाकू जैसी चीजों से हमें सबसे ज्यादा राजस्व प्राप्त होता है। यहां भी हम एक तरीके से अप्रत्यक्ष रूप से गाँधी को सरेआम बेच ही रहे होते हैं। आज आप सोच कर सिहर उठते हैं कि कोई भी सरकारी कार्य बगैर कुछ 'सेवा' के संभव ही नहीं है। इंतिहा तो तब हो गई जब किसी जिले के प्रत्येक सरकारी कार्यालय में गांधी की तस्वीर लगाने की बारी आई तो उसमें भी तथाकथित रूप से घोटाला हो गया। एक तस्वीर को ढेड़ सौ के स्थान पर साढ़े छ: सौ में खरीदा गया। फिर क्यों न जाएंगे गाँधी जी मंगल पर?
जब एक रूपए की गाँधी की फोटो वाली डाक टिकट पर डाक विभाग की मुहर लगती है तो खुद गाँधीजी को स्वयं पर ही दया आने लगती है और वे सोचते हैं कि कब तक वे यूं ही बिकते रहेंगे और उनके मुंह पर हम तारीखों की सील ठोकते रहेंगे। ऐसे में फिर क्यों न जाएंगे गाँधी जी मंगल पर?
संपर्क: नैवेद्ध, 208-ए, पार्क नं.- 3, फेज-1, पंचवटी कॉलोनी, एयरपोर्ट रोड, भोपाल- 462032
मो. 9406541980,lokendrasinghkot@yahoo.com

त्यौहार के रंगों से सजा महीना

- पल्लवी सक्सेना
हर त्यौहार का अपना एक अलग ही रंग और अपना एक अलग ही मजा होता है। इस साल तो यह पूरा महीना ही त्यौहारों से भरा हुआ है। तो क्यूँ ना आप और हम भी सब कुछ भूलाकर, सारे गिले- शिकवे मिटा कर त्यौहारों का लुफ्त उठायें।
भारत एक ऐसा देश है जहाँ अनेकता में एकता ही उसकी पहचान है। भारत में रहने वाले सभी भारतवासी या फिर वे जो भारत को, यहाँ की संस्कृति को, सभ्यता को जानते हैं, पहचानते हैं, उन्हें यह बात बताने की जरूरत ही नहीं कि कितना सुंदर है हमारा भारत देश। यहाँ मुझे हिन्दी फिल्म 'फना' का एक गीत याद आ रहा है -
यहाँ हर कदम- कदम पर धरती बदले रंग,
यहाँ की बोली में रंगोली सात रंग,
धानी पगड़ी पहने मौसम है,
नीली चादर ताने अंबर है,
नदी सुनहरी, हरा समंदर,
है यह सजीला, देस रंगीला, रंगीला, देस मेरा रंगीला...
यह बात अलग है कि पिछले कुछ वर्षों में आतंकी हमलों के कारण यहाँ की आन- बान और शानो- शौकत पर थोड़ी सी शंका की धूल गिरी है मगर इसका गौरव आज भी वैसा ही है, जैसे पहले हुआ करता था। रही सुख और दु:ख की बात तो वह तो जीवन चक्र की भांति सदा ही इंसान की जिंदगी में चलते ही रहता है। फिल्म दिलवाले दुलहनिया ले जायेंगे का एक संवाद है- 'बड़े- बड़े शहरों में ऐसी छोटी- छोटी बातें होती रहती है' जिसे मैंने बदल कर दिया है कि 'बड़े- बड़े देशों में ऐसी छोटी- छोटी वारदातें होती रहती ' क्योंकि जितना बड़ा परिवार हो उतनी ही ज्यादा बातें भी तो होगी। जहां प्यार होगा वहाँ लड़ाई भी होगी। ऐसा ही कुछ मस्त मिजाज का है अपना भारत भी।
इतना कुछ घट जाने के बाद भी यहाँ हर एक त्यौहार बड़ी धूमधाम से मनाए जाते है। हर त्यौहार का अपना एक अलग ही रंग और अपना एक अलग ही मजा होता है। इस साल तो यह पूरा महीना ही त्यौहारों से भरा हुआ है। तो क्यूँ ना आप और हम भी सब कुछ भूलाकर, सारे गिले- शिकवे मिटा कर त्यौहारों का लुफ्त उठायें-
जैसा कि आप सब जानते हैं कि भारत में रक्षाबंधन के बाद से ही त्यौहारों का सिलसिला शुरू हो जाता है। नवरात्र के नौ दिन सबसे पहले आता है। अभी लिखते वक्त जैसे आँखों के सामने एक चलचित्र सा चल रहा है। चारों ओर माँ के नाम का जयकारा। पूरा माहौल भक्ति रस में डूबा हुआ। जगह- जगह माँ की सुंदर मूर्तियों से सुशोभित मनमोहक झांकियाँ, मेले, गाना- बजाना और जागरण। इन नौ दिनों में दुनिया अपना सारा दु:ख- दर्द भूल कर सिर्फ माँ के भक्ति रस में भाव विभोर हो जाती है। जगह- जगह गरबा प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जाता है। कितने आनंददायक होते हैं नवरात्र के ये दिन।
फिर आता है दशहरा यानी बुराई पर अच्छाई की जीत का पर्व, इस दिन माँ दुर्गा की मूर्ति का विसर्जन भी किया जाता है और ऐसी मान्यता है कि इस दिन माँ दुर्गा भगवान श्री राम को विजयी होने का आशीर्वाद देती हुई विसर्जन के माध्यम से लुप्त हो जातीहैं और उसके बाद दशहरे का पर्व शुरू होता है।
इस त्यौहार के मौसम में इस साल यह अक्टूबर का महीना महिलाओं के लिए भी रंगों भरा महीना ले कर आया है। जिसमें चाँद की महिमा लिये करवाचौथ जिसे अखंड सुहाग का त्यौहार माना जाता है। इस दिन सभी सुहागिन औरतें अपने- अपने पति की दीर्घ आयु के लिए करवा चौथ का उपवास रखती हैं। चाँद देखने के बाद पति का चेहरा देख कर व्रत खोलती हैं। पहले यह त्यौहार इतनी धूम- धाम से नहीं मनाया जाता था। मेरी मम्मी के अनुसार मेरी दादी ऐसा बताया करती थीं कि यह सब गृहस्थी की पूजा है। जिसे पहले के जमाने में घर की औरतें आपस में मिल जुल कर ही कर लिया करती थी। मगर अब फिल्म वालों की मेहरबानी से पतियों को भी इस व्रत के महत्व की जानकारी मिल गई है। अब तो पति भी अपनी पत्नी के लिए यह व्रत करते देखे जा सकते हैं।
अब बारी आती है साल के सबसे बड़े हिन्दू पर्व की यानी दीपावली की। हिंदुओं का सबसे बड़ा यह त्यौहार हिन्दी कैलेंडर के अनुसार कार्तिक अमावस्या को मनाया जाता है। इस दिन भगवान श्री राम अपने चौदह वर्ष का वनवास पूरा करके अयोध्या लौट कर आये थे और लोगों ने दीप प्रज्वलित कर उनका स्वागत किया था। लोग महीनों पहले से इस त्यौहार के लिए तैयारियाँ करते हैं। बरसात के बाद आने के कारण लोग घर की रँगाई करवाते हैं। जिससे सारे घर की साफ- सफाई अच्छी तरह हो जाती है। क्योंकि ऐसी मान्यता है कि जिसका घर जितना साफ सुथरा होगा उसके घर माँ लक्ष्मी का आगमन उतनी जल्दी होगा। और इस अवसर पर तरह- तरह के पकवान भी बनाये जाते हैं। दीपावली के दिन एक और रिवाज है दीपावली के दिन शाम को लक्ष्मी पूजन के बाद लोग एक दूसरे के घर जलता हुआ दिया लेकर जाते हैं। ताकि किसी के भी घर दिये की रोशनी के बिना अंधेरा ना रहे, है ना अच्छी परंपरा। चूंकि मैं भोपाल की हूं अत: वहां मैंने इस परंपरा को देखा है। लोग एक दूसरे से गले मिलते हैं, उपहार देते है, दीपावली की शुभकामनायें देते हैं, फटाखे फोड़ते हैं। घर के लिए कोई नया सामान लेना हो तो भी दीपावली के आने का इंतजार रहता है। दीपावली पाँच दिनों का उत्सव होता है पहले धनतेरस, फिर नरक चौदस और फिर लक्ष्मी पूजा, और इसके बाद गोवर्धन पूजा जिसे अन्नकूट के नाम से भी जाना जाता है इसके बाद पांचवे दिन भाई दूज। धनतेरस वाले दिन वैसे तो सोना या चाँदी खरीदे जाने का रिवाज है, मगर आज कल की महँगाई के इस दौर में सबके लिए यह सब संभव नहीं इसलिए हमारे समझदार बुजूर्गों ने सोने चाँदी के अलावा इस दिन कोई भी नया समान खरीदने का चलन बना दिया। ताकि गरीब से गरीब इंसान भी इस दिन कुछ नया समान लेकर यह त्यौहार मना सके।
नरक चौदस को यमराज का दिन माना जाता है और उनसे तो सभी को डर लगता है। इसलिए इस दिन को मनाना कोई नहीं भूलता... इस दिन आधी रात को मूँग की दाल से बने पापड़ पर काली उड़द की दाल रख कर उस पर यम के नाम का चार बत्ती वाला दिया जलाकर रास्ता शांत हो जाने के बाद बीच रास्ते में रख देते हैं, जब तक दीपक शांत न हो जाए वहाँ खड़े रहकर प्रतीक्षा करते हैं। जैसे ही दिया शांत होता है, उस स्थान पर पानी डाल कर बिना पीछे देखे घर में चले जाते हैं। इसके पीछे मान्यता यह है कि मरणोंपरांत जब यमदूत आपको लेकर जाते हैं तब उन चार बत्तियों वाले दिये की चारों बत्तियाँ चार दिशाओं का प्रतीक होती हंै। यमदूत के साथ होते हुए भी आपको उस मार्ग की चारों दिशाओं में उस दीपक की वजह से भरपूर रोशनी मिलती है। मगर सभी घरों में ऐसा नहीं होता है। हर घर की अलग मान्यता होती है, जो मैंने अभी बताया वो मेरे अपने घर की प्रथा है।
फिर आती है दीपावली यानी लक्ष्मी पूजा और अगली सुबह गोवर्धन पूजा। इस त्यौहार का भारतीय लोकजीवन में काफी महत्व है। इस पर्व में प्रकृति के साथ मानव का सीधा सम्बन्ध दिखाई देता है। इस पर्व की अपनी मान्यता और लोककथा है। गोवर्धन पूजा में गोधन यानी गायों की पूजा की जाती है । शास्त्रों में बताया गया है कि गाय उसी प्रकार पवित्र होती जैसे नदियों में गंगा। गाय को देवी लक्ष्मी का स्वरूप भी कहा गया है। देवी लक्ष्मी जिस प्रकार सुख समृद्धि प्रदान करती हैं उसी प्रकार गौ माता भी अपने दूध से स्वास्थ्य रूपी धन प्रदान करती हैं। इनका बछड़ा खेतों में अनाज उगाता है। इस तरह गौ सम्पूर्ण मानव जाती के लिए पूजनीय और आदरणीय है। गौ के प्रति श्रद्धा प्रकट करने के लिए ही कार्तिक शुक्ल पक्ष प्रतिपदा के दिन गोर्वधन की पूजा की जाती है और इसके प्रतीक के रूप में गाय की।
जब कृष्ण ने ब्रजवासियों को मूसलधार वर्षा से बचने के लिए सात दिन तक गोवर्धन पर्वत को अपनी सबसे छोटी उँगली पर उठाकर रखा और गोप- गोपिकाएँ उसकी छाया में सुखपूर्वक रहे और सातवें दिन भगवान ने गोवर्धन को नीचे रखा और इस दिन गोवर्धन पूजा करके अन्नकूट उत्सव मनाने की आज्ञा दी। तभी से यह उत्सव अन्नकूट के नाम से मनाया जाने लगा।
इसके बाद आता है भाई दूज। इस दिन सभी बहनें अपने भाइयों को तिलक करती हैं और उनकी सुख समृद्धि की कामना करती हैं। साधारण तौर पर हिन्दू धर्म में इस त्यौहार को मनाने का यही तरीका है। मगर कायस्थ समाज में इस त्यौहार के मनाए जाने का कुछ अलग रिवाज है। इस दिन वहां भगवान श्री चित्रगुप्त की पूजा की जाती है और दूध में उंगली से पत्र लिखा जाता है। मान्यता यह है कि आपकी मनोकामनाओं का पत्र देव लोक तक पहुँच जाता है।
पहले लड़कियों को ज्यादा पढ़ाया लिखाया नहीं जाता था। इसलिए इस पूजा में लड़कियों को शामिल नहीं किया जाता है। किन्तु अब ऐसा नहीं है। बदलते वक्त ने लोगों की मानसिकता को बदला है। आजकल लड़कियां पढ़ी- लिखी होती हंै इसलिए अब बहुत से घरों में लड़कियों को भी इस पूजा में शामिल होने दिया जाता है। मैंने भी अपने घर यह पूजा
की है।
अब बारी आती है देवउठनी ग्यारस की। इसे बड़ी ग्यारस के नाम से भी जाना जाता है। इस वक्त गन्ने की फसल आती है अत: रात को गन्ने से झोपड़ी बना कर पूजा की जाती है। इस दिन से ही शादी तय करने तथा घर बनाने जैसे शुभ कार्य करने की शुरूआत होती है। ऐसा माना जाता है कि ग्यारस से भगवान विष्णु चार महीने बाद निंद्रा से जाग जाते है। भगवान के सोने के पीछे की मान्यता के बारे में मेरे ससुर जी का कहना है कि पहले आवागमन के साधन कम थे, लोग गांव में रहते थे अत: बारिश में मौसम खराब होने के कारण बहुत दिक्कते आती होंगी इसलिए देव सो गए हैं तीन- चार माह के लिए शादी में रोक लगा दी गई होगी। दीपावली के बाद मौसम ठंडा और सुहाना हो जाता है तो देवों को उठा दिया और शादियों कि अनुमति दे दी गई।
अन्त में बस इतना ही कहना चाहूँगी कि त्यौहार हर बार सभी के लिए खुशियाँ लेकर आये यह जरूरी नहीं, आज न जाने कितने ऐसे परिवार हैं जिनके लिए इन त्यौहारों का कोई मोल ना बचा हो मगर चलते रहना ही जिंदगी है जो रुक गया उसका सफर वहीं खत्म हो जाया करता है। इसलिए यदि हो सके तो पुरानी बातों को भूल कर आगे बढऩे का प्रयास कीजिये अगर अपनों के जाने के गम ने आपसे त्यौहार की ख़ुशी छीनी है तब भी आपके अपने कई और भी हंै, जो आपको इन त्यौहारों के खुशनुमा माहौल में खुश देखना चाहते हैं। कुछ और नहीं तो अपनों की खुशी के लिए ही सही जिंदगी में दर्द और गम को भुलाकर आगे बढिय़े क्योंकि...
'जीने वालों जीवन छुक- छुक गाड़ी का है खेल,
कोई कहीं पर बिछड़ गया किसी का हो गया मेल' ....
लेखक के बारे में- मैं भोपाल की रहने वाली हूँ । मैंने अपनी सम्पूर्ण शिक्षा भोपाल में ही प्राप्त की है। मैं गृहणी हूँ और पिछले 5 वर्षों से लंदन में रह रही हूँ। अँग्रेजी साहित्य में एम.ए होने के बावजूद मैं हिन्दी में ब्लॉग लिखती हूँ जिसका कारण है मैं कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद को बहुत पसंद करती हूँ। उनके लेखन की सरल भाषा से प्रेरित होकर मैंने ब्लॉग लिखने का प्रयास किया है।
संपर्क: द्वारा: डॉ. एस.के. सक्सेना, 27/1 गीतांजलि कॉम्पलेक्स, गेट न. 3 भोपाल (म.प्र.)
Email- pallavisaxena80@gmail.com

