- के. जयलक्ष्मी
भवनों में हरित तकनीकों का इस्तेमाल करने से न केवल ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम होगा, बल्कि बिजली व पानी पर लागत भी घटेगी। इसके लिए डिजाइन के स्तर पर सटीक योजना बनाने और सही सामग्री व उपकरणों का इस्तेमाल करने की जरूरत होगी।
आज दुनिया की 40 फीसदी से अधिक ऊर्जा का इस्तेमाल भवनों में होता है। इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) के एक अनुमान के अनुसार वर्ष 2050 तक 38 फीसदी ऊर्जा का इस्तेमाल भवनों में होने लगेगा। इस प्रक्रिया में 3800 मेगाटन कॉर्बन उत्सर्जित होगा।
वल्र्डवॉच इंस्टीट्यूट के अनुसार दुनिया के ताजे पानी का छठवां हिस्सा भवनों में इस्तेमाल होता है। कुल जितनी लकड़ी पैदा होती है, उसका एक चौथाई हिस्सा और उसकी सामग्री व ऊर्जा का 40 फीसदी हिस्सा भी भवनों पर खर्च होता है।
यदि भवनों का निर्माण ग्रीन डिजाइन के सिद्धांतों के आधार पर किया जाए तो 40 प्रतिशत या उससे भी अधिक ऊर्जा बचाई जा सकती है। एक अन्य अध्ययन बताता है कि हरित भवनों की रहवास क्षमता में 6 से 26 फीसदी तक की बढ़ोतरी की जा सकती है और इस तरह श्वसन संबंधी बीमारियों में 9 से 20 फीसदी तक की कमी संभव है।
आईपीसीसी की चतुर्थ आकलन रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि भवनों में इस्तेमाल होने वाली ऊर्जा से उत्सर्जित कॉर्बन डाइऑक्साइड की मात्रा में वर्ष 2020 तक 29 फीसदी तक की कमी की जा सकती है और वह भी बगैर किसी अतिरिक्त लागत के। रिपोर्ट का आकलन है कि इस क्षेत्र को 70 फीसदी तक अधिक ऊर्जा कुशल बनाया जा सकता है।
भारत में निर्माण उद्योग हर साल 13 प्रतिशत की दर से विकास कर रहा है। खर्च, कच्ची सामग्री के इस्तेमाल और इसके पर्यावरणीय प्रभावों के मद्देनजर यह उद्योग एक बड़ी भूमिका में है। भारत में इस तरह का कोई बेसलाइन आंकड़ा उपलब्ध नहीं है कि भवनों में ऊर्जा का कितना इस्तेमाल होता है। लेकिन केंद्रीय ऊर्जा मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार सरकारी भवनों में इस्तेमाल होने वाली कुल बिजली का 20 से 25 फीसदी हिस्सा गलत डिजाइन की वजह से बर्बाद हो जाता है। इससे एक अरब रुपए से अधिक का नुकसान होता है।
हालांकि अब स्थिति बदलती नजर आ रही है। वर्ष 2003 में भारत में हरित भवन केवल 20 हजार वर्गफीट में ही थे। आज इसका व्यवसाय ढाई करोड़ वर्गफीट तक की लंबी छलांग लगा चुका है। यहां हरित भवन व्यवसाय की बाजार क्षमता 15 हजार करोड़ रुपए से भी अधिक है।
भारत में 80 फीसदी से अधिक प्रोजेक्ट्स को लीड रेटिंग (लीडरशिप इन एनर्जी एंड एनवॉयरमेंटल डिजाइन - एलईईडी रेटिंग) मिली हुई है। हालांकि देश में ऐसे पेशेवरों की जरूरत बहुत ज्यादा है जो इन भवनों के निर्माण और संचालन प्रक्रिया की निगरानी कर सकें। हरित भवन तकनीक ऊर्जा, पानी और अन्य प्राकृतिक संसाधनों का टिकाऊ इस्तेमाल सुनिश्चित करती है। लीड रेटिंग मानव एवं पर्यावरण स्वास्थ्य के पांच प्रमुख क्षेत्रों में प्रदर्शन को मान्यता देकर पूर्ण भवन एप्रोच को बढ़ावा देती है। ये पांच क्षेत्र हैं - स्थल का टिकाऊ विकास, पानी की बचत, ऊर्जा दक्षता, सामग्री का चयन और घर के अंदर पर्यावरणीय गुणवत्ता। हालांकि इनमें से कुछ पहलू भारत के संदर्भ में प्रासंगिक नहीं हैं। यही वजह है कि भारत के संदर्भ में नई रेटिंग प्रणाली अपनाई गई - लीड इंडिया फॉर कोर एण्ड शैल और लीड इंडिया फॉर न्यू कंस्ट्रक्शन।
