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Oct 29, 2011

गांधी, अंडा और मुर्गा

- विनोद साव
'अब तुमको नवरात्रि पर्व का बहाना मिल गया ... फिर कहोगी उसके बाद दशहरा है, दीवाली है, उसके बाद भाईदूज है... ऐसा करते- करते गांधी पुण्यतिथि आ आएगी।' मैंने गांधीजी की जन्मतिथि से शुरु हुई बात का खात्मा उसकी पुण्यतिथि में करते हुए कहा- 'किसी की पुण्यतिथि में मुर्गा खाने से तो अच्छा है उसकी जन्मतिथि में खाना।'
'लाओ तो झोला देना।' मैंने पत्नी से कहा।
'अब सबेरे- सबेरे झोले की क्या जरूरत आ पड़ी।' उसने बात काटते हुए अपना पत्नी धर्म निभाया।
'पोल्ट्री फार्म से ड्रेस करवाकर मुर्गा लाना है।' मैंने मुर्गे की तरह जोर से बांग लगाई।
'आप भी सब्र नहीं कर सकते। आज ही आपको मुर्गा खाने की सुझी है।' उसने मुर्गी की तरह तुनकते हुए कहा।
'आज संडे है ना। आज मुर्गा नहीं खाएंगे तो क्या लाल भाजी खाएंगे।' मैं उसे लाल भाजी के साथ चना दाल भिगाते देखकर सहम गया। सोचा कि इन बीवियों को आखिर चना दाल से इतना प्रेम क्यों। जब भी सब्जी बनाती है उसमें चना दाल मिलाती हैं। हर भाजी के साथ चना दाल, कुम्हड़ा, कुंदरू, तोरई, लौकी, टिण्डा, जरी सबके साथ चना दाल। मसालेदार सब्जी के साथ चना दाल तो खट्टी सब्जी के साथ चना दाल। ज्यादातर बीवियों का पाकशास्त्र बस चना दाल मिलाने तक सीमित रह गया है।
जल्दी करो... मुझे थैला दो। 'आज का संडे मैं मुर्गा खाकर बिताना चाहता हूं।'
'संडे है तो क्या हुआ। आज गांधी जयंती है और आपको मुर्गा खाने की सूझी है।'
'यार... तुम परेशान मत करो। हरदम कोई न कोई अंडग़ा डालने की कोशिश करती हो।' मैं मुर्गे की तरह गर्दन हिलाकर तनते हुए बोला।
'अंडग़ा मैंने लगाया कि गांधीजी ने।' उसने पंख फडफ़ड़ाती मुर्गी की तरह तुनकते हुए कहा। मैंने उसके अंडग़ा लगाने के धारावाहिक कार्यक्रम की ओर ध्यनाकर्षण करते हुए कहा- 'पिछले संडे मुर्गा लाने की बात मैंने कही थी। तुमने नहीं लाने दिया और कहा था कि पितृपक्ष चल रहा है।'
'ठीक ही तो कहा था- पितृपक्ष में अपने स्वर्गवासी पिता का श्राद्ध खीर पूड़ी की जगह क्या तंदूरी और मुर्गे से करते।'
'लेकिन पिताजी तो मुर्गा खाते थे। अगर मुर्गे से श्राद्ध कर भी देते तो क्या हो जाता।' मैंने अपना पितृप्रेम दिखाया।
'पिताजी मुर्गा तब खाते थे जब इस नर्क में रहते थे और अब वे स्वर्गवासी हो चुके हैं।' पत्नी बोली।
'इस संडे को गांधी जयंती आ गई। ठीक है अब अगले संडे को सही।' मैंने किसी हारे हुए योद्धा की तरह पस्त होते हुए कहा।
'अगला संडे नवरात्रि पर्व है।' उसने किसी पस्त होते योद्धा पर अंतिम और निर्णायक वार करने की मुद्रा में जवाब दिया।
मैं बोखला उठा- 'अब तुमको नवरात्रि पर्व का बहाना मिल गया ... फिर कहोगी उसके बाद दशहरा है, दीवाली है, उसके बाद भाईदूज है... ऐसा करते- करते गांधी पुण्यतिथि आ आएगी।' मैंने गांधीजी की जन्मतिथि से शुरु हुई बात का खात्मा उसकी पुण्यतिथि में करते हुए कहा- 'किसी की पुण्यतिथि में मुर्गा खाने से तो अच्छा है उसकी जन्मतिथि में खाना।' यह विचार आते ही मैं गुनगुना उठा ... हैप्पीऽऽ बर्थ-डे टू यू ऽऽ
'अरे आप समझते क्यों नहीं। ये किसी मामूली आदमी का बर्थडे नहीं है। गांधी का बर्थ-डे है और एक तुम हो कि मुर्गे के पीछे पड़े हो।' पत्नी समझौता करने के लिए तैयार नहीं थी।
'... तो क्या मुर्गी के पीछे पडू। अब किसी मुर्गी के पीछे भागने की उम्र नहीं रही। एक के पीछे पड़ा था तो सात- फेरे लेने पड़े और आज तक मेरे गले में पड़ी को ... को... को... कर रही है। यह सुनकर पत्नी ने 'हट... आप बड़े वो हैं' वाली निगाह से देखा तो मैं मुर्गे की तरह गरम हो उठा। मैंने उसे प्यार से समझाया- 'देखो। तुम हर बार मेरे और मुर्गे के बीच में मत आया करो।' मैंने उसे बताया- 'तुम जानती हो कि हमारे एक दुकानदार मित्र के सुखद दाम्पत्य जीवन का आधार एक मुरगा है।'