ये चेहरा अपना सा लगता है

- आशा भाटी
गाँधी को देखा तो नहीं है हमने।
पर ये चेहरा गाँधी से मिलता है।
बहुत सादा है पर बहुत अपना सा लगता है।
एक सुलगता क्रांति का तूफान दिल में लिए हैं।
पर चेहरे पर एक शीतल चांदनी बिखरी है।
इस आवाज में कोई जादू है कि
खिंचते चले आ रहे हैं लोग।
उनकी आवाज ने देश के
सोए जनमानस को जगाया है।
जंतर- मंतर एक बड़ा सा आंगन बन गया है।
भ्रष्टाचार से त्रस्त लोगों का ठिकाना बन गया है।
अन्ना तुमने बीड़ा उठाया है,
नेताओं के काले चेहरों से नकाब उठाने का।
भ्रष्टाचार के राक्षसों से देश को बचाने का।
एक अंधी- बहरी सरकार को जगाने का।
इससे अच्छा उपाय और क्या हो सकता है।
कई बार क्रांतियां इस तरह भी आती हैं।
अहिंसा से भी अपनी बात कही जाती है।
हमारी कामना है ये अभियान सफल बने।
भारत फिर से महान और शक्तिशाली बने।
संपर्क- शताक्षी, 13/ 89 इन्दिरा नगर,
लखनऊ 226016,फोन. 0522- 2712477