बड़े बिल्डर तो अपनी ब्राांडिंग के लिए यह प्रमाणीकरण हासिल करने को उत्सुक होंगे, लेकिन जरूरत इस बात को लेकर जागरूकता पैदा करने की है कि हरित भवनों के निर्माण से बिजली और पानी के बिलों में कितनी ज्यादा बचत संभव है। इस बारे में आम तौर पर लोगों को जानकारी नहीं है।
हरित भवनों के सम्बंध में सबसे बड़ी हिचक इस बात को लेकर है कि इनके निर्माण में सामान्य भवनों की तुलना में छह फीसदी पूंजी अधिक लगती है। लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि केवल पूंजीगत लागत ही अधिक होती है। अन्य लगातार होने वाले खर्च इसमें घटते जाते हैं और इस तरह बढ़ी हुई पूंजीगत लागत की भरपाई एक या दो साल में हो सकती है।
कर्नाटक के गुलबर्गा स्थित पुलिस मुख्यालय में ऐसा वास्तु अपनाया गया कि एयरकंडीशनर की जरूरत न पड़े। यहां गर्मियों के दौरान पारा 45 डिग्री सेल्सियस से ऊपर पहुंच जाता है। लेकिन इस भवन में बिजली की बचत 23 फीसदी और पानी की बचत 47 फीसदी रही। इस भवन को लीड रेटिंग मिली जो इस बात का सबूत है कि वहां कार्यरत कर्मचारी बेहद आरामदायक स्थितियों में काम करते हैं।
क्या करना होगा
एक हरित भवन की सबसे अहम जरूरत यह है कि उसमें अधिकतम ऊर्जा कार्य-निष्पादन होना चाहिए ताकि वहां के रहवासियों को वांछित तापमान और उचित प्रकाश मिल सके। अधिकतम ऊर्जा कार्य-निष्पादन किसी भवन की डिजाइन में ऐसी सौर ऊर्जा तकनीकों (पैसिव सिस्टम) व भवन निर्माण सामग्री का इस्तेमाल करने से प्राप्त होगा जिनसे परंपरागत प्रणालियों जैसे एचवीएसी पर न्यूनतम भार आए। पैसिव सिस्टम प्राकृतिक स्रोतों जैसे सूर्य का प्रकाश, हवा और वनस्पतियों का इस्तेमाल कर भवन में रहने वालों के लिए उचित तापमान व प्रकाश की सुविधा प्रदान करता है।
ठंडे मौसम वाले क्षेत्र में स्थित किसी भवन के लिए ऐसे उपाय अपनाना जरूरी है कि सूर्य से मिलने वाली गर्मी का अधिकतम दोहन किया जा सके। इंसुलेशन का निर्माण और चमक रहित दोपहर की रोशनी ऐसी ही कुछ विशेषताएं हैं। भवन का एक हिस्सा जमीन के भीतर रहने से भी अंदरूनी तापमान को नियंत्रित करने में मदद मिलती है। हवा व सूर्य की रोशनी के आगमन या अवरोध में किसी भी भवन के लैंडस्केप की अहम भूमिका होती है। टेरेस गार्डन घर को अंदर से शीतल रख सकता है।
स्पेस कंडिशनिंग की अवधारणा में भूमिगत वायु सुरंगों के नेटवर्क का इस्तेमाल किया जाता है। ये सुरंगें जमीन के नीचे एक निश्चित गहराई में बिछाई जाती हैं जहां तापमान स्थिर रहता है। इससे भवन के अंदर के तापमान को स्थिर रखने में मदद मिलती है। शीर्ष पर समतल प्लेट वाली सौर चिमनी गर्म हवा को निकलने का रास्ता देकर पूरे भवन को हवादार बनाती है। एट्रिअम से प्राकृतिक प्रकाश आता है और कृत्रिम रोशनी पर निर्भरता कम होती है।
एचवीएसी
