- रवि श्रीवास्तव
पद्मश्री सम्मानों की स्थिति गरीब की भौजाई से बदतर हो चली है। जिसे देखो वहीं हाथ ठोक रहा है। सूची हर साल बढ़ती जाती है। बढ़ती हुई सूची के साथ विवाद भी बढ़ता जाता है। एक दूसरे को नीचा दिखाने का मौन संघर्ष भी चलता दिखाई देता है। राज्यों की राजधानियों से लेकर देश की राजधानी तक दलालों का एक वर्ग सक्रिय है। उनका अपना नेटवर्क है। वे ठेका लेकर सम्मान दिलवाने का वादा करते हैं। इसके लिए मोटी रकम की डिमांड भी बनी रहती है। देश और लोकतंत्र का इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या हो सकता है। सबसे महत्वपूर्ण सम्मानों के पीछे दलाल लग गए। यही हाल रहा तो साल दर साल ये पुुरस्कार अपनी चमक खोते जाएंगे। लोग लेने से परहेज करते नजर आएं तो आश्चर्य नहीं। गत दो वर्षों की सूची देखने मिली। खासकर पद्मश्री सम्मानों की सूची। एक बारगी ऐसा लगा कि पॉलिथिन की छोटी-छोटी थैलियों में चिरौंजी दाना और मूंगफल्ली प्रसाद की शक्ल में भक्तों के बीच निर्विकार भाव में बांटा जा रहा हो।
शाम के समय घूमने निकलने की तैयारी में था। एक परिचित सज्जन आ धमके। भला चाहने वालों में से हंै। आते ही बोले- आप तो एप्लाई कीजिए। आपका एप्लाई करना जरुरी है। इतना कहकर वे कुर्सी पर बिराजमान हुए। मुझे रिटायर हुए तीन माह बीते थे। मैंने कहा- 'अभी तो रिटायर हुए तीन माह बीते हैं।' मैं और कहीं काम का इच्छुक नहीं हूं। वे बोले 'हम नौकरी के लिए एप्लाई की बात नहीं कर रहे हैं। ये दूसरे किस्म का एप्लाई है। आप समझ नहीं पा रहे हैं।' इसके आगे वे बोल नहीं पा रहे थे। मैंने कहा देखिए। पिछले एक माह से अपने छोटे से कस्बेनुमा शहर में विदेश यात्रा की बड़ी चर्चा रही है। खासकर बैकांक की। जिसे देखो, वहीं पासपोर्ट दफ्तर की ओर राजधानी भागा जा रहा है। लेकिन मेरी कोई दिलचस्पी विदेश यात्रा में नहीं है। अपना घर फूंककर तमाशा देखने से क्या फायदा। और अब उमर भी नहीं रही पटाया, बैंकाक घूमने की। मेरी बात सुनकर और मेरे चेहरे पर आई परेशानी देखकर वे तुरंत बोले- 'आप समझे नहीं, हमें समझाने लगे दरअसल हम पद्मश्री के लिए एप्लाई करने की बात कह रहे हैं।Ó इतना कहकर वे मुसकुराने लगे। मुझे उनकी मुसकुराहट में पद्म सम्मान की झलक दिखाई दी।
मैंने लम्बी सांस लेते हुए सिर पर हाथ फेरा चेहरे के हावभाव को विनम्र बनाते हुए बोला- 'मैं और पद्मश्री? मैं तो अपने को इस लायक नहीं समझता।' वे कुर्सी के हत्थे को ठोकते हुए बोले- 'भाई साहब। ऐरे- गैरे जब एप्लाई कर रहे हैं तब आप क्यों नहीं? आप तो उनसे कई गुणा प्रतिभा सम्पन्न है।' मैंने कहा- ये प्रतिष्ठित पुरस्कार हैं। इसे कोई ऐरा- गैरा नहीं पा सकता। ऐसा कहना इन सम्मानों का अपमान है। जो