आज भी प्रासंगिक हैं महात्मा के विचार

- कृष्ण कुमार यादव
विश्व पटल पर महात्मा गाँधी सिर्फ एक नाम नहीं अपितु शान्ति और अहिंसा का प्रतीक है। महात्मा गाँधी के पूर्व भी शान्ति और अहिंसा की अवधारणा फलित थी, परन्तु उन्होंने जिस प्रकार सत्याग्रह एवं शान्ति व अहिंसा के रास्तों पर चलते हुये अंग्रेेजों को भारत छोडऩे पर मजबूर कर दिया, उसका कोई दूसरा उदाहरण विश्व इतिहास में देखने को नहीं मिलता। तभी तो प्रख्यात वैज्ञानिक आइंस्टीन ने कहा था कि- 'हजार साल बाद आने वाली नस्लें इस बात पर मुश्किल से विश्वास करेंगी कि हाड़- मांस से बना ऐसा कोई इन्सान धरती पर कभी आया था।' संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी वर्ष 2007 से गाँधी जयन्ती को 'विश्व अहिंसा दिवस' के रूप में मनाये जाने की घोषणा की तो अमेरिकी कांग्रेस में बापू को दुनिया भर में स्वतंत्रता और न्याय का प्रतीक बताते हुए प्रतिनिधि सभा में उनकी 140वीं जयंती मनाने संबंधी प्रस्ताव पेश किया गया। दुनिया के सबसे शक्तिशाली राष्ट्र अमेरिका के मुखिया ओबामा तो गाँधी जी के कायल हैं। उनकी मानें तो अगर भारत में अहिंसात्मक आंदोलन नहीं होता तो अमेरिका में नागरिक अधिकारों के लिए वैसा ही अहिंसात्मक आंदोलन देखने को नहीं मिलता। निश्चितत: दुनिया का यह दृष्टिकोण आज के दौर में शान्ति व अहिंसा के पुजारी महात्मा गाँधी के विचारों की प्रासंगिकता को सिद्ध करता है।
15 अगस्त 1947 को आजादी प्राप्त कर गाँधी जी ने समूचे विश्व को दिखा दिया कि हिंसा जो सभ्य समाज के अस्तित्व को नष्ट करने का खतरा उत्पन्न करती है, का विकल्प ढूँढऩे के लिए स्वयं की पड़ताल करने का भी एक प्रयास होना चाहिए। गाँधी जी सत्य, अहिंसा, स्वदेशी, स्वराज्य व रचनात्मक कार्यक्रमों के कायल थे। इन सभी सिद्धान्तों को उन्होंने न सिर्फ वैचारिक धरातल पर उतारा बल्कि उनमें अन्तरसम्बन्ध भी स्थापित किया।
गाँधी जी को 'महात्मा' की उपाधि से सर्वप्रथम विभूषित करने वाले रवीन्द्र नाथ टैगोर ने कहा था कि- 'गाँधी जी एक राजनीतिज्ञ, संगठनकर्ता, जनमानस के नेता और नैतिक सुधारक के रूप में महान हैं, परन्तु वह मनुष्य के रूप में उससे भी अधिक महान हैं। यद्यपि वह असाध्य रूप से आदर्शवादी थे और अपने निश्चित मापदण्डों द्वारा प्रत्येक कार्य को मापते थे, फिर भी वह मानव प्रेमी हैं न कि खोखले विचारों के प्रेमी।' गाँधी जी सत्य के बहुत बड़े प्रणेता थे और इसके लिये अहिंसा के तरीकों के पक्षपाती थे। सत्याग्रह उनके लिए मात्र नीति नहीं, सिद्धान्त था। वस्तुत: सत्याग्रह के माध्यम से गाँधीजी ने महात्मा बुद्ध, महावीर व तमाम महापुरूषों द्वारा प्रतिपादित अहिंसा के सिद्धान्त को सामाजिक व राष्ट्रीय शक्ति में तब्दील कर दिया। पाश्चात्य विचारक थोरो की व्यक्तिगत सविनय अवज्ञा की अवधारणा को सामाजिक शक्ति में बदलकर ऐसा बेमिसाल जनजागरण पैदा किया जो दीर्घकाल तक अवश्य चलता है, पर असफल नहीं होता। स्वयं गाँधी जी का मानना था कि- 'सत्याग्रह एक ऐसा आध्यात्मिक सिद्धान्त है जो मानव मात्र के प्रेम पर आधारित है। इसमें विरोधियों के प्रति घृणा की भावना नहीं है।' अहिंसा गाँधी जी का प्रमुख सत्याग्रही हथियार था। गाँधी जी के लिये अहिंसा, हिंसा का निषेध मात्र नहीं थी बल्कि एक जीवन पद्धति थी। वे अक्सर कहा करते थे कि आज की दुनिया में जितने लोग जीवित हैं, वे बताते हैं कि दुनिया का आधार हथियार बल नहीं है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण तो यही है कि दुनिया इतने हंगामों के बाद भी टिकी हुई है।
अन्ना के नेतृत्व में चला अन्दोलन एक बार फिर से महात्मा गाँधी जी के सत्य, अहिंसा और सत्याग्रह की प्रासंगिकता को रेखांकित करता है। आखिर जिस पीढ़ी ने गाँधी जी के बारे में मात्र सुना हो, उनके लिए यह अन्दोलन एक रोमांच भी था और आश्चर्य भी।
गाँधी जी की अहिंसा कायरता का प्रतीक नहीं बल्कि अन्तश्चेतना व आत्मा में विश्वास करने वाली वीरता का परिचायक है। उन्होंने इसे व्याख्यायित करते हुये लिखा कि- 'यद्यपि अहिंसा का अर्थ क्रियात्मक रूप से जानबूझकर कष्ट उठाना है, तथापि यह सिद्धान्त दुराचारियों के सामने हथियार डालने का समर्थन नहीं करता। इसके विपरीत यह दुराचारी का पूर्ण आत्मबल से सामना करने की प्रेरणा देता है। इस सिद्धान्त को मानने वाला व्यक्ति अपनी इज्जत, धर्म और आत्मा की रक्षा के लिए एक अन्यायपूर्ण साम्राज्य सहित समस्त शक्तियों को भी चुनौती दे सकता है और अपने पराक्रम द्वारा उसके पतन के बीज भी बो सकता है।' बताते हैं कि जब इटली के तानाशाह मुसोलिनी के आग्रह पर गाँधी जी उससे मिलने गये, तो कईयों ने उन्हें समझाया कि एक अहिंसक व्यक्ति का हिंसक व्यक्ति से मिलना उचित नहीं। पर गाँधी जी ने जवाब दिया कि हिंसक व्यक्ति से हिंसा ज्यादा खतरनाक है और हमारा उद्देश्य सत्य व अहिंसा के माध्यम से अहिंसा को खत्म करना है। गाँधी जी तीन लोगों के साथ मुसोलिनी से मिलने गये, जबकि वहाँ कुर्सियाँ सिर्फ दो थीं। जब मुसोलिनी ने गाँधी जी से बैठने का आग्रह किया तो गाँधी जी ने अपने साथ आये तीनों लोगों को कुर्सी की तरफ इशारा करते हुये बैठने को कहा। मुसोलिनी का सोचना था कि कुर्सी पर सिर्फ गाँधी जी और वो बैठेगा, पर गाँधी जी अपने साथ के तीन अन्य मेहमानों की खातिर कुर्सी पर बैठने को राजी नहीं हुये और अन्तत: मुसोलिनी को तीन अन्य कुर्सियाँ मँगवानी पड़ी। वाकई यह रोचक घटनाक्रम दुनिया के सबसे बड़े तानाशाह और एक अहिंसक सत्याग्रही के बीच घटा था, जिसने तानाशाह को एक सत्याग्रही की बात मानने पर मजबूर कर दिया।
मानव इतिहास पर गाँधी जी का प्रभाव हिटलर और स्तालिन के प्रभाव से अधिक होगा।' आज की नयी पीढ़ी गाँधी जी को एक नए रूप में देखना चाहती है। वह उन्हें एक सन्त के रूप में नहीं वरन व्यवहारिक आदर्शवादी के रूप में प्रस्तुत कर रही है। 'लगे रहो मुन्ना भाई' जैसी फिल्मों की सफलता कहीं- न- कहीं युवाओं का उनसे लगाव प्रतिबिम्बित करती है। आज भी दुनिया भर के सर्वेक्षणों में गाँधी जी को शीर्ष पुरूष घोषित किया जाता है। हाल ही में हिन्दू- सीएनएन, आईवीएन द्वारा 30 वर्ष से कम आयु के भारतीय युवाओं के बीच कराए गए एक सर्वेक्षण में 76 प्रतिशत लोगों ने गाँधी जी को अपना सर्वोच्च रोल मॉडल बताया। बीबीसी द्वारा भारत की स्वतंत्रता के 60 वर्ष पूरे होने पर किये गये एक सर्वेक्षण के मुताबिक आज भी पाश्चात्य देशों में भारत की एक प्रमुख पहचान गाँधी जी हैं। आँकड़े गवाह हैं कि विश्व भर में हर साल गाँधी जी व उनके विचारों पर आधारित लगभग दो हजार पुस्तकों का प्रकाशन हो रहा है एवं हाल के वर्षों में गाँधी जी की कृतियों का अधिकार हासिल करने के लिये प्रकाशकों व लेखकों के आवेदनों की संख्या दो गुनी हो गई है। यही नहीं तमाम पाश्चात्य देशों में गाँधीवाद पर विस्तृत अध्ययन हो रहे हैं, तो भारत में सुन्दरलाल बहुगुणा, अन्ना हजारे, मेघा पाटकर, अरूणा राय से लेकर संदीप पाण्डे तक तमाम ऐसे समाजसेवियों की प्रतिष्ठा कायमहै, जिन्होंने गाँधीवादी मूल्यों द्वारा सामाजिक अन्दोलन खड़ा करने की कोशिशें कीं।
आजादी की लड़ाई की निशानी गाँधी टोपी जो नेताओं के सिर से गायब हो गई थी उसे जन लोकपाल के समर्थन में आमरण अनशन कर रहे समाज सेवी अन्ना हजारे ने एक बार फिर से जीवंत कर दिया। जींस कुर्ता पहने और सिर पर गाँधी टोपी तथा हाथ में तिरंगा लिये युवाओं को सड़कों पर जुलूस के रूप में देखना एक नए भारत का अहसास करा रहा था।
हाल ही में भारत में हुए अन्ना हजारे के अन्दोलन ने एक बार फिर से गाँधी जी तथा उनके अनशन, उपवास और सत्याग्रह को प्रासंगिक बना दिया। यह स्वाभाविक भी है कि कोई आंदोलन अपने आपको अपने देशकाल से और इतिहास से जोड़े। उपभोक्तावादी समाज में जहाँ लोग यह मान बैठे थे कि अब मूल्यों और आदर्शों का कोई अर्थ नहीं रहा, वहाँ 77 साल के बुजुर्ग अन्ना ने समाज में दिनों- ब- दिन बढ़ रहे भ्रष्टाचार और उसके समाधान हेतु जन- लोकपाल की व्यवस्था के समर्थन में लोगों को आंदोलित कर दिया। यही कारण था कि देश का राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा जो स्वतंत्रता और गणतंत्र दिवस जैसे पर्वों पर ही दिखाई देता था और आजादी की लड़ाई की निशानी गाँधी टोपी जो नेताओं के सिर से गायब हो गई थी उसे जन लोकपाल के समर्थन में आमरण अनशन कर रहे समाज सेवी अन्ना हजारे ने एक बार फिर से जीवंत कर दिया। जींस कुर्ता पहने और सिर पर गाँधी टोपी तथा हाथ में तिरंगा लिये युवाओं को सड़कों पर जुलूस के रूप में देखना एक नए भारत का अहसास करा रहा था। आखिर हो भी क्यों न, अन्ना के अनशन के बहाने एक लम्बे समय बाद जाति, धर्म, प्रान्त, दल से परे लगभग पूरा देश को एकजुट होकर खड़ा हो गया। जहाँ यह माना जाने लगा था कि लोग आजादी की कीमत भूलकर अपने- अपने ड्राइंग रूम में कैद हो गए हैं, वहाँ हर कोई आन्दोलन में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करने को उतावला हो उठा।
इस अन्दोलन का सबसे बड़ा गाँधीवादी पहलू यह रहा कि यह आन्दोलन बिना किसी हिंसा और टकराव के अहिंसक रूप में चला, ऐसे में भारत ही नहीं पूरी दुनिया की निगाह इस पर टिकनी स्वाभाविक थी। हाल के दिनों में जिस तरह तमाम देशों में हिंसक आंदोलन और क्रांतियाँ हुई हैं, वहाँ अन्ना के नेतृत्व में चला अन्दोलन एक बार फिर से महात्मा गाँधी जी के सत्य, अहिंसा और सत्याग्रह की प्रासंगिकता को रेखांकित करता है। आखिर जिस पीढ़ी ने गाँधी जी के बारे में मात्र सुना हो, उनके लिए यह अन्दोलन एक रोमांच भी था और आश्चर्य भी। दुनिया के तमाम देशों ने अन्ना हजारे के इस अन्दोलन का न सिर्फ नोटिस लिया, बल्कि एक बार कहा भी कि यह गाँधी जी के देश में गाँधी जी की तर्ज पर चल रहा जन अन्दोलन है। पाकिस्तान जैसे पड़ोसी देश में भी लोग अन्ना से सीख लेकर गाँधी जी की तर्ज पर अब सत्याग्रह कर रहे हैं। आखिर वे कैसे भूल सकते हैं कि गाँधी जी ने कितने दर्द के साथ इस विभाजन को स्वीकारा था। यहाँ तक कि संयुक्त राष्ट्र महासभा में अपने भाषण में अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भी अन्ना हजारे के अन्दोलन की चर्चा की। अन्ना हजारे के इस आन्दोलन ने इतना तो सिद्ध ही कर दिया है कि आज जरूरत गाँधीवाद को समझने की है न कि उसे आदर्श मानकर पिटारे में बन्द कर देने की। स्वयं गाँधी जी का मानना था कि आदर्श एक ऐसी स्थिति है जिसे कभी भी प्राप्त नहीं किया जा सकता बल्कि उसके लिए मात्र प्रयासरत रहा जा सकता है। वस्तुत: सत्य, प्रेम व सहिष्णुता पर आधारित गाँधी जी के सत्याग्रह, अहिंसा व रचनात्मक कार्यक्रम के अचूक मार्गों पर चलकर ही विश्व में व्याप्त असमानता, शोषण, अन्याय, भ्रष्टाचार, आतंकवाद, दुराचार, नक्सलवाद, पर्यावरण असन्तुलन व दिन- ब- दिन बढ़ते सामाजिक अपराध को नियंत्रित किया जा सकता है।
गाँधी जी द्वारा रचनात्मक कार्यक्रम के जरिए विकल्प का निर्माण आज पूर्वोत्तर भारत व जम्मू- कश्मीर जैसे क्षेत्रों की समस्याओं, नक्सलवाद व घरेलू आतंकवाद से निपटने में जितने कारगार हो सकते हैं उतना बल- प्रयोग नहीं हो सकता। गाँधी जी दुनिया के एकमात्र लोकप्रिय व्यक्ति थे जिन्होंने सार्वजनिक रूप से स्वयं को लेकर अभिनव प्रयोग किए और आज भी सार्वजनिक जीवन में नैतिकता, आर्थिक मुद्दों पर उनकी नैतिक सोच व धर्म- सम्प्रदाय पर उनके विचार प्रासंगिक हैं। तभी तो भारत के अन्तिम वायसराय लार्ड माउण्टबेटन ने कहा था- 'गाँधी जी का जीवन खतरों से भरी इस दुनिया को हमेशा शान्ति और अहिंसा के माध्यम से अपना बचाव करने की राह दिखाता रहेगा।'
संपर्क- निदेशक भारतीय डाक सेवा,
अंडमान-निकोबार द्वीप समूह,
पोर्टब्लेयर-744101 मो.- 09476046232
Email - kewalkrishna70@gmail.com