बिजली का 40 फीसदी हिस्सा एचवीएसी (गर्मी, हवा और वातानुकूलन) पर खर्च होता है, जबकि 20 फीसदी प्रकाश पर। सौर ऊर्जा की वास्तु अवधारणा के साथ पारंपरिक प्रणालियों (एचवीएसी) पर लोड कुछ साधारण उपायों से काफी हद तक कम किया जा सकता है। ये उपाय इस तरह हैं: 1. भवन और अन्य सहायक सुविधाओं के लिए रोशनी की व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए कि बर्बादी रोकी जा सके। 2. यह तय कर लें कि रात के समय भवन के कौन-से हिस्से रोशन रहेंगे और किस समयावधि के दौरान। 3. यह पता करने के लिए कि प्रकाश का न्यूनतम स्वीकार्य स्तर क्या होना चाहिए, यह जानना भी जरूरी है कि अमुक जगह रोशनी का वास्तविक मकसद क्या है। 4. ऊर्जा दक्ष बल्ब और लैम्प का ही इस्तेमाल करना चाहिए। 5. प्रकाश और अन्य आउटडोर विद्युत संचालित क्रियाओं के लिए ऊर्जा के नवीकरणीय स्रोतों का इस्तेमाल करना चाहिए।
किसी हरित भवन के निर्माण में सबसे महत्त्वपूर्ण घटक इस्तेमाल की जाने वाली सामग्री होती है, लेकिन उसी की सर्वाधिक उपेक्षा की जाती है। हमारे भवन के मानक केवल संचालन ऊर्जा को कम करने पर ध्यान देते हैं और अन्य महत्त्वपूर्ण कारकों जैसे पानी, अवशिष्ट पदार्थों, घर के अंदर के वायु प्रदूषण, कच्ची निर्माण सामग्री, नवीकरणीय ऊर्जा का इस्तेमाल इत्यादि को यूं ही छोड़ दिया जाता है। उनमें सन्निहित यानी एम्बेडेड ऊर्जा पर फोकस नहीं होता है।
निर्माण सामग्री
मिट्टी से र्इंट और र्इंट से सीमेंट, ग्लास और प्लास्टिक की तरफ रुझान का मतलब है विकेंद्रीकृत व्यवस्था से केंद्रीकृत व्यवस्था की ओर जाना। इससे सामग्री का दूर- दूर से परिवहन बढ़ा है। इसका मतलब है बड़ी मात्रा में जीवाश्म र्इंधन का उपयोग और फिर कॉर्बन का उत्सर्जन। इससे भवनों में एम्बेडेड ऊर्जा का तत्व काफी बढ़ गया है।
आर्किटेक्चर पत्रिका कनेडियन आर्किटेक्ट ने करीब 30 निर्माण सामग्रियों की एम्बेडेड ऊर्जा की गणना की है। इनमें सबसे ज्यादा एम्बेडेड ऊर्जा एलुमिनियम में पाई गई जो 227
मेगाजूल प्रति किलो है। अन्य निर्माण सामग्री की एम्बेडेड ऊर्जा के लिए तालिका देखें।
बैंगलूरु स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस ने विभिन्न निर्माण सामग्रियों का इस्तेमाल करने वाले भवनों का तुलनात्मक आकलन किया। इसमें पाया गया कि एक बेहद मजबूत क्रांकीट निर्मित बहुमंजिला इमारत में ऊर्जा की अधिकतम खपत 4.21 गीगाजूल प्रति वर्ग मीटर रही, जबकि र्इंटों से बनी पारंपरिक दो मंजिला इमारत में यही खपत 2.92 गीगाजूल प्रति वर्ग मीटर रही, जो 30 फीसदी कम है।
कई आर्किटेक्ट और भवन निर्माता पारंपरिक निर्माण सामग्रियों जैसे मिट्टी, चिकनी मिट्टी, सूखी घास, पत्थर, लकड़ी और बांस को लेकर अभिनव प्रयोग कर रहे हैं। उनका दावा है कि इसमें प्लास्टर की कोई जरूरत नहीं होती है और इस तरह निर्माण की लागत भी कम हो जाती है।
भारत भवन निर्माण की पारंपरिक विधियों से बहुत कुछ सीख सकता है। उदाहरण के लिए जैसलमेर का किला, वहां की हवेलियों और गलियों को देखा जा सकता है। पारे के 50 डिग्री सेल्सियस तक पहुंचने के बावजूद वहां रहने वालों को कोई दिक्कत नहीं होती क्योंकि इन इमारतों में ऐसे तरीके अपनाए गए हैं जिनसे गर्मी परावर्तित हो सके और हवा प्रवेश कर सके। एक अन्य उदाहरण गुलबर्गा का है। वहां के पुराने भवनों में छोटे प्रवेश द्वारों के साथ मोटी- मोटी बाहरी दीवारें बनी हुई हैं। इससे बाहर की गर्मी अंदर नहीं आ पाती। इनकी छतें ठोस मिट्टी से बनी हुई हैं। सभी कमरों की डिजाइन ऐसी है कि वे बीच में स्थित आंगन में खुलते हैं। इससे उनमें भरपूर हवा आती- जाती है।