पा चुके, उनका भी अपमान है। मेरी बात सुनकर वे खीजते हुए बोले- 'इसमें मान- अपमान की क्या बात है, जो है सो है। सही- गलत सब नजर आता है। मैं कहता हूं ऐरे- गैरे सम्मान पाने के लिए लगे हुए हैं। नथ्थू- खैरे तो कब के पा चुके हैं। और आप कहते हैं, अपमान हो रहा है। दरअसल समाज के बुद्धिजीवियों का अपमान हो रहा है। आप जैसे काबिल लोगों के एप्लाई नहीं करने से नथ्थू खैरे मजा मार रहे है। इसीलिए तो आपके पास आए हैं। हम कल ही पूरी जानकारी लेकर आते हैं। आप तैयार रहिए।' इतना कहकर वे हल्के हुए। गुबार निकला। बिना चाय पिए चल दिए। ये अलग किस्म का अहसान है। मैं उन्हें दूर तक जाता देख रहा हूं।
वे दो दिन बाद फिर आए। मैंने पद्मश्री के लिए आवेदन करने से साफ मना कर दिया। वे निराश हुए। थोड़ी देर चुप रहने के बाद उचकते हुए बोले- 'यह आपका आखिरी फैसला है।' मैंने कहा- 'ऐसे मामलों में मैं अपना इरादा नहीं बदलता। अपने को फिलहाल इस लायक नहीं समझता।' वे तुरंत बोले- 'आप मुझे आशीर्वाद दीजिए।' 'आशीर्वाद तो दे ही दूंगा। लेकिन यह तो मालूम हो कि मैं किस शुभकार्य या उपलब्धि के लिए आशीर्वाद दे रहा हूं।' वे गंभीर मुखमुद्रा बनाकर बोले- 'अब मैं स्वयं पद्मश्री प्राप्त करने के लिए एप्लाई करूंगा। इसकी शुरुआत, आपके आशीर्वाद से।' अब चौंकने की मेरी पारी थी। मैं चौंका नहीं। मुसकुराया। घर में मिठाई थी। उनका मुंह मीठा कराया। एक चारित्रिक प्रमाणपत्र भी दिया, जो आवेदन के साथ नत्थी होता है। वे लौट रहे हैं। मुड़- मुड़ कर देखते हुए। मेरा घर ही कुछ ऐसा बना है कि जाता हुआ व्यक्ति दूर तक दिखाई देता है। मैं खुश हूं, बला मेरे सर से टली। इससे अच्छा शब्द फिलहाल मुझे सूझ नहीं रहा है।
बाहरी दरवाजे से भीतर लौटते हुए देश के वरिष्ठतम गीतकार जानकीवल्लभ शास्त्री याद आए। उन्हें नब्बे वर्ष की उम्र में सरकार ने पद्मश्री देने की घोषणा की थी। उन्होंने इसे अपना घोर अपमान समझा। विनम्रता पूर्वक ठुकरा दिया। वे सम्मान लौटाकर सम्मानित हो गए। जितना मान देश भर में ठुकराने से बढ़ा उतना स्वीकार करने से शायद ही बढ़ता। अब तो सम्मान ऐरे-गैरे तक जा पहुंचा है। उसकी गरिमा अतीत के पन्नों में सिमट कर रह गई है। वर्तमान बेहद कडुवा। और भविष्य... नहीं लेने में सुरक्षित।
लेखक के बारे में : 19 दिसंबर 1942 ग्राम कोमा, राजिम में जन्म। शिक्षा : एमए (राजनीति, इतिहास) बीएड। काव्य संग्रह: पहाड़ पर चढ़ते पांव, नदी थकने नहीं देती, फौलाद ढालते हाथों के दिन। व्यंग्य संग्रह: लालबत्ती का डूबता सूरज। कहानी संग्रह: हाथों के दिन। भिलाई इस्पात संयंत्र शिक्षा विभाग से सेवानिवृत्त।
संपर्क: मकान नम्बर 20/बी, सड़क-30, सेक्टर- 10,
भिलाई नगर 490006
मो. 09300547033