याददाश्त कम होती है टुकड़ों में नींद लेने से

आप क्या अपनी नींद को टुकड़ों में पूरा करते हैं। यदि हां, तो आपको डॉक्टर से सलाह- मशविरा करने का समय आ गया है क्योंकि टुकड़ों- टुकड़ों में नींद लेने से याददाश्त बनने की क्षमता प्रभावित होती है और इससे आगे डिमेंशिया भी हो सकता है। एक ताजा अध्ययन में कहा गया है कि इस प्रकार नींद लेना स्मरण शक्ति को कमजोर करता है। स्टेनफोर्ड यूनिवर्सिटी द्वारा करवाए गए इस शोध के प्रमुख डॉ. लुइस डे लेका ने कहा कि लगातार नींद सेहत के लिए बेहद मायने रखती है पर इसका अभाव अलजाइमर तथा अन्य उम्र संबंधी बीमारियों को निमंत्रण दे सकता है। शोधकर्ताओं ने प्रयोगशाला में चूहों पर किए गए परीक्षण के बाद यह निष्कर्ष निकाला है। इस अध्ययन को 'प्रोसिडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंस' जर्नल में प्रकाशित किया गया है। अपने शोध में शोधकर्ताओं ने पाया कि नींद में बाधा आने से चूहों को रोजमर्रा की पहचानी हुई वस्तुओं को भी पहचानने में परेशानी हुई। यह अध्ययन टुकड़ों- टुकड़ों में ली गई नींद पर आधारित था। शोधकर्ताओं ने अपने अध्ययन में चूहों के सोने के क्रम में ऑप्टोजेनेटिक तकनीक का सहारा लिया जिसमें एक तरह का प्रकाश चूहे के मस्तिष्क में भेजा गया। यह प्रकाश मस्तिष्क की एक खास कोशिका को उद्दीपित करता है जिसका नियंत्रण प्रकाश से ही होता है। शोधकर्ताओं ने चूहों के नींद में होने के दौरान उनके मस्तिष्क में सीधे प्रकाश तरंगें भेजीं। इसका मतलब यह था चूहों में पूरी तरह नींद बाधित नहीं हुई बल्कि उनकी नींद को टुकड़ों- टुकड़ों में बाधित किया गया। इस प्रयोग के बाद चूहों को दो अलग- अलग प्रकार की चीजें दिखाई गईं। उनमें एक वह चीज भी थी जिसे वह रोज देखते थे लेकिन नींद की कमी के कारण वे उसे पहचान नहीं पाए।