गर्मी को रोकने के लिए आधुनिक तरीके के रूप में हाई परफार्मेंस ग्लास का इस्तेमाल किया जाता है। इससे पारंपरिक ग्लास की तुलना में ऊर्जा में 35 से 40 फीसदी तक की बचत हो सकती है, लेकिन लागत दुगनी आती है। और फिर ग्लास में एम्बेडेड ऊर्जा बहुत ज्यादा होती है।
ग्लास का इतना अधिक इस्तेमाल इसलिए होता है क्योंकि इसे लगाना आसान होता है और इसे ऐसी टिकाऊ सामग्री के रूप में बेचा जाता है जिस पर पेंटिंग इत्यादि की भी कोई जरूरत नहीं होती। लेकिन कोई भी इस बात को नहीं समझना चाहता कि इसमें कितनी ऊर्जा समाई रहती है। इसे महसूस करना हो तो आप अपने शहर की ऐसी इमारत के सामने खड़े हो जाइए जो ग्लास से बनी हो। आपको तापमान का एहसास हो जाएगा।
कांक्रीट का जंगल
कांक्रीट और ग्लास से गर्मी भवन के अंदर ही बनी रहती है। इसी वजह से एयर कंडीशनरों पर लोड बढ़ जाता है। दुनिया भर के शहरों में गर्मी के टापू बनने का यह एक प्रमुख कारण है। कार्यालयों में वातानुकूलन के सम्बंंध में एक अन्य समस्या कूलिंग की है। जरूरी 23 से 26 डिग्री के बजाय अधिकांश जगहों पर यह तापमान 17-18 डिग्री सेल्सियस होता है। इसका मतलब है बिजली की और अधिक खपत।
व्यावसायिक इमारतों में पानी के इस्तेमाल को लेकर बहुत कम आंकड़े उपलब्ध हैं, लेकिन घरों में 30 फीसदी पानी केवल टॉयलेट फ्लश में बह जाता है (प्रति फ्लश 10 लीटर)। चूंकि पानी का संकट दिनों-दिन गहराता ही जा रहा है, इसका समाधान आज की सबसे बड़ी जरूरत है। हरित भवनों में पानी की खपत पारंपरिक इमारतों की तुलना में 30-40 फीसदी तक कम होती है। अधिकांश हरित भवन ऐसे होते हैं जिनसे एक भी बूंद पानी या सीवेज में बहने वाला पानी उनके परिसर को छोड़कर नहीं जाता। सारा वहीं इस्तेमाल हो जाता है।
पुराने भवनों में थोड़ा-सा सुधार कर उन्हें सक्षम बनाया जा सकता है। बिजली और पानी की कमी के इस दौर में यह बहुत जरूरी हो गया कि हम इन संसाधनों का संरक्षण करें और उनका किफायत से इस्तेमाल करें। (स्रोत फीचर्स)
स्वेच्छा से या बलपूर्वक?
हरित भवन तकनीक का इस्तेमाल स्वेच्छापूर्वक होना चाहिए या कानून के जरिए? अतीत में देखने में आया है कि ऊर्जा ऑडिट से देश में कुछ लोगों को पैसा कमाने का एक नया माध्यम मिल गया। भारत में पहले से ही भवन निर्माण सम्बंधी दो कोड लागू हैं। एक राष्ट्रीय भवन कोड और दूसरा ऊर्जा संरक्षण भवन कोड (ईसीबीसी) जिसे ब्यूरो ऑफ एनर्जी एफिशिएंसी ने जारी किया है। ये दोनों कोड मोटे तौर पर स्वैच्छिक हैं। हाल ही में ईसीबीसी को व्यावसायिक भवनों के लिए अनिवार्य कर दिया गया, लेकिन सरकारी भवनों को अब भी इससे मुक्त रखा गया है।
ईसीबीसी उस भवन पर लागू होता है जहां 500 किलोवॉट या उससे अधिक का लोड है और जिसका इस्तेमाल व्यावसायिक रूप से किया जा रहा है। यह मुख्यत: भवन के वेंटिलेटिंग, हीटिंग, कूलिंग और लाइटिंग सिस्टम पर निगरानी रखता है। यह आवासीय, सरकारी, कृषि और औद्योगिक इकाइयों पर लागू नहीं होता। क्यों?