'लो... आदमी के सुखद दाम्पत्य जीवन से भला मुर्गे का क्या संबंध।' उसने मुर्गी की तरह टांग अड़ाते हुए कहा।
'संबंध है मेरी जान। क्योंकि उसकी बीवी मुर्गा बहुत अच्छा बनाती है। जिस दिन उसकी बीवी लजीज मुर्गा बनाती है उनके दाम्पत्य संबंध मधुर हो उठते हैं। मुर्गा बनाने में देरी हुई या मुर्गा ठीक नहीं बना तो तनातनी बढ़ जाती है और दोनों के बीच मुर्गा लड़ाई शुरु हो जाती है। मुर्गे के बिना उनकी मेहमाननवाजी पूरी नहीं होती। उनके घर जब कोई मेहमान आता है तो वे मुर्गा कटवाकर स्वागत करते हैं। वे जब किसी के यहां मेहमान बनकर जाते हैं तब वे मुर्गे के लिए किसी को मुर्गा बनाकर ही दम लेते हैं। वे हर त्योहार के दूसरे दिन मुर्गा खाते हैं। उनके घर किसी बच्चे का छठी समारोह या मुंह जुठाई या मुंडन संस्कार हो मामला मुर्गे में ही निपटता है। वह हर शाम दो मील दौड़ लगाते हंै ताकि उन्हें भूख लगे और वे ज्यादा से ज्यादा मुर्गा खा सकें। उनके व्यापारिक जीवन का मुख्य उद्देश्य मुर्गा फंसाना, मुर्गा बनाना और मुर्गा खाना है। वे घर में जैसे मुर्गे की गर्दन हलाल करते हैं... अपनी दुकान में वैसे ही ग्राहकों की जेब हलाल करते हैं।'
'क्या ख्याल है... आज मुर्गा हो ही जाए।' मैंने फिर गुहार लगाई वैसे ही जैसे कोई नेता अपनी पार्टी के पक्ष में लम्बा भाषण देने के बाद केवल वोट मांगता है।
'लेकिन जब सारा राष्ट्र गांधी जी की वर्षगांठ मनाने में लगा है... ऐसे में आप...।' पत्नी अपनी बात पर गांठ बांधे खड़ी थी।
'कौन गांधी?' मेरे इस सवाल से पत्नी ऐसे चौंकी जैसे कोई शरीफ आदमी अचानक किसी के नंगई में उतर जाने पर चौंकता है।
'क्या। तुम कौन गांधी कह रहे हो। एक मुर्गे की बात क्या उठी कि अब तुम गांधीजी को भूलने लग गए। मैं नहीं जानती थी कि तुम इस हद तक नीचे उतर जाओगे। इसलिए ये सब मांस, मछली खाना बंद करो। इससे दिमाग भ्रष्ट होता है। तुम गांधी को भूल गए... मतलब शाकाहार को भूल गए। सत्य- अहिंसा- परमोधर्म: को भूल गए। एक दिन मुझे भी भूल जाओगे। पीने खाने वाले आदमी का क्या भरोसा।' पत्नी रुआंसी हो उठी।
'अरे... अरे... मैंने तो केवल इतना ही पूछा है कि कौन-सा गांधी। इस देश में एक गांधी हो तो कोई कहना माने। यहां तो कई गांधी है और हर गली में गांधीवादी पैदा हो गए है। इनमें कई ऐसे हैं कि जिनके केवल शाकाहारी होने और मांसाहारी नहीं होने में संदेह है। ये सारे देशवासियों को मुर्गा बनाने पर तुले हुए हैं। इनका वश चले तो देश को ही मुर्गमुसल्लम की तरह खा जाएं। अपनी सफेद कलगी के नीचे वाले मुंह से जब भी बांग लगाते है तो राष्ट्र के नाम एक संदेश जारी हो जाता है। जिससे वे जनता से त्याग करने की अपील करते है। अब तुम्हीं बताओ... जनता बपुरी जिसे दो वक्त की दाल- रोटी नसीब होती है उसमें से किसको त्यागे दाल को या रोटी को। त्याग करना चाहिए इन गद्दी पर बैठे मुर्गों को लेकिन ये त्याग की कामना करते है जमीन पर बैठे चूजों से।' मैंने लम्बी हांकी।
'अच्छा बाबा जाओ... मुर्गा तो नहीं लेकिन अंडे लेते आओ।' पत्नी ने रियायत करते हुए मुर्गे के उद्गम स्थल को ही हजम कर जाने का सुझाव दिया।
'तुम भी कमाल करती हो, अंडा खाने को कहती हो लेकिन अंडे से बने मुर्गे को खाने से मना करती हो। क्या यही तुम्हारा गांधीवाद है?'
'बिल्कुल।' पत्नी ने अखबार दिखाते हुए कहा 'यह देखो राष्ट्रीय अंडा उत्पाद निगम का विज्ञापन- संडे हो या मंडे रोज खाओ अंडे। विज्ञापन के साथ यह संदेश भी - 'महात्मा गांधी ने कहा है कि अंडा शाकाहारी पदार्थ है।'
मैं अंडे लेने निकल पड़ा क्योंकि गांधीजी के बहाने पत्नी ने एक बार फिर मुझे मुर्गा बना दिया था। चलो, इस बहाने गांधीजी की बात तो हमने रखी।
संपर्क - मुक्तनगर, दुर्ग 491001 मो. 9407984014 Email- vinod.sao1955@gmail.com

1 comment:

दिलबागसिंह विर्क said...

सुंदर व्यंग्य
सचमुच नाम के गाँधी बहुत हैं , गाँधीवाद मर रहा है