अवसाद से मुक्ति के लिए दयालु बनें

क्या आप अवसाद से पीडि़त हैं तो अब चिंता करने की कोई बात नहीं। इसके लिए सिर्फ अपने जीवन में थोड़ा बदलाव लाइए और अवसाद से मुक्त हो जाइए।
जी हां, शोधकर्ताओं ने अपने ताजा अध्ययन के आधार पर दावा किया है कि दयालुता और करुणा अवसाद पर काबू पाने का सबसे कारगर हथियार है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक दुनिया में अवसाद से पीडि़त लोगों की संख्या 10 करोड़ है। हालांकि एंटीडिप्रेशन की दवा कुछ लोगों के जीवन को बचाता है लेकिन प्रारंभिक दवा से 30 से 40 प्रतिशत मरीजों को ही अवसाद से छुटकारा मिल पाता है। विविध तरह के दवाइयों के इस्तेमाल के बावजूद एक तिहाई लोग अवसाद के साथ जीने को विवश हैं। कैलीफोर्निया यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने अपने गहन जांच- पड़ताल में पाया है कि दयालुता और करुणामय जैसे गुण अवसाद को भगाने के लिए प्रभावकारी इलाज है।
अध्ययन के मुताबिक अवसाद के इलाज के लिए नई खोज यानी पोजीटिव एक्टीविटी इंटरवेंशन अवसाद के इलाज के लिए बेहद कारगर साबित हो सकता है। पोजीटिव एक्टीविटी इंटरवेंशन में सकारात्मक सोच और दयालुता के गुण शामिल हैं।


हरित भवन परंपरा की ओर लौटना होगा

- के. जयलक्ष्मी
भवनों में हरित तकनीकों का इस्तेमाल करने से न केवल ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम होगा, बल्कि बिजली व पानी पर लागत भी घटेगी। इसके लिए डिजाइन के स्तर पर सटीक योजना बनाने और सही सामग्री व उपकरणों का इस्तेमाल करने की जरूरत होगी।
आज दुनिया की 40 फीसदी से अधिक ऊर्जा का इस्तेमाल भवनों में होता है। इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) के एक अनुमान के अनुसार वर्ष 2050 तक 38 फीसदी ऊर्जा का इस्तेमाल भवनों में होने लगेगा। इस प्रक्रिया में 3800 मेगाटन कॉर्बन उत्सर्जित होगा।
वल्र्डवॉच इंस्टीट्यूट के अनुसार दुनिया के ताजे पानी का छठवां हिस्सा भवनों में इस्तेमाल होता है। कुल जितनी लकड़ी पैदा होती है, उसका एक चौथाई हिस्सा और उसकी सामग्री व ऊर्जा का 40 फीसदी हिस्सा भी भवनों पर खर्च होता है।
यदि भवनों का निर्माण ग्रीन डिजाइन के सिद्धांतों के आधार पर किया जाए तो 40 प्रतिशत या उससे भी अधिक ऊर्जा बचाई जा सकती है। एक अन्य अध्ययन बताता है कि हरित भवनों की रहवास क्षमता में 6 से 26 फीसदी तक की बढ़ोतरी की जा सकती है और इस तरह श्वसन संबंधी बीमारियों में 9 से 20 फीसदी तक की कमी संभव है।
आईपीसीसी की चतुर्थ आकलन रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि भवनों में इस्तेमाल होने वाली ऊर्जा से उत्सर्जित कॉर्बन डाइऑक्साइड की मात्रा में वर्ष 2020 तक 29 फीसदी तक की कमी की जा सकती है और वह भी बगैर किसी अतिरिक्त लागत के। रिपोर्ट का आकलन है कि इस क्षेत्र को 70 फीसदी तक अधिक ऊर्जा कुशल बनाया जा सकता है।
भारत में निर्माण उद्योग हर साल 13 प्रतिशत की दर से विकास कर रहा है। खर्च, कच्ची सामग्री के इस्तेमाल और इसके पर्यावरणीय प्रभावों के मद्देनजर यह उद्योग एक बड़ी भूमिका में है। भारत में इस तरह का कोई बेसलाइन आंकड़ा उपलब्ध नहीं है कि भवनों में ऊर्जा का कितना इस्तेमाल होता है। लेकिन केंद्रीय ऊर्जा मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार सरकारी भवनों में इस्तेमाल होने वाली कुल बिजली का 20 से 25 फीसदी हिस्सा गलत डिजाइन की वजह से बर्बाद हो जाता है। इससे एक अरब रुपए से अधिक का नुकसान होता है।
हालांकि अब स्थिति बदलती नजर आ रही है। वर्ष 2003 में भारत में हरित भवन केवल 20 हजार वर्गफीट में ही थे। आज इसका व्यवसाय ढाई करोड़ वर्गफीट तक की लंबी छलांग लगा चुका है। यहां हरित भवन व्यवसाय की बाजार क्षमता 15 हजार करोड़ रुपए से भी अधिक है।
भारत में 80 फीसदी से अधिक प्रोजेक्ट्स को लीड रेटिंग (लीडरशिप इन एनर्जी एंड एनवॉयरमेंटल डिजाइन - एलईईडी रेटिंग) मिली हुई है। हालांकि देश में ऐसे पेशेवरों की जरूरत बहुत ज्यादा है जो इन भवनों के निर्माण और संचालन प्रक्रिया की निगरानी कर सकें। हरित भवन तकनीक ऊर्जा, पानी और अन्य प्राकृतिक संसाधनों का टिकाऊ इस्तेमाल सुनिश्चित करती है। लीड रेटिंग मानव एवं पर्यावरण स्वास्थ्य के पांच प्रमुख क्षेत्रों में प्रदर्शन को मान्यता देकर पूर्ण भवन एप्रोच को बढ़ावा देती है। ये पांच क्षेत्र हैं - स्थल का टिकाऊ विकास, पानी की बचत, ऊर्जा दक्षता, सामग्री का चयन और घर के अंदर पर्यावरणीय गुणवत्ता। हालांकि इनमें से कुछ पहलू भारत के संदर्भ में प्रासंगिक नहीं हैं। यही वजह है कि भारत के संदर्भ में नई रेटिंग प्रणाली अपनाई गई - लीड इंडिया फॉर कोर एण्ड शैल और लीड इंडिया फॉर न्यू कंस्ट्रक्शन।
बड़े बिल्डर तो अपनी ब्राांडिंग के लिए यह प्रमाणीकरण हासिल करने को उत्सुक होंगे, लेकिन जरूरत इस बात को लेकर जागरूकता पैदा करने की है कि हरित भवनों के निर्माण से बिजली और पानी के बिलों में कितनी ज्यादा बचत संभव है। इस बारे में आम तौर पर लोगों को जानकारी नहीं है।
हरित भवनों के सम्बंध में सबसे बड़ी हिचक इस बात को लेकर है कि इनके निर्माण में सामान्य भवनों की तुलना में छह फीसदी पूंजी अधिक लगती है। लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि केवल पूंजीगत लागत ही अधिक होती है। अन्य लगातार होने वाले खर्च इसमें घटते जाते हैं और इस तरह बढ़ी हुई पूंजीगत लागत की भरपाई एक या दो साल में हो सकती है।