अलबत्ता, ईसीबीसी कुछ और पहलुओं जैसे वैकल्पिक एयर कंडीशनिंग सिस्टम, थर्मल स्टोरेज, छत के पंखे और रेगुलेटर्स, पानी का पुन: इस्तेमाल या रिसाइक्लिंग, रेन वॉटर हार्वेस्टिंग, एम्बेडेड ऊर्जा, सामग्री, बिजली बचाने वाली प्रकाश व्यवस्था, पार्किंग स्थल और उसकी प्रकाश व्यवस्था व वेंटिलेशन इत्यादि की उपेक्षा करता है।
आज दुनिया की 40 फीसदी से अधिक ऊर्जा का इस्तेमाल भवनों में होता है। इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) के एक अनुमान के अनुसार वर्ष 2050 तक 38 फीसदी ऊर्जा का इस्तेमाल भवनों में होने लगेगा। इस प्रक्रिया में 3800 मेगाटन कॉर्बन उत्सर्जित होगा।
वल्र्डवॉच इंस्टीट्यूट के अनुसार दुनिया के ताजे पानी का छठवां हिस्सा भवनों में इस्तेमाल होता है। कुल जितनी लकड़ी पैदा होती है, उसका एक चौथाई हिस्सा और उसकी सामग्री व ऊर्जा का 40 फीसदी हिस्सा भी भवनों पर खर्च होता है।
यदि भवनों का निर्माण ग्रीन डिजाइन के सिद्धांतों के आधार पर किया जाए तो 40 प्रतिशत या उससे भी अधिक ऊर्जा बचाई जा सकती है। एक अन्य अध्ययन बताता है कि हरित भवनों की रहवास क्षमता में 6 से 26 फीसदी तक की बढ़ोतरी की जा सकती है और इस तरह श्वसन संबंधी बीमारियों में 9 से 20 फीसदी तक की कमी संभव है।
आईपीसीसी की चतुर्थ आकलन रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि भवनों में इस्तेमाल होने वाली ऊर्जा से उत्सर्जित कॉर्बन डाइऑक्साइड की मात्रा में वर्ष 2020 तक 29 फीसदी तक की कमी की जा सकती है और वह भी बगैर किसी अतिरिक्त लागत के। रिपोर्ट का आकलन है कि इस क्षेत्र को 70 फीसदी तक अधिक ऊर्जा कुशल बनाया जा सकता है।
भारत में निर्माण उद्योग हर साल 13 प्रतिशत की दर से विकास कर रहा है। खर्च, कच्ची सामग्री के इस्तेमाल और इसके पर्यावरणीय प्रभावों के मद्देनजर यह उद्योग एक बड़ी भूमिका में है। भारत में इस तरह का कोई बेसलाइन आंकड़ा उपलब्ध नहीं है कि भवनों में ऊर्जा का कितना इस्तेमाल होता है। लेकिन केंद्रीय ऊर्जा मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार सरकारी भवनों में इस्तेमाल होने वाली कुल बिजली का 20 से 25 फीसदी हिस्सा गलत डिजाइन की वजह से बर्बाद हो जाता है। इससे एक अरब रुपए से अधिक का नुकसान होता है।
हालांकि अब स्थिति बदलती नजर आ रही है। वर्ष 2003 में भारत में हरित भवन केवल 20 हजार वर्गफीट में ही थे। आज इसका व्यवसाय ढाई करोड़ वर्गफीट तक की लंबी छलांग लगा चुका है। यहां हरित भवन व्यवसाय की बाजार क्षमता 15 हजार करोड़ रुपए से भी अधिक है।
भारत में 80 फीसदी से अधिक प्रोजेक्ट्स को लीड रेटिंग (लीडरशिप इन एनर्जी एंड एनवॉयरमेंटल डिजाइन - एलईईडी रेटिंग) मिली हुई है। हालांकि देश में ऐसे पेशेवरों की जरूरत बहुत ज्यादा है जो इन भवनों के निर्माण और संचालन प्रक्रिया की निगरानी कर सकें। हरित भवन तकनीक ऊर्जा, पानी और अन्य प्राकृतिक संसाधनों का टिकाऊ इस्तेमाल सुनिश्चित करती है। लीड रेटिंग मानव एवं पर्यावरण स्वास्थ्य के पांच प्रमुख क्षेत्रों में प्रदर्शन को मान्यता देकर पूर्ण भवन एप्रोच को बढ़ावा देती है। ये पांच क्षेत्र हैं - स्थल का टिकाऊ विकास, पानी की बचत, ऊर्जा दक्षता, सामग्री का चयन और घर के अंदर पर्यावरणीय गुणवत्ता। हालांकि इनमें से कुछ पहलू भारत के संदर्भ में प्रासंगिक नहीं हैं। यही वजह है कि भारत के संदर्भ में नई रेटिंग प्रणाली अपनाई गई - लीड इंडिया फॉर कोर एण्ड शैल और लीड इंडिया फॉर न्यू कंस्ट्रक्शन।