इक्कीसवीं सदी से महज दो माह पूर्व कुछ नए राज्य अस्तित्व में आए। इन राज्यों में पद्म सम्मानों के प्रति स्वाभाविक जिज्ञासा बढ़ी। बढ़ते चली गई। जिज्ञासा इस हद तक बढ़ी, पूरा समाज जिज्ञासु हो गया। ऐसा नहीं कि नया राज्य बनने से पहले सम्मानों के प्रति कोई जानकारी नहीं थी। लोगों को जानकारी तो थी लेकिन सीमित। छब्बीस जनवरी के आसपास सम्मानों की घोषणा की परंपरा है। अखबार और टीवी के माध्यम से उसी समय चर्चा के केंद्र में रहते हैं। इधर के कुछ वर्षों में पूरे देश में सम्मानों को लेकर हलचल बढ़ी है। खासकर पद्मश्री को लेकर पाने वालों में होड़ मची है। डॉक्टरों का एक बड़ा वर्ग सक्रिय है। इनमें वे शामिल हैं जो बड़े नेताओं के फेमिली डॉक्टर होकर इलाज के बहाने उन्हें उपकृत करते हैं। अधिवक्ता वर्ग भी पीछे नहीं है। मामले- मुकदमें में फंसे नेताओं के मददगार बन अपना दावा सम्मान के लिए पुख्ता करते हैं। उद्योगपतियों के घरानों से निकले पप्पू और गप्पू किस्म के कारोबारी भी सक्रिय हैं। नवधनाढ्यों में लालसा बढ़ी है। खिलाडिय़ों की बड़ी संख्या हाथ धोकर पीछे पड़ी रहती है। मांगने वाले तो यहां तक मांगते हैं कि पूरी क्रिकेट टीम को पद्मश्री मिल जाए। बड़े-बड़े पदों से सेवानिवृत्त नौकरशाह और विदेश सेवा में कार्यरत नौकरशाहों की पूरी लॉबी में पद्मश्री की चर्चा गरम रहती है। कुछ पत्रकार तो ऐसे हैं कि उनके साल भर का लेखा-जोखा, लेखन प्रकाशन, पद्म सम्मानों के इर्द-गिर्द सिमटा रहता है। साहित्यकारों में गजब की होड़ है। साहित्य से लुंज-पूंज और उमर से थके हारे साहित्यकार लाईन में लगे-लगे थक गये हैं। उनका स्वाभिमान संस्कृति विभाग की सीढिय़ों पर है। कलाकार, लोक कलाकार, सिने अभिनेता इस मैराथन दौड़ में शामिल हैं। वे इस सितारा रूपी सम्मान को पाने दिन में सपनाते नजर आते हैं।वे दो दिन बाद फिर आए। मैंने पद्मश्री के लिए आवेदन करने से साफ मना कर दिया। वे निराश हुए। थोड़ी देर चुप रहने के बाद उचकते हुए बोले- 'यह आपका आखिरी फैसाल है।' मैंने कहा- 'ऐसे मामलों में मैं अपना इरादा नहीं बदलता। अपने को फिलहाल इस लायक नहीं समझता।' वे तुरंत बोले- 'आप मुझे आशीर्वाद दीजिए।'
पद्मश्री सम्मानों की स्थिति गरीब की भौजाई से बदतर हो चली है। जिसे देखो वहीं हाथ ठोक रहा है। सूची हर साल बढ़ती जाती है। बढ़ती हुई सूची के साथ विवाद भी बढ़ता जाता है। एक दूसरे को नीचा दिखाने का मौन संघर्ष भी चलता दिखाई देता है। राज्यों की राजधानियों से लेकर देश की राजधानी तक दलालों का एक वर्ग सक्रिय है। उनका अपना नेटवर्क है। वे ठेका लेकर सम्मान दिलवाने का वादा करते हैं। इसके लिए मोटी रकम की डिमांड भी बनी रहती है। देश और लोकतंत्र का इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या हो सकता है। सबसे महत्वपूर्ण सम्मानों के पीछे दलाल लग गए। यही हाल रहा तो साल दर साल ये पुुरस्कार अपनी चमक खोते जाएंगे। लोग लेने से परहेज करते नजर आएं तो आश्चर्य नहीं। गत दो वर्षों की सूची देखने मिली। खासकर पद्मश्री सम्मानों की सूची। एक बारगी ऐसा लगा कि पॉलिथिन की छोटी-छोटी थैलियों में चिरौंजी दाना और मूंगफल्ली प्रसाद की शक्ल में भक्तों के बीच निर्विकार भाव में बांटा जा रहा हो।
शाम के समय घूमने निकलने की तैयारी में था। एक परिचित सज्जन आ धमके। भला चाहने वालों में से हंै। आते ही बोले- आप तो एप्लाई कीजिए। आपका एप्लाई करना जरुरी है। इतना कहकर वे कुर्सी पर बिराजमान हुए। मुझे रिटायर हुए तीन माह बीते थे। मैंने कहा- 'अभी तो रिटायर हुए तीन माह बीते हैं।' मैं और कहीं काम का इच्छुक नहीं हूं। वे बोले 'हम नौकरी के लिए एप्लाई की बात नहीं कर रहे हैं। ये दूसरे किस्म का एप्लाई है। आप समझ नहीं पा रहे हैं।' इसके आगे वे बोल नहीं पा रहे थे। मैंने कहा देखिए। पिछले एक माह से अपने छोटे से कस्बेनुमा शहर में विदेश यात्रा की बड़ी चर्चा रही है। खासकर बैकांक की। जिसे देखो, वहीं पासपोर्ट दफ्तर की ओर राजधानी भागा जा रहा है। लेकिन मेरी कोई दिलचस्पी विदेश यात्रा में नहीं है। अपना घर फूंककर तमाशा देखने से क्या फायदा। और अब उमर भी नहीं रही पटाया, बैंकाक घूमने की। मेरी बात सुनकर और मेरे चेहरे पर आई परेशानी देखकर वे तुरंत बोले- 'आप समझे नहीं, हमें समझाने लगे दरअसल हम पद्मश्री के लिए एप्लाई करने की बात कह रहे हैं।Ó इतना कहकर वे मुसकुराने लगे। मुझे उनकी मुसकुराहट में पद्म सम्मान की झलक दिखाई दी।
मैंने लम्बी सांस लेते हुए सिर पर हाथ फेरा चेहरे के हावभाव को विनम्र बनाते हुए बोला- 'मैं और पद्मश्री? मैं तो अपने को इस लायक नहीं समझता।' वे कुर्सी के हत्थे को ठोकते हुए बोले- 'भाई साहब। ऐरे- गैरे जब एप्लाई कर रहे हैं तब आप क्यों नहीं? आप तो उनसे कई गुणा प्रतिभा सम्पन्न है।' मैंने कहा- ये प्रतिष्ठित पुरस्कार हैं। इसे कोई ऐरा- गैरा नहीं पा सकता। ऐसा कहना इन सम्मानों का अपमान है। जो पा चुके, उनका भी अपमान है। मेरी बात सुनकर वे खीजते हुए बोले- 'इसमें मान- अपमान की क्या बात है, जो है सो है। सही- गलत सब नजर आता है। मैं कहता हूं ऐरे- गैरे सम्मान पाने के लिए लगे हुए हैं। नथ्थू- खैरे तो कब के पा चुके हैं। और आप कहते हैं, अपमान हो रहा है। दरअसल समाज के बुद्धिजीवियों का अपमान हो रहा है। आप जैसे काबिल लोगों के एप्लाई नहीं करने से नथ्थू खैरे मजा मार रहे है। इसीलिए तो आपके पास आए हैं। हम कल ही पूरी जानकारी लेकर आते हैं। आप तैयार रहिए।' इतना कहकर वे हल्के हुए। गुबार निकला। बिना चाय पिए चल दिए। ये अलग किस्म का अहसान है। मैं उन्हें दूर तक जाता देख रहा हूं।