हरित भवनों के निर्माण से बिजली और पानी के बिलों में कितनी ज्यादा बचत संभव है। इस बारे में आम तौर पर लोगों को जानकारी नहीं है।
कर्नाटक के गुलबर्गा स्थित पुलिस मुख्यालय में ऐसा वास्तु अपनाया गया कि एयरकंडीशनर की जरूरत न पड़े। यहां गर्मियों के दौरान पारा 45 डिग्री सेल्सियस से ऊपर पहुंच जाता है। लेकिन इस भवन में बिजली की बचत 23 फीसदी और पानी की बचत 47 फीसदी रही। इस भवन को लीड रेटिंग मिली जो इस बात का सबूत है कि वहां कार्यरत कर्मचारी बेहद आरामदायक स्थितियों में काम करते हैं।
क्या करना होगा
एक हरित भवन की सबसे अहम जरूरत यह है कि उसमें अधिकतम ऊर्जा कार्य-निष्पादन होना चाहिए ताकि वहां के रहवासियों को वांछित तापमान और उचित प्रकाश मिल सके। अधिकतम ऊर्जा कार्य-निष्पादन किसी भवन की डिजाइन में ऐसी सौर ऊर्जा तकनीकों (पैसिव सिस्टम) व भवन निर्माण सामग्री का इस्तेमाल करने से प्राप्त होगा जिनसे परंपरागत प्रणालियों जैसे एचवीएसी पर न्यूनतम भार आए। पैसिव सिस्टम प्राकृतिक स्रोतों जैसे सूर्य का प्रकाश, हवा और वनस्पतियों का इस्तेमाल कर भवन में रहने वालों के लिए उचित तापमान व प्रकाश की सुविधा प्रदान करता है।
ठंडे मौसम वाले क्षेत्र में स्थित किसी भवन के लिए ऐसे उपाय अपनाना जरूरी है कि सूर्य से मिलने वाली गर्मी का अधिकतम दोहन किया जा सके। इंसुलेशन का निर्माण और चमक रहित दोपहर की रोशनी ऐसी ही कुछ विशेषताएं हैं। भवन का एक हिस्सा जमीन के भीतर रहने से भी अंदरूनी तापमान को नियंत्रित करने में मदद मिलती है। हवा व सूर्य की रोशनी के आगमन या अवरोध में किसी भी भवन के लैंडस्केप की अहम भूमिका होती है। टेरेस गार्डन घर को अंदर से शीतल रख सकता है।
स्पेस कंडिशनिंग की अवधारणा में भूमिगत वायु सुरंगों के नेटवर्क का इस्तेमाल किया जाता है। ये सुरंगें जमीन के नीचे एक निश्चित गहराई में बिछाई जाती हैं जहां तापमान स्थिर रहता है। इससे भवन के अंदर के तापमान को स्थिर रखने में मदद मिलती है। शीर्ष पर समतल प्लेट वाली सौर चिमनी गर्म हवा को निकलने का रास्ता देकर पूरे भवन को हवादार बनाती है। एट्रिअम से प्राकृतिक प्रकाश आता है और कृत्रिम रोशनी पर निर्भरता कम होती है।
एचवीएसी
बिजली का 40 फीसदी हिस्सा एचवीएसी (गर्मी, हवा और वातानुकूलन) पर खर्च होता है, जबकि 20 फीसदी प्रकाश पर। सौर ऊर्जा की वास्तु अवधारणा के साथ पारंपरिक प्रणालियों (एचवीएसी) पर लोड कुछ साधारण उपायों से काफी हद तक कम किया जा सकता है। ये उपाय इस तरह हैं: 1. भवन और अन्य सहायक सुविधाओं के लिए रोशनी की व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए कि बर्बादी रोकी जा सके। 2. यह तय कर लें कि रात के समय भवन के कौन-से हिस्से रोशन रहेंगे और किस समयावधि के दौरान। 3. यह पता करने के लिए कि प्रकाश का न्यूनतम स्वीकार्य स्तर क्या होना चाहिए, यह जानना भी जरूरी है कि अमुक जगह रोशनी का वास्तविक मकसद क्या है। 4. ऊर्जा दक्ष बल्ब और लैम्प का ही इस्तेमाल करना चाहिए। 5. प्रकाश और अन्य आउटडोर विद्युत संचालित क्रियाओं के लिए ऊर्जा के नवीकरणीय स्रोतों का इस्तेमाल करना चाहिए।
किसी हरित भवन के निर्माण में सबसे महत्त्वपूर्ण घटक इस्तेमाल की जाने वाली सामग्री होती है, लेकिन उसी की सर्वाधिक उपेक्षा की जाती है। हमारे भवन के मानक केवल संचालन ऊर्जा को कम करने पर ध्यान देते हैं और अन्य महत्त्वपूर्ण कारकों जैसे पानी, अवशिष्ट पदार्थों, घर के अंदर के वायु प्रदूषण, कच्ची निर्माण सामग्री, नवीकरणीय ऊर्जा का इस्तेमाल इत्यादि को यूं ही छोड़ दिया जाता है। उनमें सन्निहित यानी एम्बेडेड ऊर्जा पर फोकस नहीं होता है।
निर्माण सामग्री
मिट्टी से र्इंट और र्इंट से सीमेंट, ग्लास और प्लास्टिक की तरफ रुझान का मतलब है विकेंद्रीकृत व्यवस्था से केंद्रीकृत व्यवस्था की ओर जाना। इससे सामग्री का दूर- दूर से परिवहन बढ़ा है। इसका मतलब है बड़ी मात्रा में जीवाश्म र्इंधन का उपयोग और फिर कॉर्बन का उत्सर्जन। इससे भवनों में एम्बेडेड ऊर्जा का तत्व काफी बढ़ गया है।
आर्किटेक्चर पत्रिका कनेडियन आर्किटेक्ट ने करीब 30 निर्माण सामग्रियों की एम्बेडेड ऊर्जा की गणना की है। इनमें सबसे ज्यादा एम्बेडेड ऊर्जा एलुमिनियम में पाई गई जो 227
मेगाजूल प्रति किलो है। अन्य निर्माण सामग्री की एम्बेडेड ऊर्जा के लिए तालिका देखें।
बैंगलूरु स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस ने विभिन्न निर्माण सामग्रियों का इस्तेमाल करने वाले भवनों का तुलनात्मक आकलन किया। इसमें पाया गया कि एक बेहद मजबूत क्रांकीट निर्मित बहुमंजिला इमारत में ऊर्जा की अधिकतम खपत 4.21 गीगाजूल प्रति वर्ग मीटर रही, जबकि र्इंटों से बनी पारंपरिक दो मंजिला इमारत में यही खपत 2.92 गीगाजूल प्रति वर्ग मीटर रही, जो 30 फीसदी कम है।
कई आर्किटेक्ट और भवन निर्माता पारंपरिक निर्माण सामग्रियों जैसे मिट्टी, चिकनी मिट्टी, सूखी घास, पत्थर, लकड़ी और बांस को लेकर अभिनव प्रयोग कर रहे हैं। उनका दावा है कि इसमें प्लास्टर की कोई जरूरत नहीं होती है और इस तरह निर्माण की लागत भी कम हो जाती है।
भारत भवन निर्माण की पारंपरिक विधियों से बहुत कुछ सीख सकता है। उदाहरण के लिए जैसलमेर का किला, वहां की हवेलियों और गलियों को देखा जा सकता है। पारे के 50 डिग्री सेल्सियस तक पहुंचने के बावजूद वहां रहने वालों को कोई दिक्कत नहीं होती क्योंकि इन इमारतों में ऐसे तरीके अपनाए गए हैं जिनसे गर्मी परावर्तित हो सके और हवा प्रवेश कर सके। एक अन्य उदाहरण गुलबर्गा का है। वहां के पुराने भवनों में छोटे प्रवेश द्वारों के साथ मोटी- मोटी बाहरी दीवारें बनी हुई हैं। इससे बाहर की गर्मी अंदर नहीं आ पाती। इनकी छतें ठोस मिट्टी से बनी हुई हैं। सभी कमरों की डिजाइन ऐसी है कि वे बीच में स्थित आंगन में खुलते हैं। इससे उनमें भरपूर हवा आती- जाती है।
गर्मी को रोकने के लिए आधुनिक तरीके के रूप में हाई परफार्मेंस ग्लास का इस्तेमाल किया जाता है। इससे पारंपरिक ग्लास की तुलना में ऊर्जा में 35 से 40 फीसदी तक की बचत हो सकती है, लेकिन लागत दुगनी आती है। और फिर ग्लास में एम्बेडेड ऊर्जा बहुत ज्यादा होती है।
ग्लास का इतना अधिक इस्तेमाल इसलिए होता है क्योंकि इसे लगाना आसान होता है और इसे ऐसी टिकाऊ सामग्री के रूप में बेचा जाता है जिस पर पेंटिंग इत्यादि की भी कोई जरूरत नहीं होती। लेकिन कोई भी इस बात को नहीं समझना चाहता कि इसमें कितनी ऊर्जा समाई रहती है। इसे महसूस करना हो तो आप अपने शहर की ऐसी इमारत के सामने खड़े हो जाइए जो ग्लास से बनी हो। आपको तापमान का एहसास हो जाएगा।
कांक्रीट का जंगल
कांक्रीट और ग्लास से गर्मी भवन के अंदर ही बनी रहती है। इसी वजह से एयर कंडीशनरों पर लोड बढ़ जाता है। दुनिया भर के शहरों में गर्मी के टापू बनने का यह एक प्रमुख कारण है। कार्यालयों में वातानुकूलन के सम्बंंध में एक अन्य समस्या कूलिंग की है। जरूरी 23 से 26 डिग्री के बजाय अधिकांश जगहों पर यह तापमान 17-18 डिग्री सेल्सियस होता है। इसका मतलब है बिजली की और अधिक खपत।
व्यावसायिक इमारतों में पानी के इस्तेमाल को लेकर बहुत कम आंकड़े उपलब्ध हैं, लेकिन घरों में 30 फीसदी पानी केवल टॉयलेट फ्लश में बह जाता है (प्रति फ्लश 10 लीटर)। चूंकि पानी का संकट दिनों-दिन गहराता ही जा रहा है, इसका समाधान आज की सबसे बड़ी जरूरत है। हरित भवनों में पानी की खपत पारंपरिक इमारतों की तुलना में 30-40 फीसदी तक कम होती है। अधिकांश हरित भवन ऐसे होते हैं जिनसे एक भी बूंद पानी या सीवेज में बहने वाला पानी उनके परिसर को छोड़कर नहीं जाता। सारा वहीं इस्तेमाल हो जाता है।
पुराने भवनों में थोड़ा-सा सुधार कर उन्हें सक्षम बनाया जा सकता है। बिजली और पानी की कमी के इस दौर में यह बहुत जरूरी हो गया कि हम इन संसाधनों का संरक्षण करें और उनका किफायत से इस्तेमाल करें। (स्रोत फीचर्स)
स्वेच्छा से या बलपूर्वक?
हरित भवन तकनीक का इस्तेमाल स्वेच्छापूर्वक होना चाहिए या कानून के जरिए? अतीत में देखने में आया है कि ऊर्जा ऑडिट से देश में कुछ लोगों को पैसा कमाने का एक नया माध्यम मिल गया। भारत में पहले से ही भवन निर्माण सम्बंधी दो कोड लागू हैं। एक राष्ट्रीय भवन कोड और दूसरा ऊर्जा संरक्षण भवन कोड (ईसीबीसी) जिसे ब्यूरो ऑफ एनर्जी एफिशिएंसी ने जारी किया है। ये दोनों कोड मोटे तौर पर स्वैच्छिक हैं। हाल ही में ईसीबीसी को व्यावसायिक भवनों के लिए अनिवार्य कर दिया गया, लेकिन सरकारी भवनों को अब भी इससे मुक्त रखा गया है।
ईसीबीसी उस भवन पर लागू होता है जहां 500 किलोवॉट या उससे अधिक का लोड है और जिसका इस्तेमाल व्यावसायिक रूप से किया जा रहा है। यह मुख्यत: भवन के वेंटिलेटिंग, हीटिंग, कूलिंग और लाइटिंग सिस्टम पर निगरानी रखता है। यह आवासीय, सरकारी, कृषि और औद्योगिक इकाइयों पर लागू नहीं होता। क्यों?
अलबत्ता, ईसीबीसी कुछ और पहलुओं जैसे वैकल्पिक एयर कंडीशनिंग सिस्टम, थर्मल स्टोरेज, छत के पंखे और रेगुलेटर्स, पानी का पुन: इस्तेमाल या रिसाइक्लिंग, रेन वॉटर हार्वेस्टिंग, एम्बेडेड ऊर्जा, सामग्री, बिजली बचाने वाली प्रकाश व्यवस्था, पार्किंग स्थल और उसकी प्रकाश व्यवस्था व वेंटिलेशन इत्यादि की उपेक्षा करता है।