बड़े बिल्डर तो अपनी ब्राांडिंग के लिए यह प्रमाणीकरण हासिल करने को उत्सुक होंगे, लेकिन जरूरत इस बात को लेकर जागरूकता पैदा करने की है कि हरित भवनों के निर्माण से बिजली और पानी के बिलों में कितनी ज्यादा बचत संभव है। इस बारे में आम तौर पर लोगों को जानकारी नहीं है।
हरित भवनों के सम्बंध में सबसे बड़ी हिचक इस बात को लेकर है कि इनके निर्माण में सामान्य भवनों की तुलना में छह फीसदी पूंजी अधिक लगती है। लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि केवल पूंजीगत लागत ही अधिक होती है। अन्य लगातार होने वाले खर्च इसमें घटते जाते हैं और इस तरह बढ़ी हुई पूंजीगत लागत की भरपाई एक या दो साल में हो सकती है।
हरित भवनों के निर्माण से बिजली और पानी के बिलों में कितनी ज्यादा बचत संभव है। इस बारे में आम तौर पर लोगों को जानकारी नहीं है।
क्या करना होगा
एक हरित भवन की सबसे अहम जरूरत यह है कि उसमें अधिकतम ऊर्जा कार्य-निष्पादन होना चाहिए ताकि वहां के रहवासियों को वांछित तापमान और उचित प्रकाश मिल सके। अधिकतम ऊर्जा कार्य-निष्पादन किसी भवन की डिजाइन में ऐसी सौर ऊर्जा तकनीकों (पैसिव सिस्टम) व भवन निर्माण सामग्री का इस्तेमाल करने से प्राप्त होगा जिनसे परंपरागत प्रणालियों जैसे एचवीएसी पर न्यूनतम भार आए। पैसिव सिस्टम प्राकृतिक स्रोतों जैसे सूर्य का प्रकाश, हवा और वनस्पतियों का इस्तेमाल कर भवन में रहने वालों के लिए उचित तापमान व प्रकाश की सुविधा प्रदान करता है।
ठंडे मौसम वाले क्षेत्र में स्थित किसी भवन के लिए ऐसे उपाय अपनाना जरूरी है कि सूर्य से मिलने वाली गर्मी का अधिकतम दोहन किया जा सके। इंसुलेशन का निर्माण और चमक रहित दोपहर की रोशनी ऐसी ही कुछ विशेषताएं हैं। भवन का एक हिस्सा जमीन के भीतर रहने से भी अंदरूनी तापमान को नियंत्रित करने में मदद मिलती है। हवा व सूर्य की रोशनी के आगमन या अवरोध में किसी भी भवन के लैंडस्केप की अहम भूमिका होती है। टेरेस गार्डन घर को अंदर से शीतल रख सकता है।
स्पेस कंडिशनिंग की अवधारणा में भूमिगत वायु सुरंगों के नेटवर्क का इस्तेमाल किया जाता है। ये सुरंगें जमीन के नीचे एक निश्चित गहराई में बिछाई जाती हैं जहां तापमान स्थिर रहता है। इससे भवन के अंदर के तापमान को स्थिर रखने में मदद मिलती है। शीर्ष पर समतल प्लेट वाली सौर चिमनी गर्म हवा को निकलने का रास्ता देकर पूरे भवन को हवादार बनाती है। एट्रिअम से प्राकृतिक प्रकाश आता है और कृत्रिम रोशनी पर निर्भरता कम होती है।
एचवीएसी
बिजली का 40 फीसदी हिस्सा एचवीएसी (गर्मी, हवा और वातानुकूलन) पर खर्च होता है, जबकि 20 फीसदी प्रकाश पर। सौर ऊर्जा की वास्तु अवधारणा के साथ पारंपरिक प्रणालियों (एचवीएसी) पर लोड कुछ साधारण उपायों से काफी हद तक कम किया जा सकता है। ये उपाय इस तरह हैं: 1. भवन और अन्य सहायक सुविधाओं के लिए रोशनी की व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए कि बर्बादी रोकी जा सके। 2. यह तय कर लें कि रात के समय भवन के कौन-से हिस्से रोशन रहेंगे और किस समयावधि के दौरान। 3. यह पता करने के लिए कि प्रकाश का न्यूनतम स्वीकार्य स्तर क्या होना चाहिए, यह जानना भी जरूरी है कि अमुक जगह रोशनी का वास्तविक मकसद क्या है। 4. ऊर्जा दक्ष बल्ब और लैम्प का ही इस्तेमाल करना चाहिए। 5. प्रकाश और अन्य आउटडोर विद्युत संचालित क्रियाओं के लिए ऊर्जा के नवीकरणीय स्रोतों का इस्तेमाल करना चाहिए।