वे दो दिन बाद फिर आए। मैंने पद्मश्री के लिए आवेदन करने से साफ मना कर दिया। वे निराश हुए। थोड़ी देर चुप रहने के बाद उचकते हुए बोले- 'यह आपका आखिरी फैसला है।' मैंने कहा- 'ऐसे मामलों में मैं अपना इरादा नहीं बदलता। अपने को फिलहाल इस लायक नहीं समझता।' वे तुरंत बोले- 'आप मुझे आशीर्वाद दीजिए।' 'आशीर्वाद तो दे ही दूंगा। लेकिन यह तो मालूम हो कि मैं किस शुभकार्य या उपलब्धि के लिए आशीर्वाद दे रहा हूं।' वे गंभीर मुखमुद्रा बनाकर बोले- 'अब मैं स्वयं पद्मश्री प्राप्त करने के लिए एप्लाई करूंगा। इसकी शुरुआत, आपके आशीर्वाद से।' अब चौंकने की मेरी पारी थी। मैं चौंका नहीं। मुसकुराया। घर में मिठाई थी। उनका मुंह मीठा कराया। एक चारित्रिक प्रमाणपत्र भी दिया, जो आवेदन के साथ नत्थी होता है। वे लौट रहे हैं। मुड़- मुड़ कर देखते हुए। मेरा घर ही कुछ ऐसा बना है कि जाता हुआ व्यक्ति दूर तक दिखाई देता है। मैं खुश हूं, बला मेरे सर से टली। इससे अच्छा शब्द फिलहाल मुझे सूझ नहीं रहा है।
बाहरी दरवाजे से भीतर लौटते हुए देश के वरिष्ठतम गीतकार जानकीवल्लभ शास्त्री याद आए। उन्हें नब्बे वर्ष की उम्र में सरकार ने पद्मश्री देने की घोषणा की थी। उन्होंने इसे अपना घोर अपमान समझा। विनम्रता पूर्वक ठुकरा दिया। वे सम्मान लौटाकर सम्मानित हो गए। जितना मान देश भर में ठुकराने से बढ़ा उतना स्वीकार करने से शायद ही बढ़ता। अब तो सम्मान ऐरे-गैरे तक जा पहुंचा है। उसकी गरिमा अतीत के पन्नों में सिमट कर रह गई है। वर्तमान बेहद कडुवा। और भविष्य... नहीं लेने में सुरक्षित।
लेखक के बारे में : 19 दिसंबर 1942 ग्राम कोमा, राजिम में जन्म। शिक्षा : एमए (राजनीति, इतिहास) बीएड। काव्य संग्रह: पहाड़ पर चढ़ते पांव, नदी थकने नहीं देती, फौलाद ढालते हाथों के दिन। व्यंग्य संग्रह: लालबत्ती का डूबता सूरज। कहानी संग्रह: हाथों के दिन। भिलाई इस्पात संयंत्र शिक्षा विभाग से सेवानिवृत्त।
संपर्क: मकान नम्बर 20/बी, सड़क-30, सेक्टर- 10,
भिलाई नगर 490006
मो. 09300547033
2 comments:
Samman maagaa nahin jaataa, diyaa jaataa hai. Samman praapt karane ke liye 'apply' karane se badaa apmaan aur kyaa ho sakataa hai? Koii bhii swaabhimaanii vyakti maang kar samman praapt karnaa nahin chaahegaa.
Sammaan maangaa nahin jaataa, diyaa jaataa hai. Iske liye 'apply' karne se badaa apmaan bhalaa aur kyaa ho saktaa hai? Koii bhii swaabhimaani vyakti na to 'apply' karegaa aur na koii guntaadaa hii lagaayegaa.
Post a Comment