क्या यही है जादुई छड़ी?

- लोकेन्द्र सिंह राजपूत
यह रिपोर्ट जादुई है। जिसने भारत से कागजों में गरीबी दूर करने के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दिखाई है। योजना आयोग के अध्यक्ष और भारत के प्रधानमंत्री की जादुई छड़ी शायद यही रिपोर्ट है जिसे वो इतने दिन से ढूंढ़ रहे थे।
योजना आयोग ने भारतीय गरीबी का जिस तरह मजाक बनाया है। उस पर हो-हल्ला होना लाजमी है। योजना आयोग की ओर से गढ़ी गई गरीबी की नई परिभाषा से भला कौन, क्यों और कैसे सहमत हो सकता है। 20 सितंबर 2011 मंगलवार को आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में दायर हलफनामे में कहा है कि खानपान पर शहरों में 965 रुपए और गांवों में 781 रुपए प्रति माह खर्च करने वाले व्यक्ति को गरीब नहीं माना जा सकता। यानी शहर में 32 रुपए और गांव में 26 रुपए रोज खर्च करने वाले व्यक्ति बीपीएल (गरीबी रेखा के नीचे) के तहत मिलने वाली कल्याणकारी सुविधाओं का लाभ नहीं उठा सकता। गरीबी की इस परिभाषा के अनुसार तो निश्चित ही रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड और अन्य सार्वजनिक स्थानों पर दिखाई देने वाली भिखारियों की भीड़ भी अमीर हो गई। धन्य है योजना आयोग, जिसने कितने करोड़ भारतीयों की किस्मत छूमंतर कह कर बदल दी। अभिशप्त गरीबी झेलने को मजबूर करोड़ों लोगों को अमीर कर दिया। जय हो उनकी जिन्होंने इस रिपोर्ट के मार्फत एक ही झटके में भयानक महंगाई (डायन) के दौर में गरीबों के आंसू पौंछ दिए।
इस रिपोर्ट पर माननीय प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के हस्ताक्षर हैं। अर्थात उन्होंने इसका ठीक ढंग से अवलोकन किया होगा। वैसे भी देश से महंगाई और गरीबी दूर करने के लिए लम्बे समय से प्रधानमंत्रीजी एक जादू की छड़ी ढूंढ़ रहे थे। शायद यह रिपोर्ट उन्हें वही जादू की छड़ी लगी और उन्होंने इस पर तपाक से अपने हस्ताक्षर ठोंक दिए। ताकि अगली बार जनता से कह सकें देखो मेरे प्यारे देशवासियों मैंने जादू की छड़ी घुमाकर देश से काफी हद तक गरीबी दूर कर दी। गौरतलब है कि योजना आयोग का अध्यक्ष देश का प्रधानमंत्री होता है। योजना आयोग का उद्देश्य आर्थिक संवृद्धि, आर्थिक व सामाजिक असमानता को दूर करना, गरीबी का निवारण और रोजगार के अवसरों में वृद्धि के लिए काम करना और योजनाएं बनाना है। इसके लिए उपलब्ध आर्थिक संसाधनों का ही बेहतर उपयोग करना है। वैसे भारत में आर्थिक आयोजन संबंधी प्रस्ताव सर्वप्रथम सन् 1934 में 'विश्वेश्वरैयाÓ की पुस्तक 'प्लांड इकोनोमी फॉर इंडियाÓ में आया था। इसके बाद सन् 1938 में अखिल भारतीय कांग्रेस ने ऐसी ही मांग की थी। सन् 1944 में कुछ उद्योगपतियों द्वारा 'बंबई योजनाÓ के तहत ऐसे प्रयास किए गए। सरकारी स्तर पर स्वतंत्रता के बाद सन् 1947 में पंडित जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में आर्थिक नियोजन समिति गठित हुई। बाद में इसी समिति की सिफारिश पर 15 मार्च 1950 को योजना आयोग का गठन असंवैधानिक और परामर्शदात्री निकाय के रूप में किया गया। भारत के प्रधानमंत्री को इसका अध्यक्ष बनाया गया। इसके बाद योजना आयोग ने भारत के उक्त उद्देश्यों को ध्यान में रखकर कार्य करना शुरू किया था।
कांग्रेसनीत यूपीए सरकार ने अपने दोनों चुनाव (2004 और 2009) महंगाई को नियंत्रित करने और आम आदमी की दशा को सुधारने के नारे के साथ लड़े। जनता ने उसे इसी भरोसे दोनों बार संसद पहुंचाया। लेकिन, दोनों बार इस सरकार ने आम जनता के विश्वास को छला है। यूपीए के दूसरे कार्यकाल ने तो साफ- साफ बता ही दिया कि वह आम आदमी की कितनी हमदर्द है। लगातार पेट्रो उत्पाद के महंगे कर ने जनता की कमर तोड़कर कर रख दी। उसे इस पर भी चैन नहीं मिली कि वह फिर से पेट्रोल के दाम बढ़ाने की तैयारी करने लगी है। एलपीजी सिलेंडर से सब्सिडी खत्म कर उसे भी महंगा करने की जुगत सरकार के कारिंदे भिड़ा रहे हैं। इस सब में बेचारे आम आदमी का जीना मुश्किल है। इधर, योजना आयोग को भी पता नहीं क्या मजाक सूझी की उसने गरीबी की यह परिभाषा गढ़ दी। योजना आयोग के इस हलफनामे और तर्कों पर सब ओर से कड़ी प्रतिक्रिया आ रही है। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने इसे तुरंत वापस लेने की मांग की है। वहीं सुप्रीम कोर्ट की ओर से नियुक्त खाद्य आयुक्त ने इसे असंवेदनशील बताया है। उन्होंने कहा है कि यह पैमाना तो उन परिवारों के लिए सही है जो भुखमरी के कगार पर हैं, गरीबों के लिए नहीं।
योजना आयोग गरीबी पर नया क्राइटीरिया सुझाते हुए कहता है कि दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरू, और चेन्नई जैसे महानगरों में चार सदस्यों वाला परिवार यदि महीने में 3860 रुपए खर्च करता है तो उसे गरीब नहीं कहा जा सकता। अब भला इस रिपोर्ट को तैयार करने वाले साहब लोगों को कौन बताए कि इतने रुपए में इन महानगरों में सिर छुपाने को ठिकाना भी मुश्किल है। इतना ही नहीं आयोग कहता है कि 5.50 रुपए दाल पर, 1.02 रुपए चावल व रोटी पर, 2.33 रुपए दूध पर, 1.55 रुपए तेल पर, 1.95 पैसे साग-सब्जी पर, 44 पैसे फल पर, 70 पैसे चीनी पर, 78 पैसे नमक व मसालों पर, 3.75 पैसे ईंधन पर खर्च करें तो एक व्यक्ति स्वस्थ्य जीवनयापन कर सकता है। इतना ही नहीं योजना आयोग कहता है कि यदि आप 99 पैसा प्रतिदिन शिक्षा पर खर्च करते हैं तो आपको शिक्षा के संबंध में कतई गरीब नहीं माना जा सकता। ऐसे में तो गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वालों के लिए बनी तमाम कल्याणकारी योजनाओं का लाभ लेने से लाखों- करोड़ों लोग वंचित हो जाएंगे। सरकार का भारी भरकम बजट जो इन योजनाओं पर खर्च हो रहा है जरूर बच जाएगा। लेकिन, गरीबी में जी रहे लोगों को जीने के लाले पड़ जाएंगे।
इन आंकड़ों के हिसाब से मुझे तो नहीं लगता कि देश में भुखमरी से पीडि़त को छोड़कर कोई गरीब मिलेगा। इस तरह देखें तो वाकई यह रिपोर्ट जादुई है। जिसने भारत से कागजों में गरीबी दूर करने के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दिखाई है। योजना आयोग के अध्यक्ष और भारत के प्रधानमंत्री की जादुई छड़ी शायद यही रिपोर्ट है जिसे वो इतने दिन से ढूंढ़ रहे थे।
संपर्क- गली नंबर-1 किरार कालोनी, एस.ए.एफ. रोड, कम्पू, लश्कर,
ग्वालियर (म.प्र.) 474001, मो. 9893072930
Email - lokendra777@gmail.com