किसी हरित भवन के निर्माण में सबसे महत्त्वपूर्ण घटक इस्तेमाल की जाने वाली सामग्री होती है, लेकिन उसी की सर्वाधिक उपेक्षा की जाती है। हमारे भवन के मानक केवल संचालन ऊर्जा को कम करने पर ध्यान देते हैं और अन्य महत्त्वपूर्ण कारकों जैसे पानी, अवशिष्ट पदार्थों, घर के अंदर के वायु प्रदूषण, कच्ची निर्माण सामग्री, नवीकरणीय ऊर्जा का इस्तेमाल इत्यादि को यूं ही छोड़ दिया जाता है। उनमें सन्निहित यानी एम्बेडेड ऊर्जा पर फोकस नहीं होता है।
निर्माण सामग्री
मिट्टी से र्इंट और र्इंट से सीमेंट, ग्लास और प्लास्टिक की तरफ रुझान का मतलब है विकेंद्रीकृत व्यवस्था से केंद्रीकृत व्यवस्था की ओर जाना। इससे सामग्री का दूर- दूर से परिवहन बढ़ा है। इसका मतलब है बड़ी मात्रा में जीवाश्म र्इंधन का उपयोग और फिर कॉर्बन का उत्सर्जन। इससे भवनों में एम्बेडेड ऊर्जा का तत्व काफी बढ़ गया है।
आर्किटेक्चर पत्रिका कनेडियन आर्किटेक्ट ने करीब 30 निर्माण सामग्रियों की एम्बेडेड ऊर्जा की गणना की है। इनमें सबसे ज्यादा एम्बेडेड ऊर्जा एलुमिनियम में पाई गई जो 227
मेगाजूल प्रति किलो है। अन्य निर्माण सामग्री की एम्बेडेड ऊर्जा के लिए तालिका देखें।
बैंगलूरु स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस ने विभिन्न निर्माण सामग्रियों का इस्तेमाल करने वाले भवनों का तुलनात्मक आकलन किया। इसमें पाया गया कि एक बेहद मजबूत क्रांकीट निर्मित बहुमंजिला इमारत में ऊर्जा की अधिकतम खपत 4.21 गीगाजूल प्रति वर्ग मीटर रही, जबकि र्इंटों से बनी पारंपरिक दो मंजिला इमारत में यही खपत 2.92 गीगाजूल प्रति वर्ग मीटर रही, जो 30 फीसदी कम है।
कई आर्किटेक्ट और भवन निर्माता पारंपरिक निर्माण सामग्रियों जैसे मिट्टी, चिकनी मिट्टी, सूखी घास, पत्थर, लकड़ी और बांस को लेकर अभिनव प्रयोग कर रहे हैं। उनका दावा है कि इसमें प्लास्टर की कोई जरूरत नहीं होती है और इस तरह निर्माण की लागत भी कम हो जाती है।
भारत भवन निर्माण की पारंपरिक विधियों से बहुत कुछ सीख सकता है। उदाहरण के लिए जैसलमेर का किला, वहां की हवेलियों और गलियों को देखा जा सकता है। पारे के 50 डिग्री सेल्सियस तक पहुंचने के बावजूद वहां रहने वालों को कोई दिक्कत नहीं होती क्योंकि इन इमारतों में ऐसे तरीके अपनाए गए हैं जिनसे गर्मी परावर्तित हो सके और हवा प्रवेश कर सके। एक अन्य उदाहरण गुलबर्गा का है। वहां के पुराने भवनों में छोटे प्रवेश द्वारों के साथ मोटी- मोटी बाहरी दीवारें बनी हुई हैं। इससे बाहर की गर्मी अंदर नहीं आ पाती। इनकी छतें ठोस मिट्टी से बनी हुई हैं। सभी कमरों की डिजाइन ऐसी है कि वे बीच में स्थित आंगन में खुलते हैं। इससे उनमें भरपूर हवा आती- जाती है।