सर्दी की धूप जैसी जिंदगी

- डॉ. हरदीप कौर सन्धु
1
कभी लगती
सर्दी की धूप- जैसी
यह •जि़न्दगी
2
जीवन नहीं
है साँसों का चलना,
जी भर जियो
3
क्षण में मिले
ये साँस पवन से
तब तू जिए
4
भूखा हो पेट
तब नहीं चाहिए
सेहत की दवा
5
तुम जो मिले
किस्मत की स्याही भी
रंग ले आई
6
तू चुप रहा
चेहरा करे बयाँ
ये सारी दास्ताँ

7
तुम क्या गए
ले गए हँसी मेरी
अपने साथ
8
फूलों के अंग
खुशबू ज्यों रहती
तू मेरे संग
9
शीत के दिनों
सर्प- सी फुफकारें
चलें हवाएँ
10
यह जीवन
है एक उलझन
मिले न कंघी
11
तू बसा है
खुशबू की तरह
मेरे दिल में
12
आँसू -कतरा
बना जो समन्दर
डूब गया मैं

13
किया उजाला
काजल भी उगला
दीप जो जला
14
दुखों की झड़ी
मन और दामन
भिगोती रही
15
चप्पू न कोई
उमर की नदिया
बहती गई
16
भीगी पलकें
रात की शबनम
ये तेरे आँसू
17
मन निर्मल
सागर-सा गहरा
प्यार है तेरा
18
गाँव पुराना
क्या सँवर गया या
रहा उजड़

19
मिला जो प्यार
शबनम बिखरी
लगे ज्यों मोती
20
काजल लगा
अँधेरा मुस्कराया
चाँद जो आया
21
गैरों से मिले
खुद से कभी हुई
न मुलाकात
22
अँधेरे रास्ते
मिले तेरा साथ जो
उजाला बहे
23
भरी है नमी
जो इन हवाओं में
रोया है कोई
24
दिल के आँसू
दामन न भिगोएँ
दिल पे गिरें

25
तुझ में दिखे
मुझे मेरी तस्वीर
तू मेरे जैसा
26
तुम्हारी यादें
दिए दिल के जख्म
कभी न भरें
27
जब हो दर्द
बस एक चाहिए
तुम्हारा स्पर्श
28
बिछुड़े हम
इत्तिफाक से मिले
दिल हैं खिले
29
जी -जी के मरें
मर-मर के जिएँ
बिन आपके
30
तू जुदा कैसे
लहू बन दौड़ती
तेरी ख्वाहिश

लेखक के बारे में: कई वर्ष तक पंजाब के एस.डी. कालेज में अध्यापन, अब सिडनी (आस्ट्रेलिया में) रहती हूं। हिंदी व पंजाबी में नियमित लेखन। अनेक रचनाएँ पत्र- पत्रिकाओं में प्रकाशित। वेब पर हिन्दी हाइकु त्रिवेणी नामक चि_े का सम्पादन। 'शब्द' आशीष स्वरूप मुझे विरासत में मिले। इन शब्दों की दुनिया ने मुझे कभी अपनों से दूर होने का अहसास नहीं होने दिया, जब कभी दिल की गहराई से कुछ महसूस किया मन-आँगन में धीरे से उतरता चला गया और भावनाएँ शब्दों के मोती बन इन पन्नों पर बिखरने लगीं । hindihaiku@gmail.com

लघुकथाएँ - डॉ. करमजीत सिंह नडाला

1. भूकंप
बेटा सोलह वर्ष का हुआ तो वह उसे भी अपने साथ ले जाने लगा।
'कैसे हाथ- पाँव टेढ़े- मेढ़े कर चौक के कोने में बैठना है, आदमी देख कैसे ढीला-सा मुँह बनाना है। लोगों को बुद्धू बनाने के लिए तरस का पात्र बनकर कैसे अपनी ओर आकर्षित करना है। ऐसे बन जाओ कि सामने से गुजर रहे आदमी का दिल पिघल जाए और सिक्का उछलकर तुम्हारे कटोरे में आ गिरे।'
वह सीखता रहा और जैसा पिता कहता वैसा बनने की कोशिश भी करता रहा। फिर एक दिन पिता ने पुत्र से कहा, 'जा, अब तू खुद ही भीख माँगा कर।'
पुत्र शाम को घर लौटा। आते ही उसने अपनी जेब से रुपये निकाल कर पिता की ओर बढ़ाए, 'ले बापू, मेरी पहली कमाई।'
'हैं! कंजर पहले दिन ही सौ रुपये! इतने तो कभी मैं आज तक नहीं कमा कर ला सका, तुझे कहाँ से मिल गए?'
'बस ऐसे ही बापू, मैं तुझसे आगे निकल गया।'
'अरे कहीं किसी की जेब तो नहीं काट ली?'
'नहीं, बिलकुल नहीं।'
'अरे आजकल तो लोग बड़ी फटकार लगाकर भी आठ आने- रुपया बड़ी मुश्किल से देते हैं, तुझ पर किस देवता की मेहर हो गई?'
'बापू, अगर ढंग से माँगो तो लोग आप ही खुश हो कर पैसे दे देते हैं।'
'तू कौन से नए ढंग की बात करता है, कंजर! पहेलियाँ न बुझा।
पुलिस की मार खुद भी खाएगा और हमें भी मरवाएगा। बेटा, अगर भीख माँग कर गुजारा हो जाए तो चोरी-चकारी की क्या जरूरत है। पल भर की आँखों की शर्म है, हमारे पुरखे भी यही कुछ करते रहे हैं, हमें भी यही करना है। हमारी नसों में भिखारियों वाला खानदानी खून है हमारा तो यही रोजगार है, यही कारोबार है। ये खानदानी रिवायतें कभी बदली हैं? तू आदमी बन जा। '
'बापू, आदमी बन गया हूँ, तभी कह रहा हूँ। मैंने पुरानी रिवायतें तोड़ दी हैं। मैं आज राज मिस्त्री के साथ दिहाड़ी कर के आया हूँ। एक कालोनी में किसी का मकान बन रहा है। उन्होंने शाम को मुझे सौ रुपये दिए। सरदार कह रहा था, रोज आ जाया कर, सौ रुपये मिल जाया करेंगे।'
पिता हैरान हुआ कभी बेटे की ओर देखता, कभी रुपयों की ओर। यह लड़का कैसी बातें कर रहा है! आज उसकी खानदानी रियासत में भूकंप आ गया था, जिसने सब कुछ उलट- पलट दिया था।

2 . बाहर का मोह

वह ससुरी कहाँ मानने वाली थी। उसके सिर पर तो बाहर का भूत सवार था। कैनेडा रहते पति ने फोन पर कहा, 'तू जिद न कर। घर पर माँ-बाउजी व बच्चों को सँभालने की जिम्मेदारी तेरी है। मैंने लौट ही आना है साल बाद। बाहर सैर- सपाटा नहीं है। यहाँ तो सिर खुजलाने तक का वक्त नहीं मिलता। यहाँ बेकार की कोई रोटी नहीं देता। हाँ, गर तू वहाँ नहीं रह सकती तो तुझे कोई न कोई कोर्स करना पड़ेगा। फिर ही तुझे यहाँ आने का फायदा है।'
वह शहर जाने लगी। सुबह तैयार हो, सज- संवर कर चल पड़ती। पीछे बूढ़े सास- ससुर, बहू की डाँट से डरते चूल्हा- चौका भी करते और उसके बच्चों को भी सँभालते।
'यार! यह संत सिंह की बहू रोज सज- संवर कर किधर जाती है? घर पर सास- ससुर को तो कुत्ते-बिल्ली समझती है।' एक दिन बहू को गली में जाते देख एक आदमी ने दूसरे से कहा।
'कहते हैं, शहर जाती है वहाँ कोई कोर्स-कूर्स करती है, कहते हैं फिर बाहर जाकर काम आसानी से मिल जाता है।'
'कोर्स! अब? दो बच्चों की माँ होकर कौनसा कोर्स करने चली है? घर तो ठीक- ठाक है, खाने-पीने को सब कुछ है, बाहर से घरवाला काफी पैसे भेज रहा है, सौ सुविधाएँ हैं।'
'सुना है कोई नैनी का कोर्स कर रही है।'
'नैनी! यह क्या बला हुई?'
'अरे तुझे नहीं पता! उधर कैनेडा में सभी लोग अपने काम पर चले जाते हैं। पीछे उनके बूढ़े और बच्चों के नाक- मुँह पोंछा करेगी, सेवा सँभाल करेगी और क्या।'
'अच्छा यह कोर्स इसलिए होता है दुर फिटे- मुँह हमारे लोगों के। यहाँ से जाकर गोरों के बच्चे-बूढ़े सँभालते हैं। इससे तो अच्छा है कि अपने बच्चों और सास- ससुर को सँभाल ले ससुरी कैनेडा की।'