गर्मी को रोकने के लिए आधुनिक तरीके के रूप में हाई परफार्मेंस ग्लास का इस्तेमाल किया जाता है। इससे पारंपरिक ग्लास की तुलना में ऊर्जा में 35 से 40 फीसदी तक की बचत हो सकती है, लेकिन लागत दुगनी आती है। और फिर ग्लास में एम्बेडेड ऊर्जा बहुत ज्यादा होती है।
ग्लास का इतना अधिक इस्तेमाल इसलिए होता है क्योंकि इसे लगाना आसान होता है और इसे ऐसी टिकाऊ सामग्री के रूप में बेचा जाता है जिस पर पेंटिंग इत्यादि की भी कोई जरूरत नहीं होती। लेकिन कोई भी इस बात को नहीं समझना चाहता कि इसमें कितनी ऊर्जा समाई रहती है। इसे महसूस करना हो तो आप अपने शहर की ऐसी इमारत के सामने खड़े हो जाइए जो ग्लास से बनी हो। आपको तापमान का एहसास हो जाएगा।
कांक्रीट का जंगल
कांक्रीट और ग्लास से गर्मी भवन के अंदर ही बनी रहती है। इसी वजह से एयर कंडीशनरों पर लोड बढ़ जाता है। दुनिया भर के शहरों में गर्मी के टापू बनने का यह एक प्रमुख कारण है। कार्यालयों में वातानुकूलन के सम्बंंध में एक अन्य समस्या कूलिंग की है। जरूरी 23 से 26 डिग्री के बजाय अधिकांश जगहों पर यह तापमान 17-18 डिग्री सेल्सियस होता है। इसका मतलब है बिजली की और अधिक खपत।
व्यावसायिक इमारतों में पानी के इस्तेमाल को लेकर बहुत कम आंकड़े उपलब्ध हैं, लेकिन घरों में 30 फीसदी पानी केवल टॉयलेट फ्लश में बह जाता है (प्रति फ्लश 10 लीटर)। चूंकि पानी का संकट दिनों-दिन गहराता ही जा रहा है, इसका समाधान आज की सबसे बड़ी जरूरत है। हरित भवनों में पानी की खपत पारंपरिक इमारतों की तुलना में 30-40 फीसदी तक कम होती है। अधिकांश हरित भवन ऐसे होते हैं जिनसे एक भी बूंद पानी या सीवेज में बहने वाला पानी उनके परिसर को छोड़कर नहीं जाता। सारा वहीं इस्तेमाल हो जाता है।
पुराने भवनों में थोड़ा-सा सुधार कर उन्हें सक्षम बनाया जा सकता है। बिजली और पानी की कमी के इस दौर में यह बहुत जरूरी हो गया कि हम इन संसाधनों का संरक्षण करें और उनका किफायत से इस्तेमाल करें। (स्रोत फीचर्स)
स्वेच्छा से या बलपूर्वक?
हरित भवन तकनीक का इस्तेमाल स्वेच्छापूर्वक होना चाहिए या कानून के जरिए? अतीत में देखने में आया है कि ऊर्जा ऑडिट से देश में कुछ लोगों को पैसा कमाने का एक नया माध्यम मिल गया। भारत में पहले से ही भवन निर्माण सम्बंधी दो कोड लागू हैं। एक राष्ट्रीय भवन कोड और दूसरा ऊर्जा संरक्षण भवन कोड (ईसीबीसी) जिसे ब्यूरो ऑफ एनर्जी एफिशिएंसी ने जारी किया है। ये दोनों कोड मोटे तौर पर स्वैच्छिक हैं। हाल ही में ईसीबीसी को व्यावसायिक भवनों के लिए अनिवार्य कर दिया गया, लेकिन सरकारी भवनों को अब भी इससे मुक्त रखा गया है।
ईसीबीसी उस भवन पर लागू होता है जहां 500 किलोवॉट या उससे अधिक का लोड है और जिसका इस्तेमाल व्यावसायिक रूप से किया जा रहा है। यह मुख्यत: भवन के वेंटिलेटिंग, हीटिंग, कूलिंग और लाइटिंग सिस्टम पर निगरानी रखता है। यह आवासीय, सरकारी, कृषि और औद्योगिक इकाइयों पर लागू नहीं होता। क्यों?
अलबत्ता, ईसीबीसी कुछ और पहलुओं जैसे वैकल्पिक एयर कंडीशनिंग सिस्टम, थर्मल स्टोरेज, छत के पंखे और रेगुलेटर्स, पानी का पुन: इस्तेमाल या रिसाइक्लिंग, रेन वॉटर हार्वेस्टिंग, एम्बेडेड ऊर्जा, सामग्री, बिजली बचाने वाली प्रकाश व्यवस्था, पार्किंग स्थल और उसकी प्रकाश व्यवस्था व वेंटिलेशन इत्यादि की उपेक्षा करता